Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ समापन नो अर्थ, १८० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १.-उद्देशक ७. विनानो जे जीव ते 'अविग्रहगतिसमापन्न' कहेवाय. जो कदाच 'अविग्रहगतिसमापन्न' शब्दनो अर्थ 'सीधी गतिवाळो' एवोज करवामां आवे तो सूत्रमा कहेल 'अविग्गहगइसमावन्नगा' ए शब्दनो अर्थ एवो थशे के, नारकिमां सीधी-ऋजु-गतिवाळा जीवो घणा होय छे. अने आ सूत्रनो ए अर्थ थवाथी एबुं निर्णीत थइ जशे के, नारकिमा अविग्रहगतिवाळा घणा ज होय छे, पण एक, बे नथी होता. अने एवो अर्थ इष्ट नथी. कारण के शास्त्रो द्वारा एवं संभळाय छे के, 'नारकिमा अविग्रहगतिवाळा एक, बे जीवो पण उत्पन्न थाय छे' हवे जो पूर्वनो निर्णय कायम राखबामां आवे तो आ सांभळेली बात द्वारा ते अर्थमां बांधो आवशे अने ते पण इष्ट नथी. माटे 'अविग्रहगतिसमापन्न' शब्दनो अर्थ मात्र 'सीधी गतिवाळो' ज न करता, 'सीधी गतिवाळो के गति विनानो' एवो अर्थ करवो. अने एवो अर्थ करवाथी सांभळेली अने लखेली बन्ने वातो संगत थशे. कारण के 'अविग्रहगतिसमापन्न' नो पूर्व प्रमाणे अर्थ करवाथी सूत्रनो अर्थ आ प्रमाणे थशे-अविग्रहगतिसमापन्न एटले सीधी गतिवाळा के गति विनाना जीवो घणा होय छे. एम अर्थ थवाथी एवो एक अर्थ तो नहीं थाय के, नारकिमा मात्र सीधी गतिवाळा जीवो ज घणा होय छे अने एम अर्थ न थवाथी पेली सांभळेली वातने अने सूत्रमा कहेली अविग्रहगतिवाळानी बहुपणानी वातने मानवामां बाध नथी आवतो-माटे ते बन्ने वातने संगत करवा पूर्वे कया प्रमाणे ज 'अविग्रहगतिसमापन्न' शब्दनो अर्थ करवो. टीकाकारे तो कोइ पण अभिप्रायथी 'अविग्रहगतिसमापन्न' शब्दनो सीधी गतिवाळा' एवो ज अर्थ कों छे. ['जीवा णं भंते!'] इत्यादि प्रश्न सूत्र छे. जीवो अनंत होवाथी अने प्रत्येक समये विग्रह गतिवाळा तथा विग्रहगति विनाना जीवो घणा होवाने लीधे कहे छे केः-['विग्गहगई'इत्यादि.] जीवो करतां नारको थोडा होवाथी तेमां विग्रहगतिवाळानो कदाचित् असंभव होय छे अने संभव होय छतां पण तेमां विग्रहगतिवाळा एक, बे पण होय छे अने विग्रहगति विनाना जीवो हमेशा ज घणा होय छे, माटे कहे छे के, [ 'सव्वे वि ताव होज अविग्गह-' इत्यादि.] ए त्रण विकल्पो कह्या छे. असुरादि विषे ए ज वातने अतिदेशथी कहे छे के, [ 'एवं' इत्यादि. ] सामान्य जीवो अने एकेंद्रियो पूर्वोक्त युक्तिवडे विग्रहगतिवाळा अने विग्रहगति विनाना घणा ज होय छे माटे अहीं त्रण भांगा नथी कह्या. अने ए सिवाय तो त्रण ज भांगा' जाणवा. माटे कहे छे के, ['तिअभंगो' ति] अर्थात् त्रण भांगा. टीकाकार, अतिदेश. ३. गत्यधिकारात् च्यवनसूत्रम्-'महडिए' त्ति महर्द्धिको विमान-परिवाराद्यपेक्षया. 'महज्जुइए' त्ति महाद्युतिकः शरीरा-ऽऽभरणाद्यपेक्षया. 'महब्बले' त्ति महाबलः शारीरप्राणाऽपेक्षया. 'महायसे' त्ति महायशा बृहत्प्रख्यातिः. 'महेसक्खे' त्ति महेशो महेश्वर इति आख्याऽभिधानं यस्याऽसौ महेशाख्यः. 'महासोक्खे' ति क्वचित्. 'महाणुभावे' त्ति महाऽनुभावो विशिष्टवैक्रियादिकरणाऽचिन्त्यसामर्थ्यः. . 'अविउकंतियं चयमाणे' त्ति च्यवमानता किल उत्पत्तिसमयेऽपि उच्यते, इत्यत आहः-व्युत्क्रान्तिः उत्पत्तिः, तनिषेधाद् अव्युत्क्रान्तिकम् । अथवा व्यवक्रान्तिर्मरणम् , तन्निषेधाद् अव्यवक्रान्तिकम् , तद्यथा भवति एवं च्यवमानो-जीवन् एव मरणकाले इत्यर्थः. 'अविउकंतियं चयं चयमाणे' त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र च चयं शरीरम् , 'चयमाणे' त्ति त्यजन् , 'किंचिकालं' ति कियन्तमपि कालं यावद् नाऽऽहारयेद् इति योगः. कुतः ? इत्याह-हीप्रत्ययं लज्जानिमित्तम् , स हि च्यवनसमयेऽनुपक्रान्त एव पश्यति उत्पत्तिस्थानम् आत्मनः, दृष्ट्वा च तद् देवभवविसदृशं -पुरुषपरिभुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपं जहे इति हिया च नाऽऽहारयति. तथा जुगुप्साप्रत्ययं कुत्सानिमित्तं शुक्रादेरुत्पत्तिकारणस्य कुत्साहेतुत्वात्. 'परिसहवत्तिय ति इह प्रक्रमात् परीषहशब्देनाऽरतिपरिषहो ग्राह्यः, ततश्चाऽरतिपरीषहनिमित्तम् , दृश्यते चाऽरतिप्रत्ययाद् लोकेऽपि आहारग्रहणवैमुख्यमिति, आहारं मनसा तथाविधपुद्गलोपादानरूपम्. 'अहे ' ति अथ लज्जाऽऽदिक्षणाऽनन्तरमाहारयति, बभक्षावेदनीयस्य चिरं सोदुम् अशक्यत्वादिति. आहारिजमाणे आहारिए' इत्यादौ भावार्थः प्रथमसत्रवत. अनेन च । ष्ठाकालयोर् अभेदाऽभिधानेन तदीयाऽऽहारकालस्याऽल्पता उक्ता. तदनन्तरं च 'पहीणे य आउए भवइ' ति चः समुच्चये, प्रक्षीणं प्रहीणं वा आयुर्भवति, ततश्च यत्रोत्पद्यते मनुजत्वादौ 'तं आउयति तस्य मनुजत्वादेरायुस्तदा , प्रतिसंवेदयति अनुभवति इति. 'तिरिक्खजोणियाउयं वा' इत्यादौ देव-नारकाऽऽयुषोः प्रतिषेधः, देवस्य तत्राऽनुत्पादाद् इति. च्यवन. देववर्णन. ३. गतिनो अधिकार होवाथी हवे च्यवनसूत्र कहे छे केः-[महड्डिए' त्ति] विमान तथा परिवार वगैरेनी अपेक्षाए मोटी ऋद्धिवाळो, [ महज्जुइए' त्ति] शरीर तथा तेना घरेणानी अपेक्षाए मोटी कांतिवाळो, ['महब्बले'त्ति ] शारीरिक प्राणनी अपेक्षाए मोटा बलवाळो, [महायसे' त्ति] मोटी प्रख्यातिवाळो, [महेसक्खे' त्ति] 'महेश्वर' नामनो. कोइ ठेकाणे ['महासोक्खे' ति] पाठ छे तेनो अर्थ-मोटा सुखवाळो. ['महाणुभावे' ति] विशेष रीते अनेक जातनां रूपो करवा वगेरे क्रियामा अत्यंत बलवाळो, [ 'अविउक्कंतियं चयमाणे' ति] च्यवमानपणुं उत्पत्तिना वखते पण होय छे माटे कयुं छे के, 'अव्युत्क्रांतिक' एटले 'उत्पत्ति नहीं' अथवा 'अव्यवक्रांतिक' एटले 'मरण नहीं' अर्थात् च्यवतो-जीवतो ज मरवानी तैयारीवाळो. कोइ ठेकाणे ['अविउक्वंतियं चयं चयमाणे' ति] एवो पाठ छे. तेमां 'चय' एटले शरीरने 'चयमाणे' एटले छोडतो [ किंचिकालं'ति ] केटलोक काळ खाय पण नहीं. शा माटे ? तो कहे छे के, शरमाय छे माटे. कारण के ज्यारे देव मरवानी तैयारीमा होय छे त्यारे पोते ज्या उत्पन्न धवानो छे ते ठेकाणाने जोइने शरमाय छे. शरमावानुं कारण ए के, जे ठेकाणे पोताने उत्पन्न थवानुं छे ते ठेकाणुं पुरुषद्वारा भोगवाती स्त्रीनो गर्भाशय छे. अने ते देवना स्थान करतां नठारुं छे माटे ते शरमाय छे. अने तेथी ते आहार करतो नथी. बळी तेने घृणा आवे छे, तेनुं कारण ए के, पोतानी उत्पत्तिमां गंदकीरूप वीर्य वगेरे कारण छे एम ते जाणे छे अने तेथी तेने घृणा आवे छे. ['परिसहवत्तिय'ति ] 'परीषह' शब्दथी अहीं 'अरतिपरिषह' जाणवो. कारण के अहीं तेनुं प्रकरण होवाथी ते ज अर्थ घटी शके तेम छे. अने ते अरतिने लीधे-चेन न पडवाथी-ते देव आहार करतो नथी. लोकमां पण चेन न पडवाथी आहार नहीं करवानुं प्रसिद्ध छे. (देवनो) आहार एटले तथाविध पुद्गलोने मनथी ग्रहण करवा. [ 'अहे णं' ति] हवे लज्जा वगेरे थइ गया पछीना समये आहार करे छे. कारण के भूखथी थती पीडा लांबा काळ सुधी तेनाथी सहाती नथी. [ 'आहारिजमाणे आहारिएँ' ] इत्यादि सूत्रनो भावार्थ प्रथम प्रश्नना प्रथम सूत्रनी पेठे जाणवो. अने आ कथनथी शरुआतना अने समाप्तिना बखतनी एकता कहेवाइ माटे तेना (देवना) आहारना वखतनी अल्पता कहेली छे एम जाणवू अने आहार को बाद [ 'पहीणे शरम. घृणा. अरति, अप काळ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372