Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 265
________________ शतक २.-उदेशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४५ भगवंत महावीर पासे ज्यां सुधी जी, त्यां सुधी 'कोइने कोइ पण प्रकारे दुःख न दे,' अने यावत् 'वस्तुनुं ज्ञान, तेना स्वभाव उपरथी करवू पण तेथी जूतुं न करवू' एवा नियमो लउं छं तथा सर्व प्रकारनी खावानी वस्तुनो, सर्व प्रकारना पाणीनो, सर्व प्रकारना मेवा, मिठाइनो अने सर्व प्रकारना मशाला तथा मुखवासनो-एम चारे जातना आहारनो ज्या सुधी जीq त्यां सुधी त्याग करु . वळी जे आ दुःखने न देवा लायक यावत्-इष्ट, कांत अने प्रिय मारुं शरीर छे, तेने पण हुं मारा छेल्ला श्वासोच्छवासे-- मरवानी छेल्ली घडीए-त्याग करी दइश, एम करी तेणे संलेखना अने झूषणा करी, खान, पाननो त्याग कर्यो, तथा ते झाडनी पेठे स्थिर रही, कालनी अवकांक्षा न करता विहरे छे-रहे छे. तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स हवे ते स्कंदक अनगार श्रमण भगवंत महावीरना तेवा प्रकारन तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई सविण पासे सामायिक वगेरे यार अंगोले भी अहिजेता. बहपडिपण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं वर्ष सधी साधपणं पाळी-साचवी-एक महीनानी संलेखनावडे पाउणित्ता, मासिआए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सहि आत्माने संयोजी, साठ टंक खाधा विनाना वीतावी, आलोचन भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिकन्ते, समाहिपत्ते अने प्रतिक्रमण करी, समाधि प्राप्त करी क्रमपूर्वक काळधर्मनेआणपवीए कालगए. तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं मरणने-पाम्या. पछी ते स्थविर भगवंतो स्कंदक अनगारने मरण अणणारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्गं करेंति, पामेल जाणी. तेना परिनिर्वाण निमित्ते काउसग्ग-कायोत्सर्ग-एक करित्ता पत्त-चीवराणि गिण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ प्रकारनं ध्यान करे छे. अने तेनां वस्त्रो अने पात्रो ले छे. पछी सणियं सणियं पच्चोसकंति, पचोसकित्ता जेणेव समणे भगवं ते विपुल पर्वत उपरथी धीमे धीमे उतरी, ज्यां श्रीश्रमण भगवंत महावीरे तेणेव उवागच्छइ, समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, महावीर विराज्या छे त्यां आवी, श्रमण भगवंत महावीरने वांदी, नमंसित्ता एवं वयासी:-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नमी ते स्थविरोए आ प्रमाणे कयुं के:-आप देवानुप्रियना शिष्य नाम अणगारे पगइभद्दए, पगइविणीए, पगइउवसंते, पगईपयणु- स्कंदक नामना अनगार, जे प्रकृतिए-स्वभावे-भद्र, विनयी, शांत. कोह-माण-माया-लोभे, मिउमद्दवसंपन्ने, अल्लीणे, भद्दए, विणीए. ओला क्रोध. मान, माया अने लोभवाळा, अत्यंत निरभिमानी, से णं देवाणुप्पियहिँ अब्भणुनाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि गुरुनी ओथे रहेनारा, कोइने संतापे नहीं एवा अने गुरुभक्त हता. आरोवित्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हहिं सद्धिं तथा जे आप 'देवानुप्रियनी अनुमतिथी पोतानी मेळे ज पांच विपलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव-आणुपुवीए कालगए. इमे महावतोने आरोपी. साधु-श्रमण-अने श्रमणी-साध्वी-ओने य से आयारभंडए. भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं व गायम समण भगव खमावी, अमारी साथे विपुल पर्वत उपर आव्या हता (अहीं बधुं महावीरं वंदइ, नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी:-एवं खलु देवा- पूर्व प्रमाणे कहेवू ) यावत्-ते (स्कंदक अनगार ) क्रमपूर्वक प्पियाणं अन्तेवासी खंदए नाम अणगारे कालमासे कालं किचा काळधर्मने पाम्या छे. अने आ तेना उपकरणो-वस्त्र, पात्रो-छे. कहिं गए, कहिं उवगए ? 'गोयमादि' | समणे . भगवं महावीरे हवे 'भगवन !' एम कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने भगवं गोयम एवं वदासी-एवं खलु गोयमा ! मम अन्तेवासी वांदी, नमी आ प्रमाणे कर्दा के:-आप देवानुप्रियना शिष्य स्कंदक खंदए णामं अणगारे पगइभद्दए, जाव-से णं मए अब्भणनाए नामना अनगार कालमासे काळ करी क्या गया छे अने क्यां १. मूलच्छायाः-ततः स स्कन्दकोऽनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकादश अङ्गानि अधीत्य बहप्रतिपर्णानि दादशवर्षाणि धामण्यपर्याय पालयित्वा.: मासिक्या संलेखनयां आत्मानं जोषित्वा, षटिभक्तानि अन.. शनेन छित्त्वा, आलोचितप्रतिक्रान्तः, समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः, ततस्ते स्थविरा भगवन्तः स्कन्दकम् अनगारं कालगतं ज्ञात्वा परिनिवाणवृत्तिक कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, कृत्वा पात्र-चीवराणि गृहन्ति, गृहीत्वा विपुलात पर्वतात शनैः शनैः प्रतिसंकामन्ति, प्रतिसक्रम्य येनेव भ्रमणी भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छति, भ्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते. नमस्यति ( वन्दित्वा.) नमस्यिखा एवम् अवादीत:-एवं खल देवाऽनुप्रियाणाम् अन्तवासा स्कन्दका नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः, प्रकृतिविनीतः, प्रकृत्युपशान्तः. प्रकृतिप्रतनुकोध-मान-माया-लोभः, मृदुमादेवसंपन्नः, आलीनः, भद्रकः, विनीतः. स देवानुप्रियैः अभ्यनुज्ञातः सन् खयमेव पञ्च महाव्रतानि आरोप्य, श्रमणांव, भ्रमणीश्च क्षमयिखा, अस्माभिः साधं विपुल पर्वतं तचैव निरवशेषं यावत्-आनुपूर्व्या कालगतः, इदं च तस्य आचारभाण्डकम्, 'भगवन् ।' इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्त महावार वन्दते, नमस्यति, नमस्थित्वा एवम् उवाचः-एवं खलु देवाऽनुप्रियाणाम अन्तेवासी स्कन्दको नाम अनगारः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः, कुत्र उपगतः ? 'गौतमादि।' धमणो भगवान महावीरो भगवन्तं गौतम एवम अवादीत-एवं खल गौतम। मम अन्तेवासी स्कन्दको नाम अनगारः प्रकृतिभद्रका, यावत्-स मया अभ्यनुज्ञातः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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