Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 259
________________ २.१. भगवत्सुधर्मस्यामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१९ मी णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसया, मा णं वाइय-पित्तिय- सामान बचे तो मने ते आगळ पाछळ हितरूप, सुखरूपं, कुशसैमिय-सचिवाइव विविहा रोगायका परीसहोपसग्गा कुसंतु चिलरूप, अने छेवटे कल्याणरूप यशे. ए प्रमाणे ज हे देवानप्रिय ag एस मे निरथारिए समाणे परलोयरस हिवार, सुहाए, सेमाए, मारो पण आत्मा एक जातना सामानरूप के अने ते इड, फांत, नीसेसाए आणुगामिअत्ताए भविस्सइ. तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! प्रिय, सुंदर, मन गमतो, स्थिरतावाळो, विश्वासपात्र. संमत, सयमेव पव्वाविअं, सयमेव मुंडाविअं, सयमेव सेहाविअं, सयमेव अनुमत, बहुमत अने घरेणाना करंडिया जेवो छे, माटे तेने टाढ,. सिक्तापिनं, सयमेव आधार गोयरं निर्णय वेणविव-चरण- तडको, मुख, तरच, चोर, बाघ के सर्प, डांस, मछर, बात, करण - जाया - मायावत्तियं धम्ममांइक्खिउं. पिरा, श्रेष्य-सळेखम वगेरे बने सनिपात वगेरे अनेक प्रकारना रोगो अने जीवलेण दरदो तथा परिषह अने उपसर्गो नुकशान न करे भने जो हुं तेने पूर्वोक्त विनोधी बचावी छउं तो ते मारो आमा मने परलोकमा हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप अने परंपराए कल्याणरूप थशे. माटे हे देवानुप्रिय ! हुं इच्छं छं के, आपनी पासे हूं प्रमाजित धाउं. मुंडित पाई प्रतिलेखनादि फिपाओने शीखं. सूत्र अने तेना अर्थो भणुं; तथा हुं इच्छं छं के तमे आचारने, विनयने, विनयना फळने, चारित्रने, पिंडविशुद्धयादिक करणने, संयमंयात्राने अने संयमना निर्वाहक आहारना निरूपणने अर्थात् एवा प्रकारा धर्म कहो. . एवं सूवुं, खावुं, अट्ठे श्रमण भगवंत महावीरनो तए गं समणे भगवं महावीरे संदयं कमावणसगोचं सवमेव पछी श्रमण भगवंत महावीरे पोते जसे काव्यायनगोत्रीय जावेद, पम्पमाइक्इ एवं देवापुप्पिया। गंतव्वं, एवं स्कंदफ परिवाजकने प्रवाजित कर्मों अने यावत्-पोतेज धर्म - ! चिट्ठिअव्वं, भुंजिअव्वं, चिअप्वं एवं निसी, एवं तुयहअध्यं एवं मुजिअ कह्यो के: हे देवानुप्रिय आ प्रमाणे अ, आ प्रमाणे रहे, भासिअनं, एवं उडाए उड्डाय पाणेहिं, भूएहि, जीवहि सचेहिं आ प्रमाणे बेसनुं, आ प्रमाणे सूई, आ प्रमाणे साई, आ प्रमाणे संजमेणं संयभिशव्यं, शस्ति च णं अडे गो किचि विषमाइअन्य विषे संयमपूर्वक बर्त तथा भा याचतमां जरा पण आळस बोलवु अने आ प्रमाणे उठीने प्राण, भूत, जीव तथा सत्त्वो तरणं से संदर कचायणसगोचे समणस्स भगवओ महावीरस्सन राखी पछी ते काव्यायनगोत्रीय स्कंदक मुनिए से अमनइमं एआरू पम्भिर्व उपए सम्मं संपविव्य तमाणार तह पूर्व प्रमाणेनो धार्मिक उपदेश सांरी गच्छइ, तह चिट्ठ, तह निसीअइ, तह तुयहइ, तह भुंजइ, तह रीते स्वीकार्यो. अने जे प्रमाणे श्रीमहावीरनी आज्ञा छे ते प्रमाणे भासइ, तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं, भूएहिं, जीवेहिं, सत्तेहिं संजमेणं ते स्कंदक मुनि चाले छे, रहे छे, बेसे छे, सुवे छे, खाय छे, संजमेर, अस्सि चणं सट्टे णो पमावद तए णं से संदर कथा बोले छे तथा उडीने प्राण, भूत, जीव अने सच्चो तरफ वणरागोते, अणगारे जाते, इरियासमिए, भासासमिए, एसणा- दयापूर्वक पर्वे छे तथा ए बाबत्तम जरा पण भाळत राखता नथी. हवे ते कात्यायनगोत्रीय स्कंदक अनगार थया, तथा ईर्यासमिए, आयाणभंडम त्तनिक्खेवणासमिए, उच्चार- पासवण - खेल - समित चालामां सावधानता बाळा, भाषासमित बोलवा साव जल्ल-सिंघाणपारिट्ठावणिआसमिए, मणसमिए, वयसमिए, काय- धानतावाळा, एषणासमित - खान पान लाववानां अने. लेवामां समिए, मणगुत्ते, वयगुचे, कायगुचे, गुत्ते, गुतिदिए, गुत्तरंभवारी, सावधानतायालय, आदानभांडमात्र निक्षेपणास मित- पोताना सामाचाई, लज्जू, धने, खंतिखमे, जिइंदिए, सोहिए, अणियाणे, नने तथा पात्रोने लेवामां अने मूकवामां काळजीवाळा, उच्चार " , १. मुखच्छायामा व्याखयाः, मा दंशाः मा मशकाः मायातिक-वैत्तिक-वैमिक शांनिपातिकविविधाः रोयाऽऽताः परिषहोपसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्या एष से निवारितः सन् परलोकख हिताय, सुखाय, दोमाय, निःश्रेयसाय, अनुगामिताने निष्यति तद् इच्छामि देवाऽनुप्रिय खयमेव प्रभावितम् स्वयमेव मुण्डितम् सायमेव रोधितम् खयमेव शिक्षितम् खयमेव आचारगोचरं विनयचैक-चरण-करण-यात्रा-मात्राप्रायं धर्मम् आयात श्रमणो भगवान् महावीरः खयमेव प्रायति वाद-धर्मम् आश्वाति एवं देवाप्रिय गन्तव्यम् एवं स्थातम्यम् एवं वित्तव्यम् एवं व्यग्यर्तितव्यम् एवं मोक्तव्यम् एवं भाषितव्यम् एवम् उत्थाय उत्थाय प्राणैः भूतैः जीने संयमेन संयतव्यम् अधि अन 2 2 2 J 2 किञ्चिद् अपि प्रमदितव्यम्, ततः स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य इमम् एतद्रूपं धार्मिकम् उपदेशं सम्यक् संप्रतिपद्यते, तम् आज्ञया तथा गच्छति, तथा तिष्ठति, तथा निषीदति, तथा त्वग्वर्तते, तथा भुङ्क्ते, तथा भाषते, तथा उत्थाय उत्थाय प्राणैः, भूतैः, जीवैः सवैः संयगेन संगमयति, अलि अन प्रमादयति सतः सदा कालापनमोनमा जाता, देवीमित, भाषासमितः एपणासमित आदानभाण्डमात्र निक्षेपनासमितः उचार-प्रणखेड-शिरामतः मनस्पतिः वयसामितः यति मनतब " कायगुप्तः, गुप्तः, गुप्तेन्द्रियः, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, ऋजुः, धन्यः, क्षान्तिक्षमः, जितेन्द्रियः, शोधितः, अनिदानः- अनु० For Private & Personal Use Only Jain Education International 3 " , " www.jainelibrary.org

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