Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे- .
शतक १.-उद्देशक १०. स्वीकारवाथी अडधा परमाणुमा पण तेओना मते चिकाश होवी संभवे छे. तेओए कयुं छे के, तिन्नि परमाणपोग्गला एगयओ साहति. ते भिजमाणा दुहा वि, तिविहा वि कजंति. दुहा कज्जमाणां एगयओ दिवड्डे'त्ति] आ सूत्रथी तेओए दोढ दोढ परमाणु चोंटे छे' एम स्वीकार्य छे, तो पछी तेमां चिकाश तो स्वीकारी ज होवी जोइए. ज्यारे एम छे तो पछी 'बे परमाणुओ चिकाश विनाना होवाथी चोंटता नथी' एम कहे ते व्याजबी केम होइ शके? वळी जे कयुं छे के, 'एक तरफ दोढ अने बीजी तरफ दोढ' ए पण सारं नथी. कारण के परमाणुना बे भाग थइ शकता ज़ नथी.' जो तेना बे भाग करवामां आवे तो ते 'परमाणु' कहेवाय ज नहीं. तथा जे कयुं छे के, 'चोंटेला पांच पुद्गलो कर्मपणे थाय छ' ते पण असंगत छ. कारण के कर्म अनंत परमाणुरूप होवाथी अनंत कंघरूप छे अने पांच परमाणु तो मात्र स्कंधरूप ज छे.. तथा कर्म, ए जीवने आवरण करबाना स्वभाववालुं छे, जो ए मात्र पांच ज परमाणुरूप होय तो असंख्यात प्रदेशवाळा जीवने केवी रीते ढांकी शके तथा जे. कथं छे के, कर्म, ए शाश्वत छे ते पण ठीक नथी. जो कर्मने शाश्वत मानवामां आवे तो तेनो (कर्मनो) क्षयोपशम वगेरे न थवाथी ज्ञानादिनी हानि अने वृद्धि न थवी जोइए. पण लोकमा 'कोइने थोडं ज्ञान अने कोइने वघारे ज्ञान ए प्रमाणे ज्ञानादिकनी हानि अने वृद्धि जणाय छे. माटे कर्म शाश्वत न होवू जोइए. तथा जे कबुं छे के, 'कर्म हमेशा चय पामे छे अने नाश पामे छे' ते पण जो कर्मने शाश्वत मानवामां आवे तो अयुक्त छे. वळी जे का छे के, 'भाषामा हेतु होवाथी बोल्या पहेलांनी भाषा कहेवाय छे' ते अयुक्त ज छे. कारण के ते कथन औपचारिक छे अने उपचार तो खरी रीते वस्तुरूप नथी. वळी ज्यारे कोइ एक सत्य वस्तु होय त्यारे तेना उपरथी उपचार थइ शके छे माटे 'भाषा' ए तात्त्विक वस्तु छे एम सिद्ध थयु. वळी जे कहुं छे के, 'बोलाती भाषा, भाषा कहेवाती नथी, कारण के वर्तमानकाळ व्यवहारतुं अंग नथी.' ते पण खोटं छे. कारण के विद्यमानरूप होवाथी वर्तमानकाळ ज व्यवहारतुं अंग छे.. अने भूतकाळ, नाश पामेल होवाथी अविद्यमानरूप छे. तथा भविष्यत्काळ, असप होवाथी अविद्यमानरूप छे माटे ते बन्ने काळ व्यवहानु अंग नथी. वळी जे कयुं छे के, [भासासमय' इत्यादि.] ते पण ठीक नथी. कारण के माष्यमाण भाषानो अभाव होवाथी ['भासासमय' इत्यादि.] ए सूत्रना अमिलापनो असंभव प्रसक्त छे. अर्थात् ज्यारे वर्तमान काळनी भाषा न होय त्यारे भूतकाळनी भाषा तो 'होय जनहीं. 'सांमळनारने अर्थनुं ज्ञान कराववामां हेतुरूप छे' ए जे हेतु कसो छे ते अनेकांतिक-व्यभिचारी-छ. कारण के हाथ अने आंख वगैरेनी चेष्टाथी पण सांभळनारने अर्थY भान थइ शके छे, तो पण ते चेष्टा भाषा कहेवाती नथी. वळी जे कां छे के, 'अभाषकनी भाषा छे' ते तो वधारे खोटु छे. कारण के जो तेम मानवामां आवे तो सिद्धने अथवा जडने भाषानी प्राप्ति थवी जोइए. ए प्रमाणे क्रिया पण वर्तमानकाळे ज युक्त छे. कारण के ते वर्तमानकाळ .ज सद्रूप छे. वळी जे 'टेव तथा नहीं टेव होवार्नु कारण लख्युं ते पण व्यभिचरी छे. कारण के टेव वगेरे न होय तो पण कोइ एक क्रिया सुखरूप ज लागे छे. तथा जे कयुं के, 'नहीं करवाथी क्रिया दुःखरूप लागे छे' ते कथन अनुभवविरुद्ध छे. कारण के करवाने समये ज क्रिया दुःखरूप के सुखरूप लागे छे. पण कर्या पहेलां के कर्या पछी असद्रूप होवाथी किया सुख के दुःखरूप हो शकती नथी. . ३. तथा यदुक्तम्-'अकिचं' इत्यादि यदृच्छावादिमताश्रयणात्. तदपि असाधीयः. यतो यदि अकरणाद् एव कर्म दुःखम् , सुखं वा स्यात् तदा विविधैहिक-पारलौकिकानुष्ठानाऽभावप्रसङ्गः स्यात्. अभ्युपगतं च किंचित् पारलौकिकानुष्ठानं तैरपि च इति. एवमेतत् सर्वम्-अज्ञानविजम्भितम्. उक्तं च वृद्धैः-"परैतिस्थिअवत्तव्वयपढमसए दसमयम्मि उद्देसे, विभंगीणादसा मइभेआ या विसा सव्वा." "सम असम्भू भंगा चत्तारि होति विभगे, उम्मत्तवायसरिसं तो अन्नाणं ति निदिट्ट" सद्भते परमाणौ असद्धृतम्-अर्धादि. असद्भुते सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यम्. सद्भूते परमाणौ सद्भूतं निष्प्रदेशत्वम्, असद्भूते सर्वगात्मनि असद्भूतम्-अकर्तृत्वमिति. 'अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि' इत्यादि तु प्रतीतार्थमेव इति. नवरम्-'दोहं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए' त्ति एकस्य अपि परमाणोः शीतो-ष्णस्निग्ध-रूक्षस्पर्शानाम्-अन्यतरद् अविरुद्धं स्पर्शद्वयम्-एकदा एव अस्ति. ततो द्वयोरपि तयोः स्निग्धत्वभावात् स्नेह कायोऽस्त्येव. ततश्च तौ विषमस्नेहात् संहन्येते. इदं च परमतानुवृत्त्या उक्तम्, अन्यथा ' रूक्षौ अपि रूक्षत्ववैषम्ये संहन्यते एव. यदाहः-समैनिद्धयाए पंधो न होइ, समलुक्खयाए वि. न होइ, वेमायनिद्ध-लुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाण" ति. 'खंधे वि य णं से असासए'त्ति उपचयाऽपचयिकत्वात्. अत एव आहः-'सया समियं' इत्यादि. 'पुब्धि भासा अभास' त्ति भाष्यते इति भाषा, भाषणाच पूर्व न भाष्यते इति न भाषा इति. 'भासिज्जमाणी भासा भास' त्ति शब्दार्थोपपत्तेः. 'भासिआ अभास' त्ति शब्दार्थवियोगात्. 'पुब्धि किरिया अदुक्ख' त्ति करणात् पूर्व क्रिया एव नास्ति इति. असत्त्वादेव च न दुःखा, सुखाऽपि नासौ असत्त्वादेव. केवलं परमतानुवृत्या 'अदुःखा' इत्युक्तम्. 'जहा भास' त्ति वचनात् 'कन्जमाणी किरिया दुक्खा' सत्त्वात्. इहाऽपि यत् क्रियमाणा क्रिया दुःखा इत्युक्तम्, तत् परमतानुवृत्त्या एव, अन्यथा सुखाऽपि क्रियमाणा एव क्रिया. तथा 'किरियासमयवितिकंतं च णं' इत्यादि दृश्यमिति. 'किचं दुक्खं' इत्यादि. अनेन च कर्मसत्ता वेदिता, प्रमाणसिद्धत्वाद् अस्य. तथाहिः-इह यद् द्वयोः इष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोः एकस्य दुःखलक्षणं फलम् , अन्यस्य इतरत्, न तद् विशिष्टहेतुमन्तरेण संभाव्यते, कार्यत्वात् , घटवत्. यश्चासौ विशिष्टो हेतुः स कर्म इति. आह चः-"जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेळं, फज्जत्तणओ गोयम ! घडो ब्व, हेउ य से कम्म" ति.
३. तथा यदृच्छावादिना मतने लइने जे कथु छ के, ['अकिच्चं' इत्यादि.] ते पण अयुक्त छे. कारण के जो कर्या सिवाय ज कर्म दुःख के सुखरूप थतुं होय तो अनेक प्रकारनां ऐहिक अने पारलौकिक अनुष्ठानोनो अभाव आवशे. अने ते अन्ययूथिकोए पण कांइक पारलौकिक अनुष्ठान तो
१.प्र. छाः-परतीर्थिकवक्तव्यकप्रथमशते दशमे उद्देशे, विभङ्गिनामादेशा मतिभेदाश्चापि सा सर्वा. सद्भूतमसद्भूते भामाश्चत्वारो भवन्ति विभड़े सन्मत्तवाक्सदृशं ततोऽज्ञानमिति निर्दिष्टम्. २. एतद् गाथाद्वयं श्रीभगवतीअवचूा. ३. समस्निग्धतया धन्धः न भवति, समरूक्षतयाऽपि न भवति, विमा अखिग्ध-रूक्षत्वेन बन्धस्तु स्कन्धानाम्. ४. एतत्समानं श्रीतत्त्वार्थसूत्रे पञ्चमाध्याये ३२, ३३, ३४, ३५, ३६ सूत्रे. ५. यस्तुल्यसाधनानां फले विशेषा न स विना हेतुम्, कार्यत्वतो गौतम | घट इव हेतुश्च तत् कर्मः ६. इयं गाथा श्री विशेषावश्यके द्वितीयगणधरवादे १६१३ (पृ०६८९. य.पं.)-अनु.
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