Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 264
________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक २.-उद्देशक १. बन्चं. तेए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं छे ! (श्रीस्कंदके का के,) हा ए साची वात छे. (श्रीमहावीरे अमणुनाए समाणे हद्व-तुट्ट० जाव-हयहियए उठाए उद्वेइ, कयुं के,) हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो, पण बिलंब उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणप्पयाहिणं न करो, पछी ते स्कंदक अनगार श्रमण भगवंत महावीरनी अनुकरेइ, जाव-नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहेइ, आरु- मति लइने हवाळा, तोषवाळा यावत्-विकसित हृदयवाळा थइने हित्ता समणा य, समणीओ य खामेइ. तहारवेहि थेरे िकडाई उभा थया. उभा थइ श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार प्रदक्षिणा हिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहेइ, मेहषणसचिगासं, आरोपे करी यावत्-नमस्कार करी पोतानी मेळे ज पांच महानतोने आरोपी साधु अने साध्वीओने खमावे छे, खमावी देवसन्निवायं पुढविसिलावट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चार- तेवा प्रकारना योग्य स्थविरो साथे विपुलपर्वत उपर धीमे धीमे 'पासवण-भूमि पडिलेहेइ, पडिलहिता, दम्भसंथारं (संथरड़) चडी. मेघना समूहनी जेवा प्रकाशवाळा अने देवना रहेठाणरूप संथरित्ता, पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसने करयलपरिग्गहियं पृथिवीशिलापट्टकने पडिलेहे-चारे बाजु तपासे-छे, तेम करी वडी दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासी:-नमोऽत्यु णं नीति अने लघु नीति करवाना स्थानने तपासे छे. पछी ते शिलाअरिहंताणं, भगवंताणं, जाव-संपत्ताणं. नमोऽत्थु णं समणस्स पट्टक उपर डाभनो संथारो पाथरी, पूर्व दिशामा मुख राखी, भगवओ महावीरस्स जाव-संपाविउकामस्स. बंदामि णं भगवंतं पर्यकासने बेसी, दशे नख सहित बन्ने हाथने भेगा करी-माथा तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगये इहगयं ति कटु वंदइ, साथे अडकावी-माथा साथे बन्ने हाथने जोडी आ प्रमाणे बोल्या 'नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी:-पबि पि मए समणस्स भगवओ के:-अरिहंत, भगवतने यावत्-अचळ स्वरूपने प्राप्त थएलाओने महावीरस्स अंतिए सब्बे पाणाइवाये पचक्खाए जावज्जीवाए, नमस्कार थाओ. तथा अचळ स्थानने पामवानी इच्छावाळा श्रमण जाव-मिच्छादसणसल्ले पञ्चक्खाए जावज्जीवाए. इयाणिं पि य णं भगवंत महावीरने नमस्कार थाओ. त्यां रहेला श्रमण भगवंत समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि महावीरने अहीं रहेलो हुं वां, छु, त्यां रहेला श्रमण भगवंत महाजावजीवाए, जाव-मिच्छादसणसलं पञ्चक्खामि. एवं सव्वं वीर अहीं रहेला मने जूओ. एम करीने भगवंतने वांदी, नमी असण-पाण-खाइम-साइमेणं चउन्विहं पि आहारं पच्चक्खामि आ प्रमाणे बोल्या के:-में पहेला पण श्रमण भगवंत महावीरनी जावजीवाए, 'जं पि य इमं सरीरं इ8, कंत, पियं, जाव-फसन्त पासे 'कोइ पण जीवनो विनाश न करवो-कोइ पण प्रकारे कोइने त्ति कट्ट एअंपिणं चरमेहिं उस्सासनीसासेहिं वोसिरिस्सामि ति दुःख न देवु' एवो नियम ज्यां सुधी जींदगी टके त्या सुधी लीधो कटु संलेहणा-झूसणाझूसिए, भत्त-पाणपडियाइक्खिए, पाओ- हतो अने यावत्-'वस्तुनुं ज्ञान, जेवी वस्तु होय तेवू ज करवू, वगए, कालं अणवकंखमाणे विहरइ. पण तेथी जूदुं के उलटुं न समजवु' एवो पण नियम ज्यां सुधी जी, त्यां सुधी पाळवानो निर्णय को हतो अने हमणां पण श्रमण १. मूलच्छाया:-ततः स स्कन्दकोऽनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्ट-तुष्टः यावत्-इतहृदय उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीर विकृत्व आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, यावत्-नमस्थित्वा खयमेव पञ्च महाव्रतानि आरोहति, आरुह्य श्रमणांश्च श्रमणींश्च क्षमयति, तथारूपैः स्थविरैः कृतादिभिः सार्धं विपुलं पर्वतं शनैः शनैः दूरोहति, मेघधनसग्निकाशम् , देवसन्निपातं पृथिवीशिलापट्टकं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य उच्चार-प्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं ( संस्तृणोति,) संस्तीर्य, पौरस्त्याऽभिमुखः संपल्यकनिषण्णः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाऽऽवत मस्तकेऽजलि कृला एवम् अवादीत:-नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः , भगवद्भ्यः, यावत्-संप्राप्तेभ्यः, नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत्-संप्राप्नुकामाय, वन्दे भगवन्तं तत्रगतम् इहगतः, पश्यतु मम भगवान् तत्रगत इहगतम् इति कृत्वा वन्दते, नमस्यति, नमस्यित्वा एवम् अवादीत:-पूर्वमपि मया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्ति के सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवम् , यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यातं यावजीवम् . इदानीमपि च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावजीवम् , यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि. एवं सर्वम् अशन-पान-खादिम-स्वादिमं चतुर्विधमपि आहार प्रत्याख्यामि यावनीवम् , यद् अपि च इदं शरीरम् इष्टम् , कान्तम् , प्रियम् , यावत्-स्पृशन्तु इति कृत्वा एतदपि चरमैः उच्छ्रासनिःश्वास व्युत्स्रक्ष्यामि इति कृत्वा संलेखना-जोषणाजुषितः प्रत्याख्यातभक्त-पानः पादपोपगतः, कालम् अनवकाङ्खमाणो विहरतिः-अनु. १. राजगृह ( जूओ पृ-१३ मार्नु १. गूजराती टिप्पण,) नगरथी अडधा गाउ जेटले छेटे पांच पहाडो आवेला छे:-१. विभारगिरि, २. वि. पुलगिरि, ३. उदयगिरि, ४. सुवर्ण(सोवन)गिरि, अने ५. रयण ( रत्न )गिरि. (जूओ पृ-१७-मांनु । आ निशानीवाळु टिप्पण.) ते पांच पहाडोमा एक विपुलपर्वत नामनो पहाड छे. प्रायः श्रीस्कंदके पण आ पहाड उपर जइने अनशन कर्य होय एम जाणी शकाय छे. 'श्रीसमेतशिखररास' (ए रास विक्रम संवत् १६६१ मां श्रीविजयदेवसरिना समये कल्याणविजय उपाध्यायना शिष्य जयविजये बनाव्यो छे अने तेमां जे हकीकत लखी छे ते प्रायः प्रथकारे नजरे जोएली छे.) नामना पुस्तकमां ए पहाडो संबंधे नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे: "वेभारगिरि थकी उतरी चढिउ निपुलगिरिंद रे । पट परिमाण एह जिणहरु पूज करें जिनचंद रे ॥६१॥ जयो० ॥ चोमुख एक उदयगिरि पंच सोवनगिरि जाण रे। रयणगिरि सिरि उपरि दोय प्रासाद चयाण रे ॥६॥ जयो॥पंच ए पर्वत फरसीया" x x x x वस्तु-विभारगिरिवर विभारगिरिवर उपरि । श्रीजिनविंब सोहामणां एकसो पंचास थुणीइ । नव विपुलगिरि उपरि उदयगिरि सिरि घ्यार भणीइ । वीस सोवनगिरि उपरि रयणगिरि सिरि पंच।"-(श्रीसमेतशिखररास, पृ०८रा-रा-चीमनलाल डाह्याभाई):-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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