Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १.देशक ४.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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६. आगळना प्रकरणमां स्कंध संबंधे विवेचन कर्यु छे. अने ते स्कंध स्वप्रदेशनी अपेक्षाए जीवरूप पण होय, माटे हवे जीवविषे सूत्र कयुं छे. जीवन अधिकार होवाथी हवे आखा उद्देशक सुधी यथोत्तर प्रधान जीव विषे ज वक्तव्यता कहे छे: - [' छउमत्थे णं' इत्यादि ] छद्मस्थनो अर्थ अहीं "अव- अवधिज्ञान, धिज्ञान विनानो' जीव जाणवो, पण 'मात्र केवलज्ञान विनानो होय ते छद्मस्थ' एम अहीं न समजवं. कारण के नीचेना सूत्रमां ज ' अवधिज्ञानी' संबंधे बात कहे. [केवलेत ] कोइनी सहायता विनानुं, शुद्ध अथवा परिपूर्ण के असाधारण, कधुं छे के केवल एटले एक, शुद्ध, सकल के असाधारण, अने अनंत." एया [ 'संजमेनं'ति] पृथिव्यादिना रक्षणरूप संयमवडे, [[संचरेति ] इंद्रिय अने कचायना रोकपारूप वरवडे [ 'सिव्यिंयै' ] सिद्ध भया? आ प्रश्न पूछवामां श्रीगीतमनो अभिप्राय आहे ज्यारे उपशांत मोहबाळी अवस्था होय छे त्यारे संवमादिक सर्व विशुद्ध होव छे अने गौतम, सिद्धि प्राप्त करवानुं साधन पण ते सर्व विशुद्ध संगमादिक व छे अने तेवा पवित्र संयमादिक छद्मस्य जीवने पण होय छे माटे ते सिद्ध क्या ए प्रश्न [पूछे. ['अंतकरे' शि] भवनो नाश करनारा लांबे काळे भवनो नाश करनारा ते पण 'अंतकर' कहेवाय छे, माटे हे छे के [अंतियसरी रिआ अंतिमशरीर, 'त्ति ] चालु शरीर ए ज जेओनुं छेलुं शरीर छे अर्थात् चालु शरीर छोड्या पछी जेओ बीजुं शरीर प्राप्त करवांना नथी ते 'अंतिमशरीरिक' कहेवाय.
['सव्वदुक्खाणं अंतं, करेंसु'चि] इत्यादि सूत्रमां 'सिज्युि' 'सिन्हांति' इत्यादि क्रियापदो कहेयां. संभवी शकतो नथी. ['उष्णणाम- दंसणपरे' चि] अनादिची संसिद्ध शनवाला नहीं पण उत्पन्न दर्शनघर' एवा छे माटे ज [ 'अरह'त्ति ] पूजाने योग्य. [ 'जिण 'त्ति ] रागादिनो जय करनार. तेवा तो छद्मस्थो पण होय छे माटे कहे छे अई. जि के, [[फेपलि 'चि ] अने सर्वत्र सिद्ध याद छे, भया अने वशे ['सिशंति' ] इत्यादि चार क्रियापदोगां मूठो वर्तमान काळनो निर्देश अने भविष्यत्) काळ पण अहीं जागी ठेवा. अने एम छे, माटे ज निर्देश कर्यो छे [ 'जहा छठमत्थो' ] इत्यादि सूजनी गायना आ प्रमाणे :
वाफीना से काटना मिशानरूप छे, माटे ते बे ( भूत ['सम्यदुक्खाणं' ] इत्यादि पांच पदमा ए अणे का अहीं 'आहोही भंते! मणू तीतं अनंतं सासयं इत्यादि पण आठापक कहेया. 'आधोऽवधिक' शब्दनो अर्थ मा छेः परमावपियी हलको आवधिक
१. जैनपरिभाषामा 'ज्ञान ए शुं छे ?' ए संबंधेनुं संक्षिप्त विवेचन पृ ३६ मानी बीजी नोटंमां करेलुं छे. ते ठेकाणे ज्ञानना पांच भेद पण दर्शाव्या
छे. तेमां आ 'अवधिज्ञान' ए ज्ञाननो त्रीजो भेद छे. ते संबंधे साररूप संक्षिप्त
विवेचन आ छे:
“ XXX अवशब्दस्य अव्ययत्वेन अनेकार्थत्वाद् अधो अधो विस्तृतं धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेन ज्ञानेन इत्यवधिः अथवा अव मर्यादया एतावत् क्षेत्रं पश्यन्, एतावन्ति द्रव्याणि, एतावन्तं कालं पश्यति इयादिपरस्पर नियमित क्षेत्रादिलक्षणया चीयते परिछते रूप वस्तु तेन इत्यवधिः 'तम्मि व'त्ति x x x तथैव अवधीयते जीवेन तस्मिन् सति वस्तु इत्यवधिः x x x अथवा अवधानम् अवधि:साक्षाद् अर्थपरिच्छेदनमित्यर्थः " ( श्री विशेषा० १-५४ गा० ८२. य० ग्रं० ):- अनु०
कारण के सर्व दुःखनो नाश सिद्धि मेडव्या लिवाय एक शान अने दर्शनने धारण करे ते 'उत्पन्नज्ञान
" शेषाणामिति नारक - देवेभ्यः शेषाणाम् - तिर्यग्योनिजानां मनुष्याणां च. अवधिज्ञानावरणीय कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां भवति पविधम् तयथाः श्रगानुगामिकम् अनुगामिकम् दीयमानम्, वर्धमानम्, अनवस्थितम्, अवस्थितमिति. तत्र अनानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्य उत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति xxx आनुगामिकं च यत्र कष क्षेत्रान्तरगताऽपि न प्रतिपतति xxx हीयमानम् असंश्येयेषु द्वीपेषु समुद्रेषु xxx बद् उत्पत्रं ममशः संक्षिप्य माणं प्रतिपतति x x x वर्धमानकं x x x उत्पन्नं वर्धते आ सर्वलोकात् x x x अनवस्थितं हीयते, वर्धते; वर्धते, हीयते; प्रतिपतति, चोत्पद्यते च. x x x अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति, तो व प्रतिपतति था केवलप्रासे, आ भगवा वा. (तस्वार्थ सूत्रे प्रथमाध्याये २२ सूत्रम् अनु
आ अवधिज्ञान देवोने अने नैरयिकोने जन्मथी न होय छे. अने मनुष्योने तथा तिथेचयोनिकोने, तेनुं प्रतिबंधक कर्म पाने अने ठंड पार पछी थाय छे. कर्मना वैभवी अभिन छ प्रकारनुं होय छे. ते आ प्रमाणे:- अनानुगामिक, आनुगामिक, हीयमानक, वर्धमानक, अनवस्थित अने अवस्थित जे स्थळे रहेता अभिज्ञान य होय अने ते वचने छोडी देतां ते अज्ञाना जा से अनागामिक- पाचक नहीं चालनार अवधिज्ञान कवाय अवधिज्ञान गमे त्यां थयुं होय अने गमे त्यां जवाथी पण जे नाश पामतुं नथी-साथ ज रहेनारुं छे ते आनुगामिक-पाछळ चालनार- अवधिज्ञान कहेवाय. जे अवधि ज्ञान शरुआतमां अनेक विषयोने जाये अने पक्षी कमे करी ओ ओ जाने बने व नाश पा ते हीयमानक हीणपने पामतुं अवधिज्ञान कहेवाय. जे अवधिज्ञान शरुआतमां थोडं थोडं जाणे अने पछी क्रमे क्रमे वधतां सर्व सोकना ही पदार्थोंने ते
वर्धमान
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जे अभिज्ञान ही वाय व बधे ही वाय अने पडे तथा उत्पन्न थाय ते अवधिज्ञान अनवस्थित अस्थिर अवधिज्ञान कहेवाय. अने जे अवधिज्ञान जेटलं थयुं छे तेटलं ज, जीवे त्यां सुधी अथवा केवलज्ञान थाय त्यां सुधी तेटलुंने तेटलुं ज रहे, पण बदलाय नहीं अवस्थित स्थिर अवधिज्ञानकदेवाय ( तत्वार्थसून प्रथम अध्याय, सूत्र - २३ ) : -- अनु०
२. अर्ही एकवचन मूकवुं जोइए, तो पण जे बहुवचन मूक्युं छे ते प्राकृतना नियम प्रमाणे छे. ३. 'वा' शब्द समुचयनो सूचक छे:- श्रीअभय०
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ते
जेना द्वारा ( परोक्ष रहेला पण ) रूपवाळा पदार्थों विस्तारपूर्वक जणाय 'अवधिज्ञान' 'एटलां ज द्रव्यो' 'अमुक काळ सुधी' एवी मर्यादापूर्वक जेना द्वारा ( परोक्ष रहेला पण ) रूपवाळा पदार्थों जणाय ते 'अज्ञान' जे ज्ञानी विद्यमानता हो खारे जीव (परोक्ष रहेला पण ) रूपवाळा पदार्थोंने मर्यादापूर्वक जाणी शके ते ज्ञान 'अवधिज्ञान'. अथवा रूपवाळा सर्व पदार्थोनुं साक्षात् जोवुं ते 'अवधिज्ञान'. ( श्रीविशेषा० १-५४ गा० ८२. य० ग्रं० ):- अनु०
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