Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 40
________________ समणः भगवान्: महावीरः श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शसफ १.-प्रश्नोत्थान. १.ते णं काले णं. ते णं समए णं समणे'त्ति 'श्रम तपसि खेदे च' इति वचनात् श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः; अथवा सह शोभनेन मनसा वर्तत इति समनाः, शोभनत्वं च मनसो व्याख्यातं स्तवप्रस्तावात् ; मनोमात्रसत्त्वस्य अस्तवत्वात् संगतं. वा यथा भवत्येवमणति भाषते, समो वा सर्वभूतेषु समणति–अनेकार्थत्वाद् धातूनां प्रवर्तते इति समणो निरुक्तिवशात्. 'भगवं' ति भगवान् ऐश्वर्यादियुक्तः पूज्य इत्यर्थः 'महावीरे'त्ति वीरः, 'शूर वीर विक्रान्तौ' इति वचनाद् रिपुनिराकरणतो विक्रान्तः, स च चक्रवादिरपि स्यात्, अतो विशिष्यतेमहांश्चासौ दुर्जयाऽऽन्तररिपुतिरस्करणाद् वीरश्चेति महावीरः, एतच्च देवैर्भगवतो गौणं नाम कृतम्. यदाह:-"अयले भयभेरवाणं, खंतिखमे परीसहोवसग्गाणं देवेहिं कए महावीरे"त्ति. 'आइगरे'त्ति आदौ प्रथमतः श्रुतधर्ममाचारादिग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरः, आदिकरत्वाच्चासौ किंविधः? इत्याहः-'तित्थगरे'त्ति तरन्ति तेन संसारसागरमिति तीर्थ प्रवचनम् , तदव्यतिरेकाचेह संघस्तीर्थम् , तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरः. तीर्थकरत्वं चास्य नान्योपदेशपूर्वकमित्यत आहः-'सहसंबुद्धे'त्ति सह आत्मनैव सार्धमनन्योपदेशत इत्यर्थः, सम्यग यथावत्, बुद्धो हेयो-पादेयो-पेक्षणीयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति सहसंबुद्धः. सहसंबुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्य सतः, पुरुषोत्तमत्वादित्यत आहः .४. [ ते णं काले णं, ते णं समए णं समणे' ति] ते काले, ते समये. श्रम अने खेद अर्थवाळा 'श्रम्' धातु उपरथी जे तप करे ते 'समण.' अथवा सारा मन सहित होय ते 'समण,' स्तुतिनो प्रसंग होवाथी मननुं सारापणुं व्याख्यात समजवं. अथवा मनोमात्र सत्त्वर्नु अस्तवपणुं-नहीं स्तुतिकरवा पणु-होवाथी संगत एटले जेई होय तेवू बोले ते 'समण' कहेवाय. वा, धातुओ अनेकार्थक होवाथी सर्व प्राणीओने विषे जे तुल्य प्रवर्ते ते निरुक्तिवशे 'सैमण' कहेवाय. [ 'भगवं'ति ] भगवान्-ऐश्वर्यादियुक्त, पूज्य. [ 'महावीरे 'त्ति ] महावीर पराक्रम अर्थवाळा 'शूर अने वीर' धातु उपरथी शत्रुओर्नु निराकरण करवामां विक्रांत अर्थात् वीर-पराक्रमो. पराक्रमी तो चक्रवर्ती वगेरे पण होय माटे विशेषणद्वारा भगवंत महावीरना पराक्रमिपणानी विशेषता बतावे छे:-दुर्जय रागद्वेषादिक आंतर शत्रुओर्नु निराकरण करवाथी महान्-मोटो जे वीर-पराक्रमी ते महावीर कहेवाय. भगवंतनुं आ (महावीर ) गौण-गुणनिष्पन्न-नाम देवताओए आप्यु छे. कयुं छे के:-"भैय-आकस्मिक विजळी वगेरेथी उत्पन्न थतां भयोमा अने भैरव-सिंह वगेरेथी थनारां भयोमा अचल होवाथी तथा परीषह अने उपसर्गाने क्षमापूर्वक सहन करनार होवाथी देवोए 'महावीर'ए प्रमाणे नाम कर्यु." ['आइगरे'त्ति] आदिकर-प्रथमथी आचारादि ग्रंथस्वरूप श्रुतधर्मसंबंधी अर्थना प्रणयन शील होवाथी भगवान् आदिकर छे. अने आदिकर होवाथी भगवान् केवा प्रकारना छे ? तेने माटे कहेछ:-"तित्थगरे'त्ति ] तीर्थकर--जेवडे संसार समुद्र तराय ते तीर्थ एटले प्रवचन अने प्रवचनथी अभिन्न होवाथी अहीं 'संघ' तीर्थ कहेवाय. भगवान् ए तीर्थने करवाना स्वभाववाळा होवाथी 'तीर्थकर' ए विशेषण आप्युं छे. वळी ते महावीरनुं तीर्थकरपणुं अन्यना उपदेशपूर्वक नथी माटे कहे छ:-[ 'सहसंबुद्धे'त्ति] सहसंबुद्धः अन्यना उपदेश बिना-आत्मानी ज साथे एटले जन्मथी ज हेय, उपादेय अने उपेक्षणीय पदार्थोने जे सारीरीते जाणे ते सहसंबुद्ध कहेवाय. भगवंतनुं सहसंबुद्धपणुं साधारण मनुष्यतरीकेनुं नथी पण पुरुषोत्तमत्वथी छे; माटे कहे छे: ५. 'पुरिसुत्तमे'त्ति पुरुषाणां मध्ये तेन तेन रूपादिनाऽतिशयेनोद्भूतत्वादूर्ध्ववर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः अथ पुरुषोत्तमत्वमेवास्य सिंहायुपमानत्रयेण समर्थयन्नाहः-'पुरिससीहेत्ति सिंह इव सिंहः, पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः. लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्य तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाप्यमाणस्याप्यभीतत्वात् , कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रहतिप्रवर्धमानामरशरीरकुब्जताकरणाचेति. तथा, 'पुरिसवरपुंडरीए'त्ति वरपुण्डरीकं प्रधानधवलसहस्रपत्रम् , पुरुष एव वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषवरपुण्डरीकम् . धवलत्वं चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वैश्च शुभानुभावैः शुद्धत्वात् । अथवा, पुरुषाणां तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिव वरच्छत्रमिव यः संतापातपनिवारणसमर्थत्वाद् भूषाकरणत्वाच्च स पुरुषवरपुण्डरीकमिति. तथा 'पुरिसवरगंधहात्थ'त्ति पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती. यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनाऽपि समस्तेतरहस्तिनो भज्यन्ते, तथा भगवतस्तदेशविहरणेन ईति-परचक्र-दुर्भिक्ष-डेमरमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति पुरुषवरगन्धहस्तीत्युच्यत इति. अत उपमात्रयात् पुरुषोत्तमोऽसौ. न चायं पुरुषोत्तम एव किंतु लोकस्याऽप्युत्तमः, लोकनाथत्वादेव. एतदेवाहः-'लोगणाहे'त्ति लोकस्य संज्ञिभव्यलोकस्य, नाथः प्रभुर्लोकनाथः. नाथत्वं च योग-क्षेमकारित्वम्. "योग-क्षेमकृन्नाथः" इति वचनात्. तच्चास्याऽप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन, लब्धस्य च परिपालनेनेति. लोकनाथत्वं च यथावस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनादेवेति; अत आह: ५. ['पुरिसुत्तमे'त्ति] पुरुषोत्तम-पुरुषोने विषे ते ते रूपादिक अतिशयोथी ऊर्ध्ववर्ती-उच्च-होवाथी उत्तम होय ते पुरुषोत्तम कहेवाय. हवे शास्त्रकार सिंहादि त्रण उपमाओ वडे भगवंतना पुरुषोत्तमपणानुं समर्थन करता कहे छे:-[ 'पुरिससिंहे'त्ति] पुरुषसिंह-सिंह एटले सिंहसमान, पुरुषरूप जे सिंह ते आदिकरः तीर्थकरः सहसबुद्धः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः १. प्र. छायाः-अचलो भयभैरवाणाम् , क्षान्तिक्षमः परीषहोपसर्गाणाम्, देवैः कृतो महावीर इति. २. एष एव पाठः श्रीकल्पसूत्रे महावीरचरिते एवम्:-"अयले भयभेरवाणं, परीसहोवसग्गाणं खंतिखमे, पडिमाणं पालए, धीमं, अरइरइसहे, दबिए, वीरिअसंपन्ने देवेहिं से नाम कये समणे भगवं महावीरे." ३. 'ईतिर्धान्याद्युपद्रवकारी प्रचुरो मूषकादिः प्राणिगणः'इति हैमः. ४. 'डमरो लुण्ट्यादिः' इति हैमः.-अनु. १. आ शब्दमा कथनार्थक 'अण्' धातु छे. २. आ शब्दमा कथनार्थक 'अण्' धातुनो 'प्रवृत्ति' अर्थ करवो. ३. आकस्मिक विद्युत्पातादि भय अने भैरव-सिंहादिजन्य भय तेमा अचल, बावीश परिषहोने अने देवजन्य, मनुष्यजन्य तथा तिर्यग् जन्य वगेरे उपसौने क्षमापूर्वक सहन करनार, भद्रादि प्रतिमाओ-अभिग्रह विशेषो-ना पालक, धीमान्, अरति अने रतिने सहन करनार, द्रव्य-गुणभाजन अथवा रागद्वेषरहित अने वीर्यसंपन्न होवाथी देवोए ते भगवाननुं नाम श्रमण भगवान् “महावीर" कर्यु; आवो पाठ कल्पसूत्रमा महावीरचरितमां छे.-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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