Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक २.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र,
२४७ 8. आगळना प्रकरणमा संयमवाळा जीवना संसारनो बधारो, घटाडो अने सिद्धपणुं-संसारनो सर्वथा नाश-र बधु कयुं छे अने हवे तो पूर्वोक्त वात तथा बीजी वातोना व्युत्पादनने निमित्ते कंदकमुनिनु चरित्र कहेवानी इच्छावाळा मूळकार आ सूत्र कहे छ:-['ते णं काले ' आर्य श्रीस्कंदक. इत्यादि] [ 'उप्पन्ननाण-दसणधरे' ] आ पद साथे 'यावत्' शब्द मूकेलो छ माटे नीचे लखेला पदो वधारे जाणवा:-['अरहा' (अरिहंत ), 'जिणे (जिन) केवली' (केवलज्ञानी), 'सव्वन्नू' (सर्वज्ञ), 'सव्वदरिसी' (सर्वदर्शी-बधुं जोनार), 'आगासगएणं छत्तेणं' (आकाशमां अद्धर रहेल छत्रयुक्त)] इत्यादि समवसरण सुधीनी वर्णना कहेवी. [ 'गद्दभालस्स'त्ति ] गर्दभाल नामना परिव्राजकनो. ['रिडव्वेद-जजुव्वेद-सामवेद-अथव्वणवेद'
निवेश ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्वणवेद; ए चार वेदोनो, इतिहास एटले पुराण, ए पांचमुं छे अर्थात् वेद पछी एजें स्थान छे.. ['चउण्डं पुराण. वेयाणं ति] ए विशेष्यरूप पद छे. [ 'निग्घंटुछट्ठाणं' ति] निघंटु ए नामोनो कोश छे. ('संगोवंगाणं' ति ] वेदनां छ अंगो छे. जेम के शिक्षा, निघंटु अने शिक्षा कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंदशास्त्र अने ज्योतिःशास्त्र. तथा वेदना अर्थाने जे ग्रंथो विस्तारपूर्वक जणावे ते ( ग्रंथो ) वेदना उपांगो कहेवाय छे. वगेरे अंगो. ['सरहस्साणं' त्ति ] रहस्यवाळा ए वेदादिकने [ 'सारए' त्ति ] भणावे छे माटे तेनो प्रवर्तक छे अथवा जे कोइ बीजा लोको वेदादिकने विसरी गया छ तेने याद करावे छे माटे तेनो स्मारक-याद करावनार-छे. [ 'वारए' त्ति ] जे कोइ लोको वेदादिकनो अशुद्ध उच्चार करे छे तेनो अटकावनार छे माटे वारक छे. कोइ स्थळे [ 'धारए' त्ति ] एवो पाठ छे. तेनो अर्थ-भणेला वेदादिक शास्त्रोने नहीं भूलनार. [ 'पारए' त्ति ] वेदादिक शास्त्रनो पारंगत छे. 'षडङ्गवित् ' एटले पूर्व प्रमाणे नामवाळां शिक्षा वगेरे छ शास्त्रोनो जाणनार. ते नामो संबंधे हमणां विवेचन करवामां आवशे. शं०-'सांगोपांग वेदोनो जाणनार' एम आगळ कयुं छे, तो पछी अहीं 'छ अंगोने जाणनार' ए कहेवू नकामुं छे. कारण के 'सांगोपांग' शंका. एम कहेवाथी ज छ अंगो आवी जाय छे. माटे एक ज वातने फरीथी कहेवामां पुनरुक्ति दोष छे. छतां शामाटे एम कयुं ? समा०-आगळ जे समाधान. 'सांगोपांग' एवं विशेषण कयुं छे ते वेदोनो परिकर जणाववा कयुं छे. अथवा 'षडङ्गवित्' ए शब्दनो अर्थ 'छ अंगोने जाणनार' एम न करवो पण 'छ अंगोने विचारनार' एवो अर्थ करवो. एवो अर्थ करवाथी पुनरुक्ति दोष आवशे नहीं. कारण के आ अर्थ पूर्वना अर्थ करतां जूदो छे. [ 'सहितंतविसारए'त्ति] कपिलना शास्त्रने जाणनार, ['संखाणे' ति] गणित शास्त्रमा प्रवीण, 'वेदना छ अंगोने जाणे छे' ए वातने प्रकट करे गणित वगेरे भने छ:-[ 'सिक्खा-कप्पे' ति] अक्षरना खरूपने जणावनाएं शास्त्र ते शिक्षा, तथाप्रकारना आचारनु जणावनाएं शास्त्र ते कल्प, ते बन्ने शास्त्रमा, तथा शास्त्रो. ['वागरणे' त्ति ] व्याकरण-शब्द-शास्त्रमां, ['छंदे' त्ति] कविताना स्वरूप सूचक शास्त्रमां-पिंगळमां, [ 'निरुत्ते' त्ति ] शब्दनी व्युत्पत्ति दर्शक शास्त्रमा, ['जोइसामयणे' त्ति ] जोति शास्त्रमा, [ 'बंभण्णएसु'त्ति ] ब्राह्मण संबंधी, तथा [ 'परिव्वायएसुत्ति] परिव्राजक संबंधी दर्शन शास्त्रमा ते स्कंदक परिव्राजक प्रवीण हतो. ['नियंठे' ति ] निग्रंथ एटले श्रमण. ['वेसालिअसावए' त्ति] विशाला एटले श्रीमहावीरनी माता अर्थात् त्रिशला देवी, वैशालिक महावीर तेनो पुत्र ते वैशालिक-भगवान् महावीर. तेना वचननो रसिक होवाथी जे तेनुं वचन सांभळे ते वैशालिकश्रावक-श्रीमहावीरना वचनरूप अमृतने पीवामां लीन-एवो पिंगलक नामनो साधु हतो. [ 'इणमक्खेवं' ति] एणे आक्षेपपूर्वक ए प्रश्नने [ 'पुच्छे'त्ति] पूछ्यो. [ 'मागह' त्ति] मगध देशमां. प्रश्नपृच्छा. जन्मेलो माटे मागध. हे मागध!' ए शब्द संबोधनसूचक छे. ['वड्डइ' त्ति ] संसार वधवाथी वधे छे. [ 'हायइ' त्ति ] संसार घटवाथी घटे छे. [एतावं ताव' इत्यादि. ] एटला प्रश्नोने तो कहे अर्थात् एटलानो उत्तर आप्या पछी वळी बीजं कांइ पूछीश, ए तात्पर्य छे. [ 'संकिए' इत्यादि.] शंकादि.
आ प्रश्ननो अ॒ आ उत्तर छे के आ उत्तर छ ? ए प्रमाणे शंकाने पामेल, आ प्रश्न माटे आ उत्तर सारो नथी अने आ उत्तर पण ठीक नथी, तो हुं पूछनारने जवाब केवी रीते दइश ? ए रीते उत्तर मेळववानी आतुरतावाळो, हुं जे उत्तर आपीश तेथी पूछनारने संतोष थशे के केम-विश्वास आवशे के केम ? ए प्रमाणे डोळाइ गएल चित्तवाळो, 'हवे शुं करवू' ए रीते मुंझवणमां पडेलो, 'अरे!!! हुं आ संबंधे काइ जाणतो पण नथी ए प्रमाणे पोता उपर खिन्न थएलो ते स्कंदक तापस [ 'नो संचाएइ' त्ति ] शक्यो नहीं [पमोक्खं अक्खाइउं' ति ] उत्तर कहेवाने अर्थात् ते काइ' जवाब दइ शक्यो नहीं. प्रमोक्ष एटले जेवडे प्रश्नरूप बंधनथी छूटा थवाय ते-उत्तर.
५. 'महया जणसंमदे इ वा, जणबहे इ वा' इति. अत्र इदम्-अन्यद् दृश्यम्-"जणबोले इ वा, जणकलकले इ वा, जणुम्मी इ वा, जणुकलिया इ वा, जणसन्निवाए इ वा, बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु देवाणुप्पिया । समणे भगवं महावीरे, आइगरे, जाव-संपाविउकामे, पुव्वाणुपुग् िचरमाणे, गामाणुगाम दुइजमाणे कयंगलाए नयरीए, छत्तपलासए चेइए अहापडिरूवं उग्गई उगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ. तं महप्फल खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं, भगवंताणं नाम-गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसणपडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरिअस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?
[ 'एतावं ताव
उत्तर छ के आ उत्तर
ते उत्तर मेळववानी
भ्रमणो भगवान् महावीरः सासा'आत्मानं भावयन् विहरति. तद मानतया? एकस्य अपि आर्यस्य धामकारयामः, संमानयामः, कलकारखा
१. आ पदनी छट्ठी विभक्ति लोपाएली छे:-श्रीअभय०. २. "वर्ण-खराद्युञ्चारणप्रकारो यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा. (जे ग्रंथमा वर्ण अने खरोने बोलवानी रीत शिखवाय ते ग्रंथ शिक्षा-ऋग्वेदभाष्य-शब्दचिंतामणि पृ-१२५०):-अनु. ३. 'विद' धातुनो 'विचार' पण अर्थ छ:-श्रीअभय.
१.प्र. छायाः-जनबोलो वा, जनकलकलो वा, जनोमिर्वा, जनोत्कलिका वा, जनसंनिपातो वा, बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति-एवं खल देवानुप्रिय! श्रमणो भगवान् महावीरः आदिकरः, यावत्-संप्राप्नुकामः, पूर्वानुपूर्वी चरमाणः, ग्रामानुग्रामं द्रवन् कृतजलायां नगर्यो छत्रपलाशके चैत्ये यथाप्रतिरूपमवग्रहमवग्रह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति. तद् महाफलं खलु भो देवानुप्रिय! तथारूपाणाम् अर्हताम् , भगवतां नाम-गोत्रस्याऽपि श्रवणतया, किमङ्ग पुनः अभिगमन-वन्दन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन-पर्युपासनतया? एकस्य अपि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणतया, किमा पुनविपुलस्य अर्थस्य प्रहणतया ? तद् गच्छामो देवानुप्रिय। श्रमणं भगवन्तं महावीर चन्दामहे, नमस्यामः, सत्कारयामः, संमानयामः, कल्याणम्, मङ्गलम् , दैवतम् , चैसम् (इव) पर्युपास्महे. एतद् अस्माकं प्रेस भवे हिताय, सुखाय, क्षेमाय, निःश्रेयसाय, अनुगामितया भविष्यति इति कृत्वा चहव उप्राः, उप्रपुत्राः, भोगाः, राजन्याः, क्षत्रियाः, ब्राह्मणाः, भटाः, योधाः, मालकिनः, लेच्छ किनः, अन्ये च बहवो राजे-वर-तलबर-माडम्बिककौटुम्बिक-इभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति--सार्थवाहप्रभृतयः उत्कृष्ट-सिंहनाद-योल-कलकलरवेण समुद्ररवभूतमिव (नगरम् ) कुर्वाणाः श्रावस्त्यां नगर्यो मध्यंमध्येन निर्गच्छन्तिः-अनु०
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