Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे.
शतक १.-प्रश्नोत्थान इते णं काले णं, तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे, आइगरे, तित्थ- ते काले, ते समये (श्रमण भगवान् महावीर) आदिकर, तीर्थकर, गरे, सहसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे, पुरिससीहे, पुरिसवरपुंडरीए, पुरिसवर- सहसंबुद्ध-स्वयं तत्त्वना ज्ञाता, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुंडरीकगंधहत्थी, लोगुत्तमे,लोगनाहे,[लोगहिए,] लोगपईवे,लोगपज्जोयगरे, पुरुषोमां उत्तम कमळसमान, पुरुषवरगंधैहस्ती-पुरुषोमां 'उत्तम अभयदए, चक्खुदए, मग्गदए, सरणदए, [घोहिदए,] धम्मदए, धम्म- गंधहस्तिसमान, लोकोत्तम, लोकनाथ, [लोकहितकर ], लोकप्रदीपदेसए, धिम्मनायगे, धम्मसारही, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी, अप्प- लोकमा प्रदीपसमान, लोकप्रद्योतकर-लोकमां प्रद्योत करनार, अभडिहयवरणाण-दसणधरे, वियदृछउमे, जिणे, जाणए, बुद्धे, बोहए, यदय-अभय देनार, चक्षुर्दय-नेत्रं देनार, मार्गदेय-मार्गने देनार,. मुत्ते, मोयए, सव्वण्णु, सव्वदरिसी, सिवमयलमरुअमणंतमक्खय- शरणदर्य-शरण देनार, [बोधिदय-सम्यक्त्वने देनार], धर्मदयमव्वाबाहमप्पुणरावित्तियं, सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव धर्मने देनार, धर्मदेशक, [धर्मनायक], धर्मसारथि-धर्मरूप रथना समोसरणं. * * * परिसा णिग्गया. * * * धम्मो कहिओ. सारथि, धर्मवरचातुरंतचक्रवर्ती-धर्मने विषे उत्तम चातुरंत चक्र* * * परिसा पडिगया.
वर्तिसमान, अप्रतिहत ज्ञानना अने दर्शनना धारण करनार, छगशठता-रहित, जिन-रागद्वेषना जीतनार, सकल तत्त्वना ज्ञायकजाणनार, बुद्ध, बोधक-तत्त्वोना जणावनार, मुक्त, मोचके मुकावनार, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवा श्रमण भगवान् महावीर शिव, सर्वबाधारहित, अचल, अरुज-रोगरहित, अनंत अनंत पदार्थ विषयक ज्ञानस्वरूप, अक्षय, व्याबाधरहित, पुनरावृत्तिरहित, 'सिद्धिगति' एवा प्रशस्तनामवाळा स्थानने संप्रापवानी इच्छावाळी (विहरे छे) यावत् समवसरण-समवसरण सुधीनू वर्णन जाणवू. *. * * सभा नीकळी.
* * * धर्म कह्यो. * * * सभा प्रतिगमी-पाछी गई. ३. 'ते-णं काले-ण ति 'ते' इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन् यत्र तद् नगरमासीत, 'ण' कारोऽन्यत्राऽपि वाक्यालंकारार्थः, यथा-'इमा णं भंते ! पुढवी' इत्यादिषु. काले अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थविभागलक्षणे, 'ते-णं' ति तस्मिन् यत्राऽसौ भगवान् धर्मकथामकरोत् , 'समए-णं'ति समये कालस्यैव विशिष्टे विभागे, अथवा तृतीयैवेयम्, ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन, तेन समयेन हेतुभूतेनैव, 'रायगिहे' त्ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभवः . 'कयेरे आगच्छइ दित्तरूवे ? इत्यादाविव. ततश्च राजगृहं नाम नगरं 'होत्थ' त्ति अभवत्. नन्विदानीमपि तन्नगरमस्तीत्यतः कथमुक्तमभवदिति ?. उच्यते-वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत्, न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात् कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् . 'वण्णओ' त्ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, ग्रन्थगौरवभयादिह तस्याऽलिखितत्वात्. स चैवम्-"रिस्थिमियसमिद्धे" ऋद्धं पुरभवनादिभिवृद्धम् , स्तिमितं स्थिरं स्वचक्रादिभयवर्जितत्वात् , समृद्धं धनधान्यादिविभूतियुक्तत्वात् , ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः. “पमुइयजणजाणवए" प्रमुदिता हृष्टाः प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावाद् जना नगरवास्तव्यलोकाः, जानपदाश्च जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र तत् प्रमुदितजनजानपदम्. इत्यादिर-औपपातिकात् सव्याख्यानोऽत्र दृश्यः. 'तस्स णं'
ईमूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः, आदिकरः, तीर्थकरः, सहसंबुद्धः, पुरुषोत्तमः, पुरुषसिंहः, पुरुषवरपुण्डरीकम् , पुरुषवरगन्धहस्ती, लोकोत्तमः, लोकनाथः, लोकहितः, लोकप्रदीपः, लोकप्रद्योतकरः, अभयदयः, चक्षुर्दयः, मार्गदयः, शरणदयः, बोधिदयः, धर्मदयः, धर्मदेशकः, धर्मनायकः, धर्मसारथिः, धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, अप्रतिहतवरज्ञान-दर्शनधरः, व्यावृत्तछया, जिनः, ज्ञायकः, बुद्धः, बोधकः, मुक्तः, मोचकः, सर्वज्ञः, सर्वदशी, शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिकं सिद्धिगतिनामधेय स्थानं संप्राप्नुकामो यावत् समवसरणम्. पर्षद् निर्गता. धर्मः कथितः. पर्षत् प्रतिगता.
१. श्रुत (आचारांगादिग्रंथखरूप) ना आदिकर-प्रथमथी करनार. २. तीर्थ (प्रवचन अथवा संघ) ना करनार. ३. पुरुषोमां उत्तम गंधहस्तिसमान एटले जेम गंधहस्तिना गंधथी पण बीजा बधा हाथीओ भागी जायछे तेम ज भगवंतना विहारथी दुर्भिक्ष, मरकी वगेरे नाशी जाय छे. ४. ज्ञानरूप नेत्रने देनार. ५. मोक्षरूप मार्गना दायक. ६. शरण-बाधारहितस्थान-निर्वाण-ने देनार. ७. त्रण समुद्रो अने चतुर्थ हिमालय ए चार पृथ्वीना अंतो छे, ते चतुरंत कहेवाय, ते चतुरंतनो खामी चातुरंत कहेवाय, अर्थात् समस्त पृथ्वीना खामी उत्तम चक्रवर्तिसमान भगवान् छे. ८. बाह्याभ्यंतर परिग्रहथी मुक्त-मुकाएला. ९. कर्मथी लोकोने मुकावनार. १. आ विशेषणो मुक्तावस्थाने आधीने छे. १०. रोगना कारण-शरीर अने मननो मुक्तस्थितिमा अभाव होवाथी रोगरहित. ११. ज्यां गया पछी पार्छ फरीथी संसारमा न अवतरवू पडे ते अपुनरावृत्तिक स्थान. १२. भगवंत तो मोक्षे अने संसारे उभयत्र समज होय छे, छता अहीं जे भगवंतनी मोक्षेच्छा बतावी छे ते औपचारिक छे.
१. प्र.छायाः-इयं भगवन् पृथिवी. २. प्र.छायाः-कतर आगच्छति दीप्तरूपः ? ३. अवसों भावानां पतत्प्रकर्षता, सोऽस्यामस्ति अवसर्पिणी इतिहैमः. ४. प्र.छायाः-ऋद्धस्तिमितसमृद्धम्. ५. प्र. छायाः-प्रमुदितजन-जानपदम्. ६. स चैवम्:-"आइण्णजणमणुस्सा, हलसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा, कुक्कुड-संडेयगामपउरा, उच्छु-जव-सालिकलिआ, गो-महिस-गवेलगप्पभूआ, आयारयंतचेइय-जुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला, उक्कोडिय-गायगंठिभेय-भड-तकर-खंडरक्खरहिआ, खेमा, निरुवद्दवा, सुभिक्खा, वीरात्थसुहावासा, अणेगकोडिकुडंवियाइण्णणिव्वुयसुद्दा, णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंवय-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंस-तूणइल-तुंबवीणियाऽणेगतालायराणुचरिआ, आरामुजाण-अगडतलाग-दीहिय-वप्पिणगुणोववेया, नंदणवणसंनिभप्पगासा, उम्बिद्धविउलगंभीरखायफलिहा, चक्क-य-मुसंढि-उरोह-सयग्घिजमलकवाडघण
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