Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 271
________________ शतक. २. - उद्देशक १. भगवत्तुधर्मस्यामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५१ अपइत इत्येतस्य स्थाने निरुक्तिवशाद् उपपेत भवति इति. 'सिरीए' त्ति लक्ष्म्या, शोभया वा. 'हट्ट तुट्ट - चित्तमाणंदिए' त्ति हृष्ट- तुष्टम् अव्यर्थ तुम्वा विस्मितम् तुष्टं च सोपवचित्तं मनो यत्र तत् तथा तद् दृष्ट-तुष्टचित्तं यथा भवति एवम् आनन्दित ईपद् मुखसम्पतादिभावैः समृद्धिमुपगतः, ततच 'मंदिर' त्ति नन्दितस्तैरेव समृद्धतरताम् उपगतः 'पीईमणे' ति प्रीतिः प्रीणनम् आप्यायनं मनसि यस्य स तथा 'परमसोमणसिए' ति परमं सौमनस्यं सुमनस्कता संजातं यस्य स परमसीमनस्थितः, तद्रा पस्वाऽस्ति इति परमसौमनसिकः. 'हरिसवसविसप्पमाणहियय' विशेन विसर्पद् विस्तारं अजद् हृदयं यस्य स तथा एकार्थानि च एतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थानि इति . , ७. ['जेणेव इहं' ति] जे दिशामां भगवंतनुं समवसरण छे [' तेणेव ' ति] ते ज दिशामां. ['अत्थे समत्थे' त्ति ] ए वात छे ? ['अट्ठे समट्ठे' ति] एवं पाठांतर छे. तात्पर्य एज के, 'शुं ए बात संगत छे ?' ए प्रमाणे प्रश्न करवो. तेनो उत्तर आ छे: - ['हंता, अस्थि'] ए वात साची छे. ['णाणी' इत्यादि . ] आ सूत्रनो अभिप्राय आ छेः- ज्ञानना बळे ज्ञानी परोक्ष वातने जाणे छे तथा तपनां बळे अने देवनी सहायताथी तपखी पण परोक्ष वातने जाणे छे, तेथी पूर्वप्रमाणे प्रश्न कर्यो छे. [ 'रहस्सकडे ' ति ] छाना करेला - मात्र मनमां ज अवधारेला छे माटे गुप्त. [ 'धम्मायरिए' त्ति ] धर्माचार्य छे, धर्माचार्य छे कारण तो बड़े छेके, [ 'धम्मोवरसए' सि] धर्मोपदेशक के माटे. ज्यारथी भगवंत महावीरने ( धाविक) ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न पर छे त्यारथी तेओ संशुद्ध छे, पण हमेशा संशुद्ध नथी. श्रीमहावीर अर्हत छे, कारण के ते वंदनीय अने पूजनीय छे. तेणे राग वगेरे उपर जय मेळव्यो छे माटे जिन छे. ते, कोइनी गरम न पढे रोवा शानयुक्त होवाथी केवळी हे अने ते केवळी छे माटे भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान एम निकालना विशेषे करीने जाणनार छे. जेने थोडं थोडं त्रिकाळज्ञान होय, ते पण त्रिकाळवेत्ता कहेवाय अने श्रीमहावीर तेवा नथी माटे कहे छे के, ते सर्वज्ञ छे, सर्पदर्शी छे. ['विमोह'ति] जे जे दिवसे सूर्य व्यावृत्त भाव ते ते दिवसे आहार लेनार अर्थात् नित्य आहार तेनार से व्यावृत्तभोजी (र) (व्यावृते, व्यावृते सूर्येते इत्येवंशीको म्यामोजी प्रतिदिनमोजी इत्यर्थः) [ 'ओराल' ति] उदार प्रधान, [["सिंगारं' ति] घरेणां यगेरेबी जे शोमा माइतीश्री से शृंगार-रामगार, अने तेनी ने अर्थात् अत्यंत शोभावालुं कल्याणरूप उपद्रवरहित, अथवा शांतिनुं कारण, धर्मरूप पनने पामेल अथवा धर्मरूप धनमां साधु अथवा धर्मरूप धनने योग्य, मंगल्य-वांछित वस्तुने मेळववामां सारा साधनरूप, जे मुकुटादिवडे अलंकृत तथा वस्त्रादिवडे विभूषित ते अलंकृतविभूषित कहेवाय अने जे तेवा नहीं ते अनलंकृतविभूषित, [ 'लक्खण-वंजण - गुणोववेअं' ति ] मान तथा उन्मान वगेरेरूप लक्षण. लक्षण कहेवाय. माननुं स्वरूप आ छे:- एक पाणीनी कुंडी छलोछल भरेली होय, तेमां कोइ पुरुष प्रवेश करे अने जे पुरुषना प्रवेशथी ते कुंडीगांधी एक द्रोण (बत्री शेर) जेटलं पाणी महार नीवळे ते पुरुष मानोपेत कद्देवाय उन्माननुं खस्त आा हे एक पुरुषने मोठा कांटा (भाजपा) मां उभो राखी तोळीए अने तेनुं वजन अडधा भार ( चार हजार तोला ) जेटलुं थाय तो ते पुरुष उन्मानोपेत कहेवाय. प्रमाणनुं स्वरूप आ छे:जे पुरुष पोताना आंगळथी एकसो आठ आंगळ उंचो होय ते पुरुष प्रमाणोपेत कहेवाय. कयुं छे के, “एक द्रोण पाणी नीकळे तो (मान), अडधो मार वजन या तो (उम्मान) अने जे पुरुष मुखनी उंचाई करत नवगणोन गुण उंचो होय अर्थात् मुखनी उंचाई बार मांगळ गणाय के तेना करतां नवगणो एकसोने आठ आगळ उंचो होय से ( प्रमाण ). ए प्रमाणे लक्षण त्रय प्रकार छे." शरीरमां जे मत अने तल भाव के ते अने महावीर. व्यंजन कहेवाय छे. अथवा जे सहज-जन्मथी होय ते लक्षण अने जे पाछळथी थएलुं होय ते व्यंजन. सौभाग्य वगेरे गुणो छे अथवा लक्षण अने व्यंजनना जे गुणो, तेथी ने दुक्त ते लक्षण व्यंजनना गुणभी उपपेत कद्देवाय ['शरीएसि] शोभावडे के लक्ष्मीवडे, ['हड-खंड चित्तमार्ग-दिए' त्ति ] हृष्टतुष्ट एटले अत्यंत तुष्ट अथवा हृष्ट एंटले विस्मय पामेलं अने तुष्ट एटले तोषवाळु जे रीते चित्त हृष्टं, तुष्ट थाय ते रीते आनंदित थलो-थोडी थोडी दुखनी सौम्यता वगेरे भागोभी समृद्धिने पामेलो, एयो छे तेषी 'मंदिए' सि] तेज मावोवढे बचारे समृद्ध चलो, [पीई[ मणे' त्ति ] प्रीतियुक्त मनवाळो, [ 'परमसोमणसिए' त्ति ] परम सुमनस्कतावाळो, [ 'हरिसवस विसप्पमाणहियय'त्ति ] हर्षवडे जेनुं हृदय विशाळताने पामेलुं छे ते. ए बधा शब्दो सरखा अर्थवाळा छे अने अत्यंत हर्षने सूचववा सारु अहीं मूक्या छे. " " " ८. 'दव्य णं एगे लोए सते' ति पञ्चाऽस्तिकायमयैकद्रव्यत्वाद् लोकस्य सान्तोऽली. 'आग्रामविक्संग' ति आयामो दैम् विष्कम्भो विस्तारः परिषखेवेग' ति परिविना 'भवि व' त्ति 'अभवत्' इत्यादिभिश्व पदें पूर्वोकपदानामेव तात्पर्यमुक्तम्. 'घुवे 'ति ध्रुवः, अचलत्वात् स चाऽनियतरूपोऽपि स्यात्, अत आह: - 'णिअए' त्ति नियतः एकस्वरूपत्वात् नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्यात्, अत आह:- 'सास' त्ति शाश्वतः प्रतिक्षणं सद्भावात् स च नियतकालापेक्षयाऽपि स्यात् इत्यत आह :- 'अक्ख' ि अक्षयः, अविनाशित्वात्, अयं च बहुतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यात् इत्यत आह: - 'अव्वए' ति अव्ययः, तत्प्रदेशानामव्य यत्वात्, अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यात्, इत्याह-‘अवट्ठिए' त्ति अवस्थितः, पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात् किमुक्तं भवति - नित्य इति. 'वण्णपज्जव' वर्णविशेषाः – एकगुणकालत्वादयः, एवमन्येऽपि गुरुलघुपर्यवास्तद्विशेषा बादरस्कन्धानाम्, अगुरुलघुपर्यवाः अणूनाम्, सूक्ष्मस्कन्धानाम्, अमूर्तानां च. 'गाणपव्वा' ति ज्ञानपर्यायाः ज्ञानविशेषाः, बुद्धिहता वाऽविभागपरिच्छेदाः अनन्ता गुरुपुपर्यायाः, औदारिकादिशरीराणि आश्रित्य इतरे तु कार्मणादिद्रव्याणि जीवस्वरूपं चाश्रित्येति 'जे वि य ते खंदया ! पुच्छ' त्तिः अनेन समग्रं सिद्धिप्रश्नसूत्रम्, उपलक्षणत्वाच्च उत्तरसूत्रांशश्च सूचितः तच्च द्वयमप्येवम्- 'जे वि य ते खंदया ! इमेयारूवे जाव - किं सअन्ता सिद्धी, १. 'उप', 'अप' 'अने इत' ए शब्दनुं 'उपापेत' रूप थधुं जोइए, पण निरुक्तिवशे तेनुं रूप 'उपपेत' बन्युं छेः - श्री अभय ० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org/

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