Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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१८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह
शतक १.-उद्देशक १. जमाण निर्जीणे, मरणवडे प्रतिक्षण मरणनो सद्भाव होवाथी ‘मरता' ने 'मर्यु' ए प्रमाणे कहेवाय छे. ['निजरिजमाणे निजिणे'त्ति ] निर्जरातुं ते निर्जरायुं. निरन्तर
अपुनर्भाव (फरीथी न थवा) वडे क्षय यतुं कर्म निजीर्ण-क्षीण-थयु, ए प्रमाणे व्यवहार थाय छे. निर्जरा असंख्येय समयभावी होवाथी तेना प्रथम समयमा ज निर्जरता-क्षीण थता-कर्मने पटनी उत्पत्तिना दृष्टान्तवडे 'निर्जयें' (क्षीण थयु) ए प्रमाणे युक्तियुक्त व्यवहार समजवो. आ प्रमाणे वर्तमान काळमां भूतकाळना व्यवहारवाळा दरके स्थले पटनुं द्रष्टान्त मावनासहित कहे.
१. तदेवमेतान्नव प्रश्नान् गौतमेन भगवता भगवान् महावीरः पृष्टः सनुवाच:-'हंता' इत्यादि. अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति ?, विरचितद्वादशाङ्गतया विदितसकलश्रुतविषयत्वेन, निखिलसंशयाऽतीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात् तस्य. आह च:-"संखोइए उ भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा, ण य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो"त्ति. नैवम्, उक्तगुणत्वेऽपि छद्मस्थतयाऽनाभोगसंभवाद्. यदाहः-"नहिं नामाऽनाभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति, यस्माद् ज्ञानावरणं ज्ञानावरणप्रकृति कर्म" इति. अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति, स्वकीयबोधसंवादनार्थम् , अज्ञलोकबोधनार्थम् , शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थम् , सूत्ररचनाकल्पसंपादनार्थ च इति. तत्र 'हंता गोयमेत्ति 'हंत' इति कोमलाऽऽमन्त्रणार्थः, दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रभवमुभयत्रापि. 'चलमाणे' इत्यादिप्रत्युच्चारणं तु'चलदेव चलितम्' इत्यादीनां स्वाऽनुमतत्वप्रदर्शनार्थम्. वृद्धाः पुनराहु:-"हंता गोयमा' इत्यत्र 'हन्त' इति 'एवमेतद्' इति अभ्युपगमवचनम्, यदनुमतं तत्प्रदर्शनार्थ 'चलमाणे' इत्यादि प्रत्युच्चारितम्" इति. इह च यावत्-करणलभ्यानि पदानि सुप्रतीतान्येव. एवमेतानि नव पदानि कर्माधिकृत्य वर्तमाना-ऽतीतकालसामानाधिकरण्यजिज्ञासया पृष्टानि, निर्णीतानि च.
४. आवी रीते नव प्रश्नो भगवान् गौतमस्वामिए भगवान् महावीरस्वामिने पूछ्या. ते प्रश्नोनो उत्तर आपतां भगवान् महावीरे कधू के, हे वर्तमान पण भूत. गौतम ! तेम ज छे, एटले के, 'चालतुं-चालवा मांड्यु-ते चाल्युं त्यांथी आरंभी 'निर्जरातुं-निर्जरवा मांड्यु-ते निर्जयु' एम ज छे. शंकाः-भगवंतने गौतम शामाटे पूछे ? गौतमस्वामी शामाटे पूछे छे, कारण के तेओ द्वादशाङ्गीना रचनार होवाथी सकल श्रुतना विषयने जाणवावाळा छे, तथा निखिल संशयातीत होवाथी
तेओना सकल संशयो नष्ट थवाथी सर्वज्ञ सदृश छे. कडुं छे केः-"पर पूछे तो छद्मस्थ संख्यातीत भवोने कहे छे, कारण के ते अनतिशेषी नथी
अर्थात् अतिशय ज्ञानवान् होय छे" माटे जाणे छे. समाधानः-एम नहीं. कारण के उक्त गुणोवाळा होवा छतां तेओने, छद्मस्थताने लइने , छास छ माटे. अनाभोगनो--अपरिपूर्णतानो-संभव छे. कयुं छे के-"कोइ पण छमस्थने अनाभोग नथी एम नथी. अर्थात् अनाभोग ज छे, कारण के ज्ञानने संवाद-अक्षयोध-शि- आवरण करवाना ज खभाववाढुं ज्ञानावरणीय कर्म छे" अथवा जाणतां छतां पोताना ज्ञानना संवादने माटे, अज्ञलोकना बोधने माटे, शिष्योनी प्यप्रतीति-सूत्रकल्प. पोताना वचनमा प्रतीति उत्पन्न करवाने मांटे, सूत्ररचनाना केल्प संपादनने माटे प्रश्न करवा संभवे छे. [ 'हंता गोयमे'त्ति ] तेने विषे "हंतो गोयमा !', भगवदनुमति.
(हा गौतम !), "चालतुं ते चाल्यु" इत्यादि प्रश्नना प्रत्युत्तर माटे "चालतुं ते चाल्युं” इत्यादि प्रत्युच्चारण-पुनरुच्चारण-पोतानी अनुमति दर्शाववा कर्तुं छे. वृद्धव्याख्या.
वृद्धो तो कहे छे के:-[ 'हंता गोयमा' ] ए स्थले [हंता] ए शब्द 'एए प्रमाणे-हा' आवीरीते स्वीकारवचन छे अने जे अनुमत छे ते, प्रदर्शित करवाने
'चालतं ते चाल्यं' इत्यादि प्रत्युच्चारित छे.” 'यावत्' शब्दथी अध्याहृत पदो तो सुस्पष्ट ज छे. ए प्रमाणे कर्मने आश्रीने आ नव पदो वर्तमान अने निर्णय. भूत काळना समानाधिकरणपणाने जाणवानी इच्छा बडे पूळ्या अने तेनो निर्णय कर्यो.
'शब्दनो प्रसंग होबाथी तेना माटे ज सविस्तर विवेचन कर्यु छे अने बीजा चार जातना मरणमाटे मात्र अहीं शब्दार्थ ज कयों छे पण, तेनो खास अर्थ अप्रसंगथी लख्यो नथी.
"कइविहे गं भंते ! मरणे पण्णत्ते ?. गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णते, "हे भगवन् ! मरणना केटला प्रकार कडा छे ?. हे गौतम ! मरणना तं जहाः-आवीचिअमरणे, ओहिमरणे, आइअंतिअमरणे, बालमरणे, पांच प्रकार कह्या छे, ते आ प्रमाणेः-आवीचिकमरण, अवधिमरण, पंडिअमरणे." "आ समन्ताद्, वीचयः प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायु- आत्यंतिकमरण, यालमरण अने पंडितमरण." "आ-चारे बाजुथी, वीचिदलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिन् तद् आवीचि प्रतिसमये अनुभवाता आयुष्यथी पहेला पहेलांना आयुष्यदलिकनी वीजा कम् , अथवा अविद्यमाना वीचिविच्छेदो यत्र तद् अवीचिकम् , अवीचि
आयुर्दलिकना उदयथी उत्पन्न थती नाशरूप हालत, जे तेवी हालत कमेव आवीचिकम् , तच तद् मरणं चेत्यावीचिकमरणम्" (भ. श. १३,
वालु छे ते आवीचिक-प्रतिक्षण थतो आयुष्यनो क्षय ते आवीचिकमरण, उ०७, क. आ०-११३८-३९)-अनु.
अथवा, जे मरणमा वीचि-(जीवननो तद्दन) विच्छेद-नथी ते आवीचिकमरण-प्रतिसमये थतो आयुष्यनो क्षय." (भगवती श० १३ उ० ७. क..
आ० पृ-११३८-३९):-अनु० १.प्र० छायाः-संख्यातीतांस्तु भवान् कथयति यद् वा परस्तु पृच्छेत्, न चानतिशेषी विजानात्येष छद्मस्थः. २. इयं चावश्यकनियुक्ती गणधरप्रकरणे. श्रीजीवाभिगमसूत्रटीकायामपि श्रीमन्मलयगिरिणा एषा प्रमाणत्वेन गृहीता, (जी० के० आ० पृ-१६):-अनु०
१. आ गाथा आवश्यकनियुक्तिमां गणधरप्रकरणमा छे. अने श्रीमन्मलयगिरिसूरिए आ गाथाने श्रीजीवाभिगमनी टीकामा प्रमाणरूपे ग्रहण करेली छे. (जी. क. आ०-१६):-अनु. ___२. शिष्ये पूछबुं अने गुरुए कहे, एवो आचार छे. ३. 'हंता'भने 'गोयमा' ए बन्ने स्थले प्राकृत होवाथी दीर्घ थाय छे. 'हंता' ए कोमलामंत्रणार्यक छ:-श्रीअभयदेव.
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