Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
View full book text
________________
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-प्रश्नोत्थान. उत्पन्नश्रद्धादि विशेषणो अन्यार्थ ( भिन्न अर्थवाळां) नथी, (अर्थात् सर्वे समान अर्थवाळां छे) तो पण विवक्षित अर्थनो प्रकर्ष प्रतिपादित करवाने ते पुनरुक्ति नथी.
समान अर्थवाळां विशेषणोनो स्तुतिमुख ( स्तुतिपरायण) ग्रंथकार प्रयोग कयों छे. आ स्थले सर्व विशेषणो एक अर्थवाळा , तो पण पानि दोष आवी शकतो नथी. कह्यं छे के:-"हर्ष, भय वगैरेथी आक्षिप्त (अखस्थ) मनवाळो वक्ता, स्तुति करतो अथवा निंदा करतो जे ( समान अर्थ वाळा) पदोने अनेकवार बोले, तो पण ते पुनरुक्ति दोषने पात्र नथी." आवा विशेषणोयुक्त भगवान् गौतम, [ 'उहाए उट्टेड'त्ति ] उत्थया उत्तिष्ठति-उंचा वर्तता (उमा थवाने अभिमुख थता) उठे छे. अहीं 'उत्थया' ए शब्द न मूकतां 'उत्तिष्ठति' एकलुज पद राखे, तो क्रियामात्रनो प्रारंभ पण प्रतीत थइ शके छे, अर्थात् 'बेसतां अथवा उठतां कोइ पण किया शरु करवी' एवो अर्थ पण केवल 'उत्तिष्ठति' क्रियाशब्दनो थाय छे. जेम.के, (वक्तुमुत्तिष्ठते) बोलवाने आरंभ करे छे, तेथी अहीं तेनो व्यवच्छेद थाय-तेम न समजाय-अने स्पष्टरूपे उत्थान ( उभा थयं) ए.क्रिया जणाय माटे 'उत्थया' ए 'उत्तिष्ठति' क्रियापद साथे जोडयु छे. [ 'उट्ठाए उछित्त'त्ति] उत्थानवडे उठीने [जेणे' इत्यादि] जे दिशाना विभागमा श्रमण भगवंत महावीर छे, तेणेब'ति] ते दिगभागमां आवे छे (ते समयनी अपेक्षाए वर्तमानकाल होबाथी शास्त्रकारे पण 'आवे छे' ए प्रमाणे वर्तमानकाळ वापर्यो छे.) जे दिग्भागमा श्रमण भगवंत महावीर हता ते स्थले आव्या. आवीने श्रमण भगवंत महावीरने ['तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह' त्ति आदक्षिण (भगवानना) जमणा हस्तथी आरंभी, 'प्रदक्षिण' प्र-परितः (भगवंतनी चारे तरफ), भमता दक्षिण (जमणा) ज आवे ए प्रमाणे जे
भ्रमण ते आदक्षिणप्रदक्षिण. तेम त्रण वार प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करी ['चंदइ'त्ति] वचनवडे स्तुति करे छे, तथा ['नमसइ'त्ति] कायद्वारा बवाहपरिवार,
नमस्कार करे छे. नमस्कार करीने, अवगृहना परिहारथी [ 'णच्चासण्णे'त्ति] अति समीप नहीं, अथवा अति समीप स्थाने नहीं रहेला, अनुचितताना
त्यागी-उचितपणाना स्वीकारक होवाथी, ['णाइदूरे'त्ति] अत्यन्त दूर नहीं, अथवा अत्यन्त दूर स्थले नहीं रहेला. (भगवंतना वचनोने) [ 'सुस्सुसमाणे शुश्रूषमाणः पिनय. ति] शुश्रूषमाण - सांभळवानी इच्छावाळा, भगवंतनी ['अभिमुहे'त्ति] सम्मुख मुखवाळा, अने [विणएणं'त्ति] विनयवडे [पंजलिउडे' ति] प्राञ्जलिकतपर्युपासना.
ललाटतटने विषे रचित होवाथी प्रकृष्ट, (प्रधान) अंजली एटले हस्तद्वयनुं स्थापन विशेष जेओए कयु छे एवा, तथा ['पजुवासमाणे'त्ति] पर्युपासीन भवणविधि. सेवता, [ 'एवं वयासि'त्ति] आ प्रमाणे कहेवा लाग्याः-(आ प्रमाणे विशेषणसमूहथी श्रवण करवानी विधि शास्त्रकारे बतावेली छे) कहुं छे के. "निद्रा
तथा विकथाने त्यजिने, मन, वचन अने कायने गोपवीने, ललाटतटने विषे हस्तपुट स्थापीने, मनुष्योए भक्ति, बहुमानपूर्वक उपयुक्त (दत्तचित्त) थइ श्रवण कर".
वग्रह' एटले तद्दन अव्यक्त ज्ञान-जेनो शब्दथी निर्देश न थइ शके तेवू ज्ञान" वि० गा० १९४ (य. ग्रं० पृ-११५). पूर्वे कह्याप्रमाणे आंख अने मन शिवायनी इंद्रियोद्वारा कोइ पण पदार्थनो निर्णय करतां पहेला सौथी पूर्व आ व्यंजनावग्रह थाय छे..
त्यारबाद अर्थावग्रह थाय छः अर्थ-पदार्थनो जे अवग्रह ते 'अर्थावग्रह'. जे वस्तुपरत्वे व्यंजनावग्रह थएलो हतो ते ज वस्तु परत्वे "सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो" वि. गा.१८० (य. पं.पृ-१०९). "आ कांइ छे एवा प्रकारचें जे ज्ञान ते अर्थावग्रह अर्थात् कोइ पण
प्रकारनी विशेषता विना जे मात्र सामान्यरूपे ज्ञान ते अर्थावग्रह." वि. गा.१८० (य.. पृ-१०९). आ अर्थावग्रह सर्व इंद्रियोने अने मनने होय छे. आ 'अर्थावग्रह' थया पछी 'ईहा' थाय छे. जे वस्तसंबंधे
"नेयमग्गणमहेहा" वि. गा० १८० (य.पं. पृ०-१०९). 'आ कांइ छे' एवं ज्ञान अर्थावग्रहथी थएवं हतुं, ते ज वस्तुसंबंधे उत्पन्न थता भेदोना विचारने 'ईहा' कहे छे, अर्थात् 'ते वस्तु अमुक गुणोवाळी छे माटे अमुक होवी जोइए अने अमुक गुणवाळी नथी माटे ते अमुक वस्तु नथी' एवा प्रकारना ज्ञानने ईहा कहे छे. वि० गा० १८० (य.पं. पृ-१०९). आ ईहा सर्व इंद्रियो अने मनने होय छे. ते ईहा पछी निर्णयात्मक 'भपाय' थाय छे अर्थात् जे वस्तु संबंधे ईहा थएली हती ते ज वस्तुसंबंधे अपाय थाय छे. 'ईहा' मां आवेल वस्तुनो अवगम-निर्णय-ते अवाय
"तस्सावगमोऽवाओ" वि० गा० १८० (य.प्र. -१०९). अपाय-छे, अर्थात् 'ते अमुक ज छे' एवा ज्ञानने 'अवाय-अपाय' कहे छे. वि. गा० १८० (य. पं०-१०९). आ अपाय सर्व इंद्रियोने अने मनने होय छे. त्यारबाद जे पदार्थसंबंधे अपाय थएलो हतो ते ज पदार्थ संबंधे धारणा थाय छे. ते धारणा वासनारूप-स्मरणरूप-ज्ञानना जामीजवारूप छे. अपायद्वारा निश्चित वस्तुनी जे अविच्युति-स्मृति, तेने धारणा कहे छे. _ "अविचुई धारणा तस्स" वि. गा• १८० (य० प्र० पृ-१०९). अर्थात् ज्ञानना दृढ संस्कारने धारणा कहे छे-विशे० गा० १८० (य० प्र. पृ-१०९). तात्पर्य ए छे के:-दरेक पदार्थोनुं सौथी प्रथम अणु संयोग जन्य अव्यक्त ज्ञान, पछी ' तद्दन सामान्य ज्ञान, पछी काचो पाको निर्णय, पछी तइन निर्णय अने पछी संस्कार थाय छे. ए कम आंख अने मन शिवायनी इंद्रियोनो छे, पण आंख अने मननो तो बीजो क्रम छे. ते आ छे:-सौथी प्रथम अणु संयोग निरपेक्ष तद्दन सामान्य ज्ञान, पछी काचो पाको निर्णय, पछी तद्दन निश्चय अने पछी संस्कार थाय छे. पूर्वे कह्या प्रमाणे आंख भने मनने 'व्यंजनावग्रह' होतो नथी. तेमां कारणरूपे नीचेनी वात छे:-कोइ पण पदार्थना स्पर्शनुं ज्ञान कर होय त्यारे चामडी (स्पशेंद्रिय)साथे स्पर्शपणे परिणाम पामेल पुद्गलोनो संयोग जरुर अपेक्षित छे. कोइ पण पदार्थना रसनुं ज्ञान करवू होय त्यारे जीभ (रसेंद्रिय ) साथे रसपणे परिणामपामेल पुद्गलोनों संयोग जरुर अपेक्षित छे. कोइ पण पदार्थना गंधर्नु ज्ञान कर, होय त्यारे नाक (घ्राणेंद्रिय ) साथे गंधपणे परिणाम पामेल अणुओनो संयोग जरुर अपेक्षित छे, अने कोइ पण चेतनजन्य के अचेतनजन्य शब्दनुं ज्ञान करवं होय त्यारे कान (कणेंद्रिय) साथे शब्दपणे परिणाम पामेल अणुओनो संयोग जरुर अपेक्षित छ तथापि कोइ पण पदार्थना रूपनुं ज्ञान करवू होय त्यारे आंख (नेत्रंद्रिय) साथे रूपपणे परिणाम पामेल पुद्गलोना संयोगनी कशी पण जरुर नथी. तेम ज कोइ पण पदार्थविषयक मनन करवू होय त्यारे मन साथे कोइ पण प्रकारना अणुओना संयोगनी कशी पण जरुर नथी. या प्रमाणे जैनदर्शन स्वीकारे छे. माटे पूर्वोक्त खरूपवाळो 'व्यंजनावग्रह' आंख अने मनने होतो नथी. 'आंख अने मनने पोताना विषय- ज्ञान करवामा पदार्थना संयोग (स्पर्श )नी जरुर शा माटे नथी ?' ए प्रश्नना निराकरण माटे जिज्ञासुओए "रनाकरावतारिका"ना तथा "स्याद्वादरत्नाकर"ना द्वितीय प० सू०५. मांनी टीका, "विशेषावश्यक” भाग बीजामांनु व्यंजनावग्रहर्नु गा० २०४ थी २४९ (य. प्र. पृ०-१२२ थी १४७ ) सुधीनुं प्रकरण मननपूर्वक धारयुः-अनु..
१. अहीं भागळ लावनारी 'उपागच्छति-आवे छे.' ए क्रियानी अपेक्षाए पूर्वकाल बताववाने 'उत्थाय-उठीने' ए ठेकाणे 'क्त्वा' प्रत्ययवरे निर्देश कयों छे. २. अहीं प्राकृत प्रयोगथी अथवा अव्यय होवाथी 'जेण' शब्दनो 'यस्मिन्' ए प्रमाणे सप्तमीनो अर्थ कयों छे:-श्रीअभयदेव. .
३. चारे दिशामां आत्मप्रमाणमात्र-शरीरप्रमाण साडात्रण हाथ गुरुनो अवग्रह होय छे. ते अवग्रहां गुरुनी आज्ञा विना हमेशा प्रवेश करवो कल्पतो नथी; अर्थात् विनेयजन गुरुथी साडात्रण हाथ दूर बेसे तेने अवग्रह कहे छे:-प्रवचनसारोद्धार, द्वार २ गाथा १२६:-अनु०
४. 'कृतप्राणलि ने बदले 'प्राजलिकृत' शब्द मूक्यो छे ते 'अम्याहितादि' गणने आधारे छे:-श्रीअभय.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org