Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक २.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२३५ भगवं महावीरे. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीर व्यावृत्तभोजी (हमेशा महावीरं तिक्खत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, जाव-पज्जुवासइ. जमनार) हता. ते व्यावृत्तभोजी श्रमग भगवंत महावीरनं उदार.
शणगारेला जेवू, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्य, मंगलरूप, अलं, कारो-घरेणा-विना शोभतुं, सारां लक्षणो, व्यंजनो अने गुणोथी युक्त एवं शरीर शोभावडे अत्यंत शोभतुं हतुं. पछी ते कात्यायनगोत्रीय स्कंदक परिव्राजक, व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवंत महावीरनु पूर्व प्रकारचें उदार यावत्-शोभावडे अत्यंत शोभायमान शरीर जोइ हर्ष पाम्यो, तोष पाम्यो, आनंदयुक्त चित्तवाळो थयो, आनंद पाम्यो, प्रीतियुक्त मनवाळो थयो, परम सौमनस्यने पाम्यो तथा हर्षे करीने फुलाएल हृदयवाळो थइ ज्यां श्रमण भगवंत महावीर विराज्या छे ते तरफ जइ, श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रद
क्षिणा करी यावत्-तेओनी पर्युपासना करे छे. 'खंदया 'त्ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं पछी 'हे स्कंदक!' एम कही श्रमण भगवंत महावीरे कात्यायनएवं वयासी-से णणं तुम खंदया! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं गोत्रीय स्कंदक परिव्राजकने आ प्रमाणे कडं के:-हे स्कंदक ! नियंठेणं, वेसालियसावयेणं इणं अक्खेवं पुच्छिए-मागहा! किं श्रावस्ती नगरीमा रहेता वैशालिकश्रावक पिंगलक नामना निग्रंथे तने सते लोए, अणंते लोए ! एवं तं चेव जाव-जेणेव ममं आ प्रमाणे आक्षेप पूर्वक पूछ्युं हतुं के, 'हे मागध ! शुं लोक अंतिए तेणेव हव्वं आगए. से णूणं खंदया। अयमढे अंतवाळो छे के अंत विनानो छे ! ए बधू आगळ कह्या प्रमाणे समढे । हता, अस्थि. जे वि य ते खंदया। अयमेयारूवे अज्झ- जाणी लेवू, यावत्-तेना प्रश्नोथी मुंझाइने तुं मारी पासे शीघ्र थिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था-किं सअंते आव्यो छे.' हे स्कंदक! केम ए साची वात छे? (श्रीस्कंदके लोए, अणंते लोए०. तस्स वि य णं अयं अद्वे-एवं खलु मए कह्यु के,) हा, ते साची वात छे. बळी हे स्कंदक! तारा मनमा खंदया ! चउव्विहे लोए पनत्ते, तं जहाः-दव्वओ, खेत्तओ, जे आ प्रकारनो संकल्प थयो हतो के, 'शुं लोक अंतवाळो छे के कालओ, भावओ. दव्वओ णं एगे लोए सते, खेत्तओ णं लोए अंत विनानो छे ?' तेनो पण आ अर्थ छे:-हे स्कंदक! में लोकने असंखेजाओ जोअणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखे- चार प्रकारनो जणाव्यो छे. ते आ प्रमाणेः-द्रव्यथी-द्रव्यलोक. जाओ जोअणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ता, अस्थि पुण से क्षेत्रथी-क्षेत्रलोक. काळथी-काळलोक अने भावथी-भावलोक. तेमा अंते. कालओ णं लोए ण कयाइ न आसी, न कयाइ न भवइ, जे द्रव्यलोक छे ते एक छे अने अंतवाळो छे. जे क्षेत्रलोक छे ते न कयाइ न भविस्सइ, भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य. धुवे, असंख्य कोडाकोडी योजन सुधी लंबाइ अने पहोळाइवाळो छ, तथा णियए, सासए, अक्खए, अन्वए, अवहिए, णिचे नस्थि पुण से तेनो परिधि असंख्य योजन कोडाकोडीनो कहो छे. अने वळी तेनो अंते. भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा, गंध-रस-फासपज्जवा, अंत-छेडो-छे. तथा जे काळलोक छे ते कोइ दिवस न हतो एम अणंता संठाणपज्जवा, अणंता गरुअलहुअपज्जवा, अणंता अगरु- नथी, कोइ दिवस नथी एम नथी अने कोइ दिवस नहीं. हशे एम पण अलहुअपज्जवा; नत्थि पुण से अंते. सेत्तं खंदगा! दव्वओ नथी-ते हमेशा हतो, हमेशा होय छे अने हमेशा रहेशे-ते भुव, लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, कालओ लोए अणंते, भावओ नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे. वळी लोए अणंते. जे वि य ते खंदया। जाव-सअंते जीवे, अणंते तेनो अंत नथी. तथा जे भावलोक छे ते अनंत वर्णपर्यवरूप छे, जीवे, तस्स वि य णं अयं अद्वे-एवं खलु जाव-दबओ णं एगे अनंत गंध, रस अने स्पर्शपर्यवरूप छे, अनंत संस्थान (आकार) जीवे सते, खेत्तओ णं जीवे असंखेजपएसिए, असंखेजपएसोगाढे, पर्यवरूप छे, अनंत गुरुलघु पर्यवरूप छे तथा अनंत अगुरुलघु
१. मूलच्छायाः-भगवान् महावीरः, तेनैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति, यावत्-पर्युपास्ते 'स्कन्दक।' इति श्रमणो भगवान् महावीरः स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् एवम् अवादीत-तद नूनं त्वं स्कन्दका श्रावस्त्यां नगयों पिरलकेन निग्रेन्थेन, वैशालिकथावकेण इदम् आक्षेपं पृष्टः-मागध। किं सान्तो लोकः, अनन्तो लोकः ? एवं तथैव यावत्-येनैव ममाऽन्तिके तेनैव शीघ्रम् आगतः, तद् नून स्कन्दक! अयम् अर्थः समर्थः । हन्त, अस्ति. योऽपि च स स्कन्दक! अयम् एतद्रूप आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-कि सान्तो लोकः, अनन्तो लोकः.. तस्याऽपि चाऽयम् अर्थः-एवं खलु मया स्कन्दक! चतुर्विधो लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथाः-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः. द्रव्यतः एको लोकः सान्तः, क्षेत्रतो लोकोऽसंख्याता योजनकोटाकोट्य आयाम-विष्कम्भेण, असंख्येया योजनकोटाकोव्यः, परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः, अस्ति पुनस्तस्य अन्तः, कालतो लोको न कदाचिद् नासीत्, न कदाचिद् न भवति, न कदाचिद् न भविष्यति; अभूत् च, भवति च, भविष्यति च, धुवः, नियतः, शाश्वतः, अक्षतः, अव्ययः, अवस्थितः, निलः नास्ति पुनः तस्य अन्तः, भावतो लोकः अनन्ता वर्णपयवाः, गन्ध-रसपर्शपर्यवाः, अनन्ताः संस्थानपर्यवाः, अनन्ता गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ता अगुरुकलघुकपर्यवाः; नास्ति पुनस्तस्य अन्तः. तद् एतत् स्कन्दक! द्रव्यतो लोकः सान्तः, क्षेत्रतो लोकः सान्तः, कालतो लोकोऽनन्तः, भावतो लोकोऽनन्तः. योऽपि च स स्कन्दक! यावत्-सान्तो जीवः, अनन्तो जीवः,
तस्याऽपि चाऽयम् अर्थः-एवं खलु यावत्-यत एको जीवः सान्तः, क्षेत्रतो जीवोऽसंख्येयप्रदेशिकः, असंख्येयप्रदेशाऽवगाठः-अनु. Jain Education International
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