Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
१९७ पैडिवण्णया तेणं लक्विीरियेणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया सवीर्य होय छे. पण करणवीर्यवडे तो सवीर्य तथा अवीर्य पण होय वि, अवीरिया वि. से तेणद्वेणं गोयमा । एवं वुच्चड़-'जीवा दुविहा छे. माटे हे गौतम! ते हेतुथी एम का छे के, 'जीवो बे जातना पञ्चत्ता, तं जहाः-सवीरिया वि, अवीरिया वि'.
छे–वीर्यवाळा पण छे अने वीर्य विनाना पण छे'. २७७. प्र०-णेरइया णं मंते ! किं सवीरिया, अवीरिया ? २७७. प्र.-हे भगवन् ! शुं नैरयिको वीर्यवाळा छे के वीर्य
विनाना छे ? २७७. उ०-गोयमा! जेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, २७७. उ०—हे गौतम ! नैरयिको लब्धिवीर्यबडे सवीर्य करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि.
..छे अने करणवीर्यवडे सवीर्य पण छे अने अवीर्य पण छे. २७८. प्र०—से केणवणं? .
२७८. प्र०—हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण ? २७८. उ०-गोयमा। जसिणं णेरइयाणं आत्थि उहाणे, २७८. उ०—हे गौतम! जे नैरयिकोने उत्थान, कर्म. बल. कम्मे, बले, वीरिए, परिसक्कारपरकमे; ते णं णेरइया लाद्धिवंरिएणं वीर्य अने पुरुषकारपराक्रम छे ते नैरयिको लब्धिवीर्यवडे अने वि सवीरिया, करणवीरएण वि सवीरिया. जेसि णं णेरइयाणं करणवीर्यवडे पण सवीर्य छे. तथा जे नैरयिकोने उत्थान यावत्णत्थि उहाणे, जाव-परकमे; ते णं णेरइया लडिवीरिएणं सवी- पुरुषकारपराक्रम नथी ते नैरयिको लब्धिवीर्यवडे सवीर्य छे अने रिया, करणवीरिएणं अवीरिया. से तेणटेणं.
करणवीर्यवडे अवीर्य छे. माटे हे गौतम ! ते हेतुथी पूर्व प्रमाणे
कडं छे. २७९.-जहाणेरइया, एवं जाव-पंचिदियतिरिक्खजोणिया. २७९.-ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रियतिथंच योनिको 'सुधीना मणूसा जहा ओहिया जीवा. णवरं-सिद्धवज्जा भाणियव्वा. वाण- जीवो विषे नैरयिकोनी पेंठे जाणवू. अने सामान्य जीवोनी पेठे मंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा णेरइया.
मनुष्यो विषे जाणवू. विशेष ए के, सिद्धोने वर्जी देवा-सामान्य जीवोमा आवता सिद्धोनी पेठे मनुष्यो न जाणवा. तथा वानव्यंतरो,
ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरयिकोनी पेठे जाणवा. सेवं भंते!, सेवं भंते । ति जाव-विहरइ.
हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत्-विहरे छे.
भगवंतसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पढमसये अट्ठमो उद्देसो सम्मतो.
४. वीर्यप्रस्तावाद् इदमाहः-'जीवाण' इत्यादि.' सिद्धा णं अवीरिय' त्ति सकरणवीर्याभावाद् अवीर्याः सिद्धाः. 'सेलेसिपडिवनया य' त्ति शीलेशः सर्वसंवररूपचरणप्रभुः, तस्येयमवस्था शैलेशी. शैलेशो वा मेरुः, तस्येव या अवस्था स्थिरतासाधात् सा शैलेशी. सा च सर्वथा योगनिरोधे पञ्चस्वाक्षरोच्चारकालमाना-तां प्रतिपन्नका ये ते तथा. 'लद्धिवीरिएणं' ति 'सवीरिय' त्ति वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धिः, सा एव तद्धेतुत्वाद् वीर्य लब्धिवीर्य तेन सवीर्याः एतेषां च क्षायिकमेव लब्धिवीर्यम्, 'करणवीरिएणं' ति लब्धिवीर्यकार्यभूता क्रिया करणम् , तद्रूपं वीर्य करणवीर्यम्. 'करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया विति तत्र सवीर्या उत्थानादिक्रियावन्तः, अवीर्यास्तु उत्थानादिक्रियाविकलाः, ते च अपर्याप्तादिकाले अवगन्तव्या इति. नवरम् -सिद्धवजा भाणिअव्व' त्ति औधिकजीवेषु सिद्धाः सन्ति, मनुष्येषु तु ते न, इति मनुष्यदण्डके वीर्य प्रति सिद्धस्वरूपं नाध्येयमिति.
४. वीर्यनो अधिकार होवाधी हवे आ सूत्र कहे छे के, [जीवा णं' इत्यादि. "सिद्धा णं अवीरिय' ति] सकरण 'वीर्य सिद्धोने नथी होतुं माटे वीर्यविचार. सिद्धो अवीर्य छे. [ सेलेसिप्लडिवन्नया यत्ति] शीलेश एटले चारित्रवाळो जीव, तेनी जे अवस्था ते शैलेशी, शैलेश एटले मेरु, तेनी जेवी जे शैलेशी.
१. मूलच्छायाः-अशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते लब्धिवीर्येण सवीर्याः, करणवीर्येण सवीर्या अपि, अवीर्या अपि. तत् तेनाऽर्थेन गीतम! एवम् उच्यते 'जीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-सवीर्या अपि, अवीर्या अपि.' नैरयिका भगवन् ! किं सवीर्याः, अवीर्याः ? गौतम! नैरयिका लब्धिवीर्येण सवीर्याः, करणवीर्येण सवीर्या अपि, अवीर्या अपि. तत् केनाऽर्थेन ? गौतम | येषां नैरयिकाणाम् अस्ति उत्थानम् , कर्म, बलम् , वीर्यम् , पुरुषकारपराक्रमस्ते नैरयिका लब्धिवीयेणाऽपि सवीर्याः, करणवीर्येणाऽपि सवीर्याः. येषां नैरयिकाणां नास्ति उत्थानम् , यावत्-पराक्रमस्ते नैरयिका लब्धिवीर्येण सवीर्याः, करणवीर्येण अवीर्याः. तत् तेनाऽर्थेन०. यथा नैरयिकाः, एवं यावत्-पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः. मनुष्या यथा औधिका जीवाः. नवरम्-सिद्धवर्जा भणितव्याः. वानव्यन्तर-ज्योति-. पिक-वैमानिका यथा नैरयिकाः तदेवं भगवन् 1, तदेवं भगवन् । इति यावत्-विहरतिः-अनु.
१. वीर्यना बे प्रकार छे. जेमके लब्धिवीर्य अने करणवीर्य. वीर्य एटले एक जातर्नु आत्मवळ. लब्धिवीर्य एटले एक जातना आत्मबळनी सत्ता अने करणवीर्य एटले कोइ पण प्रकारनी क्रिया करतुं आत्मवळ. लब्धिवीर्य लगभग सबै संसारी जीवोने होय छे अने करणवीर्य सर्वने होय तेवो नियम नथी.
-२, आ विषे वधु विवेचन माटे जूओ पृ-५१नी शैलेशी शब्द उपरनी पांचमी नोट:-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only
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