Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 275
________________ शतफ २.-उद्देशक ?. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५५ सामायिक वगेरेना उच्चारणपूर्वक शयन करवं. ['एवं भुंजिअव्वं' ति] धूमांगार वगेरे दोषने टाळीने शुद्ध आहार लेवो. [एवं भासिअव्वं' ति.] मीठाश वगेरे गुणयुक्त बोलवू. ए प्रमाणे उठी उठीने-प्रमाद अने निद्राना त्यागपूर्वक जागी जागीने प्राणादिनी रक्षा करवामां यत्न करवो जोइरू. एतमाणाए'त्ति श्रीमहावीर भगवंते पूर्वोक्त शिखामणो दिधा पछी तेओनी आज्ञावडे, ['इरियासमिए'त्ति] चालवामां सावधानतावालों, सारी स्पासमितादि विशेप्रवत्ति राखवी ते जसमितपणं'छे. 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए'त्ति] उपकरणोने लेवां अने मूकवा तमां सावधानतावाळो, ['उच्चार' इत्यादि.] पणवाळा भीस्कंदक. अहीं [खेले' ति] खेल एटले कंठनो अने मुखनो श्लेष्मा, सिंधानक एटले नासिकानो श्लेष्मा. [ 'मणसमिए' ति] जेनी मननी प्रवृत्ति संगत के ते. ['मणगुत्ते' त्ति] मनने वश राखनार, ['गुत्ते' त्ति] गुप्त छे, आ पद 'मनोगुप्त' वगेरे पदोना उपसंहाररूप छे. ए जवातनी विशेषता माटे कहे के के प्रतिदिए'त्ति] गुप्त इंद्रियवाळो. ['गुत्तबंभयारी' ति] ब्रह्मचर्यनी गुप्तिपूर्वक जे ब्रह्मचर्य पाळे ते गुप्तब्रह्मचारी कहेवाय. ['चाइ'त्ति) संगनो त्यागी-असंग [ 'लज्जु ति] संयमवाळो अथवा सीधी दोरडीनी पेठे सरल व्यवहारवाळो, ['धन्ने' ति] धर्मरूप धनने पामनार. [खंतिखमे' त्ति ] पोते नवळो छ माटे सहनशील छे एम नथी, पण पोतामां बळ छे छतां क्षमापूर्वक दुःखोने सहनार ते 'क्षांतिक्षम'. इंद्रियोना विकार न होबाने लीधे जितेंद्रिय. पहेला जे 'गुप्तेंद्रिय एवं विशेषण आप्यु हतुं तेनो एवो अर्थ पण थाय के 'इंद्रियोना विकारोने छूपावनार' माटे आ 'जितेंद्रिय' ए विशेषण इंद्रियोना विकारना अभावने सूचवया जणाव्यु छे अने तेथी तेमा विशेष छे. [ 'सोहिए'त्ति] शोभित, शोधित, के सौहृद. शोभावाळो ते शोभित, निर्दोष-व्रतोमा दोषो रहित-ते शोधित अने सर्व प्राणिमा मित्रतानी बुद्धिवाळो ते सौहृद. ['अणियाणे'त्ति] कोइ जातनी प्रार्थना नहीं करनार-'जो मारं तप साचं होय तो हुँ चक्रवर्ती राजा थाउं के देव थाउं' एवी बुद्धि विनानो, [ 'अप्पुस्सुए ति], उतावळो नहीं-धीरो, [ 'अबहिल्लेसे'त्ति] संयम सिवाय बीजे ठेकाणे मनोवृत्ति नहीं राखनार, ['सुसामण्णरए'त्ति ] सुंदर श्रमणपणामां उजमाळ अथवा श्रमणपणामां खूब उजमाळ, ['दंते' त्ति ] क्रोधादि शत्रुओनुं दमन करनार अथवा बेना-राग अने द्वेषना-अंत-नाश-माटे प्रवृत्ति करनार. [ 'इणमेव' ति] आ ज-प्रत्यक्ष, ['पुरओ कार्ड' ति] आगळ करीने अर्थात् जेम रस्ताने नहीं जाणनार पुरुष, रस्ताने जाणनार पुरुषने आगळ करीने चाले तेम आ श्रीस्कंदक अनगार, भगवंतना प्रवचनने आगळ करीने विहरे छे-रहे छे. . १२. 'एकारस अंगाई अहिज्जइ' त्ति इह कश्चिदाह-ननु अनेन स्कन्दकचरितात् प्रागेव एकादशाङ्गनिष्पत्तिरवसीयते, पञ्चमाणान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमिदमुपलभ्यते इति कथं न विरोधः ? उच्यते-श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनाः, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते, स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं वशि'ष्यमनीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृता इति न विरोधः. अथवा सातिशयित्वाद् गणधराणामनागतकालभाविचरितनिबन्धनमदुष्टमिति. भाविशिष्यसंतानापेक्षयाऽतीतकालनिर्देशोऽपि न दुष्ट इति. 'मासिअंति मासपरिमाणम् , 'भिक्खुपडिम ति भिक्षुचितमभिग्रहविशेषम् , एतत्स्वरूपं च-"गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जइ मासिकं महापडिमं, दत्तेगभोयणस्स पाणस्स वि एग जा मास" इत्यादि. नन्वयमेकादशाङ्गधारी पठितः, प्रतिमाश्च विशिष्टश्रुतवानेव करोति, यदाह-"गच्छे चिय निम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा, नवमस्स तईयवत्थू होइ जहन्नो सुयाहिगमो" इति कथं न विरोधः? उच्यते-पुरुषान्तरविषयोऽयं श्रुतनियमः, तस्य तु सर्वविदुपदेशेन प्रवृत्तत्वाद् न दोष इति. १२. तथा [ 'एक्कारस अंगाई अहिज्जइ'त्ति] अग्यार अंगोने भणे छे.शं०-श्रीस्कंदक पोते साधु थया पछी अग्यार अंगोने भण्या छे माटे एम प्रतीत श्रीस्कंदकर्नु अध्ययन थाय छे के श्रीस्कंदक पोते साधु थया ते पहेला अग्यार अंगो बनेलो होवां जोइए अर्थात् ज्यारे श्रीस्कंदक, परिव्राजक स्थितिमा हशे त्यारे अग्यार अने शंका. अंगो बनी गयां हशे. ज्यारे एम होय त्यारे श्रीभगवतीजी नामना पांचमा अंगमा (जे अंग, श्रीस्कंदक साधु थयां पहेलान बन्युं छे-जे अंग बन्यु त्यारे श्रीस्कंदक, तापसनी स्थितिमा हशे) ते श्रीस्कंदकनुं साधु तरीकेनुं जीवन केम होइ शके ? कारण के जे ग्रंथमा जेनुं जीवन होय ते पुरुष ते ग्रंथनी पहेला हयात होवो जोइए, आ जीवन संबंधे एम नथी माटे काइ विरोध केम न होय ? समा०-श्रीमहावीर भगवंतना तीर्थमां नव वाचना थएली छे समाधान, अने ते दरेक वाचनाओमा स्कंदकनी पहेलां थएली, स्कंदकचरित्रना जेवी अनेक बिनाओ आवे छे, ते बधी बिनाओ (ज्यां सुधी कंदकनी विद्यमानता नथी त्यां सुधी) वीजा कोइना चरित्रद्वारा जणावाय छे अने ज्यारे श्रीस्कंदक उत्पन्न थया त्यारे ते स्कंदकना जेवी बिनाने श्रीसुधर्मास्वामीए पोताना जंबू नामना शिष्यने उद्देशीने आ चालु वाचनामां श्रीस्कंदकना चरित्रनो आधार लइने कही छे माटे विरोध जेवू काइ नथी. अथवा गणधरो अतिशययुक्त ज्ञानवाळा होय छे माटे भविष्यत्काळनी बीना कहेवामां तेओने हरकत नथी अने जे अहीं 'भूतकाळ' नो निर्देश कर्यो छे ते थनारा शिष्यसमूहुने अपेक्षीने करो छे माटे ते पण निर्दोष छे. [ 'मासिअंति ] एक महिना जेटली-एक महिना सुधी [ 'भिक्खुपडिमं' ] भिक्षुने ( साधुने) भिक्षुप्रतिमा. 1. 'धूमांगार' ए. आहारसंबंधी दोष छे. ते विवेचन आ छे: "राग-दोसेहि धूमइंगाल" तथा "राग-द्वेषाभ्यां प्रेमाऽप्रेमाभ्याम् "प्राप्त थएल आहारने प्रेमपूर्वक के द्वेषपूर्वक खावो ते 'धूमागार' दोष. थाहारविषयाभ्योxxx चारित्रेन्धनस्य धूमायमानताकरणम्, अनारकरणं कारण के तेवी रीते आहार लेवाथी चारित्ररूप इंधणाने धूम लागे छे च"इति-श्रीपञ्चाशके त्रयोदशमपश्चाशके ४९ गाथायाम्:-अनु० अथवा ते बळीने अंगारारूप थइ जाय छ माटे 'धूमांगार दोप' कहेवाय छे:-श्रीपंचाशकनुं तेरमुं पंचाशक, गाथा ४९:-अनु. १.प्र छायाः-गच्छाद् विनिष्कम्य प्रतिपद्यते मासिकी महाप्रतिमाम्, दत्त्येकभोजनस्य पानस्याऽपि एका यावद् मासम्, २. गच्छे एव निर्मातो यावत् पूर्वाणि दश भवेद् आसपूर्णानि, नवमस्य तृतीयवस्तु भवति जघन्यः श्रुताधिगमः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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