Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १. - उद्देशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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१. "से' इति राद् यदुक्तं पूज्यैः 'चलत् चलितम्' इत्यादि 'पूर्ण'ति एवमर्थे तत्र तत्राऽस्यैन्याख्यातत्वात् अथवा '' इतिशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दाऽर्थे वर्तते, अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः, परिप्रश्नार्थे वा; यदाहः - "अथ प्रक्रिया - प्रश्ना- Sऽनन्तर्य - मङ्गलो-पन्यास-प्रतिवचन-समुच्चपेषु” नूनम् इति निश्चित्तम्, 'भंत' चि गुरोरामन्त्रणम्, ततश्च हे भदन्त ] कल्याणरूप! सुखरूप ! इति वा, 'भदि कल्याणे सुखे च' इति वचनात्, प्राकृतशैल्या वा भवस्य संसारस्य, भयस्य वा भीतेरन्तहेतुत्वाद् भवान्तो भयान्तो वा; तस्याऽऽमन्त्रणम् - हे भवान्त ! हे भान्त ] या, भानू वा ज्ञानादिमिर्दीप्यमान 'भा दीप्ती' इति वचनात् भ्राजमान! या दीप्यमान! 'भाजू दीप्ती' इति वचनात् अयं च आदित आरम्प "भंते' चिपर्यन्तो अन्धो भगवता सुधर्मस्यामिना पश्चमाङ्गस्य प्रथमशतस्य प्रथमोदेशकस्य संबन्धार्थमभिहितः अथ अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्य पञ्चमाङ्गप्रथमशतप्रथमोदेशकत्येदमादिसूत्रम्: 'चलमाणे चलिए' इत्यादि अथ केनाऽभिप्रायेण भगवता सुधर्मस्वामिना पञ्चमाङ्गप्रथमशतप्रथमोद्देशकस्याऽर्थाऽनुकथनं कुर्वता एवमर्थवाचकं सूत्रमुपन्यस्तम्, नान्यानि इति ? अत्रोच्यते, इह चतुर्षु पुरुषार्थेषु मोक्षाख्यः पुरुषार्थो मुख्यः सर्वाऽतिशायित्वात् तस्य च मोक्षस्य साम्यस्य, साधनानां च सम्यग्दर्शनादीनां साधनत्वेनाऽन्यभिचारिणामुभयनियमत्य शासनाच्छास्त्रं सद्भिरिष्यते, उभयनियमस्त्वेवम्ः सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षत्वेव साप्यस्य साधनानि नान्यस्यार्थस्य, मोक्षख तेषामेव साधनानां साध्यो नान्येषामिति, स च मोक्षो विपक्षक्षयात्, तद्विपक्षश्च बन्धः - स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः संबन्धः, तेषां तु कर्मणां प्रक्षयेऽयमनुक्रम उक्तः चतमाणे 'ति चछत् स्थितिशयादुदयमागच्छद् - विपाकाऽभिमुखीभवद् यत् 'कर्म' इति प्रकरणगम्यम्, तचलितम्उदितमिति व्यपदिश्यते; चलनकालो हि उदयावलिका, तस्य च कालस्याऽसंख्येयसमयत्वादादि - मध्या - ऽन्तयोगित्वम्, कर्मपुद्गलानामप्यनन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेशास्ततथ ते क्रमेण प्रतिसम्यमेव चछन्ति, तत्र योऽसावायः चलनसमयस्तस्मिंश्चलदेव तच्चलितमुच्यते कथं पुनस्तवर्तमानं सदऽतीतं भवति ? इति. अत्रोच्यते, यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति, उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पयते' इत्येवं म्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव उत्पन्न तूपपस्या प्रसाध्यतेः
१. [से' इति] से एटले ते, के जे पूज्योए 'चालतो हे ते चाल्यो' इत्यादि धुंडे, (९) ['पूर्ण' ति] नूनम्र प्रमाणे हे? अथवा ए निश्चित छे (कारण के ते से स्वले आनी 'नूनम्' शब्दनी 'ए प्रमाणे' अर्थमां व्याख्या करेली छे) अथवा 'से' शब्द 'अर्थ' शब्दना अर्थमां मागधदेशी प्रसिद्ध छे, अने 'अथ' शब्द तो वाक्यना आरंभने माटे, अथवा प्रश्नने माटे समजवो. कयुं छे के, “अथ शब्द प्रकरण, प्रश्न, अनन्तरपणुं, मंगल, प्रारंभ, उत्तर तथा समुच्चय बतावनार छे” [‘भंते’त्ति ] ‘भन्ते’ ए शब्द गुरुना आमन्त्रणनो सूचक छे, तेथी भंते - हे मदन्ते । एटले हे कल्याणवरूप अथवा सुखस्वरूप !, अथवा 'मंते "
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भावीने - पोताना मतमां घणा माणसोने मेळवीने-मरण पामी किल्बिषिक देवोमां उत्पन्न थयो. आ जमालिनुं चरित्र जो विस्तारपूर्वक जाणवुं होय तो भगवती नामना पांचमा अंगमां नवमशतकना तेत्रीशमा उद्देशकमा ( क० आ० पृ० - ७९९-८४९ ) जमालिनुं जे चरित्र कयुं छे ते जाणवुं. ए प्रमाणे उपसंपद गाथानो भावार्थ छे, ते गायानो अक्षरायें तो आछेपेक्षा सुदर्शना अने अनवद्ययी एये नाम जमालिनी घरवादीनां छे बीजाओ तो कहे भगवंत महावीरनी ज्येष्ठा से मोटी नामे बहेन के तेनो पुत्र जमालि हे अने अनवधांगी नामनी भगवंतनी पुत्री जान 'गृहिणी 'धायस्ती सावत्थी' नमरीमां तेंदुचनामना उद्यानमा जमालिनामना नियोमा उत्पन्न भयो. ते पांच साधुओं भने एक हजार सायीओ हवी. तेमांची केटाको पोतानी मे जमविनां मतने खोटो जी भगवंत महावीर पाये गया हवा. जेओ पोतांनी मेळे जमिनी असत्यता न समजी शक्या हता तेने ढंकनामना श्रावके समजाव्या. मात्र एक जमालि कोइ प्रकारे समज्यो नहीं. गा- २३०७ - विशेषा० (य० अं० पृ९३५-३६) आजमाविना सिद्धांतनुं समर्थन भने सल्लासता श्रविशेषावयवसूत्रमां सविदर जगावी . वे साठे जुओ-विशेषा (गा० २३०६ थी २३३२. य० प्र० पृ० - ९३५थी ९४५. ) : - अनु०
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१. भदि कलाण - सुहत्थो धाऊ तस्स य भदंत सद्दोऽयं, स भदंतो कल्लाणो सुहो य + + ३४३९. व्याख्या- 'भदि कल्याणे सुखे च' इति भदि, धातुः कल्याणार्थ सुखाय तस्य भरि धातोर्नदन्त इत्यादिकप्रत्यये भदन्यशब्दोऽयं निष्पयते, ततः स्थितमिदं भदन्तः कत्याणः सुखब ३४३९. अथवा 'भन्ते' इति नेदं 'भदन्त' इत्यामन्त्रणम्, किन्तु 'भजन्त' इति कया व्युत्पत्त्या ! इत्याह :- अह्नवा 'भय सेवाए' तस्स भयन्तोत्ति सेबए जम्हा, सिवगइणो सिवमग्गं सेन्वो य जओ तदत्थीणं. ३४४६. अथवा 'भज त्रिन् सेवायाम्' इति भजधातुः, तस्य भजते सेवते इति भजन्तः तस्य संबोधनं हे भजन्त गुरो ! स चेह कस्मात् ? उच्यते यस्मात् सेवते, कान् ? शिवगतीन् सिद्धिगतिप्राप्तान् अथवा दर्शन-ज्ञान- चारित्रलक्षणं शिवमार्ग मोक्षमार्गम् अथवा सेव्यम यसादसी तदर्थिनां मोक्षमार्गार्थिनाम् तसाद् भज्यते यते इति भजन्त इत्युच्यते २४४६. अथवा मातो आवन्तो या गुरुरुच्यते कथम् इलावा भा भाजो वा दितीए होइ वस्त्र मंतो लि, भाजतो चावरिओ सो वागत
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भाषादित्तीए'वि दोसी पयते तस्य भान्तो भाजन्त इति वा भवति स चैवंभूतः कः
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इवाद: आचार्य:, स च कथं भावि, भ्राजते वा ? इत्याहः - ज्ञान - तपोगुणदीत्येति ३४४७ अथवा भ्रान्तो भगवान् वाऽसाविति दर्शयन्नाह :- अहवा मंतोऽवेओ जं मिच्छत्ताइबंधहेउओ, सरियाभगो विवाद से भगवतो. ३४४८. अथवा 'भ्रम अनवस्थाने' इस्थ वातोन्तमुच्यते यस्मादपेतोऽसी मिथ्यात्वादिवन्धहेतुभ्य इति अथवा ऐर्यादिकः पद्विधो भगो नियते'' तख तेन भगवान् ति २४४० अथवा भवान्तो भवान्तो ऽदर्शवाद अंटो के तेच सो भवान्तो लि. अहवा भयस्य अंतो होइ भवंतो भवं तापो. ३४४५ अथवा वसमा नारकादिमवस्यान्तहेतुत्वादन्तोऽसी रोन भवान्त इति, अथवा भयस्यान्तो भयान्तो भवति, भयं च त्रास उच्यते. ३४४९. - विशेषावश्यकः - अनु०
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१. 'विशेषावश्यक' सूत्रमां 'भन्ते' शब्दनी व्याख्या आ प्रमाणे छे:- 'भदन्त' 'भजन्त' 'भान्त' 'भ्राजन्त' 'भ्रान्त' 'भगवत्' 'भयान्त' अने 'भवान्त' शब्द परथी 'भन्ते' शब्द बने छे. तेनी व्याख्या नीचे प्रमाणे छे:-कल्याण अने सुख अर्थवाळा 'भदि' धातु परथी 'भदन्त' शब्द बने छे.. तेनो अर्थं कल्याणरूप अने सुखरूप थाय छे. अथवा सेवा अर्थवाळा 'भज' धातु परथी 'भजन्त' शब्द वने छे. 'भजन्त' एटले सिद्धिगतिने प्राप्त जीवोने जे सेवे ते, अथवा ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप मोक्षमार्गने जे सेवे ते, अथवा मोक्षार्थी पुरुषोवडे जे सेवाय ते. अथवा दीप्ति अर्थवाळा 'भा' धातु परथी 'भान्त' शब्द बने छे. 'भान्त' एटले ज्ञान तथा तपादि गुणोनी दीप्तिथी जे युक्त होय ते. अथवा दीप्ति अर्थवाळा 'भ्राज' धातु परथी 'भ्राजन्त'
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