Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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२५२
लोकविचार.
। जीवविचार.
लिसिविचार.
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २.-उद्देशक १.. अणंता सिद्धी ? तस्स वि य णं अयमढे-एवं खलु मए खंदया! चउन्विहा सिद्धी पन्नत्ता, तं जहा:-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ' ति. 'दव्वओ णं एगा सिद्धि' त्ति इह सिद्धिर्यद्यपि परमार्थतः सकलकर्मक्षयरूपा, सिद्धाधारा, आकाशदेशरूपा वा, तथाऽपि सिद्धाधारा आकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेन ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सिद्धिरुक्ता. 'किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' ति किञ्चिन्यूना गन्यूतिद्वयाधिके द्वे योजनशते एकोनपञ्चाशदुत्तरे भवत इति.
८.दिव्वओ णं एगे लोए सअंते'त्ति] लोक, पांच अस्तिकायरूप एक द्रव्य होवाथी ए सांत-छेडावाळो-छे. ['आयामविक्खंभेणं ति] आयाम एटले लंबाइ, विष्कंभ एटले पहोळाइ, ['परिक्खेवणं' ति] परिधि-घेरावो-तेवडे, [ 'भविंसु यत्ति] एटले थयु. 'थयु' वगेरे क्रियापदो द्वारा पूर्वोक्त पदोन ज तात्पर्य कयुं छे. [ 'धुवे' त्ति ] अचल होवाथी ध्रुव छे, ध्रुव पदार्थ अनियतरूप पण होय माटे कहे छे के, [णिअए'त्ति ] एक स्वरूपवाळो होवाथी नियत छे, नियत पदार्थ कादाचित्क (चिरस्थायी नहीं पण अमुक काळ सुधी ज रहेनारो) पण होय माटे कहे छे के, [ 'सासए' त्ति ] सर्वक्षणे विद्यमान होवाथी शाश्वत छे, शाश्वत पदार्थना शाश्वतपणानी पण हद होय छे माटे कहे छे के, ['अक्खए'त्ति] अविनाशी होवाथी अक्षत छे, अक्षय वस्तु पण बहुतर प्रदेशनी अपेक्षाए होय, माटे कहे छे के, ['अव्वए' त्ति] तेना प्रदेशो अव्यय होवाथी अव्यय छे, कोइ पदार्थ द्रव्यथी पण अव्यय होय माटे कहे छे के, [ 'अवहिए' त्ति] ते अवस्थित छे, कारण के तेना पर्यायो अनंत छ माटे ते अवस्थित छे. तात्पर्य एज के, ते नित्य छे. [ 'वण्ण-पज्जव' त्ति ] एकगणुं कालू वगेरे अने बीजा पण स्थूलस्कंधोना गुरुलघु पर्यायो तथा अणुओना, सूक्ष्मस्कंधोना अने अमूर्त वस्तुओना अगुरुलघु पर्यायो-वर्णपर्यायो. ['णाणपज्जव' त्ति ] ज्ञानपर्यायो-ज्ञानविशेषो अथवा बुद्धिकृत निर्विभाग (जेनो बीजो भाग न थइ शके तेवा) विभागो, औदारिक वगेरे शरीरोने आश्रीने अनंत गुरुलघुपर्यायो. कार्मण वगेरे शरीरोने (द्रव्योने ) तथा जीवने आश्री अगुरुलघुपर्यायो. ['जे वि य ते खंदया ! पुच्छ' त्ति ] आ सूत्रथी सिद्धिसंबंधी प्रश्न- अने तेना उत्तरसूत्रना अंशन सूचन कर्यु छे. ते बन्ने आ रीते छ:-'वळी हे स्कंदक! तने जे सिद्धिविषे संकल्प थयो हतो के, शुं सिद्धि अंतवाळी छे के अंत विनानी,छे ? तेनो पण आ अर्थ छः-हे स्कंदक ! में सिद्धिना चार प्रकार कया छे, ते आ प्रमाणेः-द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, काळसिद्धि अने भावसिद्धि. ['दव्वओणं एगा सिद्धि' त्ति ] खरी रीते विचारीए तो सर्व कर्मना क्षयरूप सिद्धि छे अथवा सिद्धना आधार एवा आकाशना भागरूप जे स्थळ ते सिद्धि छे. तो पण अहीं सिद्धि शब्दथी ईषत्याग्भारा (सिद्धशिला) पृथवी लीधी छे, कारण के ते सिद्धना आधारभूत आकाशनी पासे आवेली छे. ['किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं' ति] ते सिद्धशिलानो घेरावो १,४२,३०,००० (एक क्रोड, बेंताळीश लाख अने त्रिश हजार ) योजन करतां काइक विशेषाधिक छे. जे विशेषाधिक छे ते आ छ:-२४९ योजन उपर काइक ऊणी बे गव्यूति छ अर्थात् सर्व मळीने १,४२,३०,२४९ योजन उपर काइक ऊणी बे गन्यूति जेटलो घेरावो छे. . .. ९. 'वलयमरणे' त्ति बलतो बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य, संयमाद् वा भ्रश्यतो मरणं तद् बलन्मरणम्, तथा, वशेन इन्द्रियवशेन, ऋतस्य पीडितस्य दीपकलिकारूपाऽऽक्षिप्तचक्षुषः शलभस्येव यद् मरणम् , तद् वशार्तमरणम्, तथा, अन्तःशल्यस्य द्रव्यतोऽनुवृततोमरादेः, भावतः सातिचारस्य यद् मरणम् , तद् अन्तःशल्यमरणम्. तथा, तस्मै भवाय, मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो यद् मरणम् , तत् तद्भवमरणम् , इदं च नर-तिरश्चामेवेति. 'सत्थोवाडणे' त्ति शस्त्रेण क्षुरिकादिनाऽवपाटनं विदारणं देहस्य यस्मिन् मरणे तत् शस्त्रावपाटनम्, 'विहाणसे' त्ति विहायसि आकाशे भवम्-वृक्षशाखाद्युद्वन्धनेन यत् तद् निरुक्तिवशाद वैहानसम्. 'गिद्धपट्टे' त्ति गृधैः पक्षिविशेषैः, गृर्वाि मांसलुब्धैः शृगालादिभिः, स्पृष्टस्य विदारितस्य, करि-करभ-रासभादिशरीरान्तर्गतस्वेन यद् मरणम् , तद् गृध्रस्पृष्टं वा, गृद्धस्पृष्टं वा, गृधैर्वा भक्षितपृष्ठस्य यत् तद् गृध्रपृष्ठम्, 'दुवालसविहेण बालमरणेणं' ति उपलक्षणत्वादस्य, अन्येनाऽपि बालमरणान्तःपातिना मरणेन म्रियमाण इति. 'वडइ वइ व' त्ति संसारवर्धनेन भृशं वर्धते जीवः, इदं हि द्विर्वचनं भृशार्थे इति. 'पाओवगमणे' त्ति पादपस्येवोपगमनमस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम् , इदं च चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति. 'निहारिमे य' त्ति निहारेण निर्वृत्तं यत् तद् निर्हारिमम्-प्रतिश्रये यो म्रियते तस्य एतत् , तत्कडेवरस्य निर्हारणात्. अनिर्हारिमं तु योऽटव्यां म्रियत इति. यच्चाऽन्यत्र इह स्थाने इङ्गितमरणमभिधीयते, तद् भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेषः, इति नेह भेदेन दर्शितमिति.
९. [ 'बलयमरणे' त्ति] कडकडती भुन लागेली होवाथी वळवळता-तरफडीयां मारता एवा जीवन अथवा संयमथी भ्रष्ट थता जीवन जे मरण ते 'बलन्मरण' कहेवाय. तथा दीवानी कळीना रूपथी अंजाइ गएल आंखवाळा पतंगियानी पेठे इंद्रियना , परवशपणाथी दुःखी थएल जीवनुं जे मरण ते 'वशार्तमरण' (वोसट्टमरण ) कहेवाय. तथा द्रव्यथी-स्थूल दृष्टीए-शरीरमा पेसी गएल तोमर (एक प्रकारचें अस्त्र ) वगेरेना नहीं मिकळवाथी नीपजतुं जे मरण अने भावथी-खरी रीतिए-अतिचारवाळा-दूषित-जीवनू जे मरण ते 'अंतःशल्य मरण' कहेवाय. ते भवने माटे जे मरण ते 'तद्भवमरण' कहेवाय अर्थात् मनुष्यनो देह मूकीने फरीवार पण मनुष्य थवं, तिर्यचनो देह मूकीने फरीवार पण तिर्यंच धq ते 'तद्भवमरण' कहेवाय. आ मरण मनुष्य अने तिर्यंचोमा ज संभवे छे. पण देव अने नरकमां संभवतुं नथी, कारण के देव मरीने तुरत ज फरीवार देव थतो नथी अने नारकी पण मरीने तुरत ज फरीवार नारकी थतो नथी. ['सत्थोवाडणे' त्ति ] छरी वगेरे शस्त्रद्वारा शरीरने फाडवाथी नीपजतुं जे मरण ते 'शस्त्रावपाटन मरण' कहेवाय. [ 'विहाणसे' त्ति] आकाशमां थएवं अर्थात् झाड वगेरे साथे गळा फांसो बांधी नीपजावातुं जे मरण ते 'वैहानस मरण' कहेवाय. ['गिद्धपट्टे ति] हाथीना भवमां, उंटना भवमा अने गधेडा वगेरेना भवमां गिध पक्षिओना ठोलवाथी
मरणविचार. बामरण. अशातर्मरण. मंताशस्यमर
वगवमरण.
शुनावपाटन,
बैदानस
गृडस्पृष्ट.
१. मा शब्द निरुक्तिथी बन्यो छे:-श्रीमभय. .
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