Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 187
________________ शतक १.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १६७ के अने ते विशेष जीवपदमा कहेलो छ. माटे ज कहे छे के, ['एगिदिया जहा जीवा तहा माणिअन्व'त्ति ] [ 'जाव-मिच्छादसणसल्ले'] अहीं 'यावत्' शब्द मूकवाथी मान, माया, लोभ, वगैरे जाणवा. प्रेम-जे आसक्तिमा माया अने लोभनो स्वभाव अप्रकट छे ते आसक्ति प्रेग. द्वेष-अप्रकट क्रोध अने प्रेमादि अभिमानरूप जे मात्र अप्रीति ते द्वेष. कलह एटले राड-कजीओ. अभ्याख्यान एटले अछता दोषोनुं जाहेर करवं. पैशून्य एटले अछता दोषोनुं गुप्तपणे जाहेर करवं. परपरिवाद-विप्रकीर्णपणे बीजाओना गुण दोष कहेवा. [ 'अरइरइ'त्ति ] मोहनीयना उदयथी चित्तना उद्वेगरूप फलवाळी ते अरति, मोहनीयना उदयथी विषयोमा चित्तनी अभिरति ते रति अने ते बन्ने अरतिरति. मायामृषावाद एटले त्रीजा कषायनो अने बीजा आश्रवनो संयोग. आ, बधा संयोगोनुं उपलक्षण छे. अथवा मायामृषावाद एटले वेष बदलावीने के भाषा बदलावीने जे बीजाने ठग, ते. अनेक प्रकारनी पीडानुं मिथ्यादर्शन शल्य. कारण होवाथी मिथ्यादर्शन, शल्यनी पेठे छे माटे ते मिथ्यादर्शनशल्य छे. श्रमण भगवंत महावीर अने आर्य श्रीरोह. संबंधो-ते णं काले णं, ते णं समए णं समणस्स भगवओ संबंध-ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना शिष्य महावीरस्स अंतेवासी रोहे णाम अणगारे पगइभद्दए, पगइमउए, रोह नामना अनगार हता. जेओ स्वभावे मद्र, कोमळ, विनयी, पगइविणीए, पगइउवसंते, पगइपयणुकोह-माण-माया-लोभे, शांत, ओछा क्रोध, मान, माया अने लोभवाळा, अत्यंत निरभिमिउमद्दवसंपन्ने, अलीणे, भद्दए, विणीए समणस्स भगवओ मानी, गुरुने आशरे रहेनारा, कोइने संताप न करे तेवा अने महावीरस्स अदूरसामते उडुंजाणु, अहोसिरे, झाणकोहोवगए संज- गुरुभक्त हता. ते रोह नामना अनगार पोते उभडक रहेला, नीचे मेणं, तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ. तए णं से रोहे अणगारे नमेल मुखवाळा, ध्यानरूप कोठामा पेठेला तथा संयम अने तपवडे जायसड़े जाव-पज्जुवासमाणे एवं वदासी: आत्माने भावता श्रमण भगवंत महावीरनी आजुबाजु विहरे छे. पछी ते रोह नामना अनगार जातश्रद्ध थइ यावत्-पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्याः२१६. प्र०-पुब्धि भंते। लोए, पच्छा अलोए ? पुदि २१६. प्र०-हे भगवन् ! पहेलो लोक छे अने पछी अलोक अलोए, पच्छा लोए? छ ? के पहेलो अलोक छे अने पछी लोक छ ? २१६. उ०-रोहा! लोए य, अलोए य, पव्विं पेते, पच्छा २१६. उ०—हे रोह ! लोक अने अलोक, ए पहेलो पण छे पेते-दो वि ए सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा!. अने पछी पण छे. ए बन्ने पण शाश्वत भाव छे. हे रोह ! ए बेमां 'अमुक पहेलो अने अमुक पछी' एवो क्रम नथी. . २१७. प्र०—पुट्विं भंते ! जीवा, पच्छा अजीवा ? पुदि २१७. प्र०-हे भगवन् ! जीवो पहेला छे अने अजीवो पछी अजीवा पच्छा जीवा ? छ? के पहेला अजीवो छे अने पछी जीवो छ? २१७. उ०—जहेव लोए, अलोए य; तहेव जीवा य, अजीवा २१७. उ०—हे रोह ! जेम लोक अने अलोक विषे का य. एवं भवसिद्धिआ य अभवसिद्धिआ य, सिद्धी, असिद्धी. सिद्धा, तेम जीवो अने अजीवो संबंधे पण जाणवू. ए प्रमाणे भवसिद्धिको, असिद्धा. __ अने अभवसिद्धिको, सिद्धि अने असिद्धि-संसार तथा सिद्ध अने संसारिओ पण जाणवा. २१८. प्र०—पुग्विं भंते ! अंडए, पच्छा कुक्कुडी ? पुन्धि २१८. प्र०-हे भगवन् ! पहेलो इंडं छे अने पछी कुकडी कुक्कुडी, पच्छा अंडए ? 'रोहा ! से गं अंडए कओ? भयवं! छे ? के पहेलां कुकडी छे अने पछी इंडे छे 'हे रोह! ते इंडु कुक्कुडीओ. 'सा णं कुक्कुडी कओ?' 'भंते ! अंडयाओ.! क्याथी थयु ?' 'हे भगवन् ! ते इंई कुकडीथी थयु.' 'हे रोह ! ते कुकडी क्याथी थइ ?' 'हे भगवन् ! ते कुकडी इंडाथी थइ.' २१८. उ०—एवामेव रोहा! से य अंडए, सा य कक्कडी २१८. उ०—ए ज प्रमाणे हे रोह! ते इंडं अने ते कुकडी पुन्धि पेते, पच्छा पेते-दुवे सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा!. ए पहेलां पण छे अने पछी पण छे-ए शाश्वत भाव छे. पण हे रोह ! ते बेमां कोइ जातनो क्रम नथी. . १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तेवासी रोहो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः, प्रकृतिमृदुकः, प्रकृतिविनीतः, प्रकृत्युपशान्तः, प्रकृतिप्रतनुकोध-मान-माया-लोभः, मृदुमार्दवसम्पन्नः, अलीनः, भद्रकः, विनीतः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्वजानुः, अधःशिराः, ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन, तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति. तदा स रोहोऽनगारो जातश्रद्धो यावत्-पर्युपासीन एवम् अवादीत:-पूर्व भगवन्! लोकः, पश्चाद् अलोकः पूर्वम्-अलोकः, पश्चाद् लोकः ? रोह ! लोकश्च अलोकश्च, पूर्वम्-अपि एतौ, पश्चाद् अपि एतौ-द्वा अपि एतौ शाश्वतौ भावी अनानुपूर्वी एषा रोह! पूर्व भगवन् ! जीवाः, पश्चाद् अजीवा; पूर्वम्-अजीवाः, पश्चाद् जीवाः ? यथैव लोकः, अलोकश्च; तथैव जीवाश्थ, अजीवाश्च. एवं भवसिद्धिकाच,अभवसिदिकाश्च. सिद्धिः, असिद्धिः सिद्धाः,असिद्धाः. पूर्व भगवन् ! अण्डकम् , पश्चात् कुकुटी? पूर्वे कुकुटी, पश्चाद् अण्डकम् ? "रोह । तद् अण्डकं कुतः?' 'भगवन् ! कुकुट्याः ' 'सा कुकुटी कुतः? 'भगवन् ! अण्डकात्'. एवमेव रोह ! तद् अण्डकम् , सा च कुकुटी पूर्वम्-अपि एते पश्चाद् अपि एते-टी शाश्वती भावौ. अनानुपूर्वी एषा रोह !:-अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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