Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
View full book text ________________
शतक १.-प्रश्नोत्थान. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२३ ९.अथ मुक्तावस्थामाश्रित्य विशेषणान्याह:-'सव्वण्णू, सव्वदरिसित्ति सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया ज्ञायकत्वेन सर्वज्ञः, सामान्यरूपतया पुनः सर्वदर्शी; न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषवद् भविष्यज्जडत्वम् , एतच्च पदद्वयं क्वचिन्न दृश्यत इति. तथा, 'सिवमयलं' इत्यादि. तत्र शिवं सर्वाऽऽबाधारहितत्वात् , अचलं स्वाभाविक-प्रायोगिकचलनहेत्वभावात् , अरुजमविद्यमानरोगं तन्निबन्धनशरीर-मनसोरभावात् , अनन्तम्-अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वाद् , अक्षयमनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वाद् , अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् पौर्णमासीचन्द्रमण्डलबद्, अव्याबाधं परेषामपीडाकारित्वात्. 'सिद्धिगइनामधेय'ति सिद्ध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा चासौ गम्यमानत्वाद, गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव नामधेयं प्रशस्तं नाम यस्य तत् तथा. 'ठाणं ति तिष्ठति अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो भवति यत्र तत् स्थानम्-क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपम् , लोकाग्रं वा; जीवखरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्य आधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि. तदेवंभूतं स्थानम् 'संपाविउकामे'त्ति यातुमना न तु तत् प्राप्तः, तत्प्राप्तस्याकरणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणाऽसंभवात् , 'प्राप्तुकाम' इति च यदुच्यते तदुपचारात् , अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति. "मोक्षे भत्रे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तमः” इति वचनादिति.
९. हवे मुक्तावस्थाने आश्रीने विशेषणो कहे छे:-['सव्वण्णू, सव्वदरिसि'त्ति] वस्तुना समुदायतुं विशेषरूपे जाणपणुं होवाथी सर्वज्ञ सर्वश. अने ते ज समूहर्नु सामान्यरूपे जाणपणुं होवाथी सर्वदर्शी अर्थात् भगवंत देहमुक्त-देहरहित-थाय तो पण सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी छे; पण दर्शनान्तरने सर्वदशी. संमत मुक्तावस्थामां स्थित पुरुषनी पेठे भगवंत भविष्यजडतावाळा-जेमा जडता थनारी छेतेवा-नथी. 'सर्वज्ञ' अने 'सर्वदर्शी' आ वे पदो कोइ स्थळे मुक्तिमा जडत्व ? देखाता नथी. तथा ["सिवमयलं' इत्यादि] तेमां सर्व प्रकारनी बाधाओथी. रहित होवाथी शिव, स्वाभाविक अने प्रयोगजन्य चलनना हेतुनो शिव. अभाव होवाथी अचल, रोगनां कारण शरीर अने मननो अभाव होवाथी रोगरहित, अनंतपदार्थविषयक ज्ञानस्वरूप होवाथी अनंत, आदिवाळु अचल,अरोग,अनंत. पण अंतरहित होवाथी अक्षय अथवा सुखथी परिपूर्ण होवाथी पूर्णमासीना चंद्रमंडल पेठे अक्षत, बीजाओने पीडा न करतुं होवाथी व्याबाधरहित-अव्याबाध, अक्षत, अभ्यायाम, ["सिद्धिगइनामधेयंति] जेमा जवाथी निष्ठितार्थ-कृतकृत्य-थवाय ते सिद्धि, ते तरफ गति थती होवाथी ते सिद्धिगति कहेवाय. सिद्धिरूप गति ते सिद्धिगति, सिद्धिगति. अने तेज-सिद्धिगतिरूप-जेनुं प्रशस्त नाम छे ते सिद्धिगतिनामधेय, ['ठाणं ति] अनवस्थान-अस्थिरपणा-नुं कारण कर्म न होवाथी ज्यां हमेशां अवस्थितस्थिर-थाय ते स्थान कहेवाय-स्थान एटले क्षीणकर्म जीवनुं स्वरूप अथवा लोकनो अग्रभाग; ते प्रकारना स्थान प्रति [संपाविउकामे'त्ति] जवाना मन- सान. वाळा, परंतु गयेला नहीं, कारण के जो ते स्थान प्रति गयेला होय तो त्यां गया बाद शरीर अने इन्द्रियोनो अभाव थवाथी भगवंतद्वारा विवक्षितकहेवाने इष्ट-अर्थोनुं प्ररूपण संभवतुं नथी माटे ते 'स्थान प्रति जनारा' ए प्रमाणे भगवंतनुं विशेषण छे. वळी भगवंतनुं जे 'प्राप्तुकाम'-'पामवानी पामबाना. इच्छावाळा'-ए विशेषण छे. ते तो उपचारथी कयुं छे, कारण के केवलि भगवंतो अभिलाषा-इच्छा-विनाना ज होय छे. का छे केः-"उत्तमो- अस्पृहा. त्तम मुनि मोक्ष अने संसार ए बन्नेमा स्पृहा विनानो होय छे." ,
१०. 'जाव समोसरणीति तावद् भगवद्वर्णको वाच्यो यावत् समवसरणम्- समवसरणवर्णक इति. स च भगवद्वर्णक एवम्-“भुयमोयग-भिंग-नेल-कज्जल-पहट्ठभमरगणनिद्धनिकुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए" भुजमोचको रत्नविशेषः, भृङ्गः कीटविशेषः, अङ्गारविशेषो वा; नैलं नीलीविकारः, कजलं मपी, प्रहृष्टभ्रमरगणः प्रतीतः; एते इव स्निग्धः कृष्णच्छायः, निकुरुम्बः समूहो येषां ते तथा, ते च ते निचिताश्च निबिडाः, कुञ्चिताश्च कुण्डलीभूताः, प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्ध्नि शिरोजा यस्य स तथा. एवं शिरोजवर्णकादिः "रत्तुप्पल
१. रत्नाकरावतारिकायामपि श्लोकार्थमिदं प्रमाणत्वेन गृहीतम्.-रत्नाकरावतारिका (य० ग्रन्थ० पृ-१६१.) २. प्र.छायाः-भुजमोचक-भृङ्ग-नैलकजल-प्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनिकुरुम्बनिचितकुश्चितप्रदक्षिणावर्तमूर्धशिरोजः.
३. औपपातिकसूत्रे भगवतः शरीरवर्णक एवम्:-"दालिमपुप्फप्पगास-रत्ततवाणिज्जसरिसनिम्मलसुणिद्धकेसंतकेसभूमी, घणनिचियच्छतागारुत्तमंगदेसे, णिव्वणसमलट्ठमट्ठचंदद्धसमनिलाडे, उडुवइपडिपुण्णसोमवयणे, अल्लीणपमाणजुत्तसवणे, सुस्सवणे, पीणमंसलकवोलदेसभाए, आणामियचावरुइल्यकिण्हन्भराइतणुकसिणणिद्धभमुहे, अवदालियपुंडरीयनयणे, कोयासियधवलपत्तलच्छे, गहलायतउज्जतुंगणासे, उअचिअसिलप्पवालबिंबफलसण्णिभाधरुटे, पंडुरससिसयलविमलनिम्मलसंख-गोखीर-फीण-कुन्द-दगरय-मुणालियाधवलदंतसेढी, अखंडदंते, अफुडियदंते, अविरलदंते, सुनिद्धदंते, सुजायदंते, एगदंतसेढी विव अणेगदंते, हुयवहणिद्धतधोयतत्ततवणिजरत्ततलतालुजीहे, अवट्ठियसुविभत्तचित्तमंसू, मंसलसंटियपसत्थसहूलविउलहणुए, चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवे, वरमहिसवराह-सीह-सठूल-उसभ-नागवरपडिपुण्णविउलक्खंधे, जुगसण्णिभपीणरइअपीवरपउट्ठसंठिअसुसिलिट्ठविसिट्टषणथिरसुबद्ध संधिपुरवरफलिहवयिभुए, भुयईसरविउलभोगआयाणफलिहउच्छूढदीहबाहू, रत्ततलोवइअमउयमंसलसुजाय लक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी, पीवरकोमलवरंगुली, आयंबतंबतलिणसुइरुइलणिद्धणक्खे, चंदपाणीलेहे, सूरपाणीलेहे, संखपाणीलेहे, चकपाणीलेहे. दिसासोत्थियपाणीलेहे, चंद-सूरसंख-चक्क-दिसासोत्थियपाणीलेहे, कणगसिलातलज्जलपसत्थसमतलउवचियवित्थिण्णपिहुलवच्छे, सिरिवच्छंकियवच्छे, अकरंडुयकणगरुइयणिम्मलमुजायनिरुवयदेहधारी, अट्ठसहस्सपडिपुण्णवरपुरिसलक्खणधरे, सन्नयपासे, संगयपासे, सुंदरपासे, सुजायपासे, मियमाइयपीणरइअपासे, उज्जयसमसहियजच्चतणुकसिणणिद्धआइज्जलडहरमणिजरोमराई, झस-विहग-सुजायपीणकुच्छी, झसोदरे, सुइकरणे, गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहियअकोसायंतपउमगंभीरवियडनाभे, साहयसोणंद-मुसल-दप्पणणिगरियवरकणगच्छरुसरिसवरवयरवलियमझे, पमुइयवरतुरग-सीहवरअइरेगवष्टियकडी, वरतुरगसुजायगुज्झदेसे, आइण्णहओ व्व णिरुवलेवे, वरवारणतुल्लविकमविलसियगई, गयससणमुजायसन्निभोरू, समुग्गणिमग्गगूढजाण, एणी-कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्वजंघे, संद्वियसुसिलिटुगूढगुप्फे, सुपइट्ठिअकुम्मचारुचलणे, अणुपुटवसुसंहयंगुलीए, उण्ण यतणुतंवणिदणक्खे"औपपातिकसूत्रे ( क. आ. पृ-४४-५४.). ४. प्र. छायाः-रक्तोत्पलपत्रमृदुकसुकुमालकोमलतल:-अनु.
१. लोकाग्रभागरूप स्थान तो आकाशरूप होवाथी तेने 'शिव, अचल, अरुज, अनन, अक्षय, जव्याबाध' वगेरे विशेषणो घटी शकतां नथी, तो पण आधेय धर्मोनो आधारमा अध्यारोप करवाथी ते विशेषणो लोकाग्ररूप स्थानने घटाव्या छे. एक पदार्थनो धर्म, जे बीजा पदार्थमा न होय तो पण तेमां तेने मानवो तेने 'अध्यारोप' कहे छे; जेमके, पर्वत उपर घास बळ देखवामां आवे तो पण लोक एम कहे छे के, 'पर्वत बळे छ,' कारण के पर्वत उपर रहेखें माटे आधेय जे घास, तेमा रहेलो 'बळवारूप' जे धर्म, ते धर्म पर्वतमा नी तो पण घासनो आधाररूप पर्वत होवाथी जेम तेमां ते अविद्यमान धर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.
Loading... Page Navigation 1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372