Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 170
________________ १५० भीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १.-उद्देशक ५. शरीरवारे सत्तासि भंग'त्ति अनेन यद्यपि वैक्रियशरीरे सप्तविंशतिभेगका उक्तास्तथापि या स्थित्याश्रया, अवगाहनाश्रया च भङ्गकप्ररूपणा सा तथैव दृश्या, निरवकाशत्वात् तस्याः, शरीराश्रयायाश्च सायकाशत्वात् . एवमन्यत्रापि विमर्शनीयमिति. एएणं गमे तिल सरीरया भाणियव्य'त्ति वैक्रियशरीरसूत्रपाठेन त्रीणि शरीरकाणि-वैक्रिय-तैजस-कार्मणानि भणितव्यानि, त्रिष्वपि भङ्गकाः सप्तविंशतिर्षाच्या इत्यर्थः. नन विग्रहगतौ केवले ये तैजस-कार्मणशरीरे स्याताम् , तयोरल्पत्वेनाशीतिरपि भङ्गकानां संभवतीति कथमच्यते तयोः साप्त विंशतिरेव ! इति. अत्रोच्यते:-सत्यमेतत् , केवलं वैक्रियशरीरानुगतयोस्तयोरिहाश्रयणम्, केवलयोश्चानाश्रयणम्, इति सप्तविंशतिरेवेति. यच्च तयोरेवातिदेश्यत्वे 'श्रीणि' इत्युक्तं तच त्रयाणामपि गमस्यात्यन्तसाम्योपदर्शनार्थमिति. संहननद्वारे 'छहं संघयणाणं अस्संघयणि त्ति षण्णां संहननाना-बजर्षभनाराचादीनां मध्यादेकतरेणापि संहननेनाऽसंहननानीति. कस्मादेवम् ! इत्यत आहः-'नेवष्टि इत्यादि. नैवास्थ्यादीनि तेषां सन्ति, अस्थिसंचयरूपं च संहननमुच्यते इति. 'अणिढ'त्ति इष्यन्ते स्म इति इष्टाः, तनिषेधादनिष्टाः, अनिष्टमपि किश्चित कमनीयं भवतीत्यत उच्यते-अकान्ताः, अकान्तमपि किञ्चित् कारणवशात् प्रीतये भवतीत्याहः-'अप्पिया' अप्रीतिहेतवः, अप्रियत्वं तेषां कुतः! यतः 'असुभ'त्ति अशुभखभावाः, ते च सामान्या अपि भवन्ति, इत्यतो विशेष्यन्ते:-'अमणुण्णत्ति न मनसा अन्तःसंवदेनेन शुभतया ज्ञायन्ते इत्यमनोज्ञाः, अमनोज्ञता चैकदापि स्यादत आह:-'अमणाम'तिन मनसाऽम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनः स्मरणतो ये ते अमनोऽमाः, एकाथिकाच एते शब्दा अनिष्टताप्रकर्षप्रतिपादनार्था इति. 'एतेसिं सरीरसंघायत्ताए'त्ति संघाततया शरीररूपसंचयतयेत्यर्थः. संस्थानद्वारे 'किंसंठिअत्ति किं संस्थितं संस्थानं येषां तानि किंसंस्थितानि. भवधाराणिज्जति भवधारणं निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयानि आजन्मधारणीयानीत्यर्थः. 'उत्तरवेउब्विय'त्ति पूर्ववैक्रियापेक्षया उत्तराणि उत्तरकालभावी नि, वैक्रियाणि-उत्तरवैक्रियाणि. 'इंडसंठिअत्ति सर्वत्राsसंस्थितानि. शरीरदार. शंका. समाधाम. सहकनार ७. हवे शरीर द्वार संबंधे विचार करता जणावे छे के, [ 'सत्तावीसं भंग' ति] जो के आ सूत्रवडे वैक्रियशरीरविषे सत्तावीश भांगा कह्या छे तो पण स्थितिने तथा अवगाहनाने आश्रीने जे भांगाओ प्ररूप्या छे ते तो तेमना तेम ज समजवा. कारण के जो ते तेमना तेम न समजवामां आवे अने तेमां आ सूत्रने लइने फेरफार करवामां आवे तो ते प्ररूपणा अन्यत्र सावकाश न होवाथी निष्फल थाय छे अने आ शरीर विषेनी प्ररूपणा तो बीजे ठेकाणे. फलवती छे. ए प्रमाणे बीजे ठेकाणे पण समजवु. [ 'एएणं गमेणं तिनि सरीरया माणियव्व' ति] जेम वैक्रियशरीर संबंधे सूत्रपाठ को छे तेज प्रमाणे त्रणे शरीर वैक्रिय, तैजस अने कार्मण शरीर-संबंधे पण समजवु अर्थात् ते त्रणे शरीरोमां सत्तावीश भांगा कहेवा. शंकाः-जीव ज्यारे विग्रहगतिमा होय छे त्यारे तेने मात्र बे ज-तैजस अने कार्मण-शरीर होय छे अने ते बे ज शरीरवाळा जीवो अल्प होय छे माटे ते संबंधे एंशी भांगा पण संभवे छे. तो ते केम नथी कह्या ? अने सत्तावीश ज.शा माटे कसा? समाधानः-जो के आशंका साची छे, पण अहीं ते बंध बेसती नथी. कारण के आ ठेकाणे तैजस अने कार्मण ए बे शरीर एकलां ज लेवानां नथी पण वैक्रिय साथे ज ए बे-तैजस अने कार्मण-शरीर लेवानां छे. माटे जे सत्तावीश भांगा कपा छे ते ठीक छे. जो के मूळमां 'एएणं गमेणं दुण्णि' एम अतिदेश करवो जोइए-एम कहेवू जोइए, तो पण जे 'एएणं गमेणं तिष्णि-'एम कयुं छे तेनुं कारण त्रणे शरीरना गमर्नु अत्यंत सादृश्य देखाडवानुं छे. हवे संहनन द्वार संबंधे जणावे छे:-['छण्हं संघयणाणं अस्संघयणि ति] 'वैज्रर्षभनाराच' वगेरे छ संहननोमांथी एक संहननवडे पण असंहननी छे अर्थात् नैरयिकोने एक पण संहनन-संघयण-होतुं नथी. तेम कहेवा शुं कारण ? तो कहे छे के, [नेवढि' इत्यादि. ] ते नैरयिकोने हाडकां वगेरे नथी होतां माटे ते संहननरहित छे. कारण के हाडकाना समूहरूप ज 'संहनन' कहेवाय छे. ['अणि?' त्ति] इच्छाय ते इष्ट, तेवा नहीं ते अनिष्ट, कोइ अनिष्ट वस्तु सुंदर पण होय छे माटे कहे छे के, असुंदर-खराब, केटलीक खराब वस्तु एवी होय छे के कोइ कारणने लीधे तेना उपर प्रीति पण थाय, माटे कहे छे के, [ 'अप्पिया'] कारण होय तो पण अप्रीतिमां कारणभूत, ते अप्रिय शामाटे छे । तो कहे छे के, ['असुभ'ति] ते अशुभ स्वभाववाळां छे माटे, केटलीक वस्तुओ तो सामान्य रीतिए अशुभ होय छे, माटे अहीं विशेषता दर्शाववा कहे छे के, ['अमणुण्ण ति] मनद्वारा जे शुभपणे न जणाय ते अमनोज, कोइ अमनोज्ञ एवं होय छे के जे कदाचज एवुहोय. माटे कहे छे के, ['अमणाम' ति] जे वारंवार स्मरणमा आववाथी पण मनने ग्लानि आपे अर्थात् मनने गमे नहीं ते अमनोऽम, अथवा आ बधा शब्दो समान अर्थवाळा छे अने अत्यंत अनिष्टता दर्शाववा सारु अहीं तेओने प्रयोज्या छे. [एतेसिं सरीरसंघायत्ताए' ति] अर्थात् पूर्वोक्त खरूपवाळां पुद्गलो ए नैरयिकोना शरीरसंघातरूपे छे. हवे संस्थान द्वार विषे जणावे छे के, [ 'किंसंठिअ' ति] जेओन केवु संस्थान ( आकार ) छे ते 'किंसंस्थित' कहेवाय. [ 'भवधारणिज्ज' ति ] जेर्नु प्रयोजन पोताना जन्मने वीताववानुं छे-जेने लइने जन्म वीती शके छे ते 'भवधारणीय' अर्थात् आखी जिंदगी सुधी जे रहे ते 'भवधारणीय' कहेवाय. [ 'उत्तरवेउव्विय'त्ति] पूर्व वैकियनी अपेक्षाए जे उत्तर काळे थनारां वैक्रियो छे ते 'उत्तरवैक्रियो' कहेवाय. [ 'हुंडसंठिअ' ति] सर्वत्र अव्यवस्थित ते इंडसंस्थित अर्थात् बधा शारीरिक अवयवोनो अव्यवस्थित आकार. संसामहार भवचारणीय. १. मा शब्द माटे जूओ -३४ नी नोट नं-३. २. मा शब्द माटे जूओ पृ-३४ नी नोट नं-२:-अनु. For Private & Personal Use Only Jain Education international www.jainelibrary.org

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