Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 247
________________ शतक २.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२७ ९. उ०-हता, गोयमा / जाव-पञ्चायाइ. ९. उ०-हे गौतम! हा, यावत्-ते पाछो त्यां ज आवे. १०.३०-से भंते । किं पुढे उद्दायाति, अपुढे उद्दायाति १०. प्र०—हे भगवन् । ते वायुकाय स्वजातिना अथवा परजातिना जीवो साथे अथडावाथी मरण पामे ! के कोइ साथे अथडाया सिवाय मरण पामे ! । १०. उ०-गोयमा ! पुढे उद्दाति, नो अपुढे उदाइ. १०. उ०—हे गौतम ! ते वायुकाय स्वजातिना के परजा तिना जीवो साथे अथडावाथी मरण पामे. पण कोइ साथे अथ डाया सिवाय ते मरे नहीं.. ११. प्र०–से भंते ! किं . ससरीरी निक्खमइ, असरीरी ११. प्र०. हे भगवन् । ते वायुकाय मरीने ज्यारे बीजी निक्खमइ ? गतिमां जाय छे त्यारे शुं ते शरीरवाळो थइने जाय छे ? के शरीर विनानो थइने जाय छे? ११. उ०—गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय ११. उ०—हे गौतम ! ते कथंचित् शरीरवाळो थइने जाय असरीरी निक्खमइ. छे अने कथंचित् शरीर विनानो थइने जाय छे. १२. प्र०—से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'सिय ससरीरी १२. प्र०—हे भगवन् ! तेम कहेवानुं शुं कारण के, 'ते निक्खमइ, सिय असरीरी निक्समई? कथंचित् शरीरवाळो. थइने जाय छे अने कथंचित् शरीर विनानो थइने जाय छे! १२. उ०-गोयमा । वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्ण- १२. उ०—हे गौतम ! वायुकायने चार शरीर कह्यां छे. ता, तं जहाः-ओरालिए, वेउन्विए, तेयए, कम्मए. ओरालिय- ते आ प्रमाणे:-औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मण. तेमा वेउब्वियाई विप्पजहाय तेयय-कम्मएहि निक्खमइ, से तेणद्वेणं औदारिक अने वैक्रिय शरीरने छोडीने जाय छे माटे शरीर विनानो गोयमा । एवं वुच्चइ-'सिय सरीरी, सिय असरीरी निक्खमइ. थइने जाय छे अने तैजस तथा कार्मण शरीरने साथे लइने जाय छे माटे शरीरवाळो थइने जाय छे. हे गौतम! ते कारणथी पूर्व प्रमाणे कयुं छे. २. अथ एकेन्द्रियाणाम् उच्छ्वासादिभावात् , उच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानामपि उच्छ्वासादिना वायुना एव भवितव्यम् ? उत अन्येन केनाऽपि पृथिव्यादीनाम् इव तद्विलक्षणेन ! इत्याऽऽशङ्कायां प्रश्नयन् आह:-'वाउयाए णं' इत्यादि. अथ उच्छ्वासस्याऽपि वायुत्वाद् अन्येन उच्छ्वासवायुना भाव्यम्, तस्याऽपि अन्येनेव, एवमनवस्था. नैवम् , अचेतनत्वात् तस्य. किं च, योऽयमुच्छवासवायुः स वायुत्वेऽपि न वायुसंभविऔदारिक-वैक्रियशरीररूपः, तदीयपुद्गलानाम् आन-प्राणसंज्ञितानाम् औदारिक-वैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्तगुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतया एतच्छरीराऽव्यपदेश्यत्वात् , तथा च प्रत्युच्छ्वासादीनामभाव इति नाऽनवस्था. 'वाउयाए णं मंते !' इति. अयं च प्रश्नो वायुकायप्रस्तावाद् विहितः, अन्यथा पृथिवीकायिकादीनामपि मृत्वा स्वकाये उत्पादोऽस्त्येव, सर्वेषामेषां कायस्थितेरसंख्याततया, अनन्ततया च उक्तत्वात्. यदाहः-"असंखोसप्पिणीओस्सप्पिणीउ एगिदियाण चउण्हं, ता चेव ऊ अणंता वणस्सईए उ बोधव्वा." तत्र वायुकायो वायुकाये एवानेकशतसहस्रकृत्वः, 'उद्दाइत्त' त्ति अपद्रुत्य मृत्वा, 'तत्थेव' त्ति वायुकाये एव, 'पञ्चायाइ' त्ति प्रत्याजायते उत्पद्यते. 'पुढे उद्दाइ ति स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण, परकायशस्त्रेण वाऽपद्रवति म्रियते. 'नो अपडे ति सोपक्रमाऽपेक्षमिदम् , 'निक्खमइ' त्ति स्वकलेवराद् निस्सरति. 'सिय सरीरि' त्ति स्यात् कथंचित् , 'ओरालिय-वेउब्वियाई विप्पजहाय' इत्यादि. अयमर्थ:-औदारिक-वैक्रियाऽपेक्षया अशरीरी, तैजस-कार्मणाऽपेक्षया तु सशरीरी निष्कामति इति.. २. एक इंद्रियवाळा जीवोने उच्छ्वास वगेरे होय छे अने ते उच्छ्वासादि वायुरूप छे. तो शुं वायुकायिक जीवोना पण उच्छवासादि वायुरूप वायुनो उच्वाद छे? के पृथिवी वगेरेना उच्छ्वासादिनी पेठे वायुथी विलक्षण छे? ए आशंकानुं निराकरण करवा हवे प्रश्न करतां कहे छे केः-[ 'वाउयाए ' केवो । इत्यादि.] शं०-पृथिवी पोते पृथिवीरूप छे अने तेनो श्वास, निःश्वास वायुरूप छे. ए जरीते पाणी वगेरेमां पण समजवू. पण वायुमां तेथी जूदी शंका. ज रीति छे-वायु पोते वायुरूप छे अने तेनो श्वास अने निःश्वास पण वायुरूप छे. ज्यारे वायु वायुरूप छे तो पण तेने वायुरूप बीजा श्वास, निःश्वासनी जरूर रहे छे त्यारे वायुरूप श्वास, निःश्वासने पण बीजा वायुरूप श्वास, निःश्वासनी जरूर रहे ए घटतुं ज छे. अने जो एम थाय १. मूलच्छायाः-हन्त, गौतम ! यावत्-प्रत्यायाति. स भगवन्! किं स्पृष्ट उद्भवति, अस्पृष्ट उद्वति ? गौतम! स्पृष्ट उद्रवति, नो अस्पृष्ट उद्वति. - स भगवन् ! किं सशरीरी निष्कामति, अशरीरी निष्कामति ? गौतम! स्यात् सशरीरी निष्कामति, स्याद अशरीरी निष्कामति. तत् केनाऽर्थेन भगवन् ! एवम् - उच्यते-स्यात् सशरीरी निष्कामति, स्याद् अशरीरी निष्कामति. गौतम! वायुकायस्य चत्वारि शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाः-औदारिकम् , वक्रियम् , तेजसम्, कार्मणम् औदारिकवैक्रिये विप्रहाय तैजस-कार्मणाभ्यां निष्कामति, तत् तेनाऽर्थेन गीतम! एवम् उच्यते-स्यात् सशरीरी, स्याद् अशरीरी निष्कामतिः-अनु. १. प्र. छायाः-असंख्यावसर्पिणी-उत्सर्पिण्यः एकेन्द्रियाणां चतुर्णाम् , ताश्चव तु अनन्ता वनस्पतेस्तु योद्धव्याः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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