Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १.-उद्देशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १.बीजामोतो आ प्रमाणे व्याख्या करे छ:-"आ चार पदो स्थितिबंधादि विशेषरहित-सामान्य-कर्मना आश्रित होवाथी एकार्थक छे, अने केवलज्ञानना अन्य. उत्पादपक्ष (उत्पत्तिपक्ष) ना साधक छे.” 'चलनादि चार पदो एकार्थक छे' ए प्रमाणे कहेबाथीज 'शेष पांच पदो अनेकार्थक छे' एम सामर्थ्यथी जणाद गर्य लतां सखपर्वक बोध थवाने साक्षात् प्रतिपादनने माटे कहे छे के:-[ 'छिज्जमाणे'] 'छिद्यमान' इत्यादि स्पष्ट छे. विशेष नानार्थक आ प्रमाणे:-'छेदातं ते नानार्थ, देदार आवाक्य स्थितिबंधसापेक्ष छे. कारण के अंतकाळमां योगना निरोधने करवानी इच्छाबाळा सयोगी केवली दीर्घकाळ सुधी रहेनारी वेदनीय, स्थितिबंध. नाम अने गोत्र नामनी त्रण प्रकृतिना स्थिति परिमाणने सर्वाऽपवर्तनाकरण वडे अन्तर्मुहूर्त समयपरिमाण स्थितिवाळं करे छे. 'भेदातं ते भेदाय आ पट अनभोगबंधने आश्री कापं छे. (ते सयोगी केवली) जे काळे स्थितिघातने करे छे ते ज काळे रसघातने पण करे छे. केवळ अनुक्रमे प्रवृत्त थएला अनुभागबंध, स्थितिखंडको करतां रसघात अनन्तगुण अधिक छे. आथी आ पद रसघात करवारूप अर्थवाळु होवाथी स्थितिघातार्थक पूर्व पद करतां भिन्न अर्थवाळ छे. तथा 'बळतं ते बळ्यु' ए पद प्रदेशबंधने आश्रीने छे. अनन्त प्रदेशात्मक अनन्त स्कंधोने कर्मत्वापादन कबुं तेने प्रदेशबंध कहे छे. पांच प्रदेशबंध. हखाक्षरना उच्चारकाळ जेटला परिमाणवाळी अने असंख्यातसमययुक्त गुणश्रेणीनी रचनावडे पूर्वे रचित अने प्रथम समयथी आरंभी यावत् अंत समय सुधी प्रतिसमये क्रमथी असंख्यातगुणवृद्ध कर्म पुद्गलोना दहनने दाह कहे छे. ते शैलेशी अवस्थामा थनार शुक्लध्यानना चतुर्थ पाद (चोथा शैलेशी. पाया रूपमन्छिन्नक्रिय नामना ध्यानानि वडे थाय छे. आ प्रकारे आ पद दहनार्थक होवाथी पूर्व पदोथी भिन्नार्थक छे. अन्य स्थले अन्यार्थवाळो दाह प्रसिद्ध होवा छता अर्थात् दाह शब्द अन्य प्रकारे रूढ छे, छतां अहीं मोक्षविचारणाना अधिकारमा मोक्षनो साधक उक्तलक्षण कर्मविषयक द्वार ग्रहण करवो. तथा मरतुं ते मयु ए पद आयुःकर्मविषयक छे, कारण के आयुष्य संबंधी पुद्गलोनो प्रतिसमय क्षय थवो ए ज मरण छे मरण. अने आ प्रमाणे मरवारूप अर्थवडे पूर्व पदोथी आ पद भिन्न अर्थवाळु होवाधी भिन्नार्थक छे. तेथी 'मरतुं ते मर्य' ए पदवडे आयुःकर्म ज कहेवायु, कारण के (आयुः ) कर्म ज रहे छे त्यां सुधी 'जीवे छे' ए प्रमाणे कहेवाय छे, अने जीवथी (आयुः) कर्म दूर थतां ज 'मरे छे' ए प्रमाणे कहेवाय छ." अहीं सामान्यथी भरण' कहेवा छतां ते मरण विशिष्ट ज स्वीकारवू, कारण के संसारमा वर्तता दुःखरूपी मरणो अनेक बखत अनुभव्या तेथी शं? अर्थात् ते अही न लेवां, पण अहीं मरणपदवडे अपुनर्भवरूप छेलु, सर्वकर्मना क्षयर्नु सहचारी, तथा मोक्षनु कारणभूत मरण विवक्षित छे. तथा 'निर्जरातुं ते निर्जरायु' ए पद सकल कर्मोना अभाव विषयक छे. जीवे पूर्वे कोइ वखत संपूर्ण कर्मना निर्जरणने अनुभव्यु नथी. आ सर्व निर्जरण,
१.आ (स्थितिबंध) शब्द कर्मनी (अमुककाल सुधीनी) स्थितिना नियमनो सूचक छे. जेम कोई एक भींत उपर रंग लगावेलो होय अने ते अमुक काल सुधी स्थायी होय छे तेम, आत्मा पोतानी विचारसंकलनाथी के वचन अने देहना व्यापारथी, कर्मना (पुण्य, पापना) अणुओनो जे घर पोता. उपर जमावे छे ते थर पण अमुक काल सुधी रहेनारो होय छे अने जेटला काल सुधी ते कर्मनो थर आत्मा उपर रहे ते कालने 'स्थितिबंध' कहे छे,
"अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य यत् स्थितिकालनियमनं स “एक प्रकारना अध्यवसायद्वारा प्रहण करेल कर्मदलिकना स्थिति कालना स्थितियन्धः" (क० प्र० गा टी० २,५-३. भा०)
नियमने 'स्थितिबंध' कहे छे". (क० प्र० गा० टी०२,पृ-३. भा०):-अनु. २.४४ मां पृष्टमा 'समय' शब्द उपरतुं पांचमु टिप्पण गवेषो, जेमा 'मुहूर्त'र्नु खरूप कहेवाइ गयं छे:-अनु.
३. आ (अनुभागबंध) शब्द कर्ममा रहेल रसने जणावनारो छे. जेम कोइ केरीमा एकगुण मीठाश छे, कोइ केरीमा द्विगुण (बमणी) मीठाश छे, कोद केरीमां त्रिगुण मीठाश छे अने ए प्रमाणे दरेक केरीमा न्यून अधिक मीठाश होय छे; तेथी ते मीठाश प्रमाणे खानाराने सुखादिकनी प्राप्ति थाय छे. तेम आत्माए संगृहीत करेल कर्मना थरमां पण रस होय छे अने ते रस कोइ थरमा एकगुण, कोइमां द्विगुण, कोइमां त्रिगुण अने ए प्रमाणे दरेक थरमां रसनी न्यूनाधिकता होय छे. तेथी ज ते थरना धणी-कर्म फलना भोगकरनार-ने विचित्ररसवाळा कर्मोना थरो भोगववा पडे छे. उदाहरण तरीके जेम, एक मनुष्ये एक लाख रूपियानुं दान कर्यु अने बीजा मनुष्ये एक पावलु पाणी पायुं, तो पण ते बने मनुष्यो केटलीक वार एवो कर्मनो थर पोता उपर जमावे छ जेनुं सुखरूप फल घेउने एक सरखं ज मळे छे. तेमज कोइ मनुष्ये मोटी हिंसा करी अने कोइ मनुष्ये मात्र मनद्वारा ज हनननो विचार कर्यो, तो पण ते बन्ने मनुष्यो केटलीक वार एवो कर्मनो थर पोता उपर ले छ जेनु दुःखरूप फल ते बेउने एक सरखं ज होय छ अर्थात् कर्मना थरमा रस रेडवानुं सामर्थ्य स्थूल क्रियाओ उपर नथी पण आत्माना विचारोनी दृढता उपर छे. ते कर्मना थरमा रहेल सारा या नठारा रसने 'अनुभागबंध' कहे छे.
"कर्मपुद्गलानामेय शुभोऽशुभो वा, घात्यघाती वा यो रसः सोऽनुभाग- "कर्मपुद्गलोना ज सारा वा नठारा, घातक वा अघातक रसने 'अनुभागबन्धो रसबन्ध इत्यर्थः" (कर्म०प्र० गा० टी० २, पृ-३. भा०) बंध' के, 'रसबंध' कहे छे." (क. प्र. गा. टी. २, पृ-३. भा.):-अनु.
४. आ(प्रदेशबंध) शब्द कर्मना ग्रहणनो सूचक छे.आत्मा जे कर्मनो थर पोता उपर ले छे पण जो ते थरनी स्थितिनो एटले के, ते पर अमुक काल सुधी आत्मा उपर रहेशे तेनो निर्णय न होय अने ते थरमा कोइ प्रकारनो रस न रेडायो होय तो, ते घर 'प्रदेशबंध' कहेवाय छे.
"कर्मपुद्गलानामेव यद् ग्रहणं स्थिति-रसनिरपेक्षदलिकसंख्याप्राधान्येनैव "स्थिति अने रसनी अपेक्षा सिवाय मात्र संख्यानी प्रधानताए ज कर्म करोति स प्रदेशबन्धः” (क० प्र० गा० टी०२, पृ-३. भा०) पुदलोना ग्रहणने 'प्रदेशबंध' कहेवाय छे." (क. प्र.-गा. टी. २, पृ-३.
भा.)-अनु० ५. विशेषावश्यक सूत्रमा 'शैलेशी' शब्दनुं विवेचन आ प्रमाणे छे:-शैलेशी=मेरु नामना शैलेश (पर्वतखामी) जेवी अचलता जे स्थिरतामा होय ते शैलेशी. अथवा, स्थिरतावडे अशैलेश शैलेशनी पेठे थाय ते शैलेशी. अथवा, सेऽलेसी-प्राकृत होवाथी ज 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' इत्यादि न्यायथी 'से' एटले ते-महर्षि-अर्थात् जे अवस्थामां महर्षि लेश्यारहित होय ते शैलेशी अवस्था (अकारना लोपथी आ शब्द बने छे.) अथवा, प्राकृत संज्ञाने भाश्रीने स्थिरतावडे शैल-पर्वत-जेवो जे महर्षि तेनी जे स्थिरता ते पण उपचारथी शैलेशी कहेवाय. अथवा शील-समाधान-समाधि, ते निश्चयनयथी उत्कृष्ट समाधानरूप होवाथी सर्व संवर, तेनो जे ईश-खामी-ते शीलेश अने तेनी जे स्थिति-अवस्था-ते शैलेशी. (विशेषा• गा०३०६५,६६,६७):-अनु.
६. मा (समुच्छिन्नक्रिय ) शब्द माटे 'शुक्लध्यान' शब्द उपरतुं विवेचन जुओ (आगळर्नु पृ-३७.):-अनु.
७. आ (निर्जरण) शब्द 'निर्' पूर्वक 'जु' धातुथी उपजे छे. 'ज' धातुनो अर्थ 'जीर्ण थर्बु-नाश पामयो' थाय छे. जैनपरिभाषामा 'कर्मोना नाशमां' आ निर्जरण के निर्जरा शब्द प्रसिद्ध छे. "निमर्यमाणम्-नितराम्-अपुनर्भावेन क्षीयमाणं कर्म"
“फरीथी उत्पन्न न थाय तेवी रीते क्षय पामता कर्मने 'निर्जरण' प्राप्त (भ० टी० श्रीअंभयदेव.)
कर्म कहे छे." (भ० टी० श्रीअभयदेव.):-अनु.
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