Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक २.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२७३ भरणविशेषान धारयतीत्येवं शीलो यः स तथा, "विचित्तहत्थाभरणे, विचित्तमालामउलिमउडे," विचित्रमाला' च कुसुमसक, मौलौ मस्तके. मकटं च यस्य स तथा, इत्यादि यावत्-"रिडीए, जुईए, पभाए, छायाए, अचीए, तेएणं, लेसाए, दस दिसाओ उजोएमाणे" त्ति तत्र ऋद्धिः परिवारादिका, युतिरिष्टार्थसंयोगः, प्रभा यानादिदीप्तिः, छाया शोभा, अर्चिः शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला, तेजः शरीराचिः. लेश्या देहवर्णः. एकार्था वैतेः उद्योतयन् प्रकाशकरणेन, 'पभासेमाणे' त्ति प्रभासयन् शोभयन्. इह 'यावत्' करणाद इदं दृश्यम.. "पासाइए" द्रष्टणां चित्तप्रसादजनकः, "देरसणिजे" यं पश्यञ्चक्षुर्न श्राम्यति, "अभिलेवे" मनोज्ञरूपः, “पडिरवे"त्ति दृष्टारं द्रष्टार प्रति रूपं यस्य स तथेति. एकेन एकदा एक एव वेदो वेद्यते, इह कारणम् आहः-'इत्थी इत्थिवएण' इत्यादि..
१. आगळना प्रकरणमा इंद्रियो विष हकीकत कही छे. जो ते इंद्रियो होय तो परिचारणा-विषयविलास-थइ शके छे माटे हवे परिचारणा संबंधी हकीकत जणाववा माटे पांचमा उद्देशक- आ आदिसूत्र छ:-['अण्णउत्थिए' इत्यादि.) ['देवभूएण' ति] मरीने देव थएल निग्रंथ, देवत्ववाळा देवनी स्त्री विष आत्मावडे परिचारणा करतो नथी, एम संबंध करवो. [ से ' ति] ए निग्रंथरूप देव, ते देवलोकमां पोताथी [ 'अन्ने त्ति ] जुदा देवोने तथा अन्यतीथिकोनो
विचार. वीजा देवोनी देवीओने ['अभिमुंजिय'त्ति] वश करीने के आलिंगीने परिचारणा-परिभोग-करतो नथी. ['णो अप्पिणिचिआओ' त्ति] पोतानी देवीओ साथे विलास करतो नथी. पण ['अप्पणामेव अप्पाणं विउधिअ' त्ति ] पोते पोताने ज स्त्री अने पुरुषरूपे बनावीने विलास करे छे. ज्यारे एम छे त्यारे एगे वि य णं' इत्यादि.] अर्थात् ['परउत्थिअवत्तवया णेयब'त्ति] परतीर्थिकनी वक्तव्यता कहेवी. ते आ प्रमाणे छ:-"जे समये स्त्रीवेदने वेदे छे ते एक काळे ये अनुभव, समये पुरुषवेदने वेदे छे अने जे समये पुरुषवेदने वेदे छे ते समये स्त्रीवेदने वेदे छे. स्त्रीवेदने वेदवाथी पुरुषवेद वेदाय छे अने पुरुषवेदने वेदवाथी सीवेद वेदाय छे अने ए प्रमाणे एक पण जीव एक काळे बे वेदने वेदे छे"इत्यादि. तेओर्नु आ कथन जुळु छ अने तेनी जुठाइ आ प्रमाणे छे:-ते देव तेनी असल्यता. परुषरूपे होवाथी तेने एक काळे पुरुषवेदनो ज उदय होइ शके छे, पण स्त्रीवेदनो उदय थाय ते असंभवतुं छे.ज्यारे ते देव स्त्री- रूप धारण करे के प्यारे तेने स्त्रीवेदनो ज उदय होइ शके छे, पण पुरुषवेदनो उदय थाय ते अणघटतुं छे.ते बे वेदो एक ज काळे एक जीवने उदयमा होइ शकता नथी, कारण के ते बन्ने वेदो परस्पर एक बीजा विरुद्ध छे. जेबे वस्तुओ परस्पर विरुद्ध होय छे ते निरपेक्षपणे एक काळे एक ज ठेकाणे रही शकती नथी. जेम अंधार अने अजवाळ. 'देवलोएसुति देवलोकोमा ['उववत्तारो भवंति' ति] उत्पन्न थाय छे. [ 'महिड्डिए'त्ति] मोटी ऋद्धिवाळो, अहीं 'यावत्' शब्द मू. केलो होवाथी आ प्रमाणे जाणवुः-"मोटी द्युतिवाळो, मोटा बळबाळो, मोटी कीर्तिवाळो, मोटा सुखवाळो, मोटा सामर्थ्यवाळो, हारथी शोभता हैयावाळो, कडा अने बहेरखांथी शणगारेल हाथवाळो, हाथनां घरेणांने अने काननां कुंडलोने धारण करनार, चळकता गालवाळो तथा कर्णपीठ-एक जातना कामना घरेणांने पहेरनार, वळी विचित्र हस्ताभरणबाळो, मस्तक उपर विचित्र माला (फुलनी माला ) अने मुकुटने पहेरनार, वळी ऋद्धिवडे, युतिवडे, प्रभाबडे, छायावडे, अर्चिवडे, तेजवडे अने लेश्यावडे दशे दिशाने पोताना प्रकाशवडे अजवाळतो. ऋद्धि परिवार वगेरे. इच्छित वस्तुनो संयोग ते युतिवाहन बगेरेनी शोभा ते प्रभा. शोभा ते छाया. शरीर उपर रहेल रत्न वगेरेना तेजनो चळकाट ते अर्चि. शरीरनो चळकाट ते तेज. शरीरनो वर्ण ते लेश्या. अथवा ए बधा शब्दो समान अर्थवाळा छे. ['पभासेमाणे' त्ति] दिशाओने शोभावतो. अहीं यावत्' शब्द मूकेलो होवाथी. आ प्रमाणे जाणवुः ते देव जोनारना चित्तने प्रसन्नता पमाडे तेवो छे, तेने वारंवार जोतां पण आंख थाकती नथी. तेनुं रूप मनने गमे तेवू छे अने तेनुं रूप दरक जोनारनी आंखे तरे छे एवो ए देव छे. मूळ वात ए छे के, एक जीव एक काळे एक ज वेदने अनुभवे छे. तेनुं कारण कहे छे के:-['इत्थी इत्थिवेएणं' इत्यादि.] एक काळे एक
अनुभव. गर्भविचार. २५. प्र०-उदगगब्भे णं भंते ! 'उदगगब्भे'त्ति कालओ २५. प्र०-हे भगवन् ! उदकगर्भ ए केटला समय सुधी केवचिरं होइ ?
'उदकगर्भ' रूपे रहे ? २५. उ०—गोयमा! जहणेणं एक समयं, उक्कोसेणं २५. उ०—हे गौतम! ते ओछामा ओछु एक समय सुधी. छम्मासा.
अने वधारेमां वधारे छ महिना सुधी 'उदकगर्भ'रूपे रहे. २६. प्र०—तिरिक्खजोणियगम्भे णं भंते ! 'तिरिक्खजोणिय- २६. प्र०-हे भगवन् ! तिर्यग्योनिकगर्भ ए केटला समय गम्भे' ति कालओ केवचिरं होई !
सुधी 'तिर्यग्योनिकगर्भ'रूपे रहे ! २६. उ०-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ट २६. उ०—हे गौतम! ते ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त सुधी अने. संवच्छराई.
वधारमा वधारे आठ वरस सुधी 'तिर्यग्योनिकगर्भ'रूपे रहे.
1. प्र. छायाः-विचित्रहस्ताभरणः, विचित्रमालामौलिमुकुटः. २. ऋज्या, युत्या, प्रभया, छायया, अर्चिषा, तेजसा, लेश्यया दश दिश उद्द्योतयन्. 2. प्रासादीयः, ४. दर्शनीयः, ५. अभिरूपः ६. प्रतिरूपः-अनु.
१. प्राकृतशैलीथी एक वचनने बदले बहुवचन थयु छः-श्रीअभय. १. आ संबंधे पृ-१८१ थी १८८ सुधी जूओः-अनु.
१. मूलच्छायाः-उदकगर्भो भगवन् ! 'उदकगर्भ'इति कालतः कियचिरे भवति ! गौतम! जघन्येन एकः समयम् , उत्कृष्टेन षण्मासान, तिर्यग्योनिकगों भगवन् । तिर्यग्योनिकगर्भ' इति कालतः कियचिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् , उत्कृष्टेन अष्ट संवत्सराणि:-अनु०
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