Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 67
________________ १.देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ४७ , ३. तथा 'उदीरियमाणे उदीरिए ति उदीरणा नाम अनुदयप्राप्तम्, चिरेणाऽऽगामिना कालेन यद् वेदयितव्यं कर्मदालिकं तस्य विशिष्टाऽध्यवसायलक्षणेन करणेनाऽऽकृष्योदये प्रक्षेपणम् ; सा च असंख्येयसमयवर्तिनी, तयां च पुनरुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय व उदीर्यमाणं कर्म पूर्वोक्तपटान्तेन उदीरितं भवतीति तथा 'बेइज्जमाणे बेइए' चि वेदनं कर्मणो भोगोऽनुभव इत्यर्थः तच वेदनं स्थितिचधादुदयप्राप्तस्य कर्मणः, उदीरणाकरणेन च उदयमुपनीतस्य भवति तस्य च वेदनाकालस्या संख्येयसमपत्याद् आद्यसम वेद्यमानमेत्र वेदितं भवतीति तथा 'पहियमाणे पहाणे' वि प्रहाणं तु जीवप्रदेशैः सह संलिष्टस्य कर्मणस्तेभ्यः पतनम् एतदप्यसंख्येयसमयपरिमाणमेव तस्य तु प्रहाणस्यादिसमये प्रहीयमाणं कर्म ग्रहीणं स्वाद् इति तथा 'छिन्यमाणे छिने'ति छेदनं कर्मणो दीर्घकालानां स्थितीनां हस्ताकरणम्, तच्चाऽपवर्तनाऽभिधानेन करणविशेषेण करोति, तदपि च छेदनमसंख्येयसमयमेव तस्य तु खादिसमये स्थितितस्तच्छिद्यमानं कर्म छिनमिति तथा 'मिवमाणे भित्रे'ति मेदस्तु कर्मणः शुभस्याऽशुभस्य या सीजरसस्याऽपवर्तनाकरणेन मन्दताकरणम्, मन्दस्य चोद्वर्तनाकरणेन सीव्रताकरणम् सोऽपि चाऽसंख्येवसमय एव ततख तदायसमये रसतो भिद्यमानं कर्म भिन्नमिति तथा 'डजामाणे दसि दाहस्तु कर्मदलिकदारूणां ध्यानाग्निना राहूपाऽपनपनम् अकर्मयजननमित्यर्थः यथाहिकाष्ठस्याऽग्निना दग्धस्य कालरूपाऽपनयनम् भस्मात्मना च भवनं दाहस्तथा कर्मणोऽपीति तस्याऽप्यन्तर्मुहूर्तवर्तित्वेनाऽसंख्येयसमयस्याऽऽदिसमये दह्यमानं कर्म दग्धमिति तथा 'मिलमाणे मडे'ति म्रियमाणमायुष्कर्म मृतमिति व्यपदिश्यते, मरणं ह्यापुद्रछानां क्षयः, तथाऽसंवेपसमपचर्ति भवति, तस्य च जन्मनः प्रथमसमयादाऽऽरम्याऽऽयीचिकमरणेनाऽनुक्षणं मरणस्य भावाद् म्रियमाणं मृतमिति तथा 'निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे' त्ति निर्जीर्यमाणं नितरामपुनर्भावेन क्षीयमाणं कर्म निर्जीर्णं क्षीणमिति व्यपदिश्यते. निर्जरणस्याऽसंख्येयसमयभावित्वेन तत्प्रथमसमय एव पटनिष्पत्तिदृष्टान्तेन निर्जीर्णत्वस्योपपद्यमानत्यादिति पटदृष्टान्तश्च सर्वपदेषु सभावनिको वाच्यः. i " ३. [‘उदीरिज्जमाणे उदीरिए’त्ति ] उदीरातुं ते उदीरायुं. उदयने प्राप्त नहीं थएल एवा अने आगामी लांबा काले वेदवाना कर्मदलिकने विशिष्ट उदीर्यमाण उदीरित. अध्यवसायरूप करणवडे खेंचीने उदयमां लाववुं तेने 'उदीरणा' कहे छे. ते उदीरणा असंख्येय समयवर्ती छे. ते उदीरणावडे प्रथमसमयमां ज उदीरातां कर्मने पूर्वोक्त पटना द्रष्टान्तवडे 'उदीरायुं' कहेवाय छे. [ 'वेइज्जमाणे वेइए' त्ति ] वेदातुं ते वेदायुं. कर्मने भोगवतुं कर्मनो अनुभव करवो तेने वेदैन वेद्यमान दि. कहे थे. स्थितिनो क्षय पवामी उदयने प्राप्त यएल कर्म अथवा उदीरणा करी उदयने प्राप्त करेला कर्मनुं वेदन थाय छे. ते वेदननो असंख्य समय काल होवाथी, आय समवने विषे वेदातां कर्मने 'वेदायुं' ए प्रमाणेनो व्यवहार उपर प्रमाणे पटे छे. [ 'पहिलमाणे पहीने त्ति ] पडतुं ते पाणी जीवप्रदेशोनी साधे संबद्ध कर्म प्रदेशीप ते 'प्रहाण' कहेवाः, जीवप्रदेशोयी कर्मना पाहाण ( महागनो काल ) पण असंख्य समय परिमाणचा छे. ते प्राणना आदि समयने विषे जीवदेशोची पद कर्म 'प' ए प्रमाणेनो व्यवहार पटना शान्त समजयो अर्थात् प्राणना आदि समयमां जे पडवा मांड्यं ते पड्यं एम कहेवाय छे. ['छिजमाणे छिन्ने' त्ति ] छेदातुं ते छेदायुं. कर्मनी दीर्घकालनी स्थितिनी लघुता करवी अर्थात् छियमान छिन. कर्मनी दीर्घकालिक स्थितिने इसकालिक करवी तेने छेदन कहे छे. जीव ते छेदनने अपवर्तन नामना करणविशेषयी करे छे. तेनी (अपवर्तननी) स्थिति असंख्यात समयनी है. प्रथम समयम स्थितिथी छेदाता कर्मने 'छेदावु' ए प्रमाणेनो व्यवहार पूर्वोक्तरीत्यनुसार समजयो. ['मिजगाने भित्ति विद्यमान मित्र. भेदातुं (पूर्वस्थितिथी बदलातुं) ते भेदायुं. शुभ वा अशुभ कर्मना तीव्र रसनुं अपवर्तनाकरणवडे मंद कर, अने मंदरसनुं उद्वर्तनाकरणवडे तीव्र क तेने भेद कहे छे. आ भेद पण असंख्येय समय स्थितिवाळो छे. तेथी प्रथम समयमां तीव्र अथवा मंद रसधी भेदाता कर्मने 'भेदायुं' ए प्रमाणेनो व्यवहार पूर्वोक्तं समजवो. ['डज्झमाणे दड्ढे 'त्ति ] बळतुं ते बळ्युं. कर्मदलिकरूप काष्ठोना स्वरूपनो ध्यानरूप अभिवडे नाश करवो अर्थात् कर्मनो दलमान दग्ध अमाव करबो कर्मरहितप कर देने अहीं दाह समजयो. जेम अभिनडे दग्ध भएता कामना रूपनो नाश पर ते का भस्मवरूप भाव छे रोग कर्मनो पण ध्यानस्य अनि दाह वाय . ते (दाह) पण अन्तर्मुहूर्तवर्ती होवाथी असंस्थेव समय स्थितिवाल है. सेना आयसमयविषे दद्यमान (त) कर्मने 'दग्ध' (ब) ए प्रमाणेनो व्यवहार पूर्वोक्त प्रमाणे समजवो. ['मागे गडे'त्ति ] मरतुं ते मदु 'मरता' एवा आयुः कर्मनो 'भ' विमा ए प्रमाणे व्यवहार थाय छे. आयुः कर्मना पुद्गलोनो क्षय ए ज मरण छे. ते असंख्येय समयवर्ती छे. जन्मना प्रथम समयथी आरंभीने आवीचिक वीचिक, १. चा (वेदन) शब्द जैनपरिभाषायां कर्मजन्य फलना अनुभव अर्थमा पण प्रसिद्ध है. "वेदिताः श्वेन रविपाकेन प्रतिसमवमनुभूयमानाः" (भगवतीटीका ) "पोताना रसविपाकी प्रतिसमये अनुभवाता फर्मपुद्रलोने वेदित (वेदाएला) कर्मद्रो बाय छे" ( भगवतीटीका ):-- अनु० २. ( आवीचिक ) शब्द एक प्रकारना मरणनो सूचक छे. जैन महर्षिओए पांच प्रकारनुं मरण जणाव्युं छे. तेना नाम आ छे:-आवीचिकमरण, अनधिमरण, आसंतिकरण, वामरण भने पंडितमरण आनीकरण-आ-समस्त प्रकारे पीचितरंगी, पेठे मरण ते आवीचिकमरण अर्थात् जेम एक पछी एक तरंग विना बिलंबे आव्या ज करे छे तेम एक पछी एक क्षणे आयुष्यनो नाश थया ज करे छे अने ते नाश 'आवीचिकमरण* कवाय छे. जेम कोइ मनुष्यनी (जे जनमवानो छे) आवरदा ५० वरसनी छे, अने ते एक स्थळ छोडी बीजे स्थळे ज्यारथी गर्भमां आव्यो त्यारथी तेनी से पचास वरसनी आवरदामांथी घटाडो थवो शरु थइ जाय छे. अर्थात् जेम जेम काल थतो जाय छे, मनुष्य मोटो थतो जाय छे तेम तेम जेटलो काल गयो तेटलो काल ( वरस, मास, दिन, घडी, पळ, सेना आयुष्य नाथ क्या करे छे अने आयुष्यनो नाश एज मरण छे. अवधिमरण-अवधिया मरण वे अवधिमरण, आवंतिकमरण जे मरण आलंतिक के वे आविकमरण. बालमरण-बाल-विरतिनिनाना विपळ ) तेना आयुष्यनो नाश थाय छे. तात्पर्य ए के, प्रतिक्षण के माटे, ते प्रतिक्षण बता आयुष्या मायने 'आचचिकमरण' उदाय जीव-जे मरण ते बामरण अने पंडितमरण-पंडित विरतिया भोव-श्रम बरच वे पंडितमरण अह 'आवीचिकमर' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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