Book Title: Prakrit Vyakaran
Author(s): Madhusudan Prasad Mishra
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याभवन राष्ट्रभाषाग्रन्थमाला ३२ ॥ श्रीः॥ प्राकृत-व्याकरण लेखक:प्राचार्य श्री मधुसूदनप्रसाद मिश्र अध्यक्ष, अनुसन्धान विभाग, अरेराज तथा . सदस्य, बिहार रिसर्च सोसाइटी, पटना। चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी मुद्रक : विद्याविलास प्रेस, वाराणसी संस्करण : प्रथल २०१७ मूल्य (पुनर्मुद्रणादिकाः सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकाधीनाः) The Chowkhamba Vidya Bhawan, Chowk, Varanasi, . ( INDIA ) 1960 Phone Branch. 3076 H. Office. 3145 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (श्री ध्रुवनारायण त्रिपाठी शास्त्री सभापति, जिला कांग्रेस समिति, मोतिहारी तथा श्री सोमेश्वरनाथसञ्चालक मण्डल, अरेराज ) संस्कृत भाषा की अपेक्षा प्राकृत भाषा अधिक कोमल तथा मधुर होती है। 'परुसा सक्कअ-बंधा पाउअ-बंधो वि होइ सुउमारो । पुरिसमहिलाणं जेत्तिअ मिहन्तरं तेत्तिअमिमाणं' अर्थात् संस्कृत भाषा परुष ( कठोर ) तथा प्राकृत भाषा सुकुमार होती है। और इन दोनों भाषाओं में परस्पर उतना ही भेद है जितना एक पुरुष और स्त्री में । भाषा के अनुसार आज तक के समय को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-संस्कृत, प्राकृत और आजकल की भाषायें; यथा-हिन्दी, मराठी, गुजराती और बँगला आदि। संस्कृत भाषा में हिन्दुओं के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों से लेकर काव्यों तक के ग्रन्थ सम्मिलित हैं। प्राकृत भाषा में बौद्धों तथा जैनियों के धार्मिक ग्रन्थ एवं कुछ काव्य ग्रन्थ भी हैं । इस भाषा का विकास ईसा से ६०० वर्ष पहले हो चुका था। प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के निर्णय के पूर्व यह विचारना आवश्यक है कि किसी भी नई भाषा के जन्म की क्यों आवश्यकता पड़ती है ?' यदि हम लोग इस प्रश्न पर गौर से विचार करें तो यह स्पष्ट मालूम हो जायगा कि मनुष्य कष्टसाध्य प्रयत्न करना नहीं चाहता। वह जिह्वा, कण्ठ, तालु आदि स्थानों से अधिक प्रयत्न द्वारा शब्दों का उच्चारण करना पसंद नहीं करता। यही कारण है कि धीरे-धीरे भाषा में कुछ विकृतियाँ उत्पन्न होती जाती हैं। कुछ दिनों के बाद उसी का एक स्वरूप बन जाता है, वही प्रधान बोलचाल की भाषा बन बैठती है और उसी में काव्य आदि की रचना प्रारम्भ हो जाती है । वैदिक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) काल से लेकर आज तक की परिवर्तित भाषाओं पर ध्यान देने से इस बात की पूर्ण पुष्टि हो जाती है। नीचे कुछ दृष्टान्त दिये जाते हैं- संस्कृत के 'ग्राम' तथा 'मध्य' दो शब्दों के मिलने से 'ग्राममध्य' एक शब्द बना । अब इसी शब्द का उच्चारण करते समय एक अशिक्षित आदमी, जिसे उच्चारण का ज्ञान नहीं है और जो स्वभाव से ही कष्टसाध्य उच्चारण करना नहीं चाहता, जीभ को कष्ट से बचाने के लिए एक विलक्षण ही शब्द-स्वरूप का जनक हो जायगा। वह उक्त शब्द के मध्य के स्थान में 'मज्झ', 'माझ', 'माध', 'माह', 'मह', 'मा' और 'मे' तथा ग्राम शब्द के स्थान में 'गाम' और 'गांव' कहेगा। इस प्रकार ग्राममध्य के स्थान में 'गाम में' और 'गांव में' बन गया। इसी प्रकार 'कुम्भकार' के स्थान में 'कुम्भार', 'कुंहार' और 'कोहार' शब्द बन गये । इनके अतिरिक्त मुख = मुह, अर्प= अप्प (हि०-आप); यष्टि = लट्ठी, लाठी; द्वादश = बारह आदि अनेक शब्द हैं । कभी-कभी तो शब्दों का परिवर्तन इतना हो जाता है कि उनका पता लगाने में बड़े-बड़े शब्दशास्त्रियों को भी चक्कर खाना पड़ता है। जैसे अंग्रेजों के समय में राजकीय कोषागार के प्रहरी 'हू कम्स देअर' (Who comes. there ) के स्थान में 'हुकुम दर' कहते थे । तात्पर्य यह कि किसी किसी शब्द के शुद्ध रूप का पता लगाना असम्भव सा हो जाता है । अस्तु । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के विषय में भारतीय वैयाकरणों तथा आलङ्कारिकों का कथन है कि इस भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है। संस्कृत ही इसकी जननी है। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रकृति' से की जाती है। प्रकृति शब्द का अर्थ बीज अथवा मूल तत्त्व है। इस शब्द का निर्वचन है-'प्रक्रियते यया सा प्रकृतिः' अर्थात् जिससे दूसरे पदार्थों की उत्पत्ति हो । 'मूलप्रकृतिरविकृतिः' (साङ्ख्य ) अर्थात् मूल प्रकृति अविकृत रहती है। सारांश यह हुआ कि 'प्रकृति' उसे कहते हैं जो दूसरे पदार्थों का उत्पादक तथा स्वयं अविकृत हो । यहाँ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) आचार्यों के मत में संस्कृत ही प्रकृति है । प्राकृत के प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द्र अपने प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र में कहते हैं कि – 'प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।' अर्थात् मूल संस्कृत है और संस्कृत में जिसका उद्भव है अथवा जिसका प्रादुर्भाव संस्कृत से हुआ है उसे 'प्राकृत' कहते हैं । वररुचि ने प्राकृत का व्याकरण लिखते हुए प्राकृत प्रकाश में लिखा है कि 'शेषः संस्कृतात् ' ( वर०९।१८) अर्थात् बताये हुए नियमों के अतिरिक्त शेष संस्कृत से आये हुए हैं। इसी प्रकार मार्कण्डेय 'प्राकृतसर्वस्व' के प्रथम पाद के प्रथम सूत्र में लिखते हैं- 'प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं प्राकृतमुच्यते ।' अर्थात् संस्कृत मूल भाषा है और उससे जन्म लेनेवाली भाषा को प्राकृत कहते हैं । दशरूपक के टीकाकार धनिक परिच्छेद २, श्लोक ६० की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- - 'प्रकृतेः आगतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् ।' यही मत 'कर्पूरमञ्जरी' के टीकाकार वासुदेव, 'प्राकृतप्रकाश' के रचयिता चण्ड और 'षड्भाषाचन्द्रिका' के लेखक लक्ष्मीधर को भी अभिमत है । 'प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता ।' ( लक्ष्मीधर पृ० ४, श्लोक २५ ) अर्थात् मूल भाषा संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्ति हुई है । इस प्रकार सब भारतीय विद्वानों ने भिन्न-भिन्न शब्दों में इन्हीं मतों की पुष्टि की है। आधुनिक विद्वानों में डा० रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर तथा चिन्तामणि विनायक वैद्य जी को भी यह मत अभिप्रेत है । परन्तु इसके विपरीत पश्चिमी विद्वान् पिशल आदि का विचार भी विचारणीय है । प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पिशल का, जिन्होंने प्राकृत के क्षेत्र में बड़े ही परिश्रम और पाण्डित्य से काम करके हम लोगों का बड़ा ही उपकार किया है, कथन है कि - संस्कृत शिष्ट समाज की भाषा थी और प्राकृत अशिक्षित जनों की । प्राकृत भाषा वह थी जिसे साधारण जन बोला करते थे और उसी का संस्कार से सम्पन्न रूप 'संस्कृत' कहलाया। जैसे किसी लकड़ी का एक टुकड़ा पहले अपनी प्राकृतिक अवस्था Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) मैं पड़ा हुआ रहता है, किन्तु जब उसे संस्कारों द्वारा काट, छाँट एवं खराद कर मेज, कुर्सी आदि बनाते हैं तो वही अपना संस्कृत रूप धारण कर लेता है । इसी प्रकार जो अपरिष्कृत भाषा अपनी प्राकृतिक अवस्था में पड़ी हुई जनसाधारण द्वारा उच्चरित होती थी, वही प्राकृत थी और उसी की शुद्ध एवं परिष्कृत आकृति संस्कृत भाषा कही जाने लगी । इसके प्रमाण में इनका कहना है कि यदि प्राकृत संस्कृत से निकली हुई होती तो उसके कुल शब्द संस्कृत से सिद्ध हो जाते, किन्तु अनुसन्धान द्वारा विदित होता है कि सिद्ध होते नहीं हैं । इसलिए प्राकृत की उत्पत्ति केवल संस्कृत से मानना युक्तिसङ्गत नहीं । पिशल के इसी मत का समर्थन सभी पश्चिमी विद्वान् करते हैं । I पाली भी प्राकृत के अन्दर ही मानी जाती है । इसे 'प्राचीन प्राकृत' कहते हैं । भगवान् बुद्ध ने इसी भाषा में अपने धर्म का प्रचार किया था । आजकल बौद्धों के धार्मिक ग्रन्थ तथा अनेक शिला लेख आदि भी इसी भाषा में पाये जाते हैं । पाली और प्राकृत में कुछ अन्तर पड़ गया है, इसलिए अब पाली को अन्य भाषा मानते हैं और प्राकृत कहने से पाली को अलग समझते हैं । प्राकृत के वैयाकरणों तथा अलङ्कार - शास्त्रज्ञों ने पाली को पृथक् मान कर प्राकृत - व्याकरण आदि लिखते समय इसका कुछ भी उल्लेख नहीं किया है । प्राकृत के भेदों में 'महाराष्ट्री' उत्तम तथा प्रधान प्राकृत के रूप में समझी जाती है । दण्डी ने 'काव्यादर्श' के प्रथम परिच्छेद के चौंतीसवें श्लोक में लिखा है - 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः ।' अर्थात् महाराष्ट्री भाषा श्रेष्ठ प्राकृत समझी जाती है । कतिपय भारतीय विद्वानों ने प्राकृत शब्द का प्रयोग केवल महाराष्ट्री ही के लिए किया है । जैसे हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत के व्याकरण में महाराष्ट्री के लिए प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है ! 'शेषं प्राकृतवत्' (हेम० ४ - २८६ ) । प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थों में महाराष्ट्री को ही प्रधानता दी गई है । वररुचि ने नव परिच्छेदों Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चार सौ चौबीस सूत्रों द्वारा महाराष्ट्री का विचार किया है। अन्य तीन प्राकृतों का विचार एक-एक परिच्छेद में क्रम से १४, १७ और ३२ सूत्रों द्वारा किया है। इसी प्रकार सब वैयाकरणों ने पहले महाराष्ट्री का उल्लेख किया है। महाराष्ट्री में प्रवरसेन-विरचित सेतुबन्ध नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इस पुस्तक के संबन्ध में बाण ने हर्षचरित में लिखा है 'कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला। सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना ॥' अर्थात् कुमुद के समान उज्ज्वल प्रवरसेन का यश सेतुबन्ध के द्वारा समुद्र के पार तक विख्यात हो गया जैसे वानरों की सेना सेतु (पुल) के द्वारा समुद्र पार कर विख्यात हो गई थी। सेतुबन्ध संस्कृत नाम है। प्राकृत में इसे रावणवहो या दहमुहवहो कहते हैं। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री में हाल की सतसई तथा वजालता और गउडवही आदि काव्य-ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ___ प्राकृत के कितने भेद और उपभेद हैं, इस संबन्ध में भी एक मत नहीं है। वररुचि के अनुसार प्राकृत के चार भेद हैं। महाराष्ट्री, शौर. सेनी, मागधी और पैशाची। इन्हीं चारों का उल्लेख प्राकृत-प्रकाश में हुआ है। हेमचन्द्र ने इन चारों के अतिरिक्त आर्ष, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश को भी प्राकृत ही के अन्तर्गत माना है । अर्थात् महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, आर्ष, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश ये सात भेद उन्हें अभिप्रेत हैं। त्रिविक्रम हेमचन्द्र की तरह उपर्युक्त भेदों में से आर्ष के अतिरिक्त छ को मानते और उन्हीं का उल्लेख करते हैं। इन वैयाकरणों के अतिरिक्त मार्कण्डेय, जो वररुचि के अनुयायी हैं, प्राकृत के प्रधानतः चार विभाग करते हैं-भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच । अब इनके उपभेदों के साथ प्राकृत को सोलह भागों में विभक्त करते हैं। वे सोलह भेद इस प्रकार हैं-भाषा के पाँच भेद-महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, आवन्ती और मागधी (मार्क० १-५); विभाषा के पाँच भेद-शाकारी, चाण्डाली, शाबरी, आभीरिका और टक्की; अपभ्रंश Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के तीन भेद-नागर, ब्राचड और उपनागर; पैशाच के तीन भेदकैकेय, शौरसेन और पाञ्चाल । इस तरह प्राकृत के सोलह भेद हुए। मार्कण्डेय (१-४) की वृत्ति लिखते हुए किसी ने भाषा के आट, विभाषा के छ, अपभ्रंश के सत्ताईस और पैशाच के ग्यारह भेद माने हैं। इनके मत से प्राकृत के बावन भेद हुए। परन्तु मार्कण्डेय स्वयं इतने भेदों को नहीं मानते । वे अर्द्धमागधी को मागधी के तथा बाह्रीकी को आवन्ती के अन्तर्गत मानते हैं। दाक्षिणात्य का कोई लक्षण नहीं मिलने से उसे भाषा के भीतर नहीं मानते। इस प्रकार उक्त वृत्तिकार द्वारा बतलाये आठ प्रकारों वाली भाषा का खण्डन कर छ प्रकार की विभाषा में औढ़ी को शाबरी में अन्तर्भावित मानते तथा द्राविडी की जगह ढक्की भाषा का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि द्राविडी ढक्क देश की भाषा के भीतर आ जाती है। 'ढक्कदेशीयभाषायां दृश्यते द्राविडी तथा। अत्रैवायं विशेषोऽस्ति द्रविडेनादृता परम् ॥' (मार्क० १. ६.) एवं प्रकारेण मार्कण्डेय ने सत्ताईस प्रकार के अपभ्रंश तथा ग्यारह प्रकार के पैशाच का एक का दूसरे में अन्तर्भाव मानकर क्रम से तीनतीन भेद माने हैं । इस तरह बावन प्रकार के बदले उसके केवल सोलह ही भेद स्थिर किये हैं । दण्डी ने 'काव्यादर्श' में चार प्रकार की भाषा बतलाई है-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र। । 'तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रश्चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥' (काव्या० १. ३६) इनके अनुसार संस्कृत से देवताओं की भाषा, प्राकृत से तद्भव, तत्सम और देशी भाषा, अपभ्रंश से आभीर आदि जातिविशेष की भाषा और मिश्र से मिली हुई भाषाओं का बोध होता है। शास्त्र में संस्कृत से इतर सब भाषायें अपभ्रंश कहलाती हैं। इनके अनुसार प्राकृत के महाराष्ट्री, शौरसेनी, गौडी, लाटी और भूतभाषा (पैशाची) ये पाँच भेद हैं । प्राकृत के ये और भी अन्य भेद मानते हैं। दूसरे कई आचार्यों Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने प्राकृत के अन्य भी कई भेद बतलाये हैं, परन्तु सब ने महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी को बिना किसी दलील के स्वीकार किया है। वास्तव में ये ही तीनों प्रधान हैं और काव्य-नाटकों में इन्हीं तीनों का समावेश है। अतः ये ही तीन प्रधान प्राकृत हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसा कोई भी नाटक नहीं है जो केवल संस्कृत ही में हो और उसमें प्राकृत न हो। नाटकों में कुलीन, श्रेष्ठ तथा शिक्षित पुरुष संस्कृत भाषा का व्यवहार करते हैं तथा कुलीन और शिक्षिता स्त्री शौरसेनी में गद्य तथा महाराष्ट्री में पद्य का व्यवहार करती हैं। मतलब यह कि साधारण बात-चीत तो शौरसेनी में और कुछ गान आदि महाराष्ट्री में करती हैं। शौरसेनी गद्य की तथा महाराष्ट्री पद्य की भाषा है। किसी भी नाटक अथवा प्राकृत के काव्यग्रन्थ में गद्य . महाराष्ट्री में और पद्य शौरसेनी में दृष्टिगोचर नहीं होते। नाटकों में निम्न लोगों की तथा नीच वर्गों की बोली मागधी भाषा में पाई जाती है। नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत के महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी ये तीन प्रकार ही प्रधान हैं और इन्हीं का व्यवहार अधिकता से पाया जाता है। इनके अतिरिक्त और भी आवन्ती, ढक्क, शाबरी, प्राच्या और चाण्डाली भाषायें देखने में आती हैं, परन्तु कई आचार्यों के मत से आवन्ती और प्राच्या शौरसेनी के तथा ढक्क, शाबरी और चाण्डाली मागधी के अन्तर्गत हैं । केवल विक्रमोर्वशीय में कुछ पद्य अपभ्रंश के भी आये हैं। इसके विषय में कुछ लोगों का कहना है कि अपभ्रंश के वे पद्य पीछे से जोड़े गये हैं। महाराष्ट्री भाषा का नाम महाराष्ट्र के नाम पर पड़ा। महाराष्ट्र की भाषा महाराष्ट्री कहलाई। इसमें अक्षरों का लोप बहुत होता है, इसलिए इसका व्यवहार पद्य के लिए उत्तम माना गया। इसमें अक्षरों का इतना लोप होता है कि भाषा की जटिलता बढ़ जाती है इसलिए इसका गद्य समझना बड़ा कठिन होता है। इस भाषा के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) शौरसेनी भाषा का नाटकों में प्रयुक्त गद्यभाषाओं में प्रथम स्थान है । शूरसेनों की भाषा का नाम शौरसेनी पड़ा । शूरसेनों की राजधानी मथुरा थी और मथुरा के आस-पास बोली जाने वाली भाषा शौरसेनी कहलाती थी । मागधी से वररुचि के अनुसार मगध देश की भाषा समझी जाती है । 'मागधानां भाषा मागधी' ( वर० ११ १. वृत्ति) । पटने के समीप - वर्ती स्थलों को मगध कहते थे। आज भी बिहार राज्य में बोली जानेवाली भोजपुरी आदि भाषाओं का मागधी से बहुत कुछ सामीप्य है । मार्कण्डेय का कथन है कि राक्षस, भिक्षु, क्षपणक और चेटी आदि की भाषा का नाम मागधी है— 'राक्षसभिक्षुक्षपणकचेटाद्या मागधीं प्राहुः' ( मा० १२. १. वृ० ) । भरत के अनुसार अन्तःपुर में रहने वालों की भाषा मागधी है। इनके अनुसार नपुंसक, स्नातक और कचुकी अन्तःपुर में नियुक्त होते थे । दशरूपक के अनुसार पिशाच और अत्यन्त नीच लोग पैशाची और मागधी बोलते हैं - 'पिशाचात्यन्तनीचादौ पैशाचं मागधं तथा ।' अवन्ति देश की भाषा आवन्ती कहलाती है । अवन्ति देश में चेदि, मालव, उज्जयिनी आदि देश सम्मिलित थे- 'चेदिमालवोज्जयिन्यादिरवन्तीदेशः तद्भवा भवन्ती दाण्डिकादि भाषा' (मार्क० ११।१ की वृत्ति ) | आवन्ती महाराष्ट्री और शौरसेनी के सांकर्य से सिद्ध होती है । 'भरत' के अनुसार नाटकों में यह सदा मध्यम पात्रों द्वारा प्रयुक्त होती है। मार्कण्डेय के अनुसार यह भाषा का एक भेद है । प्राच्या मार्कण्डेय के अनुसार विदूषक और विट आदि हँसोड़ पात्रों की भाषा है । भरत नाट्यशास्त्र के अनुसार विदूषक आदि की भाषा प्राच्या है - 'प्राच्या विदूषकादीनाम् ।' पृथ्वीधर ने मृच्छकटिक की टीका में इसी मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि – 'प्राच्यभाषापाठको विदूषकः' अर्थात् विदूषक प्राच्य भाषा का पाठक होता है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (&) ढक्क भाषा पृथ्वीधर के अनुसार मृच्छकटिक में माथुर और द्यूतकर की बोली है । ढक्क शब्द से जान पड़ता है कि यह ढाका के आस-पास की भाषा थी । चाण्डालों की भाषा चाण्डाली तथा शबरों की भाषा शाबरी कहलाती थी । अस्तु । . ' शूद्रक के मृच्छकटिक में प्राकृत के नाना प्रकार देखने में आते हैं । अन्य नाटकों में महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी ये तीन ही भाषायें पाई जाती हैं । किसी-किसी नाटक में एक पात्र चाण्डाल भी है जो चाण्डाली बोलता है । मृच्छकटिक में अन्य प्राकृत के अतिरिक्त ढक्क और आवन्ती भी आती हैं । माथुर तथा द्यूतकर ढक्क और वीरक तथा चन्दनक आवन्ती भाषा बोलते हैं । विदूषक की भाषा किसी-किसी के विचार से प्राच्या है । कर्णपूरक और वीरक के पद्य महाराष्ट्री में हैं । नटी, मैत्रेय, वसन्तसेना, चेटी, रदनिका, मदनिका, कर्णपूरक आदि के गद्य की भाषा शौरसेनी है । शकार, चेट, चारुदत्त का लड़का और भिक्षु की बोली, मागधी में है। प्राकृत भाषा में कर्पूरमञ्जरी नामक एक ही सहक है । इसमें महाराष्ट्री और शौरसेनी दो ही भाषायें हैं । जितने पद्य हैं, वे सब महाराष्ट्री में और जितने गद्य हैं सब शौरसेनी में लिखे गये हैं । कहींकहीं इन दोनों की खिचड़ी भी दिखाई पड़ती है । जैसे— 'गेण्हिअ के' स्थान पर 'वेत्तण' का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अनेक स्थलों पर ऐसे उदाहरण मिलते हैं । मालूम नहीं, यह कवि का प्रमाद है या छापेखानों की भूल । कर्पूरमञ्जरी के अनेक संस्करण निकल चुके हैं परन्तु प्राकृत भाषा की दृष्टि से 'हारवार्ड ओरिएण्टल सीरीज' द्वारा संपादित तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित संस्करण सर्वोत्तम है । संस्कृत नाटकों में प्राकृत की दृष्टि से मृच्छकटिक के अतिरिक्त विक्रमोर्वशीय, अभिज्ञानशाकुन्तल, वेणीसंहार, मुद्राराक्षस, उत्तररामचरित आदि प्रसिद्ध नाटक हैं । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) नाटकों में सूत्रधार का पाठ सबसे पहले आता है । सूत्रधार की भाषा संस्कृत है, परन्तु महाकवि भास-प्रणीत 'चारुदत्त' में यह शौरसेनी में बोलता है । 'मृच्छकटिक' में भी नटी के साथ बातचीत करते समय सूत्रधार ने शौरसेनी का ही व्यवहार किया है । नदी की भाषा सब नाटकों में शौरसेनी ही है । पर यह स्मरण रहे कि शौरसेनी गद्य की भाषा है । इसलिए नटी को जहाँ माने की आवश्यकता पड़ी है, वहाँ गान महाराष्ट्री भाषा में है । यथा शाकुन्तल में- 'नटी गायति ईसीसि चुम्बिआई भमरेहिं सुउमारकेसरसिहाई । ओदंसन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीसकुसुम्नाणि ॥' पारिपार्श्वक की भाषा संस्कृत में ही पाई जाती है । इसका पाठ विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र, वेणीसंहार तथा माधव भट्ट-रचित सुभद्राहरण आदि नाटकों में आया है । विदूषक की बोली सब नाटकों में एक सी ही है । इसकी भाषा चन्द्र और त्रिविक्रम के अनुसार शौरसेनी तथा मार्कण्डेय के अनुसार प्राच्या है । इसका पाठ मृच्छकटिक, अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र आदि नाटकों में आया है । मालविकाग्निमित्र में इसका पाठ प्रधान रूप से आया है और प्रत्येक अङ्क में है । सूत की बोली संस्कृत में पाई जाती है । जहाँ-जहाँ सूत का पाठ है, वहाँ वह संस्कृती बोलता पाया जाता है । अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, प्रतिमा, वेणीसंहार तथा कंसवध आदि नाटकों में सूत का पाठ पाया जाता है । राजा की भाषा अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, प्रतिमा, मुद्राराक्षस, मालविकाग्निमित्र, वेणीसंहार, कर्णसुन्दरी तथा कंसवध आदि नाटकों में संस्कृत ही पाई जाती है। केवल विक्रमोर्वशीय के चौथे अङ्क में पुरूरवा नामक राजा ने उर्वशी के लिए विक्षिप्तं हो कर हंस, भौंरे तथा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवाक आदि से बातचीत करते हुए महाराष्ट्री और अपभ्रंश का भी प्रयोग किया है। चौथे अङ्क के ६, ११, १४, १९, २०, २४, २८, २९, ३५, ३६, ४१, ५३, ५४, ५९, ६३, ६८, ७१ और ७५ संख्यावाले श्लोकों को महाराष्ट्री तथा १२, ४३, ४५, ४८ और ५० संख्यावाले श्लोकों को अपभ्रंश भाषा में कहते हैं । यथा राजा - 'मम्मररणिअमणोहरए; कुसुमिअतरुवरपल्लविए । दइआविरहुम्माइअओ; काणणं भमइ गइंदओ ॥ ' [ मर्मररणितमनोहरे कुसुमिततरुवरंपल्लविते । दयिताविरहोन्मादितः कानने भ्रमति गजेन्द्रः ॥ ] (famo 2134) 'हउं परं पुछिछमि अख्खहि गअवरु; ललिअपहारे णासि अतरुवरु | दूरविणिजिअ - ससहरु कन्ती, दिट्ठी पिअ पद्मं संमुह-जन्ती ॥' [ अहं त्वां पृच्छामि आचच्च गजवर; ललितप्रहारेण नाशिततरुवर । दूरविनिज्जित- शशधर - कान्तिर्दृष्टा प्रिया त्वया संमुखं यान्ती ॥ ] पिछले पृष्ठ के वर्णित दोनों श्लोक क्रमशः महाराष्ट्री और अपभ्रंश भाषा के हैं । कचुकी की बोली संस्कृत भाषा में पाई जाती है । इसका पाठ अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, उत्तररामचरित, प्रतिमा, मुद्रा - राक्षस, मालविकाग्निमित्र तथा वेणी-संहार आदि नाटकों में आया है । प्रतीहारी, चेटी, तापसी आदि की बोली शौरसेनी में है । ये पात्र प्रायः सभी नाटकों में आये हैं । दौवारिक की भाषा भी शौरसेनी ही पाई जाती है । परन्तु कंसवध में हेमाङ्गद नाम के एक दौवारिक ने एक स्थान पर एक श्लोक संस्कृत में भी कहा है । सुभद्राहरण, अभिज्ञानशाकुन्तल आदि अनेक नाटकों में दौवारिक का पाठ है । अभिज्ञानशाकुन्तल में रक्षियों ( सिपाहियों ), धीवर और शकुन्तला के पुत्र की ; चारुदत्त में शकार की; मृच्छकटिक में शकार, वेट, चारुदत्त के पुत्र, संवाहक और भिक्षु की; वेणीसंहार में राक्षस, • Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) और राक्षसी की तथा कंसवध में कुब्जक और रजक की बोली मागधी भाषा में है । मागधी गद्य और पद्य दोनों की ही भाषा है । यद्यपि उच्च कुल की एवं शिक्षित नारियाँ गद्य-पद्य में क्रमशः शौरसेनी, महाराष्ट्री का ही व्यवहार करती हैं, तो भी कई नाटकों में नारी का पाठ संस्कृत भाषा में भी मिलता है । जैसे उत्तररामचरित में तापसी, आत्रेयी, वासन्ती, तमसा, मुरला, अरुन्धती, पृथिवी, भागीरथी और गङ्गा की; कर्णसुन्दरी में सखी और नायिका के पद्य की; कंसवध में दूती विलासवती, देवकी और केवल कुछ स्थलों पर कुब्जा की बोली संस्कृत भाषा में पाई जाती है । प्रतिमा में भट एक स्थान पर शौरसेनी तथा दूसरे पर संस्कृत का प्रयोग करता है । किसी-किसी नाटक में ऐसा भी देखा जाता है कि जब कोई पात्र किसी दूसरे का अनुकरण करता है, तो वह अपनी भाषा छोड़कर अनुकार्य व्यक्ति की ही भाषा बोलता है | जैसे मुद्राराक्षस में संस्कृत का बोलने वाला विराध आहितुण्डिक का अनुकरण करने पर शौरसेनी भी बोलता है । वेणीसंहार में मुनिवेषधारी राक्षस संस्कृत भाषा का भी व्यवहार करता है । मृच्छकटिक में स्थावरक और रोहसेन नामक चाण्डालों तथा मुद्राराक्षस में आये चाण्डालों की बोली चाण्डाली कहलाती है । इन सब के अतिरिक्त जिन पात्रों की चर्चा नहीं की गई है, उनके साथ वे ही साधारण नियम लागू हैं । 1 साहित्यदर्पण में श्रेष्ठ चेट और राजपुत्रों की भाषा अर्द्धमागधी बतलाई गई है । परन्तु किसी नाटककार ने किसी भी पात्र के लिए इस भाषा का व्यवहार नहीं किया है । चेट का पाठ मृच्छकटिक में आया है, जो मागधी में है । इसी प्रकार राजपुत्रों की भाषा भी अर्द्धमागधी में नहीं है— 'चेटानां राजपुत्राणां श्रेष्ठानाञ्चार्द्धमागधी' ( साहि० ६, १६० )। साहित्यदर्पण में विश्वनाथ ने भाषा विभाग का वर्णन करते हुए लिखा है कि शिक्षित मध्यम तथा उच्च वर्ग के मनुष्यों की भाषा संस्कृत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) तथा मध्यम और उत्तम वर्ग की स्त्रियों की भाषा शौरसेनी है। योद्धा और नागरिकों की भाषा दाक्षिणात्या है। परन्तु यह भाषा भी प्रयुक्त हुई दृष्टिगोचर नहीं होती। विश्वनाथ ने बालकों की बोली का विधान करते हुए लिखा है कि बालक कभी-कभी संस्कृत भी बोलते हैं। परन्तु किसी भी नाटक में कोई बालक संस्कृत बोलता नहीं पाया जाता । कवियों ने उपर्युक्त नियम का बिलकुल पालन नहीं किया है। ऐश्वर्य से पागल, दरिद्र, भिक्षु एवं वल्कल धारण करने वाले पुरुषों की भाषा प्राकृत बतलाई गई है। पर उत्तम संन्यासियों के लिए संस्कृत का विधान है। कभी-कभी वेश्या के लिए भी संस्कृत भाषा के व्यवहार का विधान है। साहित्यदर्पण के अनुसार व्यापक नियम यह है कि जिस पात्र के देश की जो भाषा है, वह उसी को बोलता है और कार्यवश उत्तम आदि पात्र भाषा का परिवर्तन भी करते हैं 'यद्देश्यं नीचपात्रं तु तद्देश्यं तस्य भाषितम् । कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यो भाषा-विपर्ययः ॥' भाषा का परिवर्तन करना मुद्राराक्षस आदि नाटकों में पाया जाता है। '- स्त्री, सखी, बालवेश्या, धूर्त तथा अप्सराये अपनी चतुरता प्रदर्शित करने के लिए बीच में संस्कृत बोल सकती हैं 'योषित्-सखी-बालवेश्याकितवाप्सरसां तथा। वैदग्ध्यार्थं प्रदातव्यं संस्कृतं चान्तराऽन्तरा ॥' ___ कर्णसुन्दरी में सखी और नायिका, कंसवध में दौवारिक और कुब्जा तथा सुभद्राहरण में नटी भी विदग्धता दिखलाने के लिए संस्कृत भाषा बोलती हैं। मालविकाग्निमित्र में परिव्राजिका कार्यवश संस्कृत बोलती है। वाह्रीक भाषा जो उत्तर-देशवासियों के लिए और द्राविड़ी जो द्रविड-देशवासियों के लिए कही गई है, उनका नाटकों में कहीं भी अस्तित्व देखने में नहीं आता-'वाहीकभाषोदीच्यानां द्राविडी द्रविडादिषु' (साहि० ६, १६२)। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) एक बात और उल्लेखनीय है। प्रायः देखा जाता है कि एक ही घर में पुरुष संस्कृत, स्त्री शौरसेनी और लड़का मागधी बोलता है। इसका क्या कारण है ? लड़के तो ऐसे होते नहीं कि बचपन में ही कोई स्वतन्त्र भाषा सीख लें। जो भाषा उनकी माता तथा घरवाले बोलते हैं, वही भाषा वे सीखेंगे और बोलेंगे। माता की भाषा से भिन्न भाषा कभी भी उनसे उच्चारित नहीं हो सकती। फिर नाटकों में ऐसी विचित्रता क्यों देखने में आती है ? शकुन्तला में दुष्यन्त आदि संस्कृत में, शकुन्तला तथा उसकी सखियाँ शौरसेनी में बोलती हैं। तब दुष्यन्त का लड़का मागधी कैसे सीख गया ? इसी प्रकार मृच्छकटिक में चारुदत्त का लड़का भी मागधी बोलता है। इस प्रकार नाटकों के सहारे ठीक विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि बोली दूसरी होने पर मी विशेष स्थल के लिए अन्य बोली बोलनी पड़ती है। किन्तु यह भी देखने में आता है कि लड़कों की बोली स्वभावतः ही मागधी होती है। आजकल के लड़के भी प्रायः मागधी ही बोलते हैं। जैसे :-'ए ताता ताल लोपेया द।' इसकी हिन्दी 'ऐ चाचा, चार रुपया दो' होगी। इस प्रकार सब लड़के र के स्थान में ल का प्रयोग करते हैं। अतः इस सम्बन्ध में उक्त सन्देह अनावश्यक है। पहले प्राकृत की उत्पत्ति के विषय में मैंने अपनी सम्मति न देकर केवल भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों के मत का ही उल्लेख किया है । अब अपनी सम्मति देना आवश्यक समझ अपना निर्णय दे रहा हूँ। : मेरे विचार से प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत ही से जान पड़ती है क्योंकि भाषा-विज्ञान की ओर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि मनुष्य कष्टसाध्य प्रयत्न न कर सुखोच्चार्य शब्द की ओर ही ढुलक जाता है। अतः जो अशिक्षित जन संस्कृत बोलने की चेष्टा तो करते थे, किन्तु बोल नहीं पाते थे उन्हीं के उच्चारण-दोष से बिगड़-बिगड़ कर एक अन्य भाषा बन गई। सारांश यह कि संस्कृत ही का अशुद्ध स्वरूप प्राकृत है। इसके विरोध में कुछ लोगों का यह कहनाः Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि प्राकृत के सब शब्द संस्कृत से ही सिद्ध नहीं होते इसलिये उसकी जननी संस्कृत नहीं है। यह कहना ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि आज भी कुछ शब्द ऐसे देखने में आते हैं जिनका मूल मालूम है, पर उनमें इतना परिवर्तन हो गया है कि उनके मूल शब्द का अनुमान भी नहीं होता। जैसे–'हू कम्स देअर' के स्थान में 'हुकुमदर' या 'हुकुम सदर', 'सिगनल' के स्थान में 'सिकन्दर', 'कृष्णाष्टमी' के स्थान में 'किसुन आँठी' (यह बोली नेपाल की तराई के पास सुनने में आती है) 'इजलास' के स्थान में 'गिलास' और 'सेवासमिति' के स्थान में 'सेवा सपाठी' कहते हुए लोग देखने में आते हैं। इन उदाहरणों से यह अनुमान किया जाता है कि संस्कृत ही प्राकृत की जननी है। कुछ शब्द जो सिद्ध नहीं होते इसका कारण यह है कि उनमें बहुत परिवर्तन हो गया है। जब प्राकृत के प्रायः सभी शब्दों के मूल का पता संस्कृत से लग जाता है तब थोड़े शब्दों के न मिलने के कारण प्राकृत को स्वतन्त्र मानना ठीक नहीं है । विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश के जो पद्य आये हैं, उनके विषय में कुछ लोगों का कथन है कि वास्तव में ये पद्य पहले के नहीं हैं, बाद में जोड़े गये हैं। इसके प्रमाण में वे कहते हैं कि राजा उत्तम पात्रों में गिना जाता है। उत्तम पात्रों की बोली संस्कृत है। इसके अतिरिक्त एक ही पद्य की कई बार आवृत्ति की गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ये पीछे से जोड़े गये हैं। परन्तु यह बात नहीं है। यद्यपि राजा उत्तम पात्रों में है और इसकी बोली संस्कृत है तो भी कार्यवश वह अन्य भाषाओं को भी बोल सकता है। आज भी हम सभ्यं-समाज में यदि शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तो आवश्यकता पड़ने पर साधारण जनों से ग्राम्य बोलियों से भी बात करना नहीं छोड़ते। पुरूरवा ने अपनी प्रिया के लिए आकुल होकर हाथी, भौंरे, चक्रवाक आदि से कहा था। उन्होंने समझा होगा कि विना महाराष्ट्री तथा अपभ्रंश में बोले वे लोग समझेंगे नहीं, और नहीं समझने के कारण कदाचित् २ प्रा० भू० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर नहीं दे सकेंगे। इसलिये लाचारीवश ही उन्होंने प्राकृत का आश्रय लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। एक ही बात की आवृत्ति भी साधारण बात है। जब किसी को उत्तर नहीं मिलता तो वह पुनः-पुनः उसी प्रश्न को दुहराता ही है। इसलिए मेरे विचार से ये पद्य पीछे के नहीं हैं। प्राकृत के वैयाकरणों के दो वर्ग हैं-एक त्रिविक्रम का और दूसरा मार्कण्डेय का। त्रिविक्रम के अनुयायी हेमचन्द्र, लक्ष्मीधर और सिंहराज हैं। लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम के सूत्रों पर अपनी वृत्ति लिखी है जैसे पाणिनि के सूत्रों पर वामन, माधव आदि कितने ही वृत्तिकारों की वृत्तियाँ रची गई हैं। लक्ष्मीधर के ग्रन्थ का नाम पड्भाषाचन्द्रिका है। मार्कण्डेय के अनुयायी वररुचि हैं । पहले लिखा जा चुका है कि किस ग्रन्थ में किन-किन प्रकार की प्राकृतों का वर्णन मिलता है । ____ सब वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को प्रधान मान कर सर्वप्रथम उसी का निरूपण किया है अतः यहाँ भी प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण के विद्वान् लेखक ने पहले महाराष्ट्री के ही लक्षण दिये हैं। उसके बाद शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश के भी विशेष-विशेष नियम बतला दिये गये हैं, जिनसे शब्दों के निर्वचन के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेना अतिशय सरल हो गया है। __ प्रस्तुत ग्रन्थ मेरी ही प्रेरणा से श्रीसोमेश्वरनाथ संचालक मण्डल, अरेराज (चम्पारन ) के अनुसन्धान विभाग की ओर से पूर्ण परिश्रम एवं खोज के साथ निर्मित हुआ है। इसके लेखक ने इस ग्रन्थ को. अरेराज जैसे साधनहीन स्थान में, जहाँ न कोई अच्छा पुस्तकालय ही है और न सुयोग्य परामर्शदाता ही, अकेले जुटकर इस ग्रन्थ का इस रूप में निर्माण किया है। एतदर्थ विद्वान् लेखक को इस सम्बन्ध में जितनी भी बधाई दी जाय, थोड़ी होगी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभव है इस पुस्तक में कुछ लोगों को अपूर्णता दिखलाई दे, किन्तु जितना भर लिखा जा चुका है, उतने से ही हिन्दी द्वारा प्राकृत पढ़ने वाले छात्रों का अतिशय उपकार होगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। ___ मुझे अपने छात्र-जीवन में हिन्दी में एक प्राकृत व्याकरग की आवश्यकता प्रतीत हुई थी। आज उस इच्छा की पूर्ति से मुझे बड़ी प्रसन्नता है। इस ग्रन्थ के लिखने में लेखक को उत्साहित करने वालों में मेरे अतिरिक्त तिरहुत प्रमण्डल के आयुक्त श्री श्रीधर वासुदेव सोहोनी तथा चम्पारन के कर्मठ-साहित्यिक श्री गणेश चौबे रहे हैं। अतः ये दोनों ही महानुभाव मेरे लिए धन्यवादाह हैं। . ग्रन्थों के न मिलने से जो कठिनाइयाँ आईं, उन्हें बहुत कुछ बिहार रिसर्च सोसाइटी पटना, धर्मसमाज संस्कृत महाविद्यालय मुजफ्फरपुर एवं सोमेश्वरनाथ संस्कृत महाविद्यालय अरेराज के पुस्तकालयों ने दूर किया है, अतः इन संस्थाओं के अध्यक्ष भी धन्यवादाह हैं। ध्रुवनारायण त्रिपाठी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश प्रथम अध्याय संज्ञा-सन्धि-विवेक लिङ्गानुशासन द्वितीय अध्याय स्वर-सन्धि-विवेक तृतीय अध्याय व्यञ्जनसन्धि-विवेक चतुर्थ अध्याय शब्दलिङ्ग-विवेक पञ्चम अध्याय अव्यय प्रकरण षष्ठ अध्याय तिङन्त विचार सप्तम अध्याय - कुछ विशिष्ट पद _अष्टम अध्याय शौरसेनी नवम अध्याय १४० १८२ मागधी १९५ दशम अध्याय पैशाची एकादश अध्याय अपभ्रंश परिशिष्ट अक्षरानुक्रम शब्द-सूची । सहायक ग्रन्थ-सूची २०४ २३१ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द्र के अनुसार 'प्रकृति' (= संस्कृत) से प्राकृत शब्द की निष्पत्ति मानी गई है । 'प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।' अर्थात् जिसकी उत्पत्ति संस्कृत में हुई हो अथवा संस्कृत से निकलकर जो अलग निर्मित हो वही प्राकृत है । कुछ भाषा-शास्त्री 'प्रकृत्या ( स्वभावेन ) सिद्धं प्राकृतम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार स्वभावसिद्ध को ही 'प्राकृत' मानते हैं। * देखिए–हेम० ८. १. १. अथ प्राकृतम् और उसी सूत्र पर शङ्कर पाण्डुरङ्ग पण्डित का अंग्रेजी नोट - Hemachandra's system of grammar consists of eight chapters; the first seven deal with Sanskrit grammar and the last chapter with six dialects of Prakrit, viz., महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची and अपभ्रंश. The word Prakrit is derived from a which according to the auther, means Sanskrit. Hemachandra classifies Prakrit words into तद्भव, तत्सम, and देशी . He does not treat of here as he has already done so in the preceding chapters. He does not speak of देशी words here but discusses only तद्भव words of both types, सिद्ध and साध्यमान । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण विवादग्रस्त इन दोनों व्युत्पत्तियों को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। किन्तु हम यहाँ हेमचन्द्रवाली व्युत्पत्ति को ही मानकर चलेंगे। __ अब आगे चलकर हम नियम, उदाहरण, विशेष तथा पादटिप्पणी के सम्मिलित क्रमों से प्राकृत शब्दों की निरुक्ति का प्रयास करेंगे। - (१) लोक में प्रचलित वर्णसमाम्नाय ही प्राकृत में भी गृहीत है, किन्तु नीचे लिखे ऋ, ऋ, लु, ऐ, औ ये पाँच स्वर वर्ण और ङ, ब,श, ष, न, य ये छ व्यञ्जन प्राकृत में नहीं होते। हाँ, अपने वर्गवाले अक्षरों से संयुक्त ङ और ञ का व्यवहार देखने को मिलता है । जैसे—पको (पङ्कः), सङ्खो (शङ्खः), सङ्का (शङ्का ), कञ्चुत्रो (कञ्चकः), वञ्जनं ( वञ्चनम् )। : . * इस सम्बन्ध में श्रीहृषीकेश शास्त्री भट्टाचार्य के संस्कृत-इङ्गलिस प्राकृत व्याकरण (१८८३ ई०) के प्रिफेस की नीचे उद्धृत पङ्क्तियाँ प्रकाश डालती हैं-Modern philologist have not yet satisfactorily solved the question whether these dialects are derived directly from the Sanskrit or ( through ) some of its corruptions. It is contended by some that Pali was the medium through which all the Prakrit dialects come into existence. :: + हेमचन्द्र के अनुसार ऋ, ऋ, लु, लू, ऐ औ ये छ स्वर और ङ, ञ, श, ष, विसर्जनीय और प्लुत प्राकृत के वर्ण-समाम्नाय में नहीं होते । किन्हीं-किन्हीं शब्दों में हेमचन्द्र के अनुसार ऐ और औ भी देखे जाते हैं। जैसे—कैअवं (कैतवम् ), सौंअरिनं ( सौन्दर्यम् ) कौरवा ( कौरवाः) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय - (२) भिन्न वर्गवाले व्यञ्जन वर्णों का परस्पर संयोग नहीं होता अर्थात् त्+क, पू+क, क्+त, क्+य, क्+र, क्+ल, ल+क और क्+व इनका परस्पर संयोग न होकर केवल 'क' रूप ही होता है। उसी तरह ड्+ग, ढ+ग, ग+न, ग्+य, ग+र, र+ग और लू+ग का परस्पर संयोग न होकर केवल ग्ग रूप ही रहता है। जैसे-उत्कंठा ( उत्कण्ठा), अकँवलं (अकमलम् ), णकंचरो (नक्तञ्चरः), जगणवक्कण (याज्ञवल्क्येन), सक्को (शक्रः), विक्कवो (विक्लवः), उक्का (उल्का), पिकं (पक्कम् ), खग्गो (खड्गः), अग्गिणी (अग्नीन् ), जोग्गो (योग्यः), कअग्गहो (कचग्रहः), मग्गो (मार्गः) बग्गा (वल्गा)। विशेष—इसी तरह दूसरे भिन्नवर्गीय वर्णों के बारे में भी जानना चाहिए। जैसे–सत्तावीसा (सप्त विंशतिः), कण्णउरं (कर्णपुरम्) (३) वर्ग के पाँचवें अक्षरों का अपने वर्ग के अक्षरों के साथ भी कहीं-कहीं संयोग देखा जाता है, किन्तु सर्वत्र नहीं। यथा-अङ्को (अङ्कः), इङ्गालो (अङ्गारः), तालवेण्टं (तालवृन्तम् ), वञ्चरणीयम् (वञ्चनीयम् ), फन्दनं (स्पन्दनम् ), उम्बरं (उदुम्बरम्) (४) प्राकृत में ऐसा व्यञ्जन नहीं मिलता जो (संस्कृत के यावत् , तावत् , ईषत् के तकार के समान ) स्वर-रहित हो। (५) प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिङ्ग, कारक, समाससंज्ञा आदि संस्कृत के समान ही होते हैं। (६) प्राकृत में द्विवचन नहीं होता। इसी प्रकार संप्रदान कारक में आनेवाली चतुर्थी विभक्ति भी प्राकृत में नहीं होती है। हिन्दी और अंग्रेजी की तरह द्विवचन का काम बहुवचन Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण से और चतुर्थी का काम षष्ठी से पूरा कर लिया जाता है । द्विवचन के बदले बहुवचन का उदाहरण जैसे-वच्छा चलन्ति ( वत्सौ चलतः); चतुर्थी के बदले षष्ठी जैसे—विप्पस्स देहि (विप्राय देहि) (७) समास में कभी-कभी दीर्घ स्वर हस्व स्वर के रूप में और ह्रस्व स्वर दीर्घ स्वर के रूप में बदलता हुआ देखा जाता है। दीर्घ का ह्रस्व जैसे-जहट्ठिअं ( यथा स्थितम् ), अंतावेइ (अन्तर्वेदी ); ह्रस्व का दीर्घ जैसे-सत्तावीसा ( सप्तविंशतिः)। () कभी-कभी दीर्घ और ह्रस्व के क्रमशः ह्रस्व और दीर्घ रूप समास में विकल्प से होते देखे जाते हैं। जैसेणइसोत्तं, णईसोत्तं ( नदीस्रोतः), बहुमुहं बहूमुहं ( वधूमुखम् ), पिप्रापिअं, पीआपीअं (प्रियाप्रियम् ) विशेष:-कभी कभी स्वरों के उक्त परिवर्तन नहीं भी देखे जाते हैं । जैसे-जुवइ-अणो (युवतिजनः) (६) दो पदों में सान्निध्य रहने पर संस्कृत के लिए विहित कुल सन्धि-कार्य प्राकृत में विकल्प से किये जाते हैं। जैसेवास+इसी, वासेसी (व्यासर्षिः); दहि+ईसरो, दहीसरो ( दधीश्वरः) * देखिए वररुचिसूत्र द्विवचनस्य बहुवचनम् ६.३३. और चतुर्थ्याः षष्ठी ६.६४. अर्द्धमागधी में चतुर्थी देखी जाती है। जैसेअधम्माय कुज्झइ (अधर्माय क्रुध्यति ), संसाराए सुखं ( संसाराय सुखम् ), अाए दण्डो (अर्थाय दण्डः) इत्यादि । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विशेष :—(क) एक पद में सन्धि-कार्य नहीं होता । जैसे पाओ (पादः), पई, वच्छाओ, मुद्धाए इत्यादि । (ख) कहीं कहीं एक पद में भी शब्दों के स्वभाववश सन्धि होती देखो जाती है। जैसे—काहिइ, काही; बिइओ, बीओ। (१०) 'इ' और 'उ' का विजातीय स्वर के साथ कभी सन्धि-कार्य नहीं होता । जैसे—विअ (इव), महुइँ ( मधूनि ), न वेरिवग्गे वि अवयासो* (न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः), दणु इन्दरुहिलित्तो ( दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः). (११) सजातीय स्वर के साथ सन्धि हो जाती है। जैसेपुहवी+ईसो=पुहवीसो (पृथिवीशः); कुलूद+अहिपो=कुलूदाहिपो ( कुलूताधिपः)। (१२) 'ए' और 'ओ' के आगे यदि कोई स्वर वर्ण हो तो उनमें सन्धि नहीं होती है। जैसे–देवीए+एत्थ, एओ+एत्थ ( देव्या अत्र, एकोऽत्र ); वहुआइ नहुल्लिहणे आबन्धन्तीऍ कञ्चुअं अङ्गे (बध्वा नखोल्लेखने प्राबध्नत्या कञ्चुकमङ्ग), तं चेव मलिअ विसदण्ड विरसमालक्खिमो एपिंह (तदेव मृदितविसदण्डविरसमालक्षयामह इदानीम् ) * भीय परित्ताणमइं पइण्ण मसिणो तुहाधिरूढस्स । (भीतपरित्राणमयी प्रतिज्ञामसेस्तवाधिरूढस्य ।) मन्ने संकाविहुरे न वेरिवग्गे वि अवयासो। ( मन्ये शङ्काविधुरे न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः॥) दणु इन्द रुहिरलित्तो सहइ उइन्दो नहप्पहावलि-अरुणो । ( दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः शोभते उपेन्द्रो नखप्रभावल्ल्यरुणः) + Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (१३) व्यञ्जनघटित स्वर से व्यञ्जन का लोप हो जाने पर जो स्वर बँचा रह जाता है उसे प्राकृत के वैयाकरण लोग 'उद्वृत्त' कहते हैं । कोई भी 'उद्वृत्त' स्वर किसी भी स्वर के साथ सन्धि कार्य को नहीं प्राप्त करता है । जैसे—– गन्ध-उडिं ( गन्धकुटीम् ), निसारो ( निशाचरः ), रयणीरो ( रजनीचर: ) विशेष :― कहीं कहीं इस नियम के प्रतिकूल उद्वृत्त स्वर का दूसरे स्वर के साथ सन्धिकार्य विकल्प से होता है । और कहीं कहीं सन्धि अवश्य होती है। विकल्प से जैसे सुरिसो, सूरिसो (सुपुरुषः ); नित्य जैसे – चक्काओ (चक्रवाकः ), सालाहणो ( सातवाहनः ) (१४) 'तिपू' आदि प्रत्ययों के स्वर किसी भी स्वर के साथ सन्धि कार्य प्राप्त नहीं करते हैं । जैसे - होइ इह ( भवतीह ) ( १५ ) किसी स्वर वर्ण के पर में रहने पर उसके पूर्व के स्वर ( उद्वृत्त अथवा अनुवृत्त) का वैकल्पिक लुक होता है । जैसे - तिस ( त्रिदश ) के सकार के आगेवाले कार ( अनुवृत्त) का 'ईसो' ( ईशः ) के ई के पर में रहने पर गया। और ई के मिल जाने से 'ति सीसो' हुआ । वैकल्पिक होने के कारण 'तिस ईसो' भी होता है । इसी प्रकार ‘राउलं' ( उद्वृत्त अस्वर का लुक ) और राम-उलं (राजकुलम् ) भी जानना चाहिए 18 * तुलना कीजिए -- अण्णावश्रणुक्कण्ठो ( श्राज्ञावचनोत्कण्ठः ) अभि० शा०, २ . ), सलिल से संभमुग्गदो ( सलिल सेकसंभ्रमोद्गतः ) अभि० शा०, २ . । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विशेष:-(क) शौरसेनी आदि प्राकृत के अन्य भेदों में उक्त नियम लागू नहीं होता। (ख) प्राकृत प्रकाश के अनुसार किसी भी संयुक्ताक्षर के पूर्व में वर्तमान स्वर से पूर्ववर्ती स्वर का सब जगह लोप होना माना जाता है। जैसे—णत्थि (नास्ति) (१६) शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का सर्वत्र लुक् होता है। जैसेप्राकृत संस्कृत जाव यावत् ताव तावत् जसो यशः गह नभः सिरं विशेष:-समास में उक्त नियम विकल्प से होता है। सभिक्खू (लुक ) सज्जणो (अलुक्) (२७) 'श्रत्' और 'उत्' इन दोनों के अन्त्य व्यञ्जन का लुक नहीं होता । जैसे—सद्धा (श्रद्धा ); उएणयं ( उन्नयम् ) (१८) 'निर' और 'दुर' के अन्तिम व्यञ्जन र का लुक विकल्प से होता है। जैसे-निस्सहं (लुगभाव), नीसहं (लुक्); दुस्सहो (लुगभाव ), दूसहो (लुक्)। सं. निस्सहम् , दुस्सहः । * शौरसेनी में दाव होता है। +नसान्तप्रावृट्सरदः पुंसि। वर. सू. ४.१८. नान्त, सान्त प्रावृष और सरद् शब्दों का प्रयोग पुंल्लिङ्ग में होता है। न सिरोनभसी। वर० सू० ४.१६. शिरस् और नभस् शन्दों * के पुंलिङ्ग में प्रयोग का निषेध है । शिरः Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (१६) स्वर वर्ण के पर में रहने पर 'अन्तर' 'निर्' और 'दुर' के अन्त्य व्यञ्जन (रेफ) का लुक नहीं होता। जैसेअन्तरप्पा (अन्तरात्मा), अन्तरिदा (अन्तरिता ), नि (णि) रुत्तरी (निरुत्तरम् ) णिराबाधं (निराबाधम् ), दुरुत्तरं (दुरुत्तरम् ) दुरागदं (दुरागतम् )। विशेष:-कहीं कहीं 'निर्' के रेफ् का लुक् देखा भी जाता है । जैसे-मुद्राराक्षस के पाँचवें अङ्क में क्षपणक कहता है 'ता. जइ भाउराअणस्स मुद्दालंच्छिदोऽसि तदो गच्छ वीसत्थो, अण्णधा णिबत्तिअणिउक्कण्ठं चिट्ठ । ( तद् यदि भागुरायणस्य मुद्रालाञ्छितोऽसि तदा गच्छ विश्वस्तः। अन्यथा निवृत्य निरुत्कण्ठं तिष्ठ ।) * तेन हि लदाविडवन्तरिदा सुणिस्सं (तेन हि लताविटपान्तरिता श्रोष्ये । ) विक्र० अ० २ में देवीवचन । +वअस्स, णिरुत्तरा एसा (वयस्य, निरुत्तरा एषा) विक्र० अ० ३. में चित्रलेखावचन। इमिणा दब्भोदएण णिराबाधं एव्व दे सरीरं भविस्सदि (अनेन दर्भोदकेन निराबाधमेव ते शरीरं भविष्यति ।) अभि० शा०, अ० ३. में गौतमीवचन । $ दुरागदं दाणिं संवुत्तं ( दुरागतमिदानीं संवृत्तम् ) विक्र० अ० २. में देवीवचन । ___£ वररुचि के ( ३.१) मत से क्, ग् , ड्, त् , द्, प् , ष् , स् यदि संयोग के आदि में हों तो उनका लोप हो जाता है। और Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय S ( २० ) विद्युत् शब्द को छोड़कर स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान सभी व्यञ्जनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का आत्व होता है । जैसेसरिया (सरित्); संपत्र ( संपद् ) ; वाआ* (वाकू); अच्छरा ( अप्सरः ) ― उन्हीं के अन्य सूत्र ( ३. ५० ) के अनुसार आदि में नहीं रहनेवाले जो संयुक्त के शेष अथवा देशभूत अक्षर हों उनका द्वित्व माना गया है। इस प्रकार उत्कण्ठा में त् का लोप और क् का द्वित्व करके 'उक्कण्ठा' बनता है । उत्पातः का 'उप्पात्रो' बनता है । यह प्रकार उत्तम है। प्राकृतप्रकाश में दूसरे भी लोपविधायक सूत्र देखे जाते हैं । जैसे -- ( १ ) उदुम्बरे दोर्लोपः । वर० २.४ उदुम्बर शब्द में दु का लोप होता है । उवरं ( उदुम्बरम् ) ( २ ) कालायसे यस्य वा । वर० ३. ४ कालायस में य का लोप विकल्प से होता है । कालासं- कालाअसं (कालायसं ) ( ३ ) भाजने जस्य । वर० ४. ४ भाजन शब्द में का वैकल्पिक लोप होता है । भाणं, भाश्रणं ( भाजनम् ) (४) यावदादिषु वस्य । वर० ५.४ यावत् प्रभृति शब्दों में 'व' का वैकल्पिक लोप होता है। जा, जाव; ता, ताव; पाराश्रो, पारावत्रो; अनुत्तेन्तो, अनुवत्तन्तो; जीÅ, जीवि; एवं एव्वं एत्र एब्व; कुलश्रं, कुवलयं; ( यावत्, तावत्, पारावतः, अनुवर्तमानः जीवितम् एवं, एव, कुवलयम् ) * एत्तिश्रं जेत्र श्रत्थि मे वाच्छलं ( एतावदेवास्ति मे वाक्छलम् ) मुद्रा० अ० १. में चन्दनदासवचन । णत्थि में बाआविहवो ( नास्ति मे वाग्विभवः ) विक्र० श्र० २ में उर्वशीवचन । † सहि, अच्छरावावारपज्जाएण तत्र भादो सुजस्स उवद्वाणे वट्टंती ( सखि, अप्सरो व्यापारपर्यायेण तत्र भवतः सूर्यस्पोपस्थाने वर्तमाना ) विक्र० प्र० ४ में चित्रलेखावचन । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण विशेष—(क) यह नियम इसी अध्याय के नियम १६ का अपवाद है। (ख) विद्युत् शब्द का प्राकृत रूप विज्जू होता है । (ग) उक्त नियम से जो आ होता है, उसका उच्चारण कभी-कभी ईषत्स्पृष्टतर या के के समान भी होता है। सरिया, पाडिवया, संपया। (घ) अप्सरस् का एक रूप अच्छरसा भी होता है। (२१) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान रेफान्त शब्द के अन्तिम र का रा आदेश होता है । जैसे-धुराक, गिरा, पुरा (धूः, गीः, पूः) _ (२२) 'क्षुध्' शब्द के अन्त्य व्यञ्जन का 'हा' आदेश होता है । जैसे-छुहा (क्षुत्) (२३) 'शरत्' प्रभृति शब्दों के अन्तिम व्यञ्जन के स्थान में 'अ' आदेश होता है। जैसे-सरत्र, भिसत्र (शरत्, भिषक् ) * दुव्वोज्झा वि अवलम्बिश्रा कजधुआ। राव० ४. ४४ +पासम्मि ठिा तस्स य महूअगोरीश्रो महुअमहुरगिरा। (पार्चे स्थिताः तस्य याः मधूकगौर्यो मधूकमधुरगिरः।) कुमा० पा० १. ७५ * प्राकृत प्रकाश के 'शरदो दः' वर० सू० ४. १० के अनुसार शरत् के अन्तिम व्यञ्जन का 'द्' श्रादेश' होता है। इसके अनुसार शरत् के लिए 'सरस' न होकर 'सरदो' रूप होता है। $ सीमा वाह विहानो दहमुहवझ दिअहो उवगत्रो सरो राव० १. १६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ११ (२४) 'दिश्' और 'प्रावृष्' शब्दों के अन्तिम व्यञ्जनों के स्थान में 'स' आदेश होता है । जैसे-दिसा,* पाउसो (दिक, प्रावृट् ) (२५) 'आयुष' और 'अप्सरस' के अन्त्य व्यञ्जनों का 'स" आदेश विकल्प से होता है । जैसे—दीहाउसो, दीहाऊ, अच्छरसा, अच्छरा() (अप्सराः) (२६) ककुभ शब्द के अन्त्य व्यञ्जन का ह आदेश होता है। जैसे—कउहा (ककुप्) (२७) धनुष् शब्द के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान में ह आदेश विकल्प से होता है । जैसे-धणुहं, धणू (धनुः) । (२८) अन्त्यम्' का अनुस्वार होता है। जैसे-जलं, फलां, वच्छं, गिरिं पेच्छ (जलम् , फलम् , वत्सम् , गिरिम् , प्रेक्षस्व)। RAI.35/२०१५ ** फुरइ फुरिअट्टहासं उद्धपडित्ततिमिरं मिव दिसा-अकं । रावण १.५ + दिसाण पाउस-किलत्ताण। (दिशां प्रावृटक्लान्तानाम् ।) कुमा० पा० १.६ * दीहाऊ वि अदीहाउसमाणी सइ विवेइ-जणो । ( दीर्घायुरपि अदीर्घायुर्मानी सदा विवेकिजनः। ) कुमा० पा० १. १०. जीअ-विढत्तच्छरसं। रावण० १३. ४७ () गअण-णिराअ-भिएण-घण भेसि अच्छरेहिं । रावण ० ७. ४५ 0 कुसुमधणू धणुहधरो कउहा-मुह-मण्डणम्मि चन्दमि । (कुसुमधनुर्धनुधरः ककुम्मुखमण्डने चन्द्रे । ) कुमा० पा० १. ११ . . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्राकृत व्याकरण ( २ ) कहीं-कहीं अनन्त्य मकार का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होता है। जैसे - वणम्मि, वर्णमि (वने) (३०) स्वर के पर में रहने पर अन्त्य मकार का अनुस्वार विकल्प से होता है । जैसे - फलं अवहरइ, फलमवहरइ ( फलमवहरति ) विशेष- अनुस्वार के अभाव पक्ष में म्का म् ही रह गया । लुकू का अपवाद होने से लुकू (१.१६) नहीं हुआ । ( ३१ ) कभी-कभी 'म्' के अतिरिक्त दूसरे व्यञ्जनों के स्थान में भी पाक्षिक मकार होता देखा जाता है। जैसे—वीसुं, पिहं, सम्मं, सक्खं, जं, तं, ( विष्वक्, पृथकू, सम्यक्, साक्षात्, यत्, तत्, ) (३२) व्यञ्जन वर्णों के पर में रहने पर ङ् ञ् ण् न् के स्थान में अनुस्वार होता है। जैसे—पंती, परंमुहो, कंचुओ, वंचणं; संमुहो, उकंठा; कंसो, अंसो (पक्तिः, पराङ्मुखः, कञ्चुकः, वञ्चनम् ; षण्मुखः, उत्कण्ठा; कंसः, अंशः ) ( ३३ ) वक्रप्रभृति | शब्दों में कहीं प्रथम, कहीं द्वितीय तथा कहीं तृतीय स्वर के आगे अनुस्वार का आगम होता है । * वीसुं वासा-नीसित्त-महि-ले ऊस- मालि ते अस्स (विष्वग्वर्षानिषिक्तमहीतले उस्रमालितेजसः । कुमार पा० १.३२. + वक्रत्र्यसवयस्याश्रु श्मश्रुपुच्छातिमुक्तकौ ; गृष्टिर्मनस्विनी स्पर्शश्रुतप्रतिश्रुतं तथा । निवसनं दर्शनञ्चैव वक्रादिष्बेवमादयः ॥ ( प्राकृतकल्पलतिका के अनुसार वक्रादि गण । यह गया आकृति गण माना जाता है । ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्रथम अध्याय जैसे-वंकं (वक्रम् ), तंसं (व्यस्रम् ), अंसुं (अश्रु), मंसू (श्मश्रु) पुंछ (पुच्छम् ) गुंछं (गुच्छम् ), मुंढा अथवा मुंडं (मूर्द्धा ), फंसो ( स्पर्शः), बुंधो (बृघ्नः), कंकोडो (कर्कोटः), कुंपलं ( कुट्मलं अथवा कुड्मलम् ), दंसणं (दर्शनम् ) विंछित्रो ( वृश्चिकः), गिंठी अथवा गुंठी (गृष्टिः) मंजारो (मार्जारः)* वयंसो ( वयस्यः), मणंसिणी (मनस्विनी), मणंसिला (मन:शिला), पडिंसुदं (प्रतिश्रुतम् ), पडिंसुआ (प्रतिश्रुत्)। उवरि ( उपरि ), अहिमुंको (अभिमुक्तः) अणितियं, अइमुंतयं (अतिमुक्तकम्) (३४) क्त्वा एवं स्वादि के ण और सु के आगे विकल्प से अनुस्वार आता है। क्त्वा के आगे जैसेप्राकृत संस्कृत काउणं (अनुस्वार), काऊण (अनुस्वार का अभाव) कृत्वा स्वादि के ण के आगे जैसेवच्छेणं (अनुस्वार ), वच्छेण (अनु० का अभाव) वृक्षण स्वादि के सु के आगे जैसेवच्छेसुं (अनुस्वार ), वच्छेसु (अनु० का अभाव) वृक्षेषु * वंकं से मंजारो तक प्रथम स्वर के आगे अनुस्वार का भागम हुआ है। +वयंसो से पडिसुत्रा तक शब्दों में द्वितीय स्वर के आगे अनुस्वार का आगम होता है। * उवरि से अइमुंतयं तक शब्दों में तृतीय स्वर के आगे अनुस्वार का आगम होता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्राकृत व्याकरण (३५) विंशति प्रभृतिक शब्दों के अनुस्वार का लुक् होता है। जैसेप्राकृत संस्कृत वीसा विंशतिः तीसा त्रिंशत् सक्कअं संस्कृतम् सक्कारो संस्कारः सत्तुअं संस्तुतम् (३६) मांसादि गण में अनुस्वार का लुक विकल्प से होता है। जैसे(क) प्रथम स्वर के आगे अनुस्वार का लुक्प्राकृत . संस्कृत मासं, मंसं मांसम् मासलं, मंसलं मांसलम् कि, किं, किम् * विंशत्यादि गण में विंशति, त्रिंशत्, संस्कृत, संस्कार और संस्तुत शब्द गृहीत हैं। . ___+मांसादि गण के विषय में प्राकृतप्रकाश में यों लिखा गया है-'यत्र क्वचित् वृत्तभङ्गभयात् त्यज्यमानः क्रियमाणश्च विन्दुर्भवति स मांसादिषु द्रष्टव्यः ।' अर्थात् छन्दोभङ्ग के भय से. जिस किसी शब्द में अनुस्वार छोड़ा जाता या गृहीत होता है, वह शब्द मांसादि गण में माना जाता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय प्राकृत कासं, कंसं सीहो, सिंघो पासू, पंसू (ख) द्वितीय स्वर के आगे अनुस्वार का लुकू — प्राकृत संस्कृत कह, कह एव, एवं कथम् एवम् नूरण, नू नूनम् (ग) तृतीय स्वर के आगे अनुस्वार का लुकू — संस्कृत प्राकृत आणि, इणि समुह, संमुहं केसु, किंसु प्राकृत पङ्को, पंको सो संखो संस्कृत कांसम् सिंहः पांसुः (शुः ) अङ्गणं, अंगणं लवणं, लंघणं 5 (३७) वर्गों' का यदि कोई अक्षर पर में हो तो पूर्व के अनुस्वार के स्थान में पर अक्षर के वर्ग का पश्चिम अक्षर विकल्प से होता है । क, ख, ग, घ के पर में जैसे > च, छ, ज, झ के पर में जैसे इदानीम् सम्मुखम् किंशुकम् १५ संस्कृत पङ्कः शङ्खः अङ्गनम् लङ्घनम् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सन्ध्या प्राकृत व्याकरण कञ्चुओ, कंचुरो कञ्चकः लञ्छणं, लंछणं लाञ्छनम् व्यञ्जिअं, वंजिअं व्यञ्जितम् सञ्झा, संझा ट, ठ, ड, ढ के पर में जैसेकण्टओ, कंटो कण्टकः उक्कण्ठा, उत्कंठा उत्कण्ठा कण्डं, कंडं काण्डम् सण्ढो, संढो षएढः त, थ, द, ध के पर में जैसेअन्तरं, अंतरं अन्तरम् पन्थो, पंथो पन्थाः चन्दो, चंदो चन्द्रः बन्धवो, बंधवो बान्धवः प, फ, ब, भ के पर में रहने पर जैसेकम्पइ, कंपइ कम्पते वम्फइ, वंफइ काङ्क्षति कलम्बो, कलंबो कलम्बः प्रारम्भो, आरंभो आरम्भः विशेष:-(क) पर में वर्ग का अक्षर नहीं रहने से किंसुओं और संहरइ में उक्त नियम लागू नहीं हुआ। (ख) प्राकृत के अन्य वैयाकरण उक्त नियम को वैकल्पिक न मान कर नित्य मानते हैं। .. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय लिङ्गानुशासन (३८) प्रावृष्, शरद् और तरणि शब्दों का पुल्लिङ्ग में प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे - पाउसो, सरओ, तरणी प्राकृत जसो[] पत्र () तमो$ (३९) दामन, शिरस् और नभस् से वर्जित सकारान्त तथा नकारान्त शब्द पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं । सान्तं जैसे तेओ A सरो x १७ संस्कृत यशः पयः तमः तेजः सरः * जइत्रा गिम्हो पयहो तर चित्र किर श्रासि पाउसो कुमा० पा० ४ ७८ + दहमुह-व-दिश्रहो उवगओ सरओ । रावण० १. १६ 1 न जत्थ दीसइ फुडो तरणी । कुमार० पा० १. २१ [] पारोहो व्व खुडिओ महेन्दस्स जसो । रावण ० १. ४ () धीर सइ मुहल - घण-पत्र - - विज्जन्तां । रावण ० २. २४ $ णह-हिं तमेण व चउद्दिसं भाविश्रं । रावण० २. २३ 4 देखिए १. ३१ की पादटिप्पणी । i * अमुरणा सरेण हंसाण माणसं तं पि विम्हरिअं । कुमा० पा.. ५. ६५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. . प्राकृत व्याकरण नान्त जैसेजम्मो जन्म नम्मो नमें कम्मो][ कम वम्मो (४०) दामन , शिरस् और नभस् शब्द नपुंसक लिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं । जैसे-दाम) (दाम), सिरं ( शिरः), नहंx (नभः) विशेष:-(क) यह नियम पूर्व नियम (१. ३६) में प्रतिषिद्ध दामन आदि तीनों शब्दों के लिङ्ग का बोधन करता है। (ख) नीचे लिखे उदाहरणों में भी उक्त १. ३६ नियम प्रवृत्त नहीं होता है। अर्थात् नपुंसकत्व हो जाता है। जैसे * सहलो जम्मो सभलं च जीविडं ताण देव फणि-चिन्ध । कुमा० पा० २. ५६ + इअ नम्म-पडू जल-पाण-रई । कुमा० पा० ४. ३३ काही सउहे गमणं संझा-कम्मं च काही । कुमा० पा० ५; ८७ [अग्घिअवम्मा (राजितवर्माणः ) छजिअ सिरक्कया । कुमा० पा० ६.६३ . गलिअं घण-लच्छि-रअण-रसणा-दामं । रावण १. १८ ६ उरणामिश्र णणु सिरं जाअं । रावण० ४. ५६ ४ थाण-फिडिअ-सिढिलं पडन्तं व एहं । रावण० ४. ५४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय १६ वयं ( वयः), सुमणं (सुमनः), सम्मं । ( शर्मा ), चम्मं ] ( चर्म ) ( ४१ ) अक्षि (आँख ) के समानार्थक शब्द तथा निम्न निर्दिष्ट वचनादि () गण के शब्द पुल्लिङ्ग में विकल्प से होते हैं । अक्षि शब्द का पाठ अञ्जल्यादि गण में भी किया गया है, इसलिए स्त्रीलिङ्ग में भी उसका प्रयोग होता है। जैसे प्राकृत अच्छी अच्छीई][ (पुलिङ्ग) (नपुंसक) (खीलिङ्ग) एसा अच्छी चक्खू (पुल्लिङ्ग) चक्खूइं (नपुंसक) णअणो (पुल्लिङ्ग) } अ (नपुंसक) Δ संस्कृत अक्षिणी अक्षिणी एतदक्षि चक्षुषी ----- नयनम् *.+ सव्ववयाणं मज्झिमवयं व सुमरणाण जाइ सुमणं वा । कुमा० पा० १.२३ + सम्माण मुत्ति-सम्मं न पुहइ - नयराण जं सेयं । कुमा० पा० १.२३ चम्मं जाण न अच्छी । कुमा० पा० १. २४ ( वचनादि गण में वचन, कुल, माहात्मा दुःख, छन्दस्, विजु श्रादि शब्द गृहीत हैं । § अज विसा सवइ ते अच्छी । ( अद्यापि सा शपति तेऽक्षिणी ) ][ नच्चावियाइँ ते म्ह अच्छीइं ( नर्तितानि तेनास्माकमक्षीणि) 4 शाकल्यः शरदं स्त्रीत्वे क्लीबे नान्तञ्च कुण्डिनः । पुंक्लीबयोस्तथाख्यातं नयनादि तथा परैः । कल्पलतिका । विश्रसन्ति जत्थ नयणाकिं पुरा अन्ना नयाई, कुमा० पा० १.२४. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण लोअणो (पुल्लिङ्ग) } * लोचनम् लोअणं (नपुंसक) वअणो (पुल्लिङ्ग) वचनम् वअणं (नपुंसक) कुलो (पुल्लिङ्ग) कुलम् कुलं (नपुंसक) माहप्पो) माहप्पं । __ माहात्म्यम् (४२) किसी किसी प्राचार्य के मत से पृष्ट, अक्षि और प्रश्न शब्द विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-पुट्ठी, पुढे (पृष्ठम्); अच्छी, अच्छं (अक्षि), पण्हा, पण्हो (प्रश्नः)। (४३) गुणादि) शब्द नपुंसक लिङ्ग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं। जैसे-गुणं] गुणो (गुणः); देवाणि, देवा (देवाः); खग्गं, खग्गो (खड्गः); मण्डलग्गं, मण्डलग्गो (मण्डलानः); कररह, कररुहो (कररह); रुक्खाई, रुक्खा (वृक्षाः) (४४) इमान्त (इमन् प्रत्यय जिसके अन्त में आया हो) * विहसन्तहिश्रो विहसेन्त लोअणो। कुमा० पा० ५.८४. गुरुणो वयणा वयणाई। कुमा० पा० १. २५. नेत्र और कमल शब्दों का वचनादि में ग्रहण नहीं है। क्योंकि वे संस्कृत के अनुसार ही हैं। () गुणादि में गुण, देव, विन्दु, खड्ग, मण्डलान, कररुह, और वृक्ष शब्द गृहीत हैं। 0 विहवेहिं गुणाई मग्गन्ति (विभवैर्गुणा:मृग्यन्ते ) हेम० १.३४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत प्रथम अध्याय और अञ्जल्यादि* गण के शब्द विकल्प से स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं। इमान्त में जैसे संस्कृत एसा गरिमा; एसो गरिमा एष गरिमा .. एसा महिमा; एसो महिमा एष महिमा अञ्जल्यादि में जैसे.....एसा अंजली, एसो अंजली एष अञ्जलिः चोरिआ (स्त्री०), चोरिओ (पु०) चौर्यम् निहो (स्त्री०), निही (पु०) निधिः विही (स्त्री०), विही (पु०) विधिः गंठी (स्त्री०), गंठी (पु०) प्रन्थिः (४५) जब वाहु शब्द स्त्री-लिङ्ग में प्रयुक्त होता है, तब उसके उकार के स्थान में आकार आदेश होता है। किन्तु जब * अञ्जल्यादि गण में अञ्जलि, पृष्ठ, अक्षि, प्रश्न, चौर्य, कुक्षि, बलि, निधि, विधि, रश्मि और ग्रन्थि शब्द गृहीत है। रश्मिः स्त्रियां वेति कल्पलतिका । कल्पलतिकायां काश्मीरोष्म सीम शब्दाः पठिताः। + एयाए महिमाए हरिओ महिमा सुर-पुरीए । __-कुमा० पा० १. २६ जत्थञ्जलिणा कणयं रयणाइं वि अञ्जलीइ देइ जणो। . -वही । १. २७ .A कणय-निही अक्खीणो रयण-निही अक्खया तह वि । .......... -वही । १. २७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्राकृत व्याकरण पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त होता है तब आकार आदेश न होकर वाहु रूप ही रह जाता है। जैसे एसा बाहा; एसो बाहू || (एष वाहुः) ( ४६ ) संस्कृत व्याकरण के अनुसार जब किसी प्रकार के आगे विसर्ग आया हो, तो उस विसर्ग के स्थान में ओ आदेश हो जाता है और के पूर्व के व्यञ्जन सहित अ का लोप होता है । जैसे - सव्व ( सर्वतः); पुरओ (पुरतः); अग्ग ( अग्रतः ); मग (मार्गतः) विशेष : - यह सार्वत्रिक नियम नहीं है कि शब्द अकारान्त ही हो । अतः व्यञ्जनान्त शब्दों में भी उक्त नियम लागू हो जाता है । जैसे—भवओ (भवतः); भवन्तो (भवन्तः); सन्तो ( सन्तः); कुदो (कुतः) (४७) माल्य शब्द के पर में रहने पर निर् और स्था धातु के पर में रहने पर प्रति के स्थान में क्रमशः यत् और परि देश विकल्प से होते हैं। जैसे - प्राकृत ओमल्लं अथवा ओमालं (ओ) निम्मलं (ओ का अभाव ) परिट्ठा (परि आदेश ) पट्ठा (परि का अभाव ) संस्कृत निर्माल्यम् प्रतिष्ठा * तत्थ सिरि-कुमर- बालो बाहाए सब्बो वि धरि-धरो । -कुमा० ० पा० १.२८. + बाहूसु सिलाल - डिएसु सिणो । – रावण० ३. १. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय प्राकृत परिट्ठिअं (परि आदेश) । प्रतिष्ठितम् पइडिअं (परि का अभाव) (४८) त्यद् आदिक सर्वनामों से पर में रहनेवाले अव्ययों तथा अव्ययों से परमें रहनेवाले त्यदादि के आदि स्वर का लुके विकल्प से होता है। जैसे संस्कृत अम्हेव्व(त्यदादि से पर अव्यय के आदि वयमेव स्वर का लुक्) । अम्हे एव्व (लुक् का अभाव) वयमेव जइहं (अव्यय से पर में आने-) वाले त्यदादि के आदि स्वर का लुक यद्यहम् जइ अहं (लुक का अभाव । (४६) पद से पर में रहनेवाले अपि अव्यय के आदि अ का लुक विकल्प से होता है । जैसेप्राकृत संस्कृत तं पि; तमवि तमपि किं पि; किमबि किमपि केण वि; केणावि केनापि कह पि; कहमवि कथमपि (५०) पद से पर में रहनेवाले इति अव्यय के आदि इकार * त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम् , अदस् , एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु किम् ये ही त्यदादि सर्वनाम माने गये हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राकृत व्याकरण का लुक विकल्प से होता है और स्वर से पर में रहनेवाले तकार का द्वित्व है । जैसेप्राकृत संस्कृत किं ति किमिति यं ति . यदिति दिटुं ति दृष्टमिति न जुत्तं ति । न युक्तमिति स्वर से पर रहने पर जैसेतह त्ति तथेति पिओ त्ति प्रिय इति पुरिसो त्ति पुरुष इति विशेष-पद से पर में नहीं रहने के कारण नीचे लिखे उदाहरण में न तो इति के आदि इ का लुक हुआ और न तकार का द्वित्व ही। इसविझ-गुहा निलयाए। (५१)-जिन श, ष, स् से पूर्व अथवा पर में रहनेवाले य, र, व् , श् , ' , स् वर्णों का प्राकृत के नियमानुसार लोप हुआ हो उन शकार, षकार और सकारों के आदि स्वर का दीर्घ . हो जाता है। जैसे . * देखिए-नियम १.६६ . + इस नियम को पूर्णतः समझने के लिए हेमचन्द्र के अधोमनयाम् २.७८ अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् । २. ८६ न दीर्घानुस्वारात् । २.६२ श्रादि सूत्रों का मनन श्रावश्यक है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय. प्राकृत __संस्कृत पासइ (यलोप२.७८ द्वि०२.८९;= पस्सइ.सलु२.७७ दीर्घ)पश्यति कासवो (,, , , ,, कस्सवो. , , ,)काश्ययः वीसमइ ( र लोप २.७६; दीर्घ) विश्राम्यति वीसामो ( , , ,) विश्रामः संफासो ( ,, ,, द्वित्व२.८९; संफस्सो.सलुक्२.७७;दीर्घ) संफासो आसो (व लोप २.७६. ,, ,, अस्सो ,, ,, ,,) अश्वः वोससइ ( ,, ,, विस्ससइ,, ,, ,,)विश्वसिति विसासो ( ,, ,, ,, ,, विस्सासो,, ,, ,,)विश्वासः दूसासणो (श लोप २.७७; दीघ) दुश्शासनः मणासिला(श लोप २.७७; दीर्घ) मनःशिला सीसो (य लोप २.७८.द्वित्व२.८६.सिस्सो सलुक्२.७७दीर्घ)शिष्यः पूसो ( , , , , पुस्सो ,,,) पुष्यः मनूसो (,,,, मनुस्सो,,,)मनुष्यः कासओ (र लोप २.७६ ,, ,, कस्सओ , , ,,) कर्षकः वासा (, , , , वस्सा , " ") वषोः वीसुं( व लोप २.७६. उत्व१.५२.द्वि, विस्सुं , , , )विष्वक्' सासं(य लोप २.७८. , , सस्सं ,, ,,)सस्यम् कासइ(य लोप २.७८ द्वित्व२.८६कस्सइसलुक२.७७;दीघे)कस्यचित् ऊसो (र लोप२.७६ ,, ,, उस्सो ..,,,,,) उस्रः विकासरो (व लोप ,, ,, ,,विकस्सरो ,, ,,,)विकस्वरः नीसो (,, ,, ,, निस्सो ,,) निस्वः नीसहो (स लोप २.७७ दीघ ......... निस्सहः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (५२)-समृद्धथादिगण के शब्दों में आदि अकार का दीर्घ विकल्प से होता है। जैसे-सामिद्धी, समिद्धी ( समृद्धिः); पाअडं, पअडं (प्रकटम् ); पासिद्धी, पसिद्धी (प्रसिद्धिः); पाडिवा, पडिवत्रा (प्रतिपदा); पासुत्तं, पसुत्तं (प्रसुप्तम् ); पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी (प्रतिसिद्धिः) सारिच्छो, सरिच्छो (सदृक्षः); माणंसी, मणंसी (मनस्वी); माणंसिणी, मणंसिणी (मनस्विनी); पाहिआई, अहिआई (अभिजातिः); पारोहो, परोहो (प्ररोहः), पावासू, पवासू (प्रवासी); पाडिप्फद्धी, पडिप्फद्धी (प्रतिस्पर्धी), आसो अस्सो (अश्वः)। विशेष—प्राकृतप्रकाश ने इस गण को आकृति गण माना है। ऊपर उदाहरणों में इसीलिए मनस्वी, प्ररोहः और अश्वः की उक्त गण के भीतर सिद्धि मानी (५३) दक्षिण शब्द में आदि अकार का, ह के पर में रहने पर, दीर्घ होता है । जैसे-दाहिणो ( दक्षिणः) । विशेष-ह नहीं रहने पर दक्षिणः का दक्खिणो यही रूप रह जाता है। (५४) स्वप्न आदि शब्दों में आदि 'अ' का इकार होता है। जैसे-सिविणो ( स्वप्नः); इसि ( इर्षत् ); वेडिसो ( वेतसः), * समृद्धयादि गण के शब्दों का परिगणन यों है समृद्धिः, प्रतिसिद्धिश्च, प्रसिद्धिः प्रकटं तथा; प्रसुप्तञ्च प्रतिस्पर्धी प्रतिपच्च मनस्विनी। अभिजातिः, सदृक्षश्च समृद्धयादिरयं गणः ।।--कल्पलतिका । * पाहिजाई यह पाठान्तर है। + अहिजाई यह पाठान्तर है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विलियं (व्यलीकम् ); वित्रणं (व्यजनम् ); मुइंगो (मृदङ्गः); किविणो ( कृपणः); उत्तिमो ( उत्तमः); मिरिअं (मरियम् ); दिएणं* ( दत्तम् )। विशेष-जहाँ दत्त के त्त के स्थान में णत्व नहीं हुआ हो, वहाँ उक्त नियम में वहुल (प्रायः) का अधिकार होने से इत्व नहीं होता है। जैसे-दत्तं; देवदत्तो। (५५) मयट् प्रत्यय में आदि अ के स्थान में 'अई' आदेश विकल्प से होता है। अइ होने पर जैसे-विसमइओ; अइ के अभाव में जैसे-विसमओ (विषमयः) (५६) अभिज्ञ आदि शब्दों में णत्व करने पर ज्ञ के ही. * प्राकृत प्रकाश में-'इदीषत्पक्वस्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाङ्गारेषु' यह सूत्र है। इस सूत्र में 'वेति निवृत्तम्' ऐसा कहा गया है । इसि ( ईषत् ); पिक्कं ( पक्कं ); सिविणो ( स्वप्नः); वेडिसो (वेतसः); विअणो (व्यजनम् ); मिइङ्गो (मृदङ्गः); इङ्गालो (अङ्गारः)। किन्तु प्राकृतमञ्जरी के अनुसार यह इत्व विकल्प से होता है। ईषत् पक्कं तथा स्वप्नो वेतसो व्यजनं पुनः। मृदङ्गश्च तथाङ्गार एषु शब्देषु सप्तसु । अत इद्वा भवेदीषदीसि वा पुनरीस वा। पक्कं पिक्कञ्च पक्कञ्च तथान्येष्वपि दृश्यताम् । इत्वमीषत्पदे कैश्चिदीकारस्यापि चेष्यते । 'इसि चुम्बिअमित्यादि रूपं तेन हि सिद्धयति । शौर-सेनी में अङ्गार और वेतस के आदि अकार का इकार नहीं होता। आर्ष में स्वप्न शब्द के श्रादि अकार का उकार भी होता है। जैसे-सुमिणो। इसके लिए देखिए-हेम० १. ४६ । + जिनके ज्ञ का णत्व कर देने पर उत्व देखा जाता है, वे ही अभिज्ञादि हैं। देखिए हेम० १. ५६. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण अकार का उत्व होता है । जैसे-अहिएणू (अभिज्ञः); सवण्णू* (सर्वज्ञः); आगमण्णू (आगमज्ञः) विशेष—णत्वाभाव में अहिजो (अभिज्ञः) और सव्वजो (सर्वज्ञः) रूप होते हैं। अभिज्ञादि से भिन्न स्थल में नियम नहीं लगता। पण्णो (प्राज्ञः)। (५७) शय्या आदि शब्दों में आदि अकार का एकार आदेश होता है। जैसे-सेज्जा (शय्या); सुंदे (सुन्दरम् ); उक्करो (उत्करः); तेरहो (त्रयोदश); अच्छेरं (आश्चर्यम् ); पेरन्तं ( पर्यन्तम् ); वेल्ली (वल्लिः) विशेष-कोई-कोई प्राकृत वैयाकरण शय्यादि गण में ___ कन्दुक का भी पाठ मानते हैं। उनके मत से गेंडुअं (कन्दुकम्) रूप होता है। (५८) अर्पि धातु के आदि अ का ओ आदेश विकल्प से होता है। ओ जैसे-ओप्पेइ; ओ का अभाव जैसे-अप्पेइ ___* पैशाची में सव्वण्णू न होकर सव्वञ्जो और शौरसेनी में सव्वएणो होता है। शय्यादि गण में निम्नलिखित शब्द ही माने गये हैं__शय्या त्रयोदशाश्चर्य पर्यन्तोत्करवल्लयः; सौन्दर्य चेति शय्यादिगणः शेषस्तु पूर्ववत् ॥ * प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द ने एच्छय्यादौ १. ५७ और वल्ल्युत्करपर्यन्ताश्चर्य वा १.५८ इन दो सूत्रों को बनाकर प्रथम सूत्र से नित्य एत्व करते हुए सेजा, सुन्देरं, गेन्दुअं, एत्थ (अत्र) इन उदाहरणों की सिद्धि मानी है। दूसरे से वैकल्पिक एत्व करते हुए वेल्ली, वल्ली; उक्केरो, उक्करो; पेरन्तो, पजन्तो; अच्छेरं, अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिजं, अच्छरीअं उदाहरण दिये हैं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय . २९ (अर्पयति); एवं ओ आदेश जैसे-ओप्पियो का अभाव जैसे-अप्पिअं (अर्पितम्) ___ (५६) स्वप् धातु में आदि अ के स्थान में प्रोत् और उत् आदेश पर्याय (बारी-बारी) से होते हैं। श्रोत् जैसे-सोवइ उत् जैसे-सुवइ (स्वपिति)। __ (६०) नब् के बाद में आनेवाले पुनर् शब्द के अ के स्थान में आ और आइ आदेश विकल्प से होते हैं । जैसेप्राकृत संस्कृत ण उणा (आ) ) ण उणाइ (आइ) न पुनः ण उण (पक्ष में)) (६१) अव्ययों में और उत्खात,* चामर, कालक, स्थापित प्रतिस्थापित, संस्थापित, प्राकृत, तालवृन्त हालिक, नाराच, बलाका कुमार, खादित, ब्राह्मण एवं पूर्वाह्न शब्दों में आदि * प्राकृत प्रकाश और कल्पलतिका में उक्त उदाहरणों की सिद्धि के लिए 'अदातो यथादिषु वा' सूत्र मिलता है। कल्पलतिका में यथादि गण में शब्दों की परिगणना यों की गई है यथातथातालवृन्त प्राकृतोत्खातचामरम् । . . चाटुप्रहावप्रस्तारप्रर्वाहाहालिकस्तथा ॥ मार्जारश्च कुमारश्च मार्जारेयुकलोपिनि । संस्थापितं खादितञ्च मरालश्चैवमादयः ।। प्राकृतमञ्जरीकार यथादि गण की गणना इस प्रकार करते हैं यथा चामरदावामिप्रहारोत्खातहालिकाः तालवृन्ततथाचाटु यथादिः स्यादयं गणः। ... Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्राकृत व्याकरण आकार का अकार विकल्प से होता है। यथा-जह, जहा (यथा); तह, तहा (तथा); अहव, अहवा (अथवा); उक्खअं, उक्खाअं (उत्खातम् ); चमरं, चामरं (चामरम्); कलओ, कालो (कालकः); ठविश्र, ठाविरं (स्थापितम् ); परिठविश्र, परिष्ठापि (प्रतिष्ठापितम् );संठविश्र, संठाविश्र (संस्थापितम्)पउअं, पाउअं (प्राकृतम्); तलवेण्ट, तालवेण्ट (तालवृन्तम् ); हलिओ, हालिओ (हालिकः); णराओ, णाराओ (नाराचः); वला, वलाआ (वलाका) कुमरो, कुमारो (कुमारः); खइअं, खाइअं (खादितम् ); बम्हणो, बाम्हणो (ब्राह्मणः); पुव्वएण्हो, पुव्वाण्हो (पूर्वाह्नः) (६२) घञ् को निमित्त मानकर जहाँ आ रूप वृद्धि हुई हो, उस आदि आकार का अत्व विकल्प से होता है । जैसेप्राकृत संस्कृत पवहो । प्रवाहः पवाहो * प्राकृत प्रकाश और कल्पलतिका के अनुसार प्रस्तार प्रहार, दावामि, चाटु, मार्जार, मराल, प्रवाह इन शब्दों के आदि आकार का भी अत्व विकल्प से होता है। कल्पलतिका के अनुसार स्थापित, पांशुर तथा माधुर्य के आदि आकार का नित्य ही अत्व होता है । शौरसेनी आदि प्राकृत के अङ्गों में कहीं अत्व का निषेध देखा जाता है । क्रमशः यहाँ उदाहरण दिये जा रहे हैं। -पत्थरो, पत्थारो (प्रस्तारः), पहरो, पहारो (प्रहारः), दवग्गी, दावग्गी (दवामिः); चडु, चाडु (चाट); मजारो, माजारो (मार्जारः); मरलो, मरालो (मरालः); पवहो, पवाहो (प्रवाहः)।-ठवित्रं (स्थापितम्); पंसुरं (पांशुरम् ); मधुरीअं (माधुर्यम्); जधा (यथा); तधा (तथा)। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पअरो प्रकारः पारो विशेष—कुछ घनन्त शब्दों में यह नियम लागू नहीं होता । जैसे-राओ (रागः) इत्यादि। (६३) मांस जैसे शब्दों में अनुस्वार रहने पर (देखिए नियम १. ३६) आदि आकार का अत्व होता है जैसे-मंसं (मांसम् ) पंसू (पांशुः); पंसनो (पांसनः); कंसं (कांसम्); कंसिओ (कांसिकः); वंसिओ (वांसिकः); संसिद्धिो (सांसिद्धिकः); संजत्तिो (सांयात्रिकः) . (६४) सदा आदि शब्दों में आकार का इकार आदेश विकल्प से होता है । इकार जैसे—सइ, तइ, जइ, णिसिअरो। इकार का प्रभाव जैसे—सपा, ता, जा, णिसाअरो (सदा, तदा, यदा, निशाचरः) (६५) यदि आर्या शब्द श्वश्रु (सास) के अर्थ में प्रयुक्त हो तो 'य' के पूर्ववर्ती आकार के स्थान में ऊ होता है । जैसे-ऊज्जा (सास अर्थ), अज्जा (श्रेष्ठ अर्थ); (आर्या)। (६६) मात्रट् प्रत्यय के आकार के स्थान में एकार विकल्प से होता है । एकार आदेश जैसे-एतिअमेत्तं । एकाराभाव जैसे-एतिअमत्तं (एतावन्मात्रम्)। विशेष-कहीं कहीं मात्र शब्द में भी आकार का एकार होता देखा जाता है । जैसे-भोअणमेत्तं (भोजन मात्रम्) (६७) संयोग से अव्यवहित पूर्ववर्ती दीर्घ का कभी-कभी इस्व रूप हो जाता है। जैसे-अंबं (आम्रम्); तंबं (वाम्रम्); Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण विरहग्गी (विरहाग्निः); अस्सं (आस्यम् ); मुनिंदो (मुनीन्द्रो) तित्थं (तीर्थम् ); गुरुल्लावा (गुरुल्लापाः); चुएणो (चूर्णः); नरिन्दो (नरेन्द्रः); मिलिच्छो (म्लेच्छः); अहरुटुं (अधरोष्ठम् ); नीलुप्पलं (नीलोत्पलम्) विशेष—संयोग पर में नहीं रहने से आयासं ईसरो, ऊसवो आदि शब्दों में उक्त नियम लागू नहीं होता है। (६८) आदि इकार का संयोग के पर में रहने पर एकार विकल्प से होता है । एकार होने पर जैसे-पेण्डं, णेद्दा, सेंदूरं, धम्मेल्लं, वेण्हू, पेटुं, चेण्हं, वेल्लं । एकाराभाव में जैसे-पिण्डं, णिद्दा, सिंदूर, धम्मिल्लं, विण्हू, पिटुं, चिण्हं, विल्लं (पिण्डम् निद्रा, सिन्दूरम् , धम्मिल्लं, विष्णु, पृष्ठम् , चिह्नम् , विल्लम्) विशेष—इस नियम के अनुसार पिण्डादि में जो एत्व । होता है, शौरसेनी आदि में नहीं होता। उसमें पिण्ड, गिद्दा और धम्मिलं ये ही रूप होते हैं। (६६) जब इति शब्द किसी वाक्य के आदि में प्रयुक्त होता है, तब तकारवाले इकार का अकार हो जाता है जैसेप्राकृत संस्कृत इअजं पिअवसाणे इति यत् प्रियावसाने इअ उअह अण्णह वअणं इति पश्यतान्यथा वचनम् विशेष- इति शब्द के वाक्यादि में प्रयुक्त नहीं रहने पर अत्व नहीं होता । जैसे-पिनो त्ति (प्रिय इति); पुरिसो त्ति (पुरुष इति) * देखो नियम १.५० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय (७०) जहाँ निर के रेफ का लोप होता है, वहाँ नि के इकार का ईकार हो जाता है। जैसे-णीसहो (निस्सहः) णीसासो (निःश्वासः)। विशेष—रेफ के लोप का अभाव रहने पर उक्त ईकार नहीं होता। जैसे-णिरो (निरयः), णिस्सहो (निःसहः)। (७१) द्वि शब्द और नि उपसर्ग के इकार का उ आदेश होता है। किन्तु कहीं-कहीं यह नियम नहीं भी लागू होता है । द्वि शब्द के विषय में कहीं विकल्प से उत्व होता और कहीं श्रोत्व भी देखा जाता है। द्वि शब्द के विषय में नित्य उत्व जैसे—दुवाई, दुवे, दुवअणं (द्वौ, द्विवचनम् ); द्वि शब्द में विकल्प से उत्व जैसे—दुउणो, दिउणो; दुइओ, दिउओ (द्विगुणः, द्वितीयः) द्वि शब्द के विषय में नियम की अप्रवृत्ति-दिओ, द्विरो (द्विजः, द्विरदः); द्वि शब्द के विषय में प्रोत्व-दोवअणं (द्विवचनम् )। नि उपसर्ग के विषय में इकार का उत्व जैसेगुमज्जइ, गुमण्णो (निमज्जति, निमग्नः); नि उपसर्ग के विषय में नियम की अप्रवृत्ति जैसे-णिवडइ (निपतति) (७२) कृञ् धातु के प्रयोग में द्विधा शब्द के इकार का. ओत्व और उत्व होता है । जैसेप्राकृत संस्कृत दोहा इअं(ोकार) द्विधा कृतम् दुहा इअं (उकार) । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्राकृत व्याकरण दोहा किज्जदि (अकार) दुहा किज्जदि (उकार) द्विधा क्रियते विशेष — (क) कृञ् का प्रयोग नहीं रहने से दिहा गयं (द्विधागतम् ) में उक्त नियम नहीं लगा । (ख) कहीं कहीं केवल (कृन् रहित) द्विधा में भी उत्व देखा जाता है | दुहा विसो सुर-बहू-सत्थो (द्विधापि स सुरवधूसार्थः) (७३) पानीय गरण के शब्दों में दीर्घ ईकार के स्थान में sa इकार होता है । जैसे - पाणि ( पानीयम् ); अलि (अलीकम् ); जिइ ( जीवति ); जिउ ( जीवतु ); विलियं -( ब्रीडितम् ); करिसो ( करीषः ); सिरिसो ( शिरीषः ); दुइअं ( द्वितीयम् ); तइअं (तृतीयम् ); गहिरं ( गभीरम् ); उवणि (उपनीतम् ); आणि ( आनीतम् ); पलिवि ( प्रदीपितम् ); ओसिन्तो ( अवसीदन् ); पसि (प्रसीद ); गहि (गृहीतम् ); म (वल्मीकः ); तयाणि ( तदानीम् )† * कल्पलतिका के अनुसार पानीय गरण में निम्नलिखित शब्द संग्रहीत हैं पानीयब्रीडितालीकद्वितीयं च तृतीयकम्, यथागृहीतमानीतं गभीरञ्च करीषवत् इदानीं च तदानीं च पानीयादिगणो यथा । प्राकृतमञ्जरी में इनसे भी कम संगृहीत हुए हैंपानीयव्रीडितालीकद्वितृतीयकरीषकाः गभीरञ्च तदानीञ्च पानीयादिरयं गणः । प्राकृतप्रकाश पानीयादि गण में उपनीत, श्रानीत, जीवति, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विशेष—वहुल का अधिकार आने से अर्थात् इस नियम के प्रायिक होने से पाणीअं, अलीअं, जीअइ, करीसो, उवणोओ ये रूप भी सिद्ध होते हैं। (७४) तीर्थ शब्द के ईकार का ऊकार तब होता है, जब कि उसके आगे का 'थ' ह हो गया हो । ह होने पर ऊकार जैसे--तूई । ह नहीं होने पर उत्वाभाव और हस्व जैसेतित्थं (तीर्थम्) __(७५) मुकुलादि गण में आदि उकार के स्थान में अकार आदेश होता है। [प्राकृतप्रकाश में मुकुलादि गण न कहकर मुकुटादि गण कहा गया है। जैसे अन्मुकुटादिषु] मुकुलादि अथवा मुकुटादि के उदाहरण-मउलं (मुकुलम्); गरुई (गुर्वी); मउड (मुकुटम् ); जहुढिलो, जहि ढिलो (युधिष्ठिरः); सोअमल्लं (सौकुमार्यम्); गलोई (गुडूची) विशेष—कहीं कहीं प्रथम उकार का आकार भी होता देखा जाता है । जैसे-विदाओ (विद्रुतः) जीवतु, प्रदीपित प्रसीद, शिरीष, गृहीत, वल्मीक और अवसीदन् शन्दों का उल्लेख नहीं करता। ____ * मुकुटादि गण में प्राकृतमञ्जरी के अनुसार निम्नलिखित शब्द हैं। मुकुटं मुकुलं गुर्वी सुकुमारो युधिष्ठिरः अगुरूपरि शब्दौ च मुकुटादिरयं गणः । + तुलना कीजिए-भाजपुरी का 'मउर' शब्द और संस्कृत का 'मौलि' शब्द। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (७६) यदि गुरु शब्द के आगे स्वार्थ में क प्रत्यय किया गया हो, तो उस गुरु शब्द के आदि उकार का अ आदेश विकल्प से होता है। जैसे-गरुओ, गुरुओ (गुरुकः गुरु) स्वार्थिक क के अभाव में गुरुओ (गुरुकः । थोड़ा गुरु) होता है। (७७) उत्साह और उच्छन्न शब्दों को छोड़कर वैसे ही अन्य शब्दों में 'त्स' और 'च्छ' के पर में रहने पर पूर्व के आदि उकार का दीर्घ ऊकार होता है जैसे-ऊसुत्रो (उत्सुकः); उसो (उत्सवः); ऊसित्तो (उसिक्तः), ऊच्छुओ (उच्छुकः। उद्गताः शुका यस्मात् सः) विशेष-उच्छाहो (उत्साहः), उच्छण्णो (उच्छन्नः) में उक्त नियमानुसार दीर्घ ऊकार नहीं होता। (७८) दुर् उपसर्ग के रेफ का लोप हो जाने पर ह्रस्व उ का दीर्घ ऊ विकल्प से होता है । ऊकार जैसे-दूसहो, दूहो; ऊ का अभाव जैसे-दुसहो, दुहओ (दुःसहः, दुर्भगः) । विशेष—दुस्सहो विरहो में रेफ का लोप नहीं रहने से वैकल्पिक ऊकार नहीं हुआ। (७६ ) संयुक्त अक्षरों के पर में रहने पर पूर्ववर्ती प्रथम उकार का ओकर होता है । जैसे तोण्ड (तुण्डम् ); मोण्डं (मुण्डम् ); पोक्खरं (पुष्करम्); कोट्टिमं (कुट्टिमम् ); पोत्थअं (पुस्तकम् ); लोद्धो (लुब्धकः); मोत्ता (मुक्ता) वोक्कन्तं (व्युत्क्रान्तम् ); कोन्तलो (कुन्तलः) * प्राकृत प्रकाश में 'उत् ओत्तुण्डरूपेषु' १०. २०. यह सूत्र है । कल्पलतिका के अनुसार तुण्डादिगण के शब्द यों परिगणित हैंतुण्डकुट्टिमकुद्दालमुक्तामुद्गरलुब्धकाः । पुस्तकञ्चैवमन्येऽपि कुम्मीकुन्तल पुष्कराः। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विशेष-शौरसेनी में यह ओत्व नित्य नहीं होता। (८०) शब्द के आदि ऋकार का अकार होता है। जैसेघअं (घृतम् ); तणं (तृणम्); कअं (कृतम्) वसहो (वृषभः) मओ (मृगः अथवा मृतः) वड्ढी आदि। (८१) कृपादिगण के शब्दों में आदि ऋकार का इत्व होता है। जैसे-किवा (कृपा); दिलै (दृष्टम् ); सिट्ठी (सृष्टिः); भिऊ (भृगुः), सिंगारो (शृङ्गारः); घुसिणं (घुमृणम्); इड्ढी (ऋद्धिः); किसाणू (कृशानुः) किई (कृतिः); किवणो (कृपणः); भिंगारो (भृङ्गारः); किसो (कृशः); विश्नुओ वृश्चिकः); विहिओ (बृंहितः); तिप्पं (तृप्तम् ); किच्चं (कृत्यम् ); हिअं (हृतम् ); विसी (वृषिः); सइ (सकृत् ); हिअअं (हृदयम् ); दिट्ठी (दृष्टिः); गिट्ठी (गृष्टिः); भिंगो (भृङ्गः); सियालो (शृगालः) विड्ढी (वृद्धिः); घिणा (घृणा); किच्छं (कृच्छ्रम् ); निवो (नृपः); विहा (स्पृहा); गिड्ढी (गृद्धिः); किसरो (कृशरः); धिई (धृतिः); किवाणं (कृपाणम्); किसिओ (कृषितः); वित्तं (वृत्तम् ); वाहित्तं (व्याहृतम् ); इसी (ऋषिः); वितिण्हो (वितृष्णः); मिट्ठ (मृष्टम् ); सिलु (सृष्टम् ); पित्थी __ + कृपादिगण के उदाहरणों की सिद्धि के लिए प्राकृतप्रकाश में इदृष्यादिषु सूत्र अाया है। ऋष्यादिगण के शब्दों की गणना कल्पलतिका में इस प्रकार की गई है--ऋष्यादिषु कृतिः कृत्या धृष्टो वृषभवृश्चिकः । वृषश्च पृथुलो गृध्रो मृगाको मसृणं कृषिः। सृष्टिदृढो भृतो गृष्टिवितृष्णकृतकृत्तयः । संज्ञावाजककृष्णोऽयमृष्यादिगण ईदृशः। प्राकृतमञ्जरीकार के मत से ऋष्यादिगण यों है-ऋषिदृष्टिः कृशो घृष्ठिः कृपाशृङ्गारवृश्चिकाः; मृदङ्गो हृदयं भृङ्गः शृगाल इति सृष्टयः । विमृष्टश्च मृगस्तद्वद् भृत्यश्च कृशरस्तथा । श्राकृतिः प्रकृतिश्चैव स्यादृश्यादिरयं गणः। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (पृथ्वी); समिद्धीः (समृद्धिः); किवो (कृपः); वित्ती (वृत्तिः); उकिट्ठ (उत्कृष्ठम् ) विशेष-कल्पलतिका के अनुसार नीचे लिखे शब्दों में ऋकार का नित्य ही इत्व होता है शेष में विकल्प से-भृङ्गभृङ्गारशृङ्गाराः कृपाणं कृपणः कृपा । शृगालहृदये वृष्टिदष्टिवृंहितमेव च । समृद्धिकृशरातृप्तिवृत्ति वृद्धिस्तु कृत्रिमम् । कृकराकुस्तथेत्यादौ नित्यमित्वं ऋतो मतम् । विकल्प जैसेविसो, वसो (वृषः) किण्हो, कण्हो (विष्णुवाची कृष्ण) (८२) पृष्ठ शब्द जहाँ किसी समास आदि में उत्तर पद नहीं हो, वहाँ ऋ का इ विकल्प से होता है जैसे-पिटुं, पढे (पृष्ठम् , । विशेष—महिविडं (महीपृष्ठम्) में उत्तरपद रहने से पृष्ठ शब्द का वैकल्पिक इत्व नहीं हुआ। (८३) ऋतु प्रभृति शब्दों में आदि ऋ का उकार होता है । जैसे—उदू (ऋतुः); पउत्ती (प्रवृत्तिः); परामुट्ठो (परामृष्टः); पाउसो (प्रावृट् ); परहुओ (परभृत्); णिव्वुअं, णिव्वुदं (निवृतम); उसहो (ऋषभः); भाउओ (भ्रातृकः); पहुदि (प्रभृति); संवुदं . * कल्पलतिका में ऋत्वादि गण यो माना गया है ऋतुर्मृदङ्गो निभृतं वृतः परभृतो मृतः । प्रावृट् प्रवृतिवृत्तान्तोमातृका भ्रातृकस्तथा । मृणालपृथिवीवृन्दावनजामातृका अपि । वृन्दारकश्च प्रभृतिः पृष्ठ वृद्धादयः परे ॥ अत्र लक्ष्यानुसारतोऽन्येऽपि शब्दा शेयाः। (यहाँ लक्ष्यों के अनुसार ऐसे ही दूसरे शब्दों को भी जानना चाहिए।) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ३६ : (संवृत्तम् ); वुड्ढो (वृद्ध:) मुडालं (मृणालम् ); पाहुदं (प्राभृतम् ); पुट्ठे (पृष्ठम् ); पुहइ, पुहवी ( पृथिवी), पाउ ( प्रावृतम्) भुई (भृतिः); विउ ( विवृतम्); बुंदावणं (वृन्दावनम् ); जामाउओ, जामादुओ (जामातृकः); पिउओ (पितृकः); णिहुअं णिहुदं (निभृतम्); वुई (निर्वृतिः); बुड्ढी (वृद्धिः); माउआ (मातृका); रिउ (निवृतम्); वृत्तान्तो ( वृत्तान्तः); उजू (ऋजुः); पुहुवी (पृथिवी); बुंदं (वृन्दम् ); माऊ, मादु (माता) विशेष – मृगाङ्क शब्द में मुअंको और मत्रको दोनों रूप होंगे । ( ४ ) समास आदि में जो पद प्रधान न होकर गौ होता है, उसके अन्तिम ऋ के स्थान में उकार होता है। जैसे प्राकृत संस्कृत माउ मण्डलं मादु-मण्डलं , माउ-हरं मादु-हरं पिउ-वणं } मातृमण्डलम् मातृगृहम् पितृवनम् (८५) गौण (प्रधान) मातृ शब्द के ऋकार का इकार विकल्प से होता है । जैसे - माइ - मण्डलं, माइ-हरं । पक्ष मेंमाउ (दु)-मण्डलं; माउ (दु)-हरं विशेष कभी-कभी प्रधान ( गौण) मातृ के ऋकार का हो जाता है । जैसे - माइणो (मातुः) ( ८६ ) व्यञ्जन से सम्पर्करहित ॠ का रि आदेश कहीं विकल्प भी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्राकृत व्याकरण से और कहीं नित्य होता है । जैसे—रिद्धी (ऋद्धिः); रिणं, ऋणं (ऋणम् ); रिज्जू , उज्जू (ऋजुः); रिसहो, उसहो (ऋषभः); रिऊ, उदू (ऋतुः); रिसो, इसी (ऋषिः) (८७) जिस दृश धातु के आगे कृत् के किप् , टक् और सक् प्रत्यय आये हों, उसके ऋ का रि आदेश होता है। जैसेएआरिसो, तारिसो, सरिसो, सरिच्छो, एरिसो, केरिसो अण्णारिसो अम्हारिसो, तुम्हारिसो। विशेष-शौरसेनी, पैशाची और अपभ्रंश में इन शब्दों के रूप कुछ और ही होते हैं। शौर० जादिसं यादृशम् तादिसं तादृशम् पै० जातिसं यादृशम् तातिसं तादृशम् अप० जइशं यादृशम् तादृशम् (८८) किसी भी शब्द में आदि ऐकार का एकार होता है। जैसे-सेलो (शैलः); सेत्तं, सेचं (शैत्यम् ); एरावणो (ऐरावतः); तेल्लुकं (त्रैलोक्यम् ); केलासो (कैलासः); केढवो (कैतवः); वेहव्वं (वैधव्यम्) ' (८६) दैत्यादि गण में ऐ के स्थान में ए का अपवाद तइशं * कल्पलतिका के अनुसार दैत्यादि गण के शब्द निम्नलिखित हैं दैत्यादौ वैश्यवैशाखवैशम्पायनकैतवाः; स्वैरवैदेहवैदेशक्षेत्रवैषयिका अपि । दैत्यादिष्वपि विशेयास्तथा वैदेशिकादयः॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ४१ अइ आदेश होता है । जैसे-*दइच्चं (दैत्यम् ); दइएणं (दैन्यम् ); अइसरिअं (ऐश्वयम् ); भइरवो- (भैरवः); दइवअं (दैवतम्); वइआलीओ (वैतालिकः); वइएसो (वैदेशः); बइएहो (वैदेहः); वइअभो (वैदर्भः); वइस्साणरो (वेश्वानरः); कैअवं (कैतवम्); वइसाहो (वैशाखः); वइसालो (वैशालः) (६०) वैरादि गण में ऐत् के स्थान में अइ आदेश विकल्प से होता है । जैसे-वइरं, वे (वैरम् ),कइलासो, केलासो (कैलासः) कइरवं, केरवं (कैरवम् ); वइसवणो, वेसवणो (वैश्रवणः); वइसंपाअणो, वेसंपाअणो (वैशम्पायनः); वइआलिओ, वेलिओ (वैतालिकः); वइसिओ, वेसिओ (वैशिकः); चइत्तो, चेत्तो (चैत्रः) (६१) शब्द के आदि औकार का ओकार आदेश होता है। जैसे-कोमुई (कौमुदी); जोवणं (यौवनम्) कोत्थुहो (कौस्तुभः); सोहग्गं (सौभाग्यम् ), दोहग्गं (दौर्भाग्यम्) गोदमो (गौतमः), कोसंबी (कौशाम्बी), कोंचो (क्रौञ्चः), कोसिओ (कौशिकः) (६२) सौन्दर्यादिगण के शब्दों में औत् के स्थान में उत् * प्राकृतमञ्जरी के अनुसार दैत्यादि गण में निम्नलिखित शब्द परिगृहीत हैं दैत्यः स्वैरं चैत्यं कैटभवैदेहको च वैशाखः; वैशिकमैरववैशम्पायनवैदेशिकाश्च दैत्यादिः । + वैरादिगण में वैर, कैतव, चैत्र, कैलास, दैव और भैरव गृहीत हैं। शौरसेनी में दैव शब्द में यह नियम लागू नहीं होता । कल्पलतिका के अनुसार सौन्दर्यादिगण के शब्द यों हैं सौन्दर्य शौण्डिको दौवारिकः शौण्डोपरिष्टकम् । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण आदेश होता है। जैसे—सुन्देरं, सुन्दरिअं (सौन्दर्यम्) सुंडो (शौण्डः); दुवारिओ (दौवारिकः); मुञ्जाय (अ)णो (मौञ्जायनः); सुगन्धत्तणं (सौगन्ध्यम् ); पुलोमी (पौलोमी); सुवरिणओ (सौवर्णिकः) (६३) कौक्षेयक और पौरादि गण के शब्दों में औत् के स्थान में अउ आदेश होता है । जैसे-कउक्खेअओ, कुक्खे ओ (कौटेयकः); पउरो (पौरः); कउरो(वो) (कौरवः); पउरिसं (पौरुषम् ); सउहं (सौधम् ); गउडो (गौडः); मउली (मौलिः); मउणं (मौनम् ); सउरा (सौराः); कउला (कौलाः)। विशेष—कौशल शब्द के विषय में दो रूप होते हैं कोसलो, कउसलो (कौशलम्) (६४) अव और अप उपसर्गों के आदि स्वर का आगेवाले सस्वर व्यञ्जन के साथ 'ओत्' विकल्प से होता है। जैसेओासो, अवासो (अवकाशः);अोसरइ, अवसरइ (अपसरति); श्रोहणं, अअहणं (अपघनम्)। विशेष--उक्त नियम कहीं पर नहीं भी लागू होता है। जैसे-अवगअं (अपगतम् ); अवसदो (अपसदः) कौक्षेयः पौरुषः पौलोमिमौञ्जदौस्याधिकादयः ॥ प्राकृतमञ्जरी के अनुसार सौन्दर्यशौण्डकौक्षेयास्तथा मौञ्जायनो ऽपि च । तथा दौवारिकश्चेति सौन्दर्यादिरयं गणः॥ कल्पलतिका के अनुसार पौरादि निम्नलिखित हैं पौरपौरुषशैलानि गौडक्षौरितकौरवाः । कोशलमौलिबौचित्यं पौराकृतिगणा मताः ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय (६५) आगेवाले सस्वर व्यञ्जन के साथ उप के आदि स्वर के स्थान में ऊत् और ओत् आदेश विकल्प होते हैं। जैसेऊहसिअं. ओहसिकं (उपहसितम्.); ऊआसो, ओआसो (उपवासः)। * प्रथम अध्याय समाप्त * Mithilita Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ( १ ) स्वर से पर में रहनेवाले, अनादिभूत तथा दूसरे किसी व्यञ्जन से संयोगरहित क, ग, च, ज, त, द, प, य और व अक्षरों का प्रायः लुक् होता है। कलोप जैसे-लोचो, सअढं, मउलो, गउलो, गोआ (लोकः, शकटम्, मुकुलम्, नकुलः, नौका); गलोप जैसे --, अरं, मअङ्को, साअरो, भाइरही (नगो, नगरम्, मृगाङ्कः, सागरः, भागीरथी); चलोप जैसे -- सई, कअग्गहो,() वअणं, सूई, रोश्रदि, उइदं, सूत्रअं ( शची, कचग्रहः, वचनम्, सूची, रोचते, उचितम् सूचकम् ); जलोप जैसे—- रओ, पवई, [] गओ, रअदं ( रजकः, प्रजापतिः, गजः, रजतम् ); तलोप जैसे -- वित्राणं, किअं, रसा-अलं) ( रअणं (वितानम्, कृतम्, रसातलम्, रत्नम् ); दलोप जैसे- " * सयढं पाठान्तर हेम० व्या० में है । + हेम० व्या० में 'नो' पाठान्तर है । † हेम० व्या० में 'नयर' पाठान्तर है । $ म० व्या० में 'मयङ्को' पा० । () हेम० व्या ० ' कयग्गहो' पा० । [] हेम० व्या० 'पयावई' पा० । )( हेम० व्या ० ' रसा-यल ' पा० । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय जइ, नई, गा*, मअणो,वअणं, मत्रो (यदि, नदी, गदा, मदनः, वदनम् मदः); पलोप जैसे--रिऊ, सुउरिसो, कई, विउलं (रिपुः, सुपुरुषः, कपिः, विपुलम् ); यलोप जैसे-आलू , णअणं, विओओ, वाउणा (दयालुः, नयनम्, वियोगःवायुना); वलोप जैसे--जीओ, दिअहो, लाअण्णं,)( विओहो, वडाणलो$ (जीवः, दिवसः, लावण्यम् , विबोधः, वडवानलः) विशेष--(क) प्रायः कहने से कहीं-कहीं लोप नहीं होता है । जैसे-सुकुसुमं, प्रयाग-जलं, पियगमणं, सुगदो, अगुरू,() सचावं, विजणं, अतुलं, सुतरं, विदुरो, आदरो, अपारो, अजसो देवो, दाणवो सवहुमानं इत्यादि । (ख) स्वर से पर में नहीं रहने के कारण संकरो, संगमो, णकंचरो,[ धणंजओ, * हेम० व्या० 'गया' पा० । +हेम० व्या० 'मयणो' पा० । हेम० व्या 'दयालू' पा० । A 'नयणं पा० हेम० व्या० । ('लायएणं' पा० हेम० व्या०। $ 'वलयाणलो' पा० हेम० व्या० । 'अगरू' पा० हेम० व्या० । 1 'सुतार' पा० हेम० व्या० । उनकंचरो पा० हेम० व्या० । नत्तंचरो भी पाठ मिलता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण पुरंदरो और संवरो इत्यादि में लोप नहीं होता। (ग) अक्को, वग्गो, अग्यो, मग्गो, आदि में संयुक्त होने के कारण लोप नहीं होता है। (घ) कालो, गन्धो, चोरो, जारो, तरू, दवो पावं आदि में आद्यक्षर होने के कारण लोप नहीं होता है। (ङ) समास में उत्तर पद के आदि का लोप होता और नहीं भी होता है। जैसे-सह अरो, सहचरो, जलअरो, जलचरो, सह आरो, सहकारो आदि । (च) कुछ लोग किन्हीं प्रयोगों में क का लोप नहीं कर के ग आदेश करते हैं जैसेएगत्तणं (एकत्वम् ); एगो (एकः); अमुगो (अमुकः); आगारो (आकारः) आगरिसो (आकषः) (छ) कहीं आदि के कादि वर्गों का भी लोप, कहीं च का ज और कहीं आष में च का ट आदेश भी होते देखे जाते हैं। * शौरसेनी में पताका, व्यापृत, और गर्भित को छोड़ कर अन्य त के स्थान में द आदेश होता है। पताका का पडात्रा, व्याप्त का व्वावडो और गर्भित का गम्भिणं में रूप होते हैं। भरत के तकार का धकार होकर भरधो रूप होता है। इसी प्रकार द का प्रायः लोप नहीं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय आदि के कादि के लोप जैसे - स ( स पुनः ), सो अ ( स च ) इन्धं (चिह्नम् ); च का ज जैसे – पिसाजी ( पिशाची ); आर्ष में च का ट जैसे—आउट (आकुञ्चनम् ) विशेष – जहाँ नियम २.१. के अनुसार कादि वर्णों के लोप हो चुकने पर अ अथवा आ अवशिष्ट हों, वहाँ लघुप्रयत्नतर यकार का उच्चारण जानना चाहिए । ४७ (२) अवर्ण से पर में अनादि प का लुकू नहीं होता है । जैसे - सवहो ( शपथः); सावो (शापः ) ( ३ ) स्वर से पर में होनेवाले संयुक्त तथा अनादि ख, घ, थ, ध और भ अक्षरों के स्थान में प्रायः ह आदेश होता है । होता । जैसे—वदणं, सौदामिणी । प्रायः कहने से हि श्रत्र में लोप हो जाता है । मागधी में छ के स्थान में च श्रादेश होता है । जघ के -स्थान में य होता है । य का लोप नहीं होता । पैशाची में त और 1 1 के स्थान में त होता है । हृदयं का हितयं रूप होता है । अपभ्रंश में स्वर से परे अनादि और असंयुक्त क, ख, त, थ, प और फ के स्थान में क्रमशः ग, घ, द, ध, व और भ ये ही आदेश होते हैं । पैशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान में क्रमशः वर्ग के प्रथम नकरं तथा भगवती कारण यहाँ इतनी बातें का और द्वितीय अक्षर होते हैं । जैसे नगरं का फकवती । प्रसङ्ग उपस्थित हो जाने के लिखी गइ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण ख का ह जैसे—महो, मुहं, मेहला, लिहइ, पमुहेण, सही, आलिहिदा (मखः, मुखम् , मेखला, लिखति, प्रमुखेण, सखी, आलिखिता); घ का ह जैसे—मेहो. जहणं, माहो, लाइअं, लहु (मेघः, जघनम् , माघः, लाघवम् , लघु); थ का ह जैसेनाहो, गाहा, मिहुणं, सबहो कहेहि, कहं, मणोरहो (नाथः, गाथा, मिथुनम् , शपथः, कथय, कथम् , मनोरथः); ध का ह जैसे—साहू, राहा, वाहो, वहिरो, वाहइ, इंदहणू, अहिअं, माहवीलदा, महुअरो (साधुः, राधा, बाधाः, वधिरः, वाधते, इन्द्रधनुः, अधिकम् , माधवीलता, मधुकरः ; भ का हो जैसेसहा, सहावो, णहं, सोहइ, सोहणं, आहरणं, दुल्लहो (सभा, स्वभावः, नमः, शोभते, शोभनम् , आभरणम् , दुर्लभः) विशेष—(क) स्वर से पर में नहीं रहने से—संखो (शङ्ख:) संघो (सङ्घः) और कंथा (कन्था) में ह आदेश नहीं हुआ। (ख संयुक्त होने से–लुम्पइ (लुम्पति) और अक्खइ (अक्षति) में ह आदेश नहीं हुआ। (ग) आदि में होने के कारण गजंतो (गर्जयन्) खे और गज्जइ घणो (गर्जयतिघणः) में आदेश. नहीं हुआ। ___ * पृथिवी और प्रथम को छोड़कर शौरसेनी में थ का प्रायः घ होता है। जैसे-जधा (यथा), तघा (तथा) और अण्णधा (अन्यथा)। पृथिवी के लिए पहुबी और प्रथम के लिए पढुम होते हैं । शौरसेनी में ध क्ष द के समान और भ क्ष व के समान उच्चारण भर होता हैं लेख में तो ध और भ ही रहते हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय (घ) प्रायः कथन के बल से पखलो (प्रखलः), पलं बघणो (प्रलम्बनः), अधीरो (अधीरः), अधण्णो (अधन्यः); जिणधम्मो (जिनधर्मः) ' इत्यादि में ह आदेश नहीं होता। (४) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि ट ठ और ड के स्थान में क्रमशः ड ढ और ल आदेश होते हैं। ट का ड जैसे-णडोक, भडो, विडवो, घडो, घडइ (नटः, भटः, विटपः, घटः, घटते); ठ का ढ जैसे:-मढो, सढो कमढो, कुढारो (मठः, शठः, कमठः, कुठारः); ड का ल जैसेः-वलवामुहं, गरुलो, कीलइ, तलावो, बलही (बढवामुखम् , गरुडः क्रीडति, तडागः, वलही) विशेष—(क) स्वर से पर में ऐसा कहने से घंटा (घण्टा) वैकुंठो (वैकुण्ठः); मोंड (मुण्डम् ) एवं कोंड (कुण्डम् ) में ट, ठ और ड के स्थान में क्रमशः ड, ढ और ल नहीं हुए। (ख) संयुक्त रहने के कारण खट्टा, चिट्ठइ (तिष्ठति ) खड्गो के ट, ठ और ड के स्थान में ड, ढ और ल नहीं हुए। (ग) अनादि नहीं होने से टंकः, ठाई (स्थायी) और डिंभो में ट, ठ ड के ड, ढ, ल नहीं हुए। . (घ) कहीं पर ट का ड नहीं होता और स्यन्त पट धातु में ट का ल आदेश विकल्प से होता है। अटइ ( अटति) में डादेश का प्रभाव और फालेइ, फाडेइ (पाटयति ) में ट के स्थान में ल और ड पर्याय से हुए। Ah Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (ङ) ड का ल आदेश प्रायिक है, अतः आगेवाले शब्दों में विकल्प से ल होता है । वलिसं, वडिसं, दालिम, दाडिमं; गुलो, गुडो; णाली, नाडी; णलं, णडं । प्राकृत-प्रकाशकार दाडिम, वडिस, निविड में ल आदेश नहीं मानते हैं। कल्पलतिका के मत से केवल पीडित और गुड में वैकल्पिक लत्व होता है । वस्तुतः निविडं, पीडिअं और णीडं में ल का अभाव ही उचित है। . (५) 'प्रति' उपसर्ग में तकार के स्थान में प्रायः डकार आदेश होता है। जैसे :-पडिवएणं (प्रतिपन्नम् ); पडिसरो (प्रतिसरः); पडिमा (प्रतिमा) विशेष-'प्रायः' कहने से आगे के उदाहरणों में डकार विधान वाला नियम नहीं लागू हुआ ! पइवं (प्रतीपम् ); संपई (संप्रति ); पइट्ठाणं (प्रति ष्ठानम् ); पइट्ठा (प्रतिष्ठा ); पइण्णा (प्रतिज्ञा) - (६) ऋत्वादि गण के शब्दों में तकार का दकार होता है। जैसे :-उदू ( ऋतुः); रअदं ( रजतम्); आअदो (आगतः); णिव्वुदी (निवृतिः); आउदी (आवृतिः); संवुदी (संवृतिः); सुइदी (सुकृतिः); आइदी (आकृतिः); हदो (हतः); संजदो ... * ऋत्वादिगण के शब्द इस प्रकार उल्लिखित हैं :- ऋतुः किरातो रजतञ्च तातः सुसंङ्गतं संयतसाम्प्रतञ्च . सुसंस्कृतिप्रीतिसमानशब्दास्तथाकृतिनिवृतितुल्यमेतत् । उपसर्गसमायुक्त कृतिवृती वृतागती। __ऋत्वादिगणने नेया अन्ये शिष्टानुसारतः॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय (संयतः); विउदं (विवृतम् ); संजादो (संयातः); संपदि (संप्रति ); पडिवही (प्रतिपत्तिः)। विशेष-उक्त नियम प्राकृतप्रकाश (२.७.) के ऋत्वादिषु तो दः सूत्र के अनुसार बनाया गया है। किन्तु साधारण प्राकृत के लिए इस नियम को नहीं मानते। वे कहते हैं कि-'स तु शौरसेनीमागधी-विषय एव दृश्यत इति नोच्यते ।' अर्थात् यतः यह सूत्र शौरसेनी और मागधी भाषाओं में ही लागू होता है अतः हम इसका परित्याग करते हैं। . अतः साधारण प्राकृत में उक्त गण में तकार का दकार आदेश नहीं होता। रूप इस प्रकार के होंगे-उऊ (ऋतुः); रअअं (रजतम्); एअं ( एतम् ); गो (गतः); संपलं (साम्प्रतम्); जओ ( यतः); तो (ततः); कअं (कृतम्); हासो ( हताशः); ताओ ( तातः) (७) दंश और दह, प्रदोपि और दीप धातुओं के दकार के स्थान में क्रमशः ड, ल और वैकल्पिक ध आदेश होते हैं। जैसे:प्राकृत संस्कृत डसइ (द=ड).. दशति डहइ ड) , दहति पलीबेइ (दल) प्रदीपयति पलित्तं ... (दल) प्रदीप्तम् धिप्पइ, दिप्पइ (वैकल्पिक ध) दीप्यति , Ꭸ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्राकृत व्याकरण न का (८) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि आदेश होता है। किन्तु आदि में वर्तमान असंयुक्त न का विकल्प से होता है । स्वर से पर अनादि और असंयुक्त न काण जैसे:- सणं ( शयनम् ); कणयं ( कनकम् ); वअणं (वचनम् ); माणुसो ( मानुषः ) | आदि में संयुक्त न का वैकल्पिक जैसे :- णरो, नरो ( नरः); गई, नई (नदी) विशेष – आदि में वर्तमान संयुक्त न का वैकल्पिक णत्व नहीं होता । जैसे:- न्यायः ( 2 ) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि प के स्थान में प्रायः व आदेश हो जाता है । जैसे:- सवहो (शपथः) सावो (शापः ); उवसग्गो (उपसर्गः ); पईवो (प्रदीपः ); कासवो ( काश्यपः ); पावं ( पापम् ); उवमा (उपमा ); महिवालो (महीपालः); गोवेइ (गोपयति ); कलावो (कलापः ) ; तवइ (तपति); कवोलो ( कपोलः ) विशेष – (क) स्वर से पर में रहनेवाले कहने से कम्पइ ( कम्पते ) में व आदेश नहीं हुआ । (ख) संयुक्त कहने से अप्पमत्तो ( अप्रमत्तः ) में व आदेश नहीं हुआ । * प्राकृत प्रकाश २. ४. सर्वत्र ( श्रादि और अनादि में ) नका ण मानता है । ऊपर का नियम ८ हेमचन्द्र के अनुसार है । पैशाची 1 में णकार का नकार हो जाता है । + शौरसेनी में अपूर्व शब्द के स्थान में 'श्रवरूवं' और अउव्वं ये दो रूप होते हैं । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ५३ (ग) आदि में रहने के कारण पढइ ( पठति) के पका व नहीं हुआ । (घ) प्रायः कहने से रिऊ ( रिपुः ) में व नहीं हुआ । (१०) एयन्त पट धातु में प के स्थान में फ आदेश होता है । जैसे :- फालेइ, फाडेइ ( पाटयति ) ( ११ ) स्वर से पर में रहनेवाले संयुक्त और अनादि फ के स्थान में कहीं भी, कहीं ह और कहीं दोनों (भ और ह ) होते हैं । भ जैसे:—— रेभो ( रेफः ); सिभा ( शिफा ), फ का ह जैसेः मुत्ताहलं (मुक्ताफलम् ); दोनों जैसे:— सेभालिया, सेहालिया (शेफालिका ); सभरी, सहरी ( शफरी ) विशेष – (क) स्वर से पर में नहीं रहने के कारण गुम्फइ ( गुम्फति ) में उक्त नियम नहीं लगा । (ख) संयुक्त होने के कारण पुष्कं (पुष्पम् ) में नियम लागू नहीं हुआ । (ग) आदि में होने के कारण फणी के फ को उक्त आदेश नहीं हुए । (१२) स्वर से पर में रहनेवाले, असंयुक्त और अनादि ब का व आदेश होता है । जैसे:- अलावू, अलाऊ ( अलाबू ); सवलो (शबलः ) (१३) विसिनी शब्द के व के स्थान में भ आदेश होता है । जैसे :- भिसिणी ( विसिनी ) 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . प्राकृत व्याकरण विशेष-उक्त नियम में विस के स्त्रीलिङ्ग रूप विसिनी का उल्लेख हुआ है। अतः विसं (विसम् ) में यह नियम लागू नहीं हुआ। (१४) पद के आदि य का जक आदेश होता है । जैसेःजसो ( यशः); जमो ( यमः ); जाइ ( याति) विशेष—(क) पद के आदि में न होने के कारण अव अवो (अवयवः) में नियम नहीं लगा। (ख) उपसर्गयुक्त हो जाने पर अनादि य का भी ज अादेश होता है । जैसेः-संजमो (संयमः); संजोत्रो (संयोगः ); अवजसो (अपयशः)। (ग) कल्पलतिका के मत से सामान्यतः उत्तर - पदस्थ य का भी ज आदेश होता है। जैसेः गाढ-जोवणा (गाढयौवना); अजोग्गो (अयोग्यः) (घ) कभी-कभी आदि य का लोप भी हो जाता है। जैसे:-अहाजाअं ( यथाजातम् ) (१५) तीय एवं कृत् प्रत्ययों के यकार के स्थान में द्विरुक्त ज (ज) आदेश विकल्प से होता है । जैसे:प्राकृत संस्कृत दीजी, दीओ द्वितीयः करणिज्ज, करणी करणीयम् रमणिज्जं, रमणी रमणीयम् पेजं, पेअं * मागधी में य का ज आदेश नहीं होता है। पेयम् Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय (१६) युष्मद् शब्द के य के स्थान में त आदेश होता है। जैसेः-तुम्हारिसो (युष्मादृशः) (१७) छाया शब्द में यकार के स्थान में हकार आदेश होता है । जैसेः-छाहा (छाया) (१८) हरिद्रादि गण के शब्दों में असंयुक्त र के स्थान में ल आदेश होता है । जैसे: हलद्दा (हरिद्रा); दलिदो (दरिद्रः) - (१६) संस्कृत वर्णमाला के श और ष के स्थान में प्राकृत में स आदेश होता है । जैसे:-कुसो (कुशः); सेसो (शेषः) विशेष-वस्तुस्थिति तो यह है कि प्राकृत वर्णमाला में श और ष वर्गों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। (२०) अनुस्वार से पर में रहनेवाले ह के स्थान में घ आदेश होता है । जैसे:-सिंघो, सीहो (सिंहः); संघारो, संहारो (संहारः) विशेष-कहीं-कहीं अनुस्वार से पर में नहीं रहने पर भी ह का घ होता देखा जाता है। जैसे:-दाघो (दाहः) द्वितीय अध्याय समाप्त • कल्पलतिका के मत से हरिद्रादि गण यों है: हरिद्रामुखराङ्गारसुकुमारयुधिष्ठिराः। करुणाचरणञ्चेव परिखापरिघावपि ॥ किरातश्चाङ्गुरी चैव दरिद्रश्चैवमादयः । श्रादि शब्द से पारिभद्र, जठर, निष्ठुर और अपद्वार शब्दों का इस गण में संग्रह किया जाता है। चरण शब्द शरीराङ्गवाची गृहीत है। इसलिए 'पइस्स चरणं' में नियम नहीं लगता। मागधी और पैशाची में र के स्थान मे ल होता है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) क, ग, ट, जब किसी संयोग के है। और अनादि में जैसे: ---- भुत्तं सित्थं भत्तं मुन्तं दुद्धं मुद्धं प्राकृत प्राकृत व्याकरण तृतीय अध्याय ड, त, द, प, श, ष और सव्यञ्जन वर्ण प्रथम अक्षर हों तो उनका लुक हो जाता वर्तमान शेष वणों का द्वित्व होता है । उप्पलं उप्पा मुग्गो मुग्गरो मग्गू [ कलुकू [ कलुकू [ कलुकू [ कलुकू [गलुक् [गलुक् सिणिद्धो [गलुक् सप्प [ टलुकू खग्गो [ डलुकू सज्जो ; [ तलुकू [ दलुकू ; ; ; ; ; ; ; [ डलुकू ; [ तलुकू ; ; [ दलुकू ; [ दलुकू ; संस्कृत तद्वित्व ] द्वित्व ] द्वित्व ] द्वित्व ] धद्वित्व 1 धद्वित्व ] द्वित्व ] पद्वित्व ] गद्वित्व ] जद्वित्व ] पद्वित्व ] पद्वित्व ] गद्वित्व ] द्वित्व ] गद्वित्व ] भुक्तम् सिक्थम् भक्तम् मुक्तम् दुग्धम् मुग्धम् स्निग्धम् षट्पदः खड्गः षड्ज : उत्पलम् उत्पातः मुद्गः मुद्गरः मद्गुः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय सुत्तं [पलुक् । तद्वित्व] सुसम् ।। पज्जत [पलुक् . ; . तद्वित्व] पर्याप्तम् ।। गुत्तो .. [पलुक् ; तद्वित्व ] . गुप्तः निश्चलो [शलुक् ; चद्वित्व] निश्चलः चुअइ [शलुक् ; द्वित्वाभाव*] श्च्योतति गोही [षलुक् । ठद्वित्व] गोष्ठी निहुरो [षलुक् ; ठद्वित्व] निष्ठुरः .. खलिअं [सलुक् ; ख का द्वित्वाभावा] स्खलितम् णेहो [सलुक् ;ण का द्वित्वाभाव] स्नेहः । (२) म, न और य ये व्यञ्जन यदि संयुक्त के अन्तिम अक्षर हों तो उनका लुक होता है और अनादि में वर्तमान शेष वों का द्वित्व हो जाता है । जैसे:प्राकृत संस्कृत जुग्गं [मलुक्; गद्वित्व ] युग्मम् रस्सी [मलुक; सद्वित्व] रश्मिः सरो [मलुक; द्वित्वाभाव ] स्मरः नग्गो [नलुक, गद्वित्व ] नग्नः भग्गो [नलुक ; गद्वित्व] भग्नः लग्गं [नलुक, गद्वित्व ] लग्नम् सोम्मो [यलुक; मद्वित्व] सौम्यः (३) ल, व, र ये व्यञ्जन संयुक्त के आद्यक्षर हों अथवा अन्त्याक्षर चन्द्र शब्द को छोड़कर सर्वत्र (संयुक्त के आदि *... आदि में होने से चुअइ, खलिअं और णेहो में द्वित्व नहीं हुए। .. श्रादि में होने से सरो के स का द्वित्व नहीं हुआ। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण और अन्त में ) उक्त व्यञ्जनों का लुक होता है। और अनादि में स्थित शेष वर्गों का द्वित्व होता है । जैसेप्राकृत संस्कृत उक्का [संयुक्तादि ललुक; कद्वित्व] उल्का वकलं [संयुक्तादि ललुक्; कद्वित्व] वल्कलम् सहं [संयुक्तान्त्य ललुक्; द्वित्वाभाव ] श्लक्षणम् विकवो [संयुक्तन्त्य ललुक; कद्वित्व ] विक्लवः सहो [संयुक्तादि वलुक् दद्वित्व] शब्दः अहो [संयुक्तादि वलुक्, दद्वित्व] अब्दः . पिक [संयुक्तान्त्य वलुक्; कद्वित्व] पक्वम् धत्थं [संयुक्तान्त्य वलुक्; द्वित्वाभाव*] ध्वस्तम् अक्को [संयुक्तादि रलुक; कद्वित्व] अर्कः वग्गो [संयुक्तादि रलुक्; गद्वित्व] वर्ग: चकं [संयुक्तान्त्य रलुक् : कद्वित्व] चक्रः गहो [संयुक्तान्त्य रलुक; द्वित्वाभावक] ग्रहः रत्ती [संयुक्तान्त्य रलुक; तात्व] रात्रिः विशेष—(क) चन्द्र शब्द का चन्द्रो यही रूप होता है । किन्तु हृषीकेश भट्टाचार्य अपने व्याकरण के पृष्ठ ५६ की पादटिप्पणी में लिखते हैं कि We find the form ict in many Manus cripts. (ख) द्व इत्यादि में जहाँ दोनों व्यञ्जनों का लुक प्राप्त हो, वहाँ प्राचीन प्राकृत आचार्यों के रूप दर्शन से कहीं संयुक्त के आदि वर्ण कहीं अन्त्य . वर्ण और कहीं बारी-बारी से दोनों वर्गों के लुक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय होते हैं । संयुक्तादिवर्ण का लुक् जैसेः-उव्विग्गो ( उद्विग्नः) विउणो ( द्विगुणः); कम्मसं ( कल्मषम् ); सव्वं ( सर्वम् ); संयुक्तान्त्य वर्ण का लुक जैसे:-कव्वं ( काव्यम् ); कुल्ला (कुल्या) मल्लं (माल्यम् ); दिओ ( द्विपः ); दुआई (द्विजातिः)। बारी-बारी से आद्यन्त वर्ण लुक् जैसेः-वारं, दारं (द्वारम् ) (४) द्र के रेफ का लुक विकल्प से होता है । जैसेः-दोहो, द्रोहो (द्रोहः ); रुद्दो, रुद्रो (रुद्रः); भई भद्रं (भद्रम् ); समुद्दो, समुद्रो ( समुद्रः); द्रहो, दहो* (हृदः) (५) 'ज्ञा' धातु सम्बन्धी ब का लुक् विकल्प से होता है एवं अनादि ज का द्वित्व होता है। जैसेः-सव्वज्जो, सव्वण्णू (सर्वज्ञः ); अप्पज्जो, अप्पण्णू (अल्पज्ञः ); अहिजो, अहिएणू (अभिज्ञः); जाणं, णाणं (ज्ञानम् ); दइवज्जो, दइवण्णू (दैवज्ञः); इङ्गिअजो, इङ्गिअण्णू (इङ्गितज्ञः); मणोज्जं, मणोएणं (मनोज्ञम् ); पज्जा, पण्णा (प्रज्ञा); अजा, आणा (आज्ञा); संजाड, सरणा (संज्ञा) * ह्रद शब्द की स्थितिपरिवृत्ति ( इसके लिए देखिए हेम० २.. १२०) के बाद द्रह रूप होता है। यहाँ इसी द्रह में उक्त नियम ( ३. ४.) लग जाने से दहो और द्रहो रूप हुए। कुछ लोग र का लोप करना नहीं चाहते और कुछ लोग द्रह को संस्कृत मानते हैं। ... + आदि में होने से द्वित्व नहीं हुअा।। * किसी-किसी पुस्तक में 'अण्णा' पाठ मिलता है। ..$ स्वर से पर में नहीं होने से द्वित्व नहीं हुआ। . . . . . . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण विशेष-कहीं-कहीं यह नियम नहीं लागू होता है। जैसे: विएणाणं (विज्ञानम् )* (६) अनादि एकाकी व्यञ्जन, जो कि पूर्वोक्त नियमों से संयुक्त व्यञ्जन के लुक् होने पर अवशिष्ट रहता है द्वित्वा को प्राप्त करता है । जैसे: प्राकृत संस्कृत दिट्ठी [षलुक् ; ठद्वित्व] दृष्टिः हत्थो [स लुक् ; थ द्वित्व] हस्तः (७) वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ वर्गों के द्वित्व का प्रसङ्ग हो तो द्वितीय वर्ण के ऊपर उसी वर्ग के प्रथम और चतुर्थ के ऊपर उसी वर्ग के तृतीय अक्षर होते हैं। जैसे:-वक्खाणं (व्याख्यानम् ); अग्यो (अर्घः) . (८) दीर्घ स्वर एवं अनुस्वार से पर में रहनेवाले संयुक्तशेष व्यञ्जन (ऊपर से नियमों से संयुक्ताक्षरों में व्यञ्जन के लुक् हो जाने पर अवशिष्ट व्यञ्जन ) का द्वित्व नहीं होता है । जैसेः * शौरसेनी में ज्ञ के स्थान में अ होता है। मागधी और पैशाची में ज्ञ के स्थान में ञ होता है। पैशाची में राजन् शब्द सम्बन्धी ज्ञ चिञ् विकल्प से होता है। शौरसेनी, मागधी और पैशाची में न्य और एय के स्थान में भी ञ होता है। +हेमचन्द्र ने 'अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम्' २.८९. सूत्र बनाकर श्रादेश का भी द्वित्व माना है । जैसे:-उक्को, जक्खो, रग्गो, किच्ची, रुप्पी । कहीं पर यह नियम नहीं लगता है । जैसे-कसिणो । अनादि कहने से खलिअं, थेरो, खम्भो में नियम नहीं लगा। * यहाँ दीर्घ और अनुस्वार नियमवश सम्पन्न ( लाक्षणिक ) और स्वाभाविक (अलाक्षणिक) दोनों गृहीत हैं । लाक्षणिक दीर्घ:-छूढो, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ईसरो (ईश्वरः); लासं ( लास्यम् ); संकेतो ( संक्रान्तः ); संझा (संध्या ) __(8) रेफा और हकार का द्वित्व नहीं होता है। जैसेःसुंदेरं ( सौन्दर्यम); वम्हचेरं (ब्रह्मचर्यम् ); धीरं (धैर्यम् ); विहलो ( विह्वलः ); कहावणो ( कार्षापणः) (१०) वर्गों के द्वित्व करानेवाले पूर्वोक्त नियम समस्त ( समासवाले ) पदों में विकल्प से प्रवृत्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि समास में शेष और आदेश व्यञ्जन का द्वित्व विकल्प से होता है। जैसे:-नइ-ग्गामो, नइ-गामो ( नदी ग्रामः); कुसुमप्पयरो, कुसुम-पयरो (कुसुम प्रकरः ); देव-त्थुई; देव-थुई ( देवस्तुतिः) इत्यादि। विशेष-कभी-कभी पूर्वोक्त द्वित्वविधायक नियमों को विषयता नहीं होने पर भी समास में वैकल्पिक द्वित्व होता देखा जाता है । जैसे:-पम्मुक्कं, पमुक्कं (प्रमुक्तम् ); तेल्लोकं, तेलोकं (त्रैलोक्यम् ) इत्यादि। (११) तैलादि गण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों नीसासो, फासो। अलाक्षणिक दीर्घः-पासं, सीसं । लाक्षणिक अनुस्वारः-तंसं अलाक्षणिक अनुस्वारः-संझा, विझो। यह नियम श्रादेश में भी लगता है। रेफ शेष नहीं मिलता है। आदेश ही मिलता है। देखो नियम ३. ३. * प्राकृत-प्रकाश में तैलादि गण के बदले नीडादि गण से काम लिया गया है। कल्पलतिका में नीडादि गण यों है: नीड व्याहृतमण्डूकस्रोतांसि प्रेमयौवने । . अजुः स्थूल तथा तैलं त्रैलोक्यं च गणो यथा ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्राकृत व्याकरण के निर्णयानुसार कहीं अन्त्य और कहीं अनन्त्य व्यञ्जनों का द्वित्व होता है। जैसे:-तेल्लं (तैलम् ); मंडुक्को (मण्डूकः ); उज्जू ( ऋजुः ); सोत्तं (स्रोतः); पेम्म (प्रेम) विड्डा (ब्रीडा); जोव्वणं ( यौवनम्) (१२) सेवादिक गण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों के निर्णयानुसार कहीं अन्त्य और कहीं अनन्त्य (किन्तु अनादि) व्यञ्जनों का विकल्प से द्वित्व होता है । जैसेः-सेव्वा, सेवा (सेवा); विहित्तो, विहिओ (विहितः ); कोउहल्लं, कोउहलं ( कौतूहलम् ); वाउल्लो, वाउलो (व्याकुलः); नेहूं, नीडं, नेडं ( नीडम् ); नक्खा, नहा (नखाः); निहित्तो, निहिओ ( निहितः); वाहित्तो, वाहिओ (व्याहृतः); माउकं माउअं ( मृदुकम् ); एक्को, एओ ( एकः); थुल्लो, थोरो (स्थूलः) हुत्तं, हूअं (हुतम् ); दइव्वं, दइवं (दैवम् ); तुण्हिक्को, तुण्हिओ (तूष्णीकः ); मुक्को, मूओ (मूकः); खण्णू , खाणू (स्थाणुः); थिएणं, थीणं (स्त्यानम् ); अम्हक्कर, अम्हकेरं ( अस्मदीयम्) - इत्यादि। (१३) क्ष के स्थान में ख आदेश होता है। किन्तु कुछ स्थलों में छ और झ आदेश भी होते हैं। ख आदेश जैसेः* कल्पलतिका में सेवादि गण यों है: सेवा कौतूहलं दैवं विहितं मखजानुनी । पिवादयः सवा (१) शब्दा एतदाद्या यथार्थकाः ॥ त्रैलोक्यं कर्णिकारश्च वेश्या भूर्जश्च दुःखितम् । रात्रिविश्वासनिश्वासा मनोऽश्वर रश्मयः॥ .. ... .. दीर्धेकशिवतूष्णीकमित्रपुष्पासि दुर्लभाः। .. . दुष्करो निष्कृपः कर्मकरेष्वासपरस्परम् ॥ नायकाद्यास्तथा शब्दाः सेवादिगणसम्मताः । "नना। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ६३ खत्रो (क्षयः); लखणं ( लक्षणम् ); छ और ख आदेश जैसे:छीणं, खीणं (क्षीणम् ); झ और ख आदेश जैसे:-मिजइ, खिद्यति (विद्यति) (१४) अक्ष्यादि गण के शब्दों में क्ष के स्थान में ख न होकर छ आदेश होता है । जैसे:-अच्छी (अक्षि); उच्छू (इक्षुः) विशेष—स्थगित शब्द के स्थ के स्थान में भी उक्त नियम से छ आदेश हो जाता है। जैसेः-छइअं (स्थगितम्) (१५) उत्सव अर्थ के वाचक क्षण शब्द में क्ष के स्थान में छ आदेश होता है। उत्सव अर्थ में जैसे:-छणो; समय अर्थ में जैसे:-खणो ( क्षणः ) (१६) संयुक्त क्म और ड्म के स्थान में प आदेश होता है । क्म में जैसे-रुप्पं, रुप्पिणी ( रुक्मम् , रुक्मिणी)। इम में जैसे:-कुप्पलं (कुड्मलम् ) विशेष—कहीं-कहीं क्म के लिए च्म आदेश भी देखा जाता . है। जैसेः-रुच्मी (रुक्मी) (१७) एक और स्क के स्थान में ख आदेश होता है, यदि उन संयुक्ताक्षरों से घटित शब्द द्वारा किसी नाम (संज्ञा) की प्रतीति होती हो । क का ख जैसे:-पोक्खरं(पुष्करम्);पोक्ख * कल्पलतिका के अनुसार अक्ष्यादि गण यों हैं: अत्राक्षिचक्षुरक्षुएणक्षार उत्क्षिप्तमक्षिकैः। दक्षो वक्षः सदृक्षोऽक्ष क्षेत्रक्षीरेक्षुकुक्षयः ॥ तुधा चेत्यादयः शब्दा अक्ष्यादिगणसम्मताः।... Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ प्राकृत व्याकरण रिणी ( पुष्करिणी ); निक्खं (निष्कम् ) स्क का ख जैसे:खंघो ( स्कन्धः ) खंधावारो ( स्कन्धावारः ) विशेष – संज्ञा नहीं होने से दुक्करं (दुष्करम् ) निक्काम्मं (निष्क्राम्यम् ) और सक्क ( संस्कृतम् ) में उक्त नियम लागू नहीं हुआ । (१८) उष्ट्र, ३ष्ट और संदष्ट शब्द के ट को छोड़कर अन्य के स्थान में ठ आदेश होता है । जैसे:- लट्ठी (यष्टिः ) मुट्ठी (मुष्टिः ); दिट्ठी ( दृष्टि ); सिट्ठी ( सृष्टिः ); पुट्ठो ( पुष्टः ); कट्ठ ( कष्टम् ) विशेष – उष्ट आदि में ठ आदेश नहीं होने से उट्टो, इट्टाचुण व्य और संदट्टो रूप होते हैं । ( १९ ) चैत्य शब्द के त्य को छोड़कर अन्य त्य के स्थान में च आदेश होता है । जैसे:- सच्चं ( सत्यम् ); पञ्चओ ( प्रत्ययः ); निच्चं ( नित्यम् ); पच्चच्छं ( प्रत्यक्षम् ) विशेष – चैत्य शब्द का चइतं रूप होता है । ( २० ) कुछ स्थलों में त्व, थ्व, द्व और ध्व के स्थान में क्रमशः श्व, च्छ, ज्ज और ज्म आदेश होते हैं । त्व का जैसेभोच्चा, णच्चा, सोच्चा (भुक्त्वा, ज्ञात्वा श्रुत्वा ); थ्व का जैसेपिच्छी (पृथ्वी); द्व का जैसे:- बिज्जं (विद्वान् ); ध्व का जैसे:— बुज्झा (बुद्ध्वा ) (२१) धूर्तादि गण के शब्दों को छोड़कर अन्यर्त काट देश विकल्प से होता है । जैसे:- केवट्टो ( कैवर्त्तः ); वट्टी (वर्तिः); गट्टओ (नर्तकः); गट्टई (नर्तकी) संवट्टियं (संवर्तिकम् ) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ६५ विशेष-धूर्तादि गण में उक्त नियम लागू नहीं होता है। धुत्तो, कित्ती, वत्ता, आवत्तणं, निवत्तणं, पवत्तणं, संवत्तणं, आवत्तओ, निवत्तओ, पवत्तओ, संवत्तओ, वत्तिआ, वत्तिओ, कत्तिओ, उक्कत्तिओ, कत्तरी, मुत्ती, मुत्तो, मुहुत्तो । ( २२ ) ह्रस्व से पर में वर्तमान थ्य, श्च, त्स और प्स के स्थान में छ आदेश होता है । किन्तु निश्चल शब्द के श्च का छ आदेश नहीं होता । थ्य का छ जैसे:-पच्छं (पथ्यम्); पच्छा ( पथ्या ); मिच्छा ( मिथ्या); रच्छा ( रथ्या ) श्व का छ जैसे :-पच्छिमं (पश्चिमम् ); अच्छेरं (आश्चर्यम् ); पच्छा ( पश्चात् ) त्स का छ जैसे :-उच्छाहो ( उत्साह: ); मच्छरो ( मत्सरः ); वच्छो ( वत्सः ) प्स का छ जैसेलिच्छइ (लिप्सति ); जुगुच्छइ ( जुगुप्सते ); अच्छरा ( अप्सराः) विशेष—(क) ह्रस्व से पर में नहीं रहने से ऊसारिओ ( उत्सारितः ) में उक्त नियम नहीं लगा। (ख) निश्चल शब्द का णिञ्चलो रूप होता है। (ग) तथ्य का आर्ष प्राकृत रूप तत्थं और तच्चं होता है । ( २३ ) संयुक्त द्य, य्य और र्य के स्थान में ज आदेश होता है । द्य का ज जैसे :-मजं, अवजं, वेजं, विज्जा ( मद्यम् , अवद्यम् , वेद्यम् , विद्या ) य्य का ज १. धूर्तादि गण में धूर्त, कीर्ति, वार्ता, आवर्तन, निवर्तन, प्रवर्तन, संवर्तन, आवर्तक, निवर्तक, प्रवर्तक, संवर्तक, वर्तिका, वार्तिक, कार्तिक, उत्कर्तित, कर्तरी, मूर्ति, मूर्त और मुहूर्त शब्द परिगणित हैं। ... Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ प्राकृत व्याकरण जैसे :- जज्जो, सेज्जा ( जय्यः, शय्या ) र्घ्य का ज जैसे :भज्जा, कज्जं, वज्जं, पज्जाओ, पज्जन्तं ( भार्य्या, कार्य्यम् वर्यम्, पर्यायः, पर्यन्तम् ) " विशेष – (क) शौरसेनी में र्थ्य के स्थान में राय भी होता है | (ख) पैशाची में र्घ्य के स्थान में कहीं रिय आदेश होता है | ( २४ ) ध्य के स्थान में झ एवं न और ज्ञ के स्थान आदेश होते हैं । ध्य का झ जैसे :- झाणं, उवज्झाओ, सज्माओ, मज्यं, विंज्को, अज्झाओ ( ध्यानम्, उपाध्यायः, साध्यायः या स्वाध्यायः, मध्यम्, विन्ध्यः, अध्यायः ) न का ण जैसे :- निण्णं, पज्जुण्णो, (निम्नम्, प्रद्युम्न्नः ) ज्ञ का ण जैसे :- णाणं, संणा, पण्णा, विष्णाणं ( ज्ञानम्, संज्ञा, प्रज्ञा, विज्ञानम् ) ( २५ ) समस्त और स्तम्ब के स्त को छोड़कर अन्य स्त के स्थान में थ आदेश होता है । जैसे:- हत्थो, थोतं, थोअं, पत्थरो, थुई ( हस्तः, स्तोत्रम्, स्तोकम्, प्रस्तरः, स्तुति:) विशेष- (क) मागधी में स्त और र्थ के स्थान में स्त ही होता है । - (ख) समस्त शब्द का रूप समत्तं और स्तम्ब शब्द का तंबो होता है । ( २६ ) संयुक्त न्म के स्थान में म आदेश होता है । जैसे:- जम्मो, मम्महो ( जन्म, मन्मथ : ) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ६७ ( २७ ) प और स्प के स्थान में फ आदेश होता है । ष्प का फ जैसे :- - पुफ्फं, सफ्फं, निफ्फेसो ( पुष्पम्, शष्पम्, निष्पेषः ) स्प का फ जैसे :- फंदणं, पडिफ्फद्दी, फंसो ( स्पन्दनम्, प्रतिस्पद्ध, स्पर्शः ) ( २८ ) संयुक्त श्न, ष्ण, स्न, ह्न, हृ और सूक्ष्म शब्द के दम के स्थान में यह आदेश होता है । श्न का ह जैसे :- पण्हो ( प्रश्न : ); ष्ण का ण्ह जैसे : – विहू, कण्हो, उहीसं (विष्णुः, कृष्णः, उष्णीषम् ) स्त्र का ण्ह जैसे :जोण्हा, पहाऊ, पहाणं, वही, जण्हू ( ज्योत्स्ना, स्नायुः, स्नानम्, वह्निः, जहुः ) ह्र का पह जैसे :-पुव्यण्हो, अवरहो (पूर्वाह्नः, अपराह्नः ) क्ष्ण का ण्ह जैसे : -सहं, तिन्हं ( श्लक्ष्णम्, तीक्ष्णम् ) सूक्ष्म के क्ष्म का ण्ह जैसे :- सहं ( सूक्ष्मम् ) ( २६ ) संयुक्त इम, हम, स्म और ह्म के स्थान में म्ह आदेश होता है । इम का म्ह जैसे :- कम्हारो ( काश्मीर : ) ष्म का म्ह जैसे : – गिम्हो, उम्हं ( ग्रीष्म:, उष्मा ); स्म का म्ह जैसे :- अम्हारिसो, विम्हओ ( अस्मादृशः, विस्मयः ) का म्ह जैसे :- बम्हा, सम्हो, बम्हणो, बम्हचरं ( ब्रह्मा, सुह्म:, ब्राह्मणः, ब्रह्मचर्यम् ) विशेष – (क) ब्रह्मचर्यम् के लिए कभी-कभी वम्भचेरं रूप भी देखा जाता है । (ख) रश्मि: और स्मर: में उक्त नियम लागू नहीं होता है | जैसे : रस्सी, सरो | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (३०) संयुक्त ह्य के स्थान में झ आदेश होता है । जैसे :-सझो, मझ, गुज्झ ( सह्यः, मह्यम् , गुह्यम् ) (३१) संयुक्त ह्र के स्थान में ल्ह आदेश होता है। जैसे:-कल्हारं, पल्हाओ ( कतारम् , प्रह्लादः ) (३२) जिस संयुक्त अक्षर का अन्त लकार से होता हो उसका विप्रकर्ष होता है। और पूर्व के अक्षर को इत्व भी होता है । जैसे :-किलिण्णं, किलिटुं, सिलिटुं, पिलुटं, सिलोओ, किलेसो, मिलाणं, किलिस्सइ (क्लिन्नम् , क्लिष्टम् , श्लिष्टम् , 'लुष्टम् , श्लोकः, क्लेशः, म्लानम् , क्लिश्यति ) विशेष-कमो ( क्लमः ) पवो ( प्लवः ) और सुक्कपक्खो ( शुक्लपक्ष: ) में उक्त नियम लागू नहीं होता । (३३ ) उकारान्त किन्तु ङीप्रत्ययान्त तन्वी ( तनु + ई) सदृश शब्दों में वर्तमान संयुक्ताक्षरों का विप्रकर्ष होता है और पूर्व के अक्षर का उकार स्वर से योग होता है । जैसे :-तिणुवी, तणुई ( तन्वी ); लहुवी, लहुई ( लध्वी ); गुरुवी, गुरुई ( गुर्वी ); पुहुवी (पृश्वी ) विशेष-उक्त नियम की विषयता नहीं रहने पर भी सुरुग्यो ( स्रुघ्नः ) में नियम प्रवृत्त हो जाता है। प्राकृत के प्राचीन ऋषियों के अनुसार सूक्ष्म शब्द का सुहुमं रूप हो जाता है। १. विप्रकर्ष से तात्पर्य पृथक् होने से है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय ६६ ( ३४ ) जब श्वस और स्व शब्द किसी समास के अङ्ग न होकर पृथक् ही एक पद हों तब इनका विप्रकर्ष हो जाता एवं पूर्व के व्यञ्जन में उ स्वर का योग भी हो जाता है । जैसे: प्राकृत सुवे कअं. सुवे जना संस्कृत श्वः कृतम् स्वे जनाः विशेष-हेमचन्द्र ने २.११४. में एकस्वरवाले पद में श्वस् और स्व शब्दों का उक्त कार्य माना है। उसका भी तात्पर्य पृथक् ही एक पद होने में है । समास का अङ्ग हो जाने पर सयणो ( स्वजनः ) हो जाता है। -- (३५) शील ( स्वभाव, आदत ), धर्म ( गुण) अथवा साधु ( प्रवीण ) अर्थ में जो प्रत्यय आते हैं उनके स्थान में 'इर' आदेश होता है। जैसे :-हसिरो, रोचिरो, लजिरो, भमिरो, जम्पिरो, वेविरो, उससिरो ( हसनशीलः इत्यादि) विशेष-कोई-कोई तृन् के स्थान में ही 'इर' का आदेश मानते हैं। उनके मत से संस्कृत के नमी और गमी के लिए नमिर और गमिर रूप नहीं सिद्ध होते । ( ३६ ) क्त्वा प्रत्यय के स्थान में तुम् , अत् , तूण और तुआण ये ४ आदेश होते हैं । जैसे: Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 . प्राकृत व्याकरण - - घेत्तूण प्राकृत संस्कृत [ क्त्वा = तुम् ] दग्ध्वा मोत्तं । [,, ,,] मुक्त्वा भमिअ [ क्त्वा = अत् ] भ्रमित्वा रमिअ [,, ,,] रन्त्वा [क्त्वा = तूण ] गृहीत्वा काऊण [ , ,,] कृत्वा भोत्तुआण' [क्त्वा तुआण] भुक्त्वा सीउआण [,, ,] सवित्वा विशेष- (क) कहीं-कहीं तुम्वाले म् के अनुस्वार का लोप हो जाता है। जैसे :-वन्दित्तु । व का लोप करके वन्दित्वा संस्कृत का वन्दित्ता प्राकृत रूप बनता है । (ख) शौरसेनी में क्त्वा के स्थान में इय और दूण आदेश होते हैं । कृ और गम धातुओं से अदूय होता है । मागधी-आवन्ती में क्त्वा के स्थान में तूण आदेश होता है। अपभ्रंश में क्त्वा के स्थान में इइ, उइ, विअवि आदेश होते हैं। (३७ ) इदमर्थ में प्रयुक्त प्रत्ययों के स्थान में 'केर' आदेश होता है । जैसे :-तुम्हकेरो, अम्हकेरो ( युष्मदीयः, अस्मदीयः) १. २. हेमचन्द्र २.१४६ में भेत्तुआण और सेउआण रूप मिलते हैं । ३. किसी से सम्बन्ध रखनेवाला पुरोवर्ती पदार्थ । जैसे—तुम्हारा यह प्रन्थ, इस अर्थ में संस्कृत में 'युष्मदीयो ग्रन्थः' ऐसा प्रयोग इदमर्थ में है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय __ ७१ विशेष-मईअ-पक्खे, पाणिगीआ ( मदीयपक्षे; पाणिनीयाः ) में उक्त नियम नहीं लगता है । पर और राजन शब्दों से पारक्कं और राइक्कं भी बनते हैं। ( ३८ ) इदमर्थ में युष्मद्-अस्मद् शब्दों से पर में रहनेवाले अञ् प्रत्यय के स्थान में 'एच्चय' आदेश होता है । जैसे :-तुम्हेच्चयं, अम्हेच्चयं ( यौष्माकम् , आस्माकम् ) विशेष-अपभ्रंश में इदमर्थ प्रत्ययों के स्थान में केवल 'आर' आदेश होता है | यथा:-अम्हारो ( अस्मदीयः)। ( ३६ ) त्व प्रत्यय के स्थान में 'डिमा' और 'तण' आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे:-पीणिमा, पीणत्तणं ( पीनत्वम् ) विशेष-तल ( ता ) प्रत्ययान्त पीनता आदि के स्थान में पीणआ ( या ) इत्यादि रूप होते हैं। पीणदा रूप विशेष प्राकृत में भले ही होता हो, किन्तु सामान्य प्राकृत में नहीं होता। हाँ प्राकृतप्रकाशकार कुल प्राकृतों में तल प्रत्यय के स्थान में 'दा' आदेश करते हैं । (४० ) अंकोठवर्जित शब्द से पर में आनेवाले 'तैल' प्रत्यय के स्थान में 'डेल्ल' आदेश होता है । जैसे:-इङ्गुदीएल्लं ( इङ्गुदीतैलम् ) विशेष-अंकोठ शब्द से अंकोल्लतल्लं रूप होता है। . १. प्रा० प्र० ४. २२. . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण (४१) यद्, तद् और एतद् शब्दों से पर में आनेवाले परिमाणार्थक प्रत्यय के स्थान में 'इत्तिअ' आदेश होता है और एतद् शब्द का लुक भी होता है । जैसे:-जित्तिअं, तित्तिअं, इत्तिअं ( यावत् , तावत् , एतावत् ) (४२) इदम् , किम् , यद्, तद् और एतद् शब्दों से पर में आनेवाले परिमाणार्थक प्रत्यय के स्थान में 'डेत्तिों 'डेत्तिल' और 'डेदह' आदेश होते हैं । इन प्रत्ययों के आने पर एतद् शब्द का लुक् हो जाता है। इदम् शब्द से जैसे :एत्तिअं, एत्तिलं, एदहं ( इयत् ); केत्तिअं, केत्तिलं, केद्दहं ( कियत् ); जेत्तिअं, जेत्तिलं, जेद्दहं ( यावत् ); तेत्तिअं, तेत्तिलं, तेद्दहं, ( तावत् ), एत्तिअं, एत्तिलं, एदहं ( एतावत् ) (४३ ) कृत्वस् प्रत्यय ( क्रिया की अभ्यावृत्ति की गणना अर्थ में होनेवाले ) के स्थान में हुत्तं' आदेश होता है । जैसे :-बहुहुत्तं ( बहुकृत्व:) (४४ ) मतुप् प्रत्यय के स्थान में आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त और इन्त आदेश होते हैं। आलु जैसे :ईसालू, णिहाल ( ईर्ष्यावान् , निद्रावान् ) इल्ल जैसे:-विआरिल्लो, सोहिल्लो ( विकारवान् , शोभावान् ) उल्ल जैसे :विआरुल्लो, मंसुल्लो ( विकारवान् , मांसवान् ) आल जैसे:रसालो, जगलो, जोण्हालो ( रसवान् , जडवान् , ज्योत्सा - १. प्रत्ययों के आदि ड् के इत् अर्थात् लुप्त होने से यद् और तद् के टि अर्थात् अभाग का भी लोप हो जाता है । २. दे० 'संख्यायाः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच् ।' पा० सू० ५।४।२७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय वान् ) वन्त जैसे : – धणवन्तो, भत्तिवन्तो ( धनवान्, भक्तिमान् ) विशेष – (क) हेमचन्द्र के मत से भी होते हैं । जैसे :- सिरिमंतो, ( श्रीमान्, पुण्यवान्, धनवान् ) (ख) कुछ लोगां का कहना है कि इल्ल और उल्ल सार्वत्रिक न होकर पाणिनीय व्याकरण के शैषिक प्रकरण में ही आते हैं । जैसे :- पुरिल्लं ( पौरस्त्यम् ), अप्पुल्लं . ( आत्मीयम् ) ( ४५ ) वति प्रत्यय के स्थान में 'व्' यह आदेश होता है | जैसे :- - महुव्त्र ( मधुवत् ) स्वार्थिक प्रत्यय | प्राकृत नवल्लो एकल्लो, एकल्लो अवरिल्लो भुमया भमया सणिअं मणिअं प्रत्यय ल मणअं "" मन्त और इर आदेश पुण्णमंतो, धणिरो 35 मया । डमया डिअं संस्कृत प्राकृत प्रत्यय संस्कृत मिसालिअ डालिअ मिश्र दीर्घः विद्युत् पत्रम् पीतम् नवः एक: दीहरं उपरि विज्जला पत्तलं पीवलं शनै: पीअलं अंधलो मनाकू जमलं ल "" "" अन्धः "" यमः " डअं | विशेष – स्वार्थ में सभी शब्दों से क प्रत्यय होता है । तृतीय अध्याय समाप्त "" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय [शब्दसाधन प्रकरण] ( १ ) प्राकृत में संस्कृत के समान ही पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग होते हैं। विशेष-संस्कृत के जिन शब्दों का प्राकृत में लिङ्ग बदल जाता है, उनके विषय में इस ग्रन्थ के १-३८-४५ तक में विचार किया गया है ।। (२) प्राकृत में संस्कृत के समान तीनों वचन न . होकर एकवचन और बहुवचन ही होते हैं । (३) कर्ता आदि छवों कारकों की चतुर्थीरहित विभक्तियाँ प्राकृत शब्दों के आगे प्रयुक्त होती हैं। चतुर्थी के स्थान की पूर्ति षष्ठी विभक्ति से होती है। विभक्तियों के नाम पाणिनि के नामकरण के अनुसार ही हैं । (४) प्राकृत में अवर्णान्त ( अ और आ से अन्त होनेवाले ), इवर्णान्त ( इ और ई से अन्त होनेवाले ), उवर्णान्त ( उ और ऊ से अन्त होनेवाले ), ऋवर्णान्त ( ऋ से अन्त होनेवाले ) तथा हलन्त (जिनके अन्त में व्यञ्जन अक्षर आये हों ) ये पाँच प्रकार के शब्द पाये जाते हैं। विशेष-वस्तुतः प्रयोग में ऋकारान्त तथा हलन्त शब्दों की उपलब्धि नहीं होने से तीन ही प्रकार के शब्द रह जाते हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय (५) पुल्लिङ्ग में वर्तमान ह्रस्व अकारान्त शब्द के आगे आनेवाली प्रथमा के एकवचन की 'सु' विभक्ति के स्थान में 'ओ' आदेश होता है। जैसे :-देवो, हरिअंदो, हदो ( देवः, हरिश्चन्द्रः, हृदः) विशेष—(क) मागधी में सु के पर में रहने पर अन्त के अ का ए हो जाता है और सु का लोप हो जाता है । जैसे :- रुक्खे, एशे, मेशे ( वृक्षः, एषः, मेषः ) (ख) अपभ्रंश में सु और अम् के पर में रहने पर अन्त के अ के स्थान में उ आदेश माना जाता है। (६ ) जस् , शस् , ङसि और आम इन विभक्तियों के पर में रहने पर पुल्लिङ्ग शब्द के अन्त्य अ के स्थान में आ आदेश होता है तथा जस् और शस् विभक्तियों का लोप होता है। जैसे :-देवा, णउला ( देवाः, देवान् , नकुलः,. नकुलान् ) (७) अदन्त ( अ से अन्त होनेवाले ) शब्द से पर में आनेवाले अम् के अकार का लुक हो जाता है । जैसे :देवं, णउलं ( देवं, नकुलम् ) (८) ह्रस्व अकारान्त शब्द से पर में आनेवाले टा ( तृतीया के एकवचन ) और आम् ( षष्ठी के बहुवचन ) के स्थान में ण आदेश होता है । जैसे :-देवेण, देवाण, अथवा देवाणं ( देवेन, देवानाम् ) विशेष-अपभ्रंश में टा के स्थान में ण्ण और अनुस्वार होते हैं। तथा टा के पर में रहने पर अ का नित्य Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्राकृत व्याकरण एत्व होता है एवं मिस के पर में रहने पर विकल्प से से अपर में आम का हं आदेश होता है । ए ( ६ ) अदन्त ( अ से अन्त होनेवाले ) अन्तिम अ के स्थान में होता है, यदि उनसे ( सप्तमी - एकवचन ) और ङस् ( पष्ठी - एकवचन ) विभक्तियाँ आती हों। जैसे :- देवेहि, णउलेसु ( देवैः देवेषु, नकुलैः, नकुलेषु ) देवेसु शब्दों के आगे ि से भिन्न णउलेहिं, ( १० ) अदन्त ( अ से अन्त होनेवाले ) शब्द से पर में आनेवाले भिस के स्थान में केवल ( अनुनासिक एवं अनुस्वार से रहित ), सानुनासिक और सानुस्वार 'हि' आदेश होता है । जैसे— देवेहि, देवेहि, देवेहिं णउलेहि, णउलेहि, 'उलेहिं (देवैः, नकुलैः ) विशेष – 'प्राकृतप्रकाश' और 'कल्पलतिका' के अनुसार भिस् के स्थान में केवल हिम् आदेश किया जाता है । ( ११ ) अदन्त ( अ से अन्त होनेवाले ) शब्द से पर में आनेवाले ङसि के स्थान में तो, दो, दु, हि और हित्तो आदेश होते हैं । दो और दु के ढ़कार का लुक् भी होता है । जैसे : — देवत्तो, देवाओ, देवाउ, देवाहि और देवाहितों' (देवात् ) I - विशेष – (क) प्राकृतप्रकाश और कल्पलतिका के - अनुसार ङसि के स्थान में आदो, दु तथा हि आदेश किये जाते हैं । १. हेमचन्द्र ( ३. ८. ) के अनुसार ङसि का लुक् होकर एक रूप 'देवा' भी होता है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय (ख) शौरसेनी में ङसि के स्थान में 'आदु' आदेश होते हैं, किन्तु कल्पलतिका के 'दो' आदेश होता है । ७७. 'आदो', और अनुसार केवल (ग) पैशाची में ङसि के स्थान में 'आतो' और 'आत्तो" आदेश होते हैं । (घ ) अपभ्रंश में ङसि के स्थान में 'ह' और 'हू' आदेश' होते हैं । ( १२ ) अदन्त ( अ से अन्त होनेवाले ) शब्द से पर में आनेवाले भ्यस् के स्थान में तो, दो, दु, हि, हिंतो और सुंतो आदेश होते हैं । जैसे : - देवत्तो, देवाओ, देवाड, देवाह, देवेहि, देवाहितो, देवेसुंतो ( देवेभ्यः ) विशेष – अपभ्रंश में अदन्त शब्दों से पर में आनेवालेभ्यस् के स्थान में 'हूँ' आदेश होता है । ( १३ ) अदन्त शब्द से पर में आनेवाले ङस ( षष्ठीएकवचन ) के स्थान में 'स्स' आदेश होता है । जैसे :देवस्स, णउलस्स ( देवस्य, नकुलस्य ) विशेष – (क) मागधी में ङस् के स्थान में विकल्प से 'आह' आदेश होता है । (ख) अपभ्रंश में ङस् के स्थान में सु, हो, सो आदेश होते हैं | ( १४ ) अदन्त शब्द से पर में आनेवाले ङि ( सप्तमीएकवचन ) के स्थान में 'ए' और 'म्मि' आदेश होते हैं । जैसे :- देवे, देवेम्मि, णउले, णउलेम्मि ( देवे, नकुले ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ प्राकृत व्याकरण देवा देवा उपर्युक्त नियमों के अनुसार अकारान्त पुंल्लिङ्ग देव शब्द के रूपएकवचन बहुवचन प्रथमा देवो द्वितीया देवं देवे, देवा तृतीया देवेण, देवेणं देवेहि-हि-हिं पश्चमी / देवत्तो, देवाओ, देवाउ, देवाहि देवाहितो, देवासुंतो । देवाहित्तो इत्यादि देवेहितो, इत्यादि षष्ठी देवस्स देवाण, देवाणं सप्तमी देवे, देवेम्मि देवेसु, देवेसुं संबोधन देव, देवो कुल अदन्त शब्दों के रूप उक्त देव शब्द के समान ही प्राय: चलते हैं। ( १५ ) इदन्त ( इ से अन्त होनेवाले ) और उदन्त ( उ से अन्त होनेवाले ) पुंल्लिङ्ग शब्दों का सु, जस् , भिस् भ्यस और सुप् विभक्तियों के पर में रहने पर अन्त ( इ और उ ) का दीर्घ होता है। विशेष-हेमचन्द्र के मत से शस् ( द्वितीया-बहुवचन ) के लुक् हो जाने पर भी इदन्त-उदन्त का दीर्घ होता है । (१६ )इदन्त और उदन्त पुंल्लिङ्ग शब्दों से पर में आनेवाले जस् के स्थान में ओ और णो आदेश होते हैं। कहींकहीं जस् का लुक भी हो जाता है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ अध्याय ७६ विशेष-हेम० ३, २०, २१, २२ के अनुसार इदन्त-उदन्त से पुल्लिङ्ग में जस् के स्थान में डित् अउ-अओ आदेश और उदन्त से केवल डित् अबो आदेश विकल्प से होते हैं । णो आदेश भी विकल्प से होता है । डित् होने से पूर्व के 'टि' का लोप जानना चाहिए। (१७ ) इदन्त और उदन्त पुंल्लिङ्ग शब्दों से पर में आनेवाले शस् के स्थान में नित्य और ङस् के स्थान में . विकल्प से णो आदेश होता है । विशेष-अपभ्रंश में इदन्त-उदन्त से पर में आनेवाले 'डसि' के स्थान में 'हे', 'भ्यस्' के स्थान में 'हुँ' और ङि के स्थान में हि आदेश होते हैं । ( १८ ) इदन्त और उदन्त शब्दों से पर में आनेवाले - 'टा' ( तृतीया-एकवचन ) के स्थान में 'णा' आदेश होता है। विशेष-अपभ्रंश में टा के स्थान में सानुस्वार ए और ण आदेश होते हैं। (१६ ) शेष रूपों की सिद्धि अदन्त शब्दों के समान ही जाननी चाहिए । उपर्युक्त नियमों के अनुसार इदन्त-पुंल्लिङ्ग गिरि शब्द के रूपएकवचन बहुवचन प्रथमा गिरी गिरीओ, गिरिणो द्वितीया गिरि गिरिणो · तृतीया गिरिणा गिरीहि-हि-हिं Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्राकृत व्याकरण पञ्चमी गिरित्तो इत्यादि गिरिहितो, गिरिसुंतो इत्यादि षष्ठी गिरिणो, गिरिस्स गिरिण, गिरिणं सप्तमी गिरिम्मि गिरीसु, गिरीसुं संबोधन गिरि गिरीओ हेमचन्द्र (३, १६-२४ ) के अनुसार गिरि शब्द के रूपएकवचन बहुवचन प्रथमा गिरी गिरी, गिरवो, गिरउ, गिरिणो, द्वितीया गिरि गिरी, गिरिणो तृतीया गिरिणा गिरीहि-हिँ-हिं गिरिणो, गिरित्तो । गिरित्तो, गिरीओ, पञ्चमी गिरीओ, गिरीउ गिरीउ, गिरीहितो, गिरीहितो गिरीसुतो षष्ठी गिरिणो, गिरिस्स गिरीण, गिरीणं . सप्तमी गिरिम्मि गिरीसु, गिरीसुं संबोधन गिरि, गिरी गिरिणो, गिरओ, गिरउ, गिरी ... उदन्त पुंल्लिङ्ग गुरु शब्द के रूप :प्रथमा गुरू गुरूओ, गुरुगो द्वितीया गुरुं गुरुणो तृतीया गुरुणा गुरूहि-हि-हिं पश्चमी गुरुत्तो इत्यादि गुरुहिंतो इत्यादि षष्ठी गुरुणो, गुरुस्स गुरुणं, गुरुण सप्तमी गुरुम्मि गुरुसु, गुरुसुं संबोधन गुरु गुरूओ 1191111 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय पुल्लिङ्ग में कुल इकारान्त, उकारान्त शब्दों के रूप गिरि और गुरु शब्दों के समान ही होते हैं। हेमचन्द्र के अनुसार गुरु शब्द के रूप :एकवचन बहुवचन प्रथमा गुरू [ गुरू, गुरवो, गुरओ । गुरउ, गुरुणो द्वितीया गुरूं गुरू, गुरुणो तृतीया गुरुणा गुरूहि-हि-हिं गुरुणो, गुरुत्तो, गुरुओ गुरुत्तो, गुरूओ, गुरूउ गुरुउ, गुरूहितो गुरूहिंतो, गुरूसुंतो षष्ठी गुरुणो, गुरुस्स गुरूण, गुरूणं सप्तमी गुरुम्मि गुरूसु, गुरुसुं संबोधन गुरु, गुरू गुरू, गुरुणो, गुरवो गुरउ, गुरओ (२०) ऋकारान्त शब्दों के आगे किसी भी विभक्ति के आने पर अन्त्य ऋ के स्थान में 'आर' आदेश होता है और उसका रूप अदन्त शब्दों जैसा पाया जाता है। ___ (२१) सु और अम् को छोड़ कर शेष सभी विभक्तियों के पर में होने पर ऋकारान्त शब्द के अन्त्य ऋ के स्थान में विकल्प से उकार होता है । उत्व पक्ष में उकारान्त शब्दों के जैसे रूप होते हैं। (२२ ) संबोधनवाले सु के पर में रहने पर ऋदन्त शब्दके अन्तिम ऋ के स्थान में 'अ' आदेश विकल्प से होता है ! M Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण किन्तु जो ऋकारान्त शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ हो उसमें उक्त नियम लागू नहीं होता है । जैसे :-हे पिअ, हे पिअर (हे पितः) विशेष-कर्तृशब्द विशेषणवाची ऋकारान्त है, अत: उक्त नियम लागू नहीं हुआ | इससे 'हे कत्तार' रूप होगा। ___(२३) पितृ, भ्रातृ और जामातृ शब्दों से पर में किसी भी विभक्ति के आने पर ऋकार के स्थान में 'आर' का अपवाद 'अर' आदेश होता है। . विशेष-( क ) 'अर' आदेश होने पर उसके रूप भी अदन्त शब्दों के समान ही चलते हैं। (ख) सु के पर में रहने पर ऋदन्त शब्दों के ऋ के स्थान में 'आ' आदेश विकल्प से होता है। उपर्युक्त नियमों के अनुसार भर्तृ शब्द के रूप: एकवचन प्रथमा भत्तारो द्वितीया भत्तारं तृतीया भत्तुणा, भत्तारेण पश्चमी भत्तारादो, भत्तुणो, इत्यादि षष्ठी भत्तुणो, भत्तारस्स सप्तमी भत्तारे, भत्तारम्मि, भत्तुम्मि संबोधन हे भत्तार बहुवचन भत्तुणो भत्तारा भत्तुणो, भत्तारे भत्तारेहिं भत्तहिं भत्तारहितो, भत्तुहितो, इत्यादि भत्तुणं, भत्ताराणं भत्तुसु, भत्तारेसु हे भत्तारा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमी चतुर्थ अध्याय हेमचन्द्र ( ३, ३६, ४०, ४४, ४८ ) के अनुसार भर्त शब्द के रूप :एकवचन बहुवचन प्रथमा भत्तारो भत्तारा, भत्तू, भत्तुणो भत्तउ, भत्तओ द्वितीया भत्तारं भत्तारे, भत्तू , भत्तुणो तृतीया भत्तुणा, भत्तारेण भत्तूहि, भत्तारेहि भत्तुणो, भत्तुओ, भत्तू , भत्तूओ, भत्तूहितो, भत्तूउ, भत्तूहि, भत्तसुंतो,भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्तहितो, भत्ता- भत्ताराहि, भत्तारेहि, भत्ता. राओ, भत्ताराउ, राहिंतो, भत्तारेहितो, भत्ताराभत्ताराहि, भत्ता- सुंतो, भत्तारेसुंती राहिंतो, भत्तारा भत्तुणो, भत्तुस्सं, भत्तूणं, भत्तूण, भत्ताराणं, भत्ताराण सप्तमी भत्तुम्मि, भत्तारे, भत्तारम्मि भत्तू सु, भत्तारेसु संबोधन हे भत्तार हे भत्तारा कुल ऋकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों के रूप भर्तृ शब्द के समान ही चलते हैं। ऋकारान्त पितृ शब्द के रूपःप्रथमा पिआ, पिअरो पिअरा द्वितीया पिअरं पिअरे, पिदुणो तृतीया पिअरेण, पिदुणा पिअरेहिं पञ्चमी पिअरादो, पिदुणो, इ० पिअरहितो, पिदुहितो, इत्यादि षष्ठी पिअरस्स, पिदुणो पिअराणं, पिदुणं षष्ठी भत्तारस्स Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण एकवचन बहुवचन सप्तमी पिअरे, पिअरम्मि, पिदुम्मि पिअरेसु, पिदुसुं संबोधन हे पिअ, हे पिअर हे पिअरा पितृ शब्द के समान ही भ्रातृ और जामात शब्दों के रूप चलते हैं। हेमचन्द्र ( ३. ३६-४०, ४४-४८.) के अनुसार पित शब्द के रूप :प्रथमा पिआ', पिअरो पिअरा, पिउणो, पिअवो, । पिअओ, पिअउ पिऊ द्वितीया पिअरं पिअरे, पिअरा, पिउणो, पिऊ तृतीया पिअरेण, पिअरेणं, पिउणा पिअरेहि-हिं हिँ ,पिऊहिं-हि-हि इत्यादि . इत्यादि संबोधन पिअ, पिअरं पिअरा, पिउणो, पिअवो इत्यादि शेष विभक्तियों के रूपों का ऊह कर लेना चाहिए। (२४ ) प्राकृतप्रकाश और प्राकृतकल्पलतिका में ईकारान्त ऊकारान्त शब्दों के साधन के लिए अलग सूत्र नहीं देखे जाते । इससे सिद्ध होता है कि उनके ( ईकारान्त-ऊकारान्त के) कार्य भी क्रमशः इकारान्त-उकारान्त शब्दों के समान ही होते हैं । (२५) हेमचन्द्र ने सभी विभक्तियों में किबन्त ईकारान्त-ऊकारान्त शब्दों के दीर्घ ई ऊ के लिए हस्व का विधान किया है। और केवल संबोधन के एकवचन में अपने नियम को वैकल्पिक माना है। १. शौरसेनी में प्रथमा के एकवचन में पिदा रूप होता है। देखिए : .. 'तादकण्णो वि एदाए पिदा'-अभिज्ञान शाकुन्तल Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ अध्याय - (२६) पुंल्लिङ्ग में गो शब्द का गाव यह रूप होता है । इस लिए इस के रूप अदन्त शब्दों के समान ही चलते हैं। स्त्री-प्रत्यय (२७) प्राकृत में कुछ ही ऐसे शब्द हैं, जिनमें विशेष नियमों के अनुसार विशेष स्त्री-प्रत्यय आते हैं। शेष शब्दों के आगे संस्कृत के ही अनुसार स्त्री-प्रत्यय आते हैं । (२८) पाणिनि (४-१-१५) के अनुसार अण आदि प्रत्यय निमित्तक जो जीप होता है, वह प्राकृत में विकल्प से होता है। जैसे :-साहणी, साहणा, कुरुचरी, कुरुचरा । (२६) अजातिवाची पुंल्लिङ्ग नाम (प्रातिपदिक) से स्त्रीलिङ्ग को बतलाने में विकल्प से की प्रत्यय होता है। जैसे :नीली, नीला; काली, काला; हसमाणी, हसमाणा; सुप्पणही, सुप्पणहा; इमीए, इमाए; इमीणं, इमाणं; एईए, एआए; एईणं, एआणं। विशेष—(क) कुमार्यादि में संस्कृत के समान नित्य ही ङी होता है । कुमारी, गौरी इत्यादि । (ख) जातिवाची में उक्त नियम के नहीं लगने से करिणी, अया, एलया इत्यादि रूप होते हैं। (३०) छाया और हरिद्रा शब्दों में 'आप' का प्रसङ्ग (प्राप्ति) होने पर विकल्प से 'डी' प्रत्यय होता है । जैसे :-छाही, छाहा हलद्दी, हलद्दा । ( ३१) स्त्रीलिङ्ग में स्वस्रादि' शब्दों से पर में डा प्रत्यय १. हेमचन्द्र के अनुसार 'छाया' पाठ है । देखें हेम० ३. ३४. २. स्वसा तिस्रश्चतस्रश्च ननान्दा दुहिता तथा । याता मातेति सप्तैते स्वनादय उदाहृताः ॥ सिद्धा. कौ. अनन्तस्त्री. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ प्राकृत व्याकरण होकर ससा आदि रूप हो जाते हैं और उनके रूप आदन्त शब्दों जैसे चलते हैं । जैसे :-ससा, नणन्दा, दुहिआ | (३२) सु, अम् और आम्वर्जित' सुप् ( सभी विभक्तियों) के पर में रहने पर किम्, यद् और तद् शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में 'डी' प्रत्यय विकल्प से होता है । जैसे :-कीओ, काओ; कीए, काए; कीसु, कासु, जीओ, जाओ; तीओ, ताओ। (३३) स्त्रीलिङ्ग शब्द से पर में आनेवाले जस् और शस् के स्थान में विकल्प से 'उत्' और 'ओत्' आदेश होते हैं। और उनसे पूर्व के ह्रस्व स्वर का विकल्प से दीर्घ हो जाता है । जैसे :-मालाउ, मालाओ; पक्ष में-माला | बुद्धीउ, बुद्धीओ, पक्ष में बुद्धी | सहीउ, सहीओ, पक्ष में सही । घेणूउ, घेणूओ, पक्ष में घेणू । बहूउ- वहूओ, पक्ष में वहू । विशेष-शौरसेनी में स्त्रीलिङ्ग शब्द से जस् का उत् नहीं होता है। (३४) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नाम (प्रातिपदिक ) से पर में आनेवाले टा, ङस् और ङी के स्थान में 'अत्' 'आत्''इत्' और 'एत्' आदेश होते हैं । पूर्व के ह्रस्व स्वर का दीर्घ भी होता है । आदन्त शब्द से टादि के स्थान में केवल आत् आदेश नहीं होता। उक्त चारों आदेश जब उसि के स्थान में होते हैं, तब उनके पूर्व के ह्रस्व. स्वर का विकल्प से दीर्घ हो जाता है । जैसे :-मुद्धाअ, मुद्धाइ, मुद्धाए; बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ,बुद्धीए । विशेष—(क) अपभ्रंश में टा के स्थान में एत् होता है। १. उक्त नियम हेमचन्द्र के अनुसार है । किन्तु एच. भट्टाचार्य अपने प्राकृत व्याकरण में 'अनामि सुपि' लिखते हैं । पृ. १०७, पं. १७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ८७ (ख) अपभ्रंश में ङसि और उस के स्थान में हे, भ्यस् और आम् के स्थान में हुं और डि के स्थान में हि होते हैं। ___(३५) अम् विभक्ति के पर में रहने पर स्त्रीलिङ्ग शब्द के अन्तिम दीर्घ को ह्रस्व विकल्प से होता है। (३६) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान दीर्घ ईकारान्त शब्द से पर में आनेवाले सु. जस और शस् के स्थान में 'आ' आदेश विकल्प से होता है। (३७) संबोधनवाली विभक्ति के पर में रहने पर आबन्त स्त्रीलिङ्ग शब्द के अन्तिम आ को 'ए' आदेश होता है। आकारान्त स्त्रीलिङ्ग लता शब्द के रूप : एकवचन बहुवचन प्रथमा लदा लदा, लदाओ, लदाउ द्वितीया लदं लदा, लदाओ, लदाउ तृतीया लदाए, लदाइ, लदाअ लदाहि-हिं हिं पञ्चमी लदादो, लदाए, इत्यादि लदाहिंतो, इत्यादि षष्ठी लदाए, लदाइ, लदास लदाणं, लदाण सप्तमी लदाए, लदाइ, लदाअ लदासु, लदासुं संबोधन हे लदे हे लदाओ हेमचन्द्र के अनुसार लता शब्द के रूप:प्रथमा लदा लदा, लदाओ, लदाउ द्वितीया लदं लदा, लदाओ, लदाउ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण एकवचन बहुवचन तृतीया लदाए, लदाइ, लदाअ लदाहि-हि-हिं | लदाए, लदाइ, लदाअ लदत्तो, लदाओ, लदाउ पञ्चमी लदत्तो, लदाओ, लदाउ लदाहितो, लदासुंतो ... लदाहिंतो, इत्यादि षष्ठी लदाए, लदाइ, लदाअ लदाण, लदाण सप्तमी लदाए, लदाइ, लदाअ लदासु, लदासुं संबोधन हे लदे, लदा हे लदा, लदाओ, लदाउ इकारान्त स्त्रीलिङ्ग बुद्धि शब्द के रूप :प्रथमा बुद्धी बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ द्वितीया बुद्धिं बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ तृतीया बुद्धीए, बुद्धीइ, बुद्धीआ, बुद्धिअ बुद्धीहि-हि-हिं पञ्चमी बुद्धीए, बुद्धीइ, बुद्धीहितो, बुद्धीसुन्तो इत्यादि इत्यादि षष्ठी बुद्धीए, बुद्धीइ, बुद्धीआ, बुद्धीअ बुद्धीणं, बुद्धीण सप्तमी बुद्धीए, बुद्धीइ, बुद्धीआ, बुद्धीअ बुद्धीसु, बुद्धीसुं संबोधन हे बुद्धी हे बुद्धी, बुद्धीओ, इत्यादि हेमचन्द्र के अनुसार बुद्धि शब्द के रूप :प्रथमा बुद्धी बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ द्वितीया बुद्धिं बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ तृतीया बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धीइ, बुद्धीहि-हि-हि बुद्धीए बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धित्तो बुद्धित्तो, बुद्धोओ-उपञ्चमी बुद्धीइ, बुद्धीए, बुद्धीओ हिंतो-संतो बुद्धीउ, बुद्धीहितो EELELEES EEEEEEE Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्यायः एकवचन बहुवचन षष्ठी बुद्धीअ-आ-इ-ए बुद्धीण-णं सप्तमी " " " बुद्धीसु-सुं संबोधन हे बुद्धि, बुद्धी हे बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ कुल इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप उक्त बुद्धि शब्द के समान ही चलते हैं। ऐसे ही हेमचन्द्र के अनुसार घेणु, सही, वहू शब्दों के रूप भी चलते हैं। उकारान्त स्त्रीलिङ्ग घेणु शब्द के रूप :प्रथमा घेणू घेणू , घेणूओ, घेराउ द्वितीया घेणु " " " तृतीया घेणूए-इ-आ-अ घेणूहि-हि-हिं पञ्चमी घेणूदो घेणूइ, इत्यादि घेणू हितो-सुंतो षष्ठी घेणूए-इ-आ-अ घेणूणं, घेणूण सप्तमी " "" " धेरणूसु-सुं संबोधन हे घेणु: घेणू हे घेणू , घेणूओ, इत्यादि __ सभी उकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप घेणु शब्द के समान ही चलते हैं। ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग नदी शब्द के रूप:प्रथमा नई. नईआ नईओ, नईआ द्वितीया नई नई, नईओ, नईआ तृतीया नईए-इ-आ-अ नईहि-हि-हिं पञ्चमी नईए, नईअ, नइदो, इत्यादि नई, नईहितो, नईसुंतो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० एकवचन षष्ठी नईए, - इ, आ-अ सप्तमी "" 99 99 9" संबोधन हे नई, नई समान ही चलते हैं । प्राकृत व्याकरण कुल ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप नदी शब्द के प्रथमा वहू द्वितीया वहुं बहुबचन नई, नई अकारान्त स्त्रीलिङ्ग बहू ( वधू ) शब्द के रूप : वहू, बहूओ, इत्यादि हू, बहूओ, इत्यादि वहूहि - हि - हिं वहूहिंतो सुंतो बहूणं, बहूण तृतीया बहूए -इ-आ-अ पञ्चमी बहूदो, वहुए, इत्यादि षष्ठी वहूए -इ-आ-अ सप्तमी "" 37 39 33 संबोधन हे बहु, वहू नई नई हे नई, नईओ, इत्यादि बहुसु-सुं हू, बहूओ, इत्यादि कुल अकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप वहू शब्द के. समान ही चलते हैं | ऋकारान्त स्त्रीलिङ्ग मातुं शब्द के रूप : १. हेमचन्द्र ( ३. ४६ ) के अनुसार मातृ शब्द के दो प्राकृत रूप मिलते हैं- मात्रा ( माता ) और मारा ( देवी, Goddess ) । हमें इस शब्द से ३. ४४. के अनुसार 'माउ' और १. १३५ के अनुसार 'माइ' रूप भी मिलते हैं । इनमें 'माझा' और 'मारा' के रूप माला एवं लता शब्दों के अनुसार, माउ के रूप घेणु के अनुसार और माई के रूप बुद्धि शब्द के अनुसार चलते हैं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय माए एकवचन बहुवचन प्रथमा माआ माआ द्वितीया मा' तृतीया माआइ, माआअ, इत्यादि माएहि-हि-हिं पञ्चमी माआदो, माआए, इत्यादि माआहितो, माआसुतो षष्ठी माआइ, माआअ, इत्यादि माआणं, माआण सप्तमी " " " माआसु-सुं संबोधन हे माअ, इत्यादि हे मात्रा, इत्यादि . ___ स्त्रीलिङ्ग में गो शब्द के गावी और गाई ये दो रूप होते हैं। इन दोनों के रूप ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के अनुसार चलते हैं। अजन्त नपुंसक लिङ्ग के शब्दों के सम्बन्ध में नियम : (३८ ) नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान स्वरान्त शब्दों से पर में आनेवाले सु (प्रथमा के एकवचन) के स्थान में 'म्' होता है । जैसे :-वणं ( वनम् ) (३६) नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान स्वरान्त शब्दों से पर में आनेवाले जस् और शस् ( प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन) के स्थान में इ, ई और णि आदेश होते हैं। जैसे :-कुला, कुलाई और कुलाणि | विशेष—(क) शौरसेनी में नपुंसक लिङ्ग में जस्-शस् के स्थान में केवल 'णि' आदेश होता है । (ख) अपभ्रंश में जस्-शस् के स्थान में 'ई' आदेश होता है। १. शौरसेनी में द्वितीया के एकवचन में 'मादरं' यह रूप होता है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्राकृत व्याकरण (४०) नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान शब्दों से पर में आनेवाले संबोधन के 'सु' का लोप होता है । ( ४१ ) सु (प्रथमा के एकवचन ) के पर में रहने पर इदन्त- उदन्त नपुंसक शब्दों के अन्तिम इ और उ को दीर्घ नहीं होता है। अकारान्त नपुंसकलिङ्ग कुल शब्द के रूप : एकवचन प्रथमा कुलं द्वितीया "" संबोधन हे कुल प्रथमा दहिं, ह द्वितीया "" "" संबोधन हे दहि शेष रूप पुंल्लिङ्ग के समान चलते हैं । इकारान्त नपुंसक दधि शब्द के रूप : बहुवचन कुलाइँ, कुलाई, कुलाणि 99 महुँ, महु 99 प्रथमा द्वितीया " "" संबोधन हे महु दही, दही, दहीणि "" उकारान्त नपुंसक मधु शब्द के रूप : " " 99 महूइँ, महूई, महूणि "" "" "" शेष रूपों का ऊह पुंल्लिङ्ग आदि से कर लेना चाहिए । हलन्त शब्दों के साधनसंबन्धी नियम एवं उनके रूप :प्राकृत में हलन्त शब्द नहीं होते हैं । कुछ हलन्त शब्दों के Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय अन्त्य व्यञ्जनों का लोप होता है और कुछ हलन्त शब्द अजन्त के रूप में परिणत हो जाते हैं । अतः हलन्त शब्दों के साधनार्थ विशेष नियम नहीं हैं। केवल आत्मन् और राजन शब्दों के साधनार्थ प्राकृत के कुछ प्राचीन आचार्यों ने नियम बनाये हैं। वे ही नियम प्रयोग के अनुसार अन्य नान्त शब्दों के लिए भी उपयुक्त माने गये हैं। राजन् शब्द के रूप:एकवचन बहुवचन प्रथमा राआ राआणो, राआ द्वितीया राधे राए, राआणो तृतीया रण्णा, राइणा राएहिं पञ्चमी राआदो, रण्णो, राआदु, राइणो राआहितो, राइहितो षष्ठी रणो, राइणो, राअस्स राआणं, राइणं, राआण्ण सप्तमी राअम्मि, राए, राइम्मि राएसु, राएसुं संबोधन हे राआ, राअं हेमचन्द्र ( ३, ४६-५५, ) के अनुसार राजन शब्द के रूपःप्रथमा राया राया, रायाणो, राइणो द्वितीया रायं, राइणं राये, राया,रायाणो, राइणो तृतीया राइणा, रण्णा; राएण,राएणं राएहि-हिँ हिं; राईहि-हि-हिं पञ्चमी रणो, राइणो, रायत्तो, इ० रायत्तो, राइत्तो, इत्यादि षष्टी रणो, राइणो, रायस्स राईण, राईणं; रायाण, रायाणं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण पव एकवचन बहुवचन सप्तमी राये, रायम्मि, राइम्मि राईसु, राईसुं, राएसु, राएसुं संबोधन हे राया, राय राया, रायाणो, राइणो आत्मन् शब्द के रूप :प्रथमा अप्पा, अप्पाणो अप्पाणा, अप्पाण्णो, अप्पा द्वितीया अप्पाणं, अप्पं अप्पाणे, अप्पणो तृतीया अप्पाणेण, अप्पणा अप्पाणेहिं, अप्पेहिं अप्पाणाओ, अप्पणो अप्पाणाहितो, अप्पाहिंतो, " । अप्पाओ, अप्पादो, इ० इत्यादि षष्ठी अप्पाण्णस्स, अप्पणो अप्पाणाणं, अप्पाणं सप्तमी अप्पाणम्मि, अप्पे अप्पाणेसु, अप्पेसु संबोधन हे अप्पं, इत्यादि विशेष-हेमचन्द्र ( ३. ५६-५७.) के अनुसार आत्मन् शब्द के दो प्राकृत रूप अप्प और अप्पाण होते हैं। इनमें अप्प के रूप राजन् शब्द जैसे चलते हैं। और 'अप्पाण' के वच्छ अथवा देव शब्द के अनुसार | तृतीया के एकवचन में उसके दो और अधिक रूप होते हैं-'अप्पणिआ' और 'अप्पणइआ' (४२) प्राकृत-कल्पलतिका के अनुसार 'भवत्' और 'भगवत्' के अन्तिम तकार के स्थान में सु विभक्ति के पर में रहने पर अनुस्वार किया जाता है। यह नियम यहाँ भी गृहीत है । जैसे:-भवं ( भवान् ), हे भवं (हे भवन् ), भअवं ( भगवान् ), हे भअवं ( हे भगवन् ) (४३) प्राच्या में भवत शब्द के स्त्रीलिङ्ग में भोदी यह रूप होता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय सर्वनाम शब्दों के साधन के नियम और रूप : प्राकृत में सर्वनाम के संबंध में सामान्य नियम देखने में नहीं आते हैं। जो भी नियम देखने में आते हैं, विशेष स्थलों के लिए विशेष नियम हैं । केवल अदन्त सर्वनाम शब्दों की सिद्धि के लिए कुछ साधारण नियम हैं, जिनका नीचे उल्लेख हुआ है | अन्य विशेष नियमों का परिज्ञान उदाहरणों द्वारा ही सम्भव है । अदन्त सर्वनाम शब्दों के विषय में नियम ये हैं : (४४) सर्वादिगण - पठित शब्दों के अन्तिम अ से पर में आनेवाले जस के स्थान में 'ए' आदेश होता है । विशेष – कहीं कहीं सर्वादि के प्रथम अ एव होकर सेव्वे और सर्वे रूप होते हैं । एकवचन प्रथमा सव्वो द्वितीया सव्वं तृतीया सव्र्वेण पश्चमी सव्वदो, सव्वत्तो, इत्यादि षष्ठी सव्वस्स ६५ का वैकल्पिक ( ४५ ) अदन्त सर्वादि से पर में आनेवाले 'आम्' के स्थान में 'एसिं' आदेश विकल्प से होता है । तथा 'ङि' के स्थान में 'स्सि', 'म्मि' और 'त्थ' ये आदेश होते हैं और इदम् तथा एतद् शब्दों को छोड़कर अन्य सर्वादि शब्दों से आनेवाले ङि के स्थान में 'हिं' आदेश भी होता है । पुँल्लिङ्ग में सर्व शब्द के रूप : बहुवचन सव्वे सव्वे सव्वेहिं सव्वेहितो, इत्यादि सव्वेसिं, सव्वाणं " Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण सप्तमी एकवचन बहुवचन सव्वस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ, सव्वेसु, सव्वेसुं । सव्वहिं संबोधन हे सव्व, सव्वो सम्वे स्त्रीलिङ्ग में सर्व शब्द के रूप आदन्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के समान तथा नपुंसक में सर्व शब्द के रूप अदन्त नपंसक लिङ्गवाले शब्दों के समान चलते हैं। __विश्व आदि सर्वादिगण के शब्दों के रूप इसी सर्व शब्द के रूपों के समान चलते हैं। विशेष-अपभ्रंश में सर्व के स्थान में साह आदेश होता है। अदन्त सर्वादि से पर में आनेवाले सि का 'हां' आदेश होता है । ङि के स्थान में केवल हिं आदेश ही होता है । पुंलिङ्ग में यद् शब्द के रूप :प्रथमा जो द्वितीया जं तृतीया जेण, जिण पञ्चमी जत्तो, जदो, जम्हा, जाओ जाहिंतो, जासुंतो, इत्यादि षष्ठी जस्स, जास जाणं, जेहिं? सप्तमी जस्सि, जम्मि, जहिं, जत्थ जेसु जेहि १. अपभ्रंश में पुल्लिङ्ग में 'जासु' और स्त्रीलिङ्ग में 'जहे' होता है। . २. शौरसेनी में केवल जाणं और टक्कभाषा में 'जाहं' 'जाणं ये दो रूप होते हैं। ३ जब सप्तमी के एकवचन से समय का बोध कराना हो तब यद् शब्द का 'जाहे' और 'जाला' ये रूप हो जाते हैं। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय ૭ (४६) यद् शब्द से स्त्रीलिङ्ग में आम्बर्जित विभक्तियों के पर में रहने पर ङां विकल्प से होता है । जैसे :- जी, जीया इत्यादि । पुंल्लिङ्ग में तद् शब्द के रूप : बहुवचन ते, दे ते, दे तेहि, रोहि तातो इत्यादि एकवचन प्रथमा सो द्वितीया तं, णं तृतीया तेण, तिणी, रोण पञ्चमी तत्तो, तदो, ता, तम्हा, ताओ तास, से, तसे षष्ठी सप्तमी तस्सि, तम्मि, तत्थ, तहिं (४७) तद् शब्द का स्त्रीलिङ्ग में 'सा' यह रूप होता है और नपुंसक लिङ्ग ताणं, तेसिं, सिं, दाणं तेसु इत्यादि प्रथमा के एकवचन में में 'तं' | आमूवर्जित : प्रथमा - एक० स, सो; बहु० ते, ; द्वितीया-एक १. हेमचन्द्र के अनुसार तद् शब्द के रूप निम्नलिखित हैं तं णं; बहु० ते, ता, तिणा; बहु० तेहिं इत्यादिः पेण, तस्स, णे, णा; तृतीया - एक० तेण, पञ्चमी - एक० तम्हा; बहु० तेहिं तास; बहु० तास, तेसिं; सप्तमी एक० बहु० तेसु, सु, तेसुं, सुं । इत्यादिः षष्ठी - एक० तस्सि, ताहे, ताला, तइत्रा; २. पैशाची में पुंल्लिङ्ग में 'नेन' और खीलिङ्ग में 'नाए' रूप होते हैं । ३. शौरसेनी में स् में तस्स, से और श्रम् में ताणं होते हैं । अपभ्रंश में ङस् के पर में रहने पर पुंल्लिङ्ग में तह और स्त्रीलिङ्ग में तासु होते हैं | टक्क भाषा में आम के पर में रहने पर 'ताहं' और 'ताणं' होते हैं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण विभक्तियों में तदुशब्द से स्त्रीलिङ्ग में डी का भी प्रयोग किया जाता है। जैसे :-ती, तीआ इत्यादि । पुंल्लिङ्ग में एतद् शब्द के रूप :एकवचन . बहुवचन प्रथमा एस, एसो एते, एदे द्वितीया एतं एते, एदे तृतीया एदिणा, एदेण, एणं एतेहिं, एदेहि, एएहिं पश्चमी एत्तो, एत्ताहो, एआओ, इ० एतेहिंतो इत्यादि षष्ठी एअस्स, एदस्स, से सिं, एएसिं, एदाणं । अयम्मि, एत्थ, इअम्मि, एएसु, एदेसु इत्यादि । एअम्मि, एअस्सि . . विशेष-( क ) हेमचन्द्र ( ३, ८२ ) के अनुसार पञ्चमी के एकवचन में 'एत्तो' और 'एत्ताहे' रूप होते हैं और पक्ष में 'एआओ' 'एआउ' 'एआहि' 'एआहिंतो' और 'एआ' रूप होते हैं। (ख ) हेमचन्द्र ( ३. ८४ ) के अनुसार एतद् शब्द से सप्तमी के एकवचन में 'म्मि' के पर में रहने पर 'अयम्मि' ईयम्मि और पक्ष में एअम्मि रूप होते हैं। (ग) अन्य रूपों के लिए देखिए हेमचन्द्र के ३.६६, ८१,८५. पुंल्लिङ्ग में अदस् शब्द के रूप :प्रथमा अमू द्वितीया अमुं अमूणे तृतीया अमुणा अमूहिं अमूणो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चतुर्थ अध्याय एकवचन पञ्चमी अमूओ, अमूड इत्यादि षष्ठी अमुणो, अमुस्स सप्तमी अमुम्म, अम्मि, अम्मि बहुवचन अमूहिंतो इत्यादि विशेष – (क) हेमचन्द्र ( ३ ८७ ) के अनुसार तीनों लिङ्गों में अदस् शब्द के प्रथमा एकवचन में 'अहं' रूप भी होता है । ( ख ) शौरसेनी में 'अह' रूप नहीं होता । साधारणतः स्त्रीलिङ्ग में अमू और नपुंसक में अमुं रूप प्रयुक्त होते हैं । प्रथमा इमो, अअं द्वितीया इमं णं तृतीया पश्चमी षष्टी अस्स, इमस्स, सप्तमी अस्सि, इमस्सि, इह, ये अमू अमृसु इत्यादि पुंल्लिङ्ग में इदम् शब्द के रूप : इमिणा, इमेण, रोण इदो, इमादो, इत्तो इत्यादि इ इ एहि, इमेहिं, गोहिं इमेहित इत्यादि इमाणं, सिं एस विशेष – (क) इदम् शब्द के स्त्रीलिङ्ग' में 'सु' विभक्ति - के पर में रहने पर 'इअं', 'इमिआ' और नपुंसक में सु और अन् के पर में रहने पर 'इदं' और 'इणं' रूप होते हैं । ( ख ) शौरसेनी में स्त्रीलिङ्ग एकवचन में 'इअ' और नपुंसक में इदम् शब्द) के प्रथमा 'इदम् ' 'इमम्' रूप Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्राकृत व्याकरण होते हैं । पुंलिङ्ग-नपुंसक लिङ्ग में षष्ठी के बहुवचन में केवल 'इमाणं' यह रूप होता है। पुंलिङ्ग में किम् शब्द के रूप : एकवचन बहुवचन के प्रथमा द्वितीया कं तृतीया किणा, केण केहिं पश्चमी कीणो, कीस, कम्हा, कत्तो, कदो केहिंतो इत्यादि षष्ठी कास, कस्स। कास, केसिं, काणं र [ कहि, कस्सि, कम्मि, कत्थ, केसु इत्यादि । काहे, काला, कइआ विशेष-( क ) अपभ्रंश में किम् के स्थान में 'काई और 'कवण' आदेश विकल्प से होते हैं। (ख ) स्त्रीलिङ्ग में 'का' और नपुंसक में 'कि' रूप होते हैं। (ग) शौरसेनी में असि में 'कदो' और उसी विभक्ति में अपभ्रंश में 'कहाँ' रूप होते हैं। (घ ) स्त्रीलिङ्ग में डस् के पर में रहने पर 'कस्सा' कीसे, किअ, कीआ, कीई, 'कीए' होते हैं। शौरसेनी में पुंल्लिङ्ग में 'कास' नहीं होता है। अपभ्रंश में पुंल्लिङ्ग किम् शब्द का ङस् में 'कासु' रूप होता है और स्त्रीलिङ्ग में 'कह। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमी चतुर्थ अध्याय १०१ युष्मद् शब्द के रूप :- . एकवचन बहुवचन प्रथमा तुम, तं, तुं, तुवं, तुह ( झे, तुज्झ, तुज्ने, तुम्ह, तुम्हे । उम्हे, तुझे दिनीया / तं, तुं, तुवं, तुम, तुह, वो तुझे, तुम, तुम्हे, तुझे । तुमे, तुवे तृतीया [दे, ते, तइ, तुए, तुम तुमइ, तुम्हेहि, तुझेहि, उम्हेहिं ( तुमर, तुमे, तुमाई उज्झेहि, तुझेहि इत्यादि ( तत्तो, तइत्तो, तुवत्तो, तुम्हाहिंतो, तुज्झाहितो, तुमत्तो, तुज्झत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो, तुम्हत्तो, तेहितो तुहत्तो, तुह्यत्तो, तदो, तुव, दुहितों इत्यादि दुहि, तुमहिंतो इत्यादि १. हेमचन्द्र ३. ११ के अनुसार भे, तुन्भे, तुज्म, तुम्ह, तुम्हे, उरहे रूप होते हैं। २. हेमचन्द्र ३. ९२ में तुए रूप बतलाया गया है। ३. हेमचन्द्र ३. ९३ में वो, तुज्म, तुब्भे, तुम्हे, उम्हे, भे, रूप वर्णित हैं। ४. हेमचन्द्र ३. ९४ के अनुसार-भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुम, तुमइ, तुमए, तुमे और तुमाइ रूप होते हैं। ५. हेमचन्द्र ३. ९५ के अनुसार-भे, तुम्भेहिं, तुज्झेहि, उज्झेहि, उम्हेहि, तुम्हेहिं, उव्हेहिं ये रूप होते हैं। ६. हेमचन्द्र ३. ९६ और ९७ के अनुसार-तइत्तो, तुवत्तो, तुमत्तो, तुहत्तो, तुब्भत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो, तत्तो, तुम्ह, तुब्भतहिन्तो, तुम्ह, तुज्म इत्यादि रूप होते हैं। ७. हेमचन्द्र ३.६८ के अनुसार-तुन्भत्तो, तुम्हत्तो, उय्हत्तो, उम्हत्तो तुम्हत्तो, तुज्झत्तो तथा दोदुहिहिंतो-सुंतो ये रूप होते हैं। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण षष्ठी एकवचन बहुवचन { तुह, तुज्झ, तुम्म, तुइ, वो, भे, तुज्झ, तुह्याण | तु, तुम्ह, तुह, तुह, तुव, तुम्हाण, तुमाण, तुहाण तुम, तमे, तुमाइ, दे, उम्हाण, तुवाण' इत्यादि | तुह्य । तइ, तए, तुमए, तुमे, तुसु, तुम्हेसु, तुह्येसु, तुहसु, तुमाई, तइ, तुम्मि, तुमसु, तुहेसु इत्यादि .. सप्तमी | तुमम्मि, तुवम्मि, तुहम्मि, तुज्झम्मि इत्यादि शौरसेनी में युष्मद् शब्द के रूप :प्रथमा तुम द्वितीया . तुमं तुम्हे .. १. हेमचन्द्र ३. ९९ के अनुसार-तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुम्भ, उन्भ, उम्ह, तुम्ह, तुज्झ, उम्ह, उज्म रूप होते हैं। २. हेमचन्द्र ३. १०० के अनुसार-तु, वो, भे, तुब्भ, तुब्भं, तुब्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण, उम्हाण, तुज्भाणं, तुवाणं, तुमाणं, तुहाणं, उम्हाणं, तुम्ह, तुज्म, तुम्ह, तुज्झ, तुम्हाण, तुम्हाणं, तुज्माण, तुज्माणं रूप होते हैं। ३. हेमचन्द्र ३. १०१ के अनुसार-तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए, तुम्मि, तुवम्मि, तुमम्मि, तुहम्मि, तुब्भम्मि, तुम्हम्मि, तुज्झम्मि रूप तुम्हे ___४. हेमचन्द्र ३. १०३ के अनुसार-तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु, तुम्भेसु, तुम्हेसु, तुज्झेसु, तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुम्भसु, तुम्हसु, तुमसु, तुन्भासु, तुम्हासु, तुज्मासु रूप होते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तए ' चतुर्थ अध्याय एकवचन बहुवचन तृतीया तुम्हेहिं पञ्चमी तुम्हादो तुम्हाहिंतो. षष्ठी ते, दे, तह, तुम्ह तुम्हाण सप्तमी तइ तुम्हेसुं अपभ्रंश में युष्मद् शब्द के रूप:प्रथमा तुह तुम्हे, तुम्हाइं द्वितीया तइं, पइं .. तुम्हेहिं तृतीया । " पञ्चमी तउहोंत, तध्रुहोत, तुझुहोत तुम्हं तुम्हह तुम्हासुं अस्मद् शब्द के रूप :| अहं, अहम्मि, अम्मि भे, व, अम्ह, अम्हे अम्हि, हं, अहअं, म्मि अम्हो, मो' द्वितीया [णेणं, मि, अम्मि, अम्हं अम्हे, अम्हा, णो, णे, "। मं, ममं, मिमं, अहं अम्ह १. हेमचन्द्र ३. १०५ के अनुसार-म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं, अहयं रूप होते हैं। २. हेमचन्द्र ३. १०६ के अनुसार-अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे रूप होते हैं। ____३. हेमचन्द्र ३. १०७ के अनुसार-णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, ममं, मिमं और अहं रूप होते हैं। . ....४. हेमचन्द्र ३. १०८ के अनुसार-अम्हे, अम्हो, अम्ह और णे रूप होते हैं। षष्ठी सप्तमी प्रथमा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ तृतीया - पञ्चमी षष्ठी प्राकृत व्याकरण एकवचन मिमे, ममं ममए, मए ममाइ, मइ, इणो, मओ महत्तो, ममत्तो मत्तो महतो, मात्तो, मइदो दुइत्यादि । मे, मम, मइ, मह मह, मह्य, नहीं, अम्हं |" A बहुवचन अम्हेहिं, अम्हाहिं अम्ह, अम्हो, ये ममत्तो, अम्हत्तो, ममाहिंतो, ममासुंतो, ममेसुंतो, अम्हे. हिंतो इत्यादि । णे, णो, मह्य, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, मम, अम्हाणं महाणं, मह्माणं । १. हेमचन्द्र ३. १०९ के अनुसार - मि, मे, ममं, ममए, ममाइ, म, मए रूप होते हैं । - २. हेमचन्द्र ३. ११० के अनुसार — अम्हेहि, अम्हाहि, श्रम्ह, अम्हे, रूप होते हैं । ३. हेमचन्द्र ३. १११. के मज्झतो, मत्तो रूप होते हैं । इसी बनते हैं । दो, दु, हि, हिंतो और लेना चाहिए । अनुसार - महत्तो, ममत्तो, महत्तो. प्रकार मइदो, मइदु, इत्यादि रूप लुक् पक्ष में भी रूपों का कह कर ४. हेमचन्द्र ३. ११२. के अनुसार - ममत्तो, ब्रम्हत्तो, ममाहिंतो, म्हाहिंतो ममासुंतों, अम्हासुंतो, ममेसुंतो, म्हसुंतो रूप होते हैं । ५. हेमचन्द्र ३. ११३. के अनुसार मे, मइ, मम, मह, महं, मज्म, मज्म, श्रम्ह, अम्हं रूप होते हैं । ६. हेमचन्द्र ३. ११४. के अनुसार णे णो, मज्म, श्रम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण, मज्माण, श्रम्हाण, ममाणं, महाणं, मज्माणं रूप होते हैं । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ अध्याय एकवचन बहुवचन मी, मइ, ममाइ, मए अम्हेसु, ममेसु, महेसु सप्तमी १ मे, अम्हम्मि, ममम्मि मएसु, अम्हसु, ममसु । महम्मि महसु इत्यादि शौरसेनी में अस्मद् शब्द के रूप :प्रथमा ही, अहं अम्हे, वयं द्वितीया मं अम्हे तृतीया मए अम्हेहिं पश्चमी मत्तो, ममादो अम्हेहिंतो इत्यादि षष्ठी मे, मम, मह अम्ह, अम्हाणं सप्तमी मइ, मए अम्हेसु (४८) मागधी में संस्कृत के अहं और वयं के स्थान में क्रमशः हगे और हके आदेश होते हैं। अपभ्रंश में अस्मद् शब्द के रूप :प्रथमा हउ अम्हे, अम्हइ द्वितीया मइ अम्हे, अम्हइ तृतीया मइ अम्हेहि पञ्चमी महु, मह्य अम्हेहितो षष्ठी महु, मह्य अम्हहे सप्तमी मयि इत्यादि अम्हासु १. हेमचन्द्र ३. ११५. के अनुसार-मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हम्मि, ममम्मि, महम्मि, मज्मम्मि रूप होते हैं। ____२. हेमचन्द्र ३. ११७. के अनुसार-अम्मेसु, महेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममसु, महसु, मज्मसु अम्हासु, रूप होते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण द्वि, त्रि और चतुर् शब्दों के रूप : द्विशब्द , त्रिशब्द चतुरशब्द प्रथमा । दो, दुवे, दोणि, तिण्णि चत्तारो, चउरो, " ( वेणि, दुणि, विणिः चत्तारि द्वितीया तृतीया दोहिं, दोहि, विहि. तीहिं चऊहिं पञ्चमी दोहितो, वेहिंतो इ० तीहितो चऊहिंतो षष्टी दोरह, दोण्णं, वेण्णं तिण्णं चउपह सप्तमी दोसु, वेसु चउसु (४६ ) अन्य संख्यावाचक शब्दों के रूप अदन्त शब्दों के समान चलते हैं। (५०) स्त्रीलिङ्ग में पश्चन् शब्द से आप प्रत्यय होता है। जैसे :-पञ्चा, पञ्चाहिं इत्यादि । (५१) तादर्थ्य ( उसके लिए ) अर्थ में षष्ठी विभक्ति विकल्प से आती है। (५२) प्राकृत में विभक्तियों के व्यवहार का कोई विशेष नियम नहीं है । कहीं द्वितीया और तृतीया के स्थान में सप्तमी कहीं पञ्चमी के स्थान में तृतीया तथा सप्तमी और प्रथमा के बदले द्वितीया विभक्तियाँ व्यवहृत होती हैं । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय [ अव्यय प्रकरण ] (१) वाक्योपन्यास अर्थ में 'तं' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे :- तं निव- पुच्छि अ-दो आरिएण ( राजा से पूछे गये दौवारिक ने इस प्रकार वाक्य का उपन्यास किया । ) कुमापा. ४. १. ( २ ) अभ्युपगम ( स्वीकार ) अर्थ में आम अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे : - आम गिम्ह-सिरी । हाँ, यह सही है कि इस उद्यान में इन दिनों ग्रीष्म ऋतु की शोभा फैली है । ) कुमा. पा. ४. १. अव्यय का प्रयोग किया वि ( गरम के विपरीत कुमा. पा. ४. १. ( ४ ) कृतकरण अर्थात् फिर से उसी क्रिया को करने अर्थ में 'पुणरुत्तं' अव्यय का प्रयोग होता है । जैसे :- पेच्छ पुणरुत्तम् ( एक बार देख चुकने पर भी फिर से देखो । ) कुमा. पा. ४. १. (५) विषाद, विकल्प, पश्चात्ताप, निश्चय और सत्य अर्थों में 'हन्दि ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। विषाद अर्थ में जैसे :- हन्दि विदेसो ( दुःख है कि हमारे लिए यह विदेश है ? ); विकल्प अर्थ में जैसे :- जीवइ हन्दि पिआ ( पता नहीं मेरी प्रियतमा जीती है अथवा नहीं में जैसे :- हन्दि किं पिआ मुक्का ? ); पश्चात्ताप अर्थ ( क्या हमने विरह ( ३ ) विपरीतता अर्थ में 'वि' जाता है । जैसे :- उरहेह सीअला ठंढी अथवा गरम होती हुई भी ठंढी ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्राकृत व्याकरण दुःख का विना विचार किये ही प्रियतमा को छोड़ दिया ? ); निश्चय अर्थ में जैसे :- हन्दि मरणं ( मरना निश्चित है ); सत्य अर्थ में जैसे :- हन्दि जमो गिम्हो ( प्रीष्म यमराज है, यह बात सच है । ) कुमा, पा. ४. २. (६) 'ग्रहण करो', 'लो' इस अर्थ में 'इन्द' और हन्दि अव्यय का भी प्रयोग होता है । जैसे :- हन्द महु हन्दि परिमल - मिमं (पुष्परस लो, यह गन्ध ग्रहण करो । ) कुमा. पा. ४. ३. ( ७ ) इव के अर्थ में मिव, पिव, विव, व्ब, व, विअ, इन अव्ययों का प्रयोग प्राकृत में विकल्प से होता है । मिव — जणणि मित्र ( माता के समान ) पिव-धूअं पिव ( पुत्री के समान ) विव-सोअरं विव ( सोदर बहन के समान ) व्व - साअरो व्व ( सागर के समान ) व - सहि व ( सखी के समान ) विअ -- नत्तिं विअ ( पौत्री के समान ) पक्ष में इव जैसे : इव-मउडो इव (८) लक्षण ( लक्ष्य करना ) अर्थ में जेण और तेण अव्ययों का प्रयोग होता है। जैसे :- जेण अहल्ला लवली ( विना खिली लवली को लक्ष्य करके ); फुल्लं च धूलिकम्बं तेण फुडा चेr गिम्हसिरी ( खिले हुए धूलि कदम्ब को लक्ष्य करके ग्रीष्म की शोभा स्फुट ही मालूम पड़ती है ।) कुमा० पा० ४.५. ( ६ ) अवधारण ( अन्ययोग व्यवच्छेद ) अर्थ में णइ, चेअ, चिअ और च अव्ययों का प्रयोग होता है । जैसे : :― Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पश्चम अध्याय १०६ णइ-बोलीणा गइ वसन्त-उउ-लच्छी ( वसन्त ऋतु की __शोभा बीत ही गई) चेअ--स्फुटा चेअ गिम्ह-सिरी ( ग्रीष्म की शोभा स्फुट ही मालूम पड़ती है।) चिअ-ते चिअ धन्ना ( वे ही धन्य हैं ! ) च-सच सीलेण ( स्वभाव से अच्छा-सत्-ही) (१०) दो में एक के निर्धारण तथा निश्चय अर्थों में 'बले' अव्यय का प्रयोग होता है। निद्धारण में जैसे:-लयाग नोंमालिआ बले रम्मा ( सभी लताओं में नवमल्लिका अथवा नवमालिका मन को आनन्द देनेवाली है । ); निश्चय में जैसे :-बले ते मयणबाणा (निश्चय ही वे मदन (कामदेव),, के बाण हैं ।) . (११) 'किल' के अर्थ में किर, इर, हिर अव्ययों का विकल्प से प्रयोग होता है । पक्ष में किल ही प्रयुक्त होता है। जैसे:किर-जा किर मल्ली (संभावना करता हूँ कि जो मल्ली है) इर-जा इर जवा ( संभावना करता हूँ कि जो जपा है) हिर--सुत्ते जणम्मि जो हिर सद्दो चीरीण ( लोगों के ___सो जाने पर जो झींगुरों का शब्द ) पक्ष में किल-एवं किल तेन सिविणए भणिआ । विशेष-किल शब्द के अर्थ प्रसिद्ध, संभावना आदि हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्राकृत व्याकरण (१२) केवल अर्थ में 'णवर' अव्यय का प्रयोग करना चाहिए । जैसे :-सद्दो चीरीण सुव्बए णवर ( केवल झींगुरों का शब्द सुनाई पड़ता है। (१३) आनन्तर्य अर्थ में ‘णवरि' अव्यय का प्रयोग होता है। जैसे :-गाअइ किल तस्स मिसा णवरि वसन्तस्स गिम्हसिरी। (झींगुरों की ध्वनि के बहाने वसन्त के बाद आनेवाली ग्रीष्म-शोभा हर्ष से मानो गान कर रही है ) कुमा० पा० ४.७. - (१४) निवारण अर्थ में 'अलाहि' अव्यय का प्रयोग करना उत्तम है। जैसे:-पहिआ, अलाहि गन्तुं ( पथिको, जाना व्यर्थ है अर्थात मत जाओ।) - (१५) नत्र के अर्थ में 'अण' और 'णाई' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-अण दइआण ( कान्तारहित जनों का ) । कुसलाइँ इह णाई ( यहाँ कुशल नहीं है)। . (१६) मा के अर्थ में 'माई' इस अव्यय का प्रयोग होता है । जैसे :-माई इह एध ( यहाँ मत आओ।) । (१७) 'हद्धी' यह अव्यय निर्वेद अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । जैसे :-हद्धी, इअ व्व चीरीहि उल्लविअं _ (१८) भय, वारण और विषाद अर्थों में वेवे का प्रयोग करना चाहिए । जैसे :-समुहोट्ठिअम्मि ममरे वेव्वे त्ति भणेइ मल्लिउच्चिणिरी। वारणखेअभएहिं भणिउं वेव्वे वयंसे त्ति ( सम्मुखोत्थिते भ्रमरे वेव्वे इति भणति मल्लिकामुच्चेत्री । वारणखेदभयैः भणित्वा वेव्वे 'वयस्ये इति ।) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ११० (१ ) वेव्व और वेव्वे का भी आमन्त्रण अर्थ में प्रयोग किया जाता है। जैसे:-वेव्व सहि चिट्ठसु ( हमारा आमन्त्रण है ! सखि, रुको) . विशेष-आमन्त्रण 'अर्थ में 'वेव्वे' का प्रयोग नियम १८ के मणिउं वेव्वे वयंसेत्ति में देखा जाता है। (२०) सखी द्वारा आमन्त्रण अर्थ में 'हला', 'मामि', और 'हले' अव्ययों का प्रयोग विकल्प से होता है । पक्ष में 'सहि' यह प्रयुक्त होता है । जैसे :-वेव्व सहि चिट्ठसु हला निसीद, मामि रम जासि कत्थ हले ? ( हमारा आमन्त्रण है, सखि, रुको ! सखि बैठो ! सखि, क्रीडा करो ! जाती कहाँ हो सखि ? ) कुमा. पा. ४. १०. (२१) सम्मुखीकरण अर्थ में और सखी के आमन्त्रण अर्थ में 'दे' इस अव्यय का प्रयोग करना चाहिए । सामान्य संबोधन में जैसे :-दे पसिन ताव सुंदरि; सख्यामन्त्रण में जैसे :-दे पसिअ किमसि रुट्ठा ? (हे सखि, प्रसन्न होओ, रूठी किस लिए हो ?) (२२) दान, प्रश्न और निवारण अर्थों में 'हुँ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। दान में जैसे :-हुं, गिण्हसु कणय-भायणयं ( मैंने दे डाला, अब तुम यह कनक-पात्र ले लो ?); प्रश्न में जैसे :-हुं, तुह पिओ न आओ ? (मैं पूछती हूँ अभी तक तेरा प्रियतम नहीं आया ?); निवारण में जैसे :-हुं, किं तेणज ( अरे हटाओ भी, उससे अब हमारा क्या मतलब ? ) : Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्राकृत व्याकरण (२३) निश्चय, वितर्क, संभावना और विस्मय अर्थों में हुं और खु का प्रयोग किया जाता है। निश्चय में जैसे :-सो हु अन्नरओ ( यह निश्चित है कि वह दूसरी स्त्री में रम गया है । ), तुमयं खु माणइत्ता ( यह निश्चित है कि तुम मानवती हो । ); वितर्क और संभावना अर्थों में जैसे :तस्स हु जुग्गा सि सा खु न तं ( मैं ऐसा अंदाज करता हूँ और यही संभव भी है कि वह दूसरी स्त्री उसके योग्य है और तुम उसके प्रियतम के योग्य नहीं हो । ); विस्मय अथ में जैसे :--एसो खु तुझ रमणो ( आश्चर्य है कि यह तुम्हारा रमण है । ) कुमा. पा. ४. १२ (२४) गर्दा, आक्षेप, विस्मय और सूचन अर्थों में ऊ का प्रयोग किया जाता है । गर्यो में जैसे :-तुझ ऊ रमणो ( तुम्हारा निन्दित रमण ); आक्षेप में जैसे :-ऊ किं मए भणिों ( अरे मैंने क्या कह डाला ? ); विस्मय अर्थ में जैसे :-ऊ अच्छरा मह सही ( अहो, मेरी सखी अप्सरा है ); सूचन अर्थ में जैसे :-ऊ इअ हसेइ लोओ (तुम्हारे प्रियतम को दोष दे-देकर सखियाँ हँसती हैं ।) कुमा. पा. ४. १३. (२५) कुत्सा अर्थ में 'थू' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे :-थू रे निकिट्ठ कलहसील ( अरे अधम, झगड़ाल, तुझे थू है ! ) (२६) 'रे' और 'अरे' क्रमशः संभाषण और रतिकलह अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। संभाषण अर्थ में जैसे :-रे हिअय Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अध्याय मडह-सरिआ, रतिकलह में अरे जैसे :- अरे मए समं मा करेसु उवहासं। " ___ २७ ) क्षेप, संभाषण और रतिकलह अर्थों में 'हरे' इस अव्यय का प्रयोग करना चाहिए । क्षेप में जैसे :-हरे णिलज, संभाषण में जैसे :-हरे पुरिसा, रतिकलह में जैसे :-हरे वहुवल्लह । (२८) सूचना और पश्चात्ताप अर्थों में 'ओ' अव्यय का प्रयोग करना चाहिए । सूचना अर्थ में जैसे :-ओ सढो सि ( मैं यह सूचित कर देना चाहता हूँ कि तुम शठ हो।) पश्चात्ताप में जैसे :-ओ किमसि दिट्ठो ? (क्या तुम देख लिए गये ? ) कुमा. पा. ४. १३. (२६ ) सूचना, दुःख, संभाषण, अपराध, विस्मय, आनन्द, आदर, भय, खेद, विषाद, और पश्चात्ताप अर्थों में 'अव्वो' इस अव्यय का प्रयोग करना चाहिए। सूचना में जैसे :-अव्वो नओ तुह पियो ( यह सूचित करता हूँ कि तुम्हारा प्रियतम नत हो गया।); दुःख में जैसे :-अव्वो तम्मेसि ( खेद है कि तुम उदास हो । ); संभाषण में जैसे :-किं एसो अव्वो अन्नासत्तो ( क्या यह दूसरी में आसक्त है ?); अपराध एवं विस्मय में जैसे :-अव्वो तुज्झेरिसो माणो ( प्रणययुक्त प्रणयी में तुम्हारा ऐसा मान ? ) इससे अपराध और आश्चर्य दोनों प्रकट होते हैं । आनन्द में जैसे :-अव्वो पिअस्स समओ ( यह आनन्द की बात है कि प्रियतम के आने का यह समय है।); Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्राकृत व्याकरण आदर में जैसे :-अव्वो सो एइ ( मेरा प्रियतम यह आ रहा है ? ); भय में जैसे :-रूसणो अन्यो ( भय है कि वह थोड़े अपराध पर भी रूठ जानेवाला है । ); खेद और विषाद में जैसे:-अव्वो कहूं ( मैं खिन्न और विषण्ण हूँ।); पाश्चात्ताप में जैसे :-अव्वो किं एसो सहि मए वरिओ ( सखि, मैं तो पछता रही हूँ कि मैंने इसे बरा क्यों ?) (३० संभावन अर्थ में 'अई' अव्यय का प्रयोग करना चाहिये । जैसे :-अइ एसि रइ-घराओ ( मेरी ऐसी संभावना है कि तुम रतिगृह से आ रही हो । __(३१) निश्चय, विकल्प, अनुकम्प्य और संभावन अर्थों में “वणे' अव्यय का प्रयोग करना चाहिये । निश्चय में जैसे :वणे देमि ( निश्चय ही देता हूँ ); विकल्प में जैसे :-होइ वणे न होइ ( हो या न हो ); अनुकम्प्य में जैसे :-दासो वणे न मुच्चइ (अनुकम्पा योग्य दास छोड़ा नहीं जाता); संभावन में जैसे :-नत्थि वणे जं न देइ विहिपरिणामो । (३२ ) विमर्श अर्थ में (कुछ के मत से संस्कृत मन्ये अर्थ में) मणे अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे :-मणे सूरो (मेरी ऐसी मान्यता है कि यह सूर्य है।) __ (३३) आश्चर्य अर्थ में अम्मो अव्यय का प्रयोग करना चाहिए | जैसे:-स अम्मो पत्तो खु अप्पणो ( वह प्रियतम अपने आप प्राप्त हो गया । आश्चर्य है ?) : (३४) स्वयम् के अर्थ में अप्पणो का प्रयोग विकल्प से Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ११५ करना चाहिए । देखिए ऊपर के ३३ वें नियम का उदाहरण | पक्ष में 'सयं' होता है। (३५) प्रत्येकम् के अर्थ में पाडिकं, पाडिएकं और पक्ष में पत्तेअं का प्रयोग करना चाहिए | जैसे-पाडिकं दइआओ, वाण वयंसीओ पाडिएकं च । पत्तेअं मित्ताइं (प्रत्येक दयिताएं, उनकी प्रत्येक सखियाँ और प्रत्येक मित्र ) (३६ ) पश्य के अर्थ में 'उअ' का प्रयोग विकल्प से किया जाता है। जैसे :-उअ एसो एइ ( देखो, यह आ रहा है।) ( ३७ ) इतरथा के अर्थ में इहरा का प्रयोग विकल्प से किया जाता है। जैसे :-कहमिहरा पुलइआ सि दठुमिमं (अन्यथा इसे देखकर तुम पुलकित क्यों हो ?) (३८) झगिति और साम्प्रतम् के अर्थ में एक्कसरिअं का प्रयोग होता है । जैसे :-एक्कसरि झगिति साम्प्रतम् वा | (३६) मुधा के अर्थ में मोरउल्ला का प्रयोग किया जाता है । जैसे :-मा तम्म मोरउल्ला ? (व्यर्थ उदास मत होओ ? ) (४०) अर्द्ध और ईषत् में 'दर' इस अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे :-दरविअसिअं (अर्ध विकसित अथवा ईषद्विकसित) (४१) प्रश्न अर्थ में किणो अव्यय का प्रयोग करना चाहिए ! जैसे :-किणो धुवसि ? ( काँपते हो क्या ?) ___(४२) पादपूर्ति के लिए इ, जे, र का प्रयोग करना चाहिए । जैसे :-वारविलया इ एआ, गिम्ह-सुहं माणिउं पयट्टा जे; पिअन्ति पिक्क दक्ख-रसं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्राकृत व्याकरण विशेष – अहो, हंहो, हेहो, हा, नाम, अ,ि अहाह, अरि, रि, हो, इत्यादि अव्ययों का संस्कृत के समान करना चाहिए । अहह, ही, सि, प्रयोग प्राकृत में (४३) अपि के अर्थ में पि और वि का प्रयोग करना चाहिए जैसे : - इअ जंपि तं पि लविराओ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय [तिङन्त विचार ] (१) प्राकृत में क्या, क्यष आदि प्रत्ययों के विधान के कोई विशेष नियम नहीं हैं। केवल हेमचन्द्र के व्याकरण में एक सूत्र ( ३.१३८) है, जिससे य के लुक के विषय में ज्ञात होता है । जैसे :-गरुआइ, गरुआअह; दमदमाइ, दमदमाअइ; लोहिआइ, लोहिआअइ । (२) प्राकृत में गणभेद (धातुओं के वर्गीकरण) की व्यवस्था नहीं की जाती है। (३) प्राकृत में तिप् आदि तिङ् कहलानेवाले प्रत्ययों के वर्तमान काल में वक्ष्यमाण रूप होते हैं । तथा अदन्त धातुओं को छोड़कर शेष धातुओं में 'आत्मनेपदी' और 'परस्मैपदी' का भेद नहीं माना जाता। वर्तमान काल के प्रत्यय एकवचन बहुवचन प्रथम पु० इ न्ति, न्ते, इरे मध्यम पु० सि इत्था , ह उत्तम पु० मि मो, मु, मा १. पाणिनि ( ३.४.३८ ) के अनुसार तिप् , तस् , मि, सिप् , थस् , थ, मिप् , वस् , मस् ; त, आताम् , म , थास् , प्राथाम् , ध्वम् , इ, वहिक , महिङ , इनमें ति से ऊ तक तिङ कहे जाते हैं। २. शौरसेनी में सभी धातु परस्मैपदी होते हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्राकृत व्याकरण (४) अकारान्त आत्मनेपदी धातुओं के प्रथम-मध्यम पुरुषों के एकवचन के स्थान में क्रमशः 'ए' और 'से' आदेश विकल्प से होते हैं । जैसे :-तुवरए ( त्वरते ); तुवरसे (त्वरसे) (५) अदन्त धातु से 'मि' के पर में रहने पर पूर्व के 'अ' का आत्व विकल्प से होता है। जैसे :-हसामि, हसमि इत्यादि । (६) अकारान्त धातु से 'मो' 'मु' और 'म' पर में रहें तो पूर्व के अकार के स्थान में 'इ' और 'आ' होते हैं। कहीं कहीं ए भी होता है। जैसे :-हसिमो, हसामो, हसेमो; हसिमु, हसेमु इत्यादि । वर्तमान में अकारान्त भण धातु के रूप : एकवचन बहुवचन प्रथम पु० भणइ, भणए । भणन्ति, भणन्ते. भणिरे मध्यम पु० भणसि, भणसे भणह, भणित्था उत्तम पु० भणामि, भणमि भणामो, भणिमो, भणेमो इत्यादि विशेष-यों ही हस और पठ आदि सभी अकारान्त धातुओं के रूपों को जानना चाहिए | केवल अस धातु के रूप विशेष नियमानुसार सिद्ध होते हैं। वर्तमान में अस धातु के रूप : एकवचन बहुवचन प्रथम पु० अच्छइ, अत्थि अच्छंति, अत्थि मध्यम पु० सि, अच्छसि,अस्थि अस्थि, अच्छित्था, अच्छह उत्तम पु० म्हि, अस्थि, अच्छामि म्हो, म्हा, इत्यादि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय ११६ (७) स्वरान्त धातु से भूत काल में सभी पुरुषों और वचनों में विहित प्रत्यय के स्थान में 'ही' 'सि' और 'ही" आदेश होते हैं । जैसे:-कासी, काही, काहीअ; ठासी, ठाही, ठाहीअ (अकार्षीत् , अकरोत् , चकार; तथा अस्थात् , अतिष्ठत् , तस्थौ ) विशेष-प्राकृतप्रकाश में ही और सी का विधान नहीं देखा जाता | उसके अनुसार एकाच धातु से केवल 'ही' आदेश होता है । देखिए-वर० ७.२४ (८) व्यञ्जनान्त धातु से भूतकाल में विहित सभी प्रत्ययों के स्थान में 'इअ' आदेश होता है । जैसे :-गण्हीअ (अग्रहीत् , अगृह्णात् , जग्राह) विशेष-( क ) केवल अस धातु के साथ भूतार्थक कुल पुरुष और वचन के प्रत्ययों के स्थान में 'आसि' और 'अहेसि' आदेश होते हैं। जैसे :-सो, तुमे अहं वा आसि । एवं अहेसि । देखिए-तेनास्तेरास्यहासी । हेम० ३. ६४ (ख) प्राकृतप्रकाश के अनुसार, अस धातु का, केवल भूतार्थक एकवचन के साथ एकमात्र 'आसि' आदेश होता है। देखिए वर. ७. २५ भविष्यत् काल में तिवादि तिङ् प्रत्ययों के स्वरूप :एकवचन बहुवचन प्रथम पु० हिइ हिन्ति, हिन्ते, हिरे मध्यम पु० हिसि हित्थ, हिरु .हिमि, हामि, हिस्सा, हिहा उत्तम पु° सामि, स्सम् १. देखिए-सी-ही-हीअ भूतार्थस्य । हेम० ३. १६२. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्राकृत व्याकरण भविष्यत् काल में भू धातु के रूप : एकवचन " प्रथम पु० होहि ' मध्यम पु० होहिसि उत्तम पु० साम, होमि होस्सामो, होहामो होस्सामु, होहामु, होस्साम, होहाम, होहिमु, होहिम बहुवचन होहिन्ति, होहिते, होहिरे होत्थि, होहि होहामो, होस्सामो इत्यादि भविष्यत् काल में कृ धातु के रूप : प्रथम पु० काहि मध्यम पु० का हिसि उत्तम पु० काहं, काहिमि भविष्यत् काल में इस धातु प्रथम पु० हसिहि मध्यम पु० हसि हिसि उत्तम पु० हसिस्सं काहिंति काहित्था काइमो के रूप : हसिहिन्ति हसिहित्था हसि सामो, हसिहामो १. प्राकृत प्रकाश के अनुसार प्रथम पुरुष के एकवचन में होहिइ, Tafts, होज्ज, होज्जा, होज्जहिर, होन्नाहिइ, होसह होही और प्रथम पुरुष के बहुवचन में होहित, विहिन्ति रूप होते हैं । २. प्राकृतप्रकाश के अनुसार मध्यम पुरुष के एकवचन मेंहोहिहिसि, हुविहिहि, हुविहिसि, होहिहि तथा बहुवचन में होहित्था, हो, हुविथा, विहिह रूप होते हैं । ३. प्राकृतप्रकाश के अनुसार उत्तम पुरुष के एकवचन में हो सामि, होस्सामो, होहामि, होहिमि, होस्स, होहिमो और बहुवचन में होहिस्सा, होहित्या, होहि श्रो, होहिमु, होहामो, होहिम, होस्सामो, होस्सामु, होस्साम रूप होते हैं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय १२१ इसी प्रकार से भण, पठ आदि के रूप भी चलते हैं (१) कृ, दा, सं+गम, रुद, विद, दृश, वच, भिद बुध, अ, गम, मुच और छिद धातु भविष्यत् काल में, उत्तम पुरुष के 'एकवचन में, नीचे लिखे विशिष्ट रूपों को प्राप्त करते हैं। इतर (प्रथम और मध्यम ) पुरुषों में श्रु धातु के रूपों के समान रूप प्राप्त करते हैं। धातुओं के नाम उत्तम पुरुष के एकवचन के रूप काहं, काहिमि दाहं, दाहिमि सं+गम संगच्छं रुद रोच्छं वेच्छं दृश वच वेच्छं भिद भेच्छं बुध भोच्छं सोच्छं, सोच्छिस्सं, सोच्छिमि इत्यादि गम गच्छं मुच मोच्छं छिद छेच्छं भविष्यत् काल के प्रथम और मध्यम पुरुषों में श्रु धातु के रूप :एकवचन बहुवचन प्रथम पु० सोच्छिइ, सोच्छिहिइ सोच्छिन्ति, सोच्छिहिन्ति देच्छं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्राकृत व्याकरण एकवचन बहुवचन मध्यम पु० सोच्छिसि, सोच्छिहिसि सोच्छित्था इत्यादि उत्तम पु० सोच्छं सोच्छिमो, सोच्छिहिमो इत्यादि विध्याद्यर्थक ति:प्रथम पु० उ मध्यम पु० सु, हि उत्तम पु० मु हस धातु के विध्याद्यर्थ में रूप :- . प्रथम पु० हसउ हसन्तु, हसेन्तु (हससु, हसहि, हस, हसेज्जसु, हसह पु हसेज्जहि, हसेज्जे उत्तम पु० हसमु हसामो __ इसी प्रकार पठ आदि धातुओं के रूप जाने जा सकते हैं। किन्हीं आचार्यों के मत से विध्यादि में वर्तमान के तुल्य ही रूप होते हैं । जैसे:-जअइ' इत्यादि । (१०) वर्तमान, भविष्यत् और विध्यादि में उत्पन्न प्रत्यय के स्थान में ज्ज और ज्जा ये दोनों आदेश विकल्प से होते हैं। पक्ष में यथाप्राप्त होते हैं। जैसे:-हसेन्ज, हसेज्जा (हसति, हसिष्यति, हसतु, हसेत् इत्यादि)। विशेष-( क ) हेमचन्द्र के मत से स्वरान्त धातुओं के विषय में ही उक्त नियम लागू होता है । ( ख ) शौरसेनी में उक्त नियम लागू नहीं होता। १. शौरसेनी में जि धातु के विध्यादि में 'जेदु' इत्यादि रूप होते हैं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय १२३ (११) धातु से वर्तमान, भविंध्यत् और विध्यादि अर्थवाले तिङ् यदि पर हों तो धातु और प्रत्यय के मध्य में भी ज्ज और ज्जा विकल्प से होते हैं । होज्जइ, होज्जाइ (भवति, भविष्यति, भवतु, भूयात् इत्यादि) (१२) शतृ और शानच् इन दोनों में एक-एक के स्थान में न्त और माण ये दो आदेश होते हैं। जैसे :-पढन्तो, पढमाणो;हसन्तो, हसमाणो ( पठन् , हसन् ) . (१३) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शतृ और शानच् के स्थान में ई, न्ती और माणा आदेश होते हैं। जैसे :-उवहसमाणिं सरोरुहं विहसन्ति हसई व कुमुइणिं ( उपहसन्ती, विहसन्तीम् ; हसन्तीमिव ) कुमा. पा. ५. १०६ (१४ ) वर्तमान, विध्यादि और शतृ प्रत्ययों के पर में रहने पर अकार के स्थान में एकार विकल्प से होता है । जैसे:हसेइ, हसइ, हसेउ, हसउ; हसेतो, हसंतो (हसति, हसेत् , हसन्) कहीं पर नहीं भी होता है। जैसे :-जअइ | कहीं आत्व भी होता है । जैसे:-सुणाउ । विशेष-शौरसेनी में धातु और तिङ के मध्य में अधिकतर ए और आ होते हैं। (१५) भाव और कर्म में विहित यक के स्थान में 'इ' और 'इज्ज' आदेश होते हैं | जैसे :-हसिअइ, हसिज्जइ (हस्यते) विशेष-दृश और वच के भाव और कर्म में क्रमशः दीश और वुच्च रूप होते हैं । दीसइ (दृश्यते); वुच्चइ (उच्यते) (१६ क्त्वा, तुम, तव्य और भविष्यत् काल में विहित प्रत्यय के पर में रहने पर धातु के अन्त्य अ के स्थान में "ए" Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्राकृत व्याकरण और 'इ' होते हैं। जैसे :-हसेऊण, हसीऊण ( हसित्वा); हसेउ, हसिउं ( हसितुम् ); हसेअव्वं, हसिअव्वं (हसितव्यम् ); हसेहिइ, हसिहिइ ( हसिष्यति) विशेष-उक्त नियम अदन्त धातुओं को छोड़ अन्य धातुओं में लागू नहीं होता । जैसे:-काऊण ( कृत्वा) (१७)क्त प्रत्यय के पर.में रहने पर धातु के अन्त्य 'अ' का 'इ' होता है । जैसे :-हसिअं, पठिअं ( हसितम, पठितम् ) (१८) ण्यन्त धातु के णि के स्थान में अत , एत, आव और आवे ये चार आदेश होते हैं। (१६) भाव और कर्म अर्थ में विहित क्त प्रत्यय के पर रहने पर णि का लुक और (पर्यायेण लुगभाव होने पर ) 'अवि' ‘आदेश होते हैं । णिच् के पर में रहने पर भ्रम धातु के स्थान में विकल्प से 'भमाड' आदेश होता है। जैसे :-कारिअं, करावि (कारितम् ); सोसिअं, सोसविझं (शोषितम् ); तोसिआ, तोसविरं (तोषितम् ); कारीअइ, कराविअइ, कारिजइ, कराविजइ (कार्यते); भमाडइ, भमाडेइ, भामेइ, भमावइ (भ्रामयति) धात्वादेशसंबंधी नियम(२०) व्यञ्जनान्त धातु के अन्त्य व्यञ्जन के आगे अ आकर मिलता है । जैसे :-हसइ (हसति) इत्यादि । (२१) अकारान्त धातुओं को छोड़कर अन्य स्वरान्त धातु के अन्त में अकार का आगम विकल्प से होता है । जैसे:'पाइ, पाअइ इत्यादि । (२२) चि, जि, हु, श्रु, सु, लू , पू और धू धातुओं के Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय १२५ । अन्त में णकार का आगम होता है और इनके दीर्घ स्वर का ह्रस्व होता है । जैसे :- चिणइ, जिणइ, हुणइ, लुणइ इत्यादि । (२३) भाव और कर्म अर्थ में वर्तमान च्यादि धातुओं के अन्त में द्विरुक्त व (व्व) का आगम विकल्प से होता है । जैसे :- चित्र, चिणिज्जइ ( चीयते ) इत्यादि । (२४) भाव और कर्म अर्थ में वर्तमान चित्र, हन और खन धातुओं के अन्त में द्विरुक्त म (म्म ) का आगम विकल्प से होता है एवं यक का लोप होता है । हन धातु के विषय में कर्ता अर्थ में भी द्विरुक्त म (म्म ) होता है । जैसे :- चिम्मइ, हम्मइ ( चीयते, हन्यते ) विशेष – शौरसेनी में यह नियम प्रवृत्त नहीं होता है । (२५) भाव और कर्म अर्थ में वर्तमान दुह, लिह, वह और रुध धातुओं के अन्त्य में द्विरुक्त म ( म्म अथवा किसी-किसी के मत से भ) विकल्प से होते हैं, यक का लोप भी होता है । जैसे :- दुब्भइ, दुहिज्जइ (दुह्यते ) इत्यादि । (२६) भाव और कर्म में वर्तमान गमादि धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्वित्व विकल्प से होता और यक का लोप भी होता है । जैसे :- गम्मइ, गमिज्जइ, हस्सइ, हसिज्जइ ( गम्यते, हस्यते ) विशेष – नीचे लिखे धातु नीचे लिखे अनुसार विशेष नियमों का अनुसरण करते हैं :-- सं० धातु दह वध सं+रुध अनु + रुध भावकर्म में प्रा० डाइ, डहिज्जइ इ, वंधिज्ज संरुब्भइ, संरुधिज्जड अण्णरुब्भइ, अणुरुधिज्जइ भावकर्ममें सं० दह्यते वध्यते संरुध्यते अनुरुध्यते Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्राकृत व्याकरण +रुध क्रियते भी 44 mi_on a ज्ञा . स्त्रिह उबरुह्यइ, उबरुधिन्नइ उपरुध्यते हीरइ, हरिनइ ह्रियते कृ कीरइ, करिजइ तीरइ, तरिज्जइ तीर्यते जीरइ, जरिजइ जीर्यते विढप्पइ, विढविज्जइ,अजिजइ अय॑ते Jणचइ, णजइ, जाणिज्जइ, ज्ञायते (णाइज्जइ वि+आ+ह वाहिप्पइ, वाहरिजइ व्याहियते आ+रभ आढप्पइ, आढवीअइ आरभ्यते सिप्पइ स्निह्यते सिंच सिप्पड़ सिच्यते ग्रह घेप्पइ, गण्हिजइ स्पृश छिप्पइ (२७) धातु के अन्त्य उवर्ण के स्थान में अव आदेश होता है । जैसे :-हु धातु का 'एहव' इत्यादि । (२८) धातु के अन्त्य ऋवर्ण के स्थान में 'अर' आदेश होता है । जैसे :-कृ का कर इत्यादि । विशेष-वृषादि के ऋकार का 'अरि' आदेश होता है । जैसे :-वृष का वरिस कृष का करिस इत्यादि । (२६) धातु के इवर्ण और उवर्ण का गुण होता है । जैसे :नेइ (नयति ), मोत्तुण ( मुक्त्वा ) । (३०) रुष आदि धातुओं के स्वर का दीर्घ होता है। जैसे:-रूसइ, पूसइ, सीसइ, तूसइ, दूसइ, (रुष्यति, पुष्णाति शिनष्टि, तुष्यति, दुष्यति) गृह्यते स्पृश्यते .. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय १२७ (३१ ) धातुओं में स्वरों के स्थान में अन्य स्वर बाहुल्येन होते हैं। जैसे :-हवइ,' हिवइ (भवति ); चिणइ,' चुणइ (चिनोति ); सद्दहणं, सहहाणं (श्रद्दधानम् ); धावइ, धुवइ ( धावति ); रुवइ, रोवइ (रोदिति) विशेष-बाहुल्येन कहने से-देइ, लेइ, विहेइ नासइ आदि प्रयोगों में नित्य ही धातु के एकस्वर के स्थान में दूसरा स्वर हुआ। (३२) कुछ संस्कृत धातुओं के प्राकृत रूपान्तर नीचे लिखे अनुसार होते हैं : संस्कृत धातु प्राकृत रूपान्तर कथ वज्जर, पज्जर, उप्पाल, पिसुण, संघ, बोल्ल, चव, जम्प, सीस, साह तथा दुःख अर्थ में णिव्वर। जुगुप्स झुण, दुगुच्छ, दुगुच्छ बुभुक्ष णीख पक्ष में बुहुक्ख ध्या झा . गा जाण, मुण उद् + ध्मा धुमा श्रद्धा दह (सदहइ) पा (पीने में) पिज्ज, डल्ल, पट्ट, घोट्ट उद्+वा ओरुम्वा, वसुआ नि+द्रा १. देखिए-भुवेर्होहुवहवाः । हेम. ४. ६० २. देखिए-इसी पुस्तक का ६. २२. ज्ञा ओहीर, उङ्घ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्राकृत व्याकरण आ +घ्रा आइग्घ अब्भुत्त ( कहीं कहीं अब्भुक्क) खा सम् +स्त्यै स्था उद्+स्था निर + मा क्षि ठा, थक्क, चिट्ठ, निरप्प ठ, कुक्कुर वा, पव्वाय निम्मण, निम्मव णिज्मर कहीं कहीं निब्भर और पक्ष में झिज्ज णुम, नू (णू) म, सन्नुम ढक्क, ओम्बाल पव्वाल णिहोड पक्ष में निवार णिहोड, पाड (पाडेइ) छादि दूम निवारि निपाति दू+ णिच धवलि तोलि विरेचि ताडि मिश्रि उद् + धूलि नश + णिच दुम, दूम, धवल ओहाम ओलुण्ड, उल्लुण्ड, पल्हत्थ, पक्ष में-विरेअई ओहोड, विहोड वीसाल, मेलव भ्रम + णिच विउड, नासव, हारव, विप्पगाल, पलाव पक्ष में नास तालिअण्ट, तमाड पक्ष में भाम, भमाड, भमाव दाव, दंश, दक्खव पक्ष में दरिस . उग्ग पक्ष में उग्घाड हश+णिच उद्+घाटि स्पृह + णिच सिह Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय १२६ अर्पि सं+भावि आसंघ उद्+नामि उत्थघ ( उत्थंघ ), उल्लाल, गुलुगुच्छ, उप्पेल, (किसी किसी के मत से उस्याव भी) प्र+स्थापि पट्ठव, पेण्डव, पठ्ठाव वि+ज्ञपि वोक, आवुक्क (हेमचन्द्र के अनुसार अवुक्क ), विण्णव अल्लिव, चच्चुप्प, पणाम, अप्प यापि जव, जाव प्लावि उम्वाल, पव्वाल, पाव विकोशि(नामधातुण्यन्त)पक्खोड (कसी २ के मत से परकोड) रोमन्थि उग्गाल (हेम०-ओग्गाल) वग्गोल, रोमंथ कामि णिहुव, काम प्र+काशि पुव्व, पआ (या)स कम्पि विच्छोल, कम्प आ+रोहि (पि) वल, रोव दोलि रङ्खोल, दोल ( मतान्तर से ढोल भी) राव, रञ्ज घट + णिच परिवाड, घड वेष्टि । परिआल, वेढ रञ्जि क्री किण वि+क्री भी आ+ली नि+ली क्के, किण, (विक्केइ, विक्कणइ) भा, बीह अल्ली (अलियइ, अल्लीणो) णिलीअ, णिलुक्क, णिरिग्घ, लुक्क, लिक्क, ल्हिक्क, निलिज विरा, विलिज वि+ली । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण 64600 रुञ्ज, रुएट, रव हण, सुण धूव, धुण हो, हुव, हव, हु,' णिबड, हू, हुप्प कुण, कर, णिआर, णिठुह संदाण, वावम्फ, णिच्चोल या णिव्वोल,' पयल्ल, पइल्ल, णीलुच्छ" कम्म, गुलल १. विद्वर्जित प्रत्यय के आने पर भू के स्थान में हुआदेश विकल्प से होता है । हेम. ४. ६१. २. पृथक् होना और स्पष्ट होना अर्थ में णिध्वड आदेश होता है । हेम. ४. ६२. ३. क्त प्रत्यय के पर में रहने पर ह आदेश होता है। हेम. ४. ६४. ४. प्रभु होना अर्थ में प्र उपसर्ग पूर्व में रहने पर भू के स्थान में हुप्प विकल्प से होता है । हेम. ४. ६३. ५. काणेक्षित अर्थ में । देखो-'काणेक्षिते णिधारः।' हेम. ४. ६६. ६. निष्टभ्भ और अवष्टम्भ अर्थों में क्रमशः गिठ्ठह और संदाण आदेश होते हैं । देखो-'निष्टम्भावष्टम्भे....' हेम. ४. ६७. ७. श्रम अर्थ में । देखो-'श्रमे वावम्फः ।' हेम. ४. ६८. ८. क्रोध से ओठ मलिन करने अर्थ में। देखो-'मन्युनौष्ठमालिन्ये..." हेम. ४. ६९. :. शिथिल होना या लम्बा पड़ना अर्थ में। देखो-'शैथिल्यलम्बने..' हेम. ४. ७०. १०. निप्पात और श्राच्छोटन में । हेम. ४. ७१. ११. क्षौरकर्म में । हेम. ४. ७२ १२. चाटुकरण में । हेम. ४. ७३. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ स्मृ वि+स्मृ वि+आ+ह मुच षष्ठ अध्याय कर, कूर (हेमचन्द्र के मत से मर और झूर ), भर, भल, लढ, विम्हर, सुमर, पयर, पम्हुह, सर पम्हुस, विम्हर, वीसर कोक, पोक, वाहर छड्ड, अवहेड, मेल्ल, (हेमचन्द्र के मत से उसिक्क भी) रे अव, जिल्लुञ्छ, धंसाड, णिव्वल' वेहव, वेलव, जूख, उमच्छ रणह (हेम० के मत से उग्गह) अवह, विडविड्डु, उनहत्थ' सारव, समार और केलाय सिञ्च, सिम्प | पक्ष में से पुच्छ वञ्च रच सिच प्रच्छ गर्ज बुक्क, ढिक राज प्र+मृ नि+मृ रग्घ, छह्य, सह, रीर, रेह, राय पयल्ल, उवेल्ल, महमह नीहर ( हेम० के अनुसार णीहर), नील, धाड, वरहाड | पक्ष में नीसर जग्ग | पक्ष में जागर आजड्ड । पक्ष में वावर जागृ वि + आ + पृ १. दुःखमोचन अर्थ में । देखो-'दुःखे णिव्वलः ।' हेम० ४. ९२. २. उवहत्य से केलाय तक जितने आदेश हैं सम् और पूर्वक रच के स्थान में विकल्प से होते हैं । देखो हेम० ४. ९५. ३. वृषभ के गर्जन अर्थ में । देखो-'वृषे ढिकः।' हेम० ४. ९९. ४. गन्ध-प्रसार में। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सं+ वृ० आ+ प्र+ह अव + त शक त्यज पारि (पृ+ णिच्) फक्क श्लाघ खच पच मस्ज पुञ्ज लज्ज उद्+विज तिज मृज प्राकृत व्याकरण साहर, साहट्ट | पक्ष में संवर सन्नाम | पक्ष में आदर सार | पक्ष में पहर ओह, ओरस | पक्ष में ओअर .. चय, तर, तीर, पार | पक्ष में सक्क चय तर पार थक्क | किसी के मत से छक्क सलह वेअड | पक्ष में खच सोल्ल, पउल अथवा पउल्ल | पक्ष में पअ . आउड्ड, णिउड्ड, वुड्ड, खुप्प आरोल, वमाल | पक्ष में पुंज जीह | पक्ष में लज्ज उव्विव ओसुक्क उग्घुस, लुब्छ, पुञ्छ, पुंस, फुस, पुस, लुह, हुल, रोसाण वेमय, मुसुमूर, मूर, सूर, सूड, विर, पवि. रञ्ज, करञ्ज, नीरञ्ज वच्च पडिअग्ग, अणुवञ्च विढव, अज्ज . जुञ्ज, जुज्ज, जुप्प भुञ्ज, जिम, जेम, कम्म, अण्ह, समाण, चड्ड कम्मव भञ्ज ब्रज ग अनु + ब्रज अर्ज युज भुज . उप+भुज Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट सं + घट स्फुट मण्ड तुड घूर्ण नृत क्वथ ग्रन्थ मन्थ ह्रद और ह्लाद नि + सद छिद आ + छिद विद मृद स्पन्द निर्+ पद वि सं + वद शद आ + ऋन्द खिद षष्ठ अध्याय गढ । पक्ष में घड संगल | पक्ष में संघड फुट्ट, फुंड, मुर चिच, चिचिअ, चिचिल्ल, रीड, टिविडिक्क तोड, तुट्ट, खुट्ट, खुड, उखुड, उल्लुक, णिलुक्क, लुक्क, उल्लूर घुल, घोल, नश्च अट्ट, कढ गण्ठ विरोल, अवअच्छ गुमज्ज दुहाव, णिच्छल्ल, णिज्भोड, णिव्वर, पिल्लूर, लूर, छिन्द ओअन्द, उद्दाल घुल्ल, पहल्ल १३३ घुसल विज्ज मल, मढ, परिहट्ट, खड्ड, चड्डू, मड्डु, पन्नाड अथवा परणाड १. हास से विकसने अर्थ में । चुलुचुलु, फन्द निव्वल, निष्पज्ज विअट्ट, विलोट्ट, फंस और पक्ष में विसंवय झड, पक्खोड णीहर | पक्ष में अक्कन्द जूर, विसूर | पक्ष में खिज्ज Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन १३४ प्राकृत व्याकरण रुध उत्थव या उत्तङ्घ । पक्ष में रुन्ध नि+सिध हक्क | पक्ष में निसेह ऋध जूर | पक्ष में कुज्झ जा, जम्म तड, तड्डु, तडव, विरल्ल और तण तृप्त थिप्प उप+मृप अल्लिअ | पक्ष में उवसप्प सं+तप झंख | पक्ष में संतप्प वि+आप ओअग्ग। पक्ष में वाव सं+आप समाण | पक्ष में समाव क्षिप गलत्थ, अडुक्ख, सोल्ल, पेल्ल, णोल्ल, छुह, हुल, परी, धत्त । पक्ष में खिव उद्+क्षिप' गुलगुञ्छ, उत्थंघ, अल्लत्थ, उन्भुत्त, उस्सिक, हक्खुव | पक्ष में उक्खिव आ + क्षिप णीरव | पक्ष में अक्खिव स्वप कमवस, लिस, लोट्ट | पक्ष में सुञ्ज वेप आयम्ब, आयज्झ | पक्ष में वेव वि+ लप झंख, वडवड | पक्ष में विलव लिप लिम्प गुप विर, णड | पक्ष में गुप्प कृप अवहाव' प्र+दीप तेअव, सन्दुम, सन्धुक्क, अन्भुत्त और पक्ष में पलीव संभांव | पक्ष में लुब्भ खडर, पड्डुह । पक्ष में खुम्भ १. अवहावेइ = कृपां करोतीत्यर्थः । हेम० ४. १५१. लुम क्षुम Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्भ गम षष्ठ अध्याय १३५ आ+रभ आरंभ, आढव | पक्ष में आरभ उप, आ + लंभ झंख, पञ्चार, वेलव | पक्ष में उवालम्भ जम्मा नम णिसुढ' । पक्ष में णव वि + श्रम णिव्वा | पक्ष में वीसम आ+क्रम ओहाव, उत्थार, छन्द | पक्ष में अक्कम भ्रम टिरिटिल्ल, दुण्दुल्ल, ढण्ढल्ल, चकम्म, भम्मड, भमड,भमाड,तलअएट, झण्ट, झम्प,भुम, गुम, फुम, फुस, ढुम, दुस, परी, पर, भम अई, अइच्छ, अणुवज्ज, अवज्जस, उक्कुस, अक्कुस, पञ्चड्ड, पच्छन्द, णिम्मह, णी, णीण, णीलुक्क, पद रंभ, परिअल्ल, वोल, परिअल, णिरिणास, णिवह, अवसेह, अवहर, गच्छ, अहिपच्चुअ, अभिड, संगच्छ, उम्मत्थ, अब्भागच्छ, पलोट्ट पञ्चागच्छ पडिसा, परिसाम | पक्ष में सम संखुडु, खेड्डु, उब्भाव, किलिकिञ्च, कोटुम, मोट्टाय, णीसर, वेल्ल और पक्ष में रम १. वि पूर्व में रहने पर उक्त आदेश नहीं होते हैं । देखो-'अवेर्जुम्भो जम्भा ।' हेम० ४. १५७ में अवेरिति किम् ? केलिपसरो विम्भइ । २. भाराकान्त कर्ता में। ३. भार पूर्वक गम का उक्त आदेश होता है। ४. सम् पूर्वक गम का उक्त आदेश होता है। ५. अभि और श्राद पूर्वक गम का उक्त आदेश होता है। ६. प्रति और श्रान पूर्वक गम का उक्त आदेश होता है। शम रम Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण अग्घाड, अग्घव, उधुम, अमुम, अहिरेम पक्ष में पूर तुअर, जअड, तूर, तुर क्षर खिर, झर, पज्झर, पञ्चड,णिञ्चल, णिटुअ चल चल्ल, चल उच्छल उत्थल वि+गल थिप्प, णिटुह दल विसट्ट, दल वल वम्फ, वल मील मिल्ल, मील भ्रंश फिड, फिट्ट, फुड, फुट्ट, चुक, भुल्ल पक्ष में भस नश णिरणास, णिवह, अवसेह, पडिसा, सेह, अवहर । पक्ष में नस्स अव + काश ओआस सं+दिश अप्पाह दृश निअच्छ, पेच्छ, अवयच्छ, अवयज्झ, वज, सव्वव, देवख, ओअक्ख, अवअक्ख, पुलोअ, निअ, अवआस फास, फंस, फरिस, छिव, छिह, आलुङ, आलिह प्र+ विश रिअ । पक्ष में पविस प्र+मृष पम्हुस १. त्यादि और शतृप्रत्ययों के पर में रहने पर तूर होता है। जैसे :-तूरई, तूरन्तो। . २. त्यादि से भिन्न में तुर होता है । जैसे तुरिश्रो, तुरन्तो । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय काङ्क प्र+मुष पम्हुस पिष णिवह, णिरिणास, णिरिणज, रोश्च, चड, पीस भुक्क, भस कृष कड्ढ, साअड्ढ, अञ्च, अणच्छ, आयब्छ, आइञ्छ, करिस, अक्खोड' गवेष ढुण्दुल्ल, ढण्ढोल, गमेस, घत्त, गवेस श्लिष सामग्ग, अवयास, परिअंत। पक्ष में सिलेस म्रक्ष चोप्पड, मक्ख आह, अहिलङ्घ, अहिलङ्घ, वञ्च, वम्फ, मह, सिह, विलुम्प प्रति + ईक्ष सामय, विहीर, विरमाल | पक्ष में पडिक्ख तक्ष तच्छ, चच्छ, रम्प, रम्फ, तक्ख वि+कस कोआस, वोसट्ट, विअस हस गुञ्ज, हस स्रंस ल्हस, डिम्भ, संस त्रस डर, बोज, वज्ज नि+ अस णिम, गुम परि+अस पलोट्ट, पल्लट्ट, पल्हत्थ विर+श्वस झंख, नीसस उंद् + लस ऊसल, सुम्म, जिल्लस, पुल्लआश्र, गुञ्जोल्ल, आरोअ, उल्लस भिस, भास प्रस घिस, गस अव+गाह ओवाह ( उगाह), ओगाह ( उगाह) १. म्यान से तलवार खींचने अर्थ में । भास Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आ + रुह मुह दह ग्रह प्राकृत व्याकरण चड, वलग्ग, आरुह गुम्म, गुम्मड, मुज्झ अहिऊल, आलुङ्ख, डह बिह, हर, पङ्ग, निरुवार, अहिपचअ, बुध क्रुध सद घेत्' बोत पच ( ३३ ) क्त्वा, तुम और तव्य के पर में रहने पर रुद, भुज और मुच धातुओं के अन्त्य वर्ण का त होता है। जैसे :- रोण, रोक्तं, रोत्तन्वं; भोन्ण, भोत्तं, भोत्तव्वं मोन्तूण, मोतं, मोत्तव्यं । (३४) भूत और भविष्यत् काल के प्रत्ययों एवं तवा, तुम और तव्य के पर में रहने पर कृ धातु का 'का' आदेश होता है । (३५) कुछ संस्कृत धातुओं के निम्नलिखित प्राकृत आदेश होते हैं : संस्कृत इष अस भिद प्राकृत इच्छ अच्छ भिंद बुह्य कुह्य सड संस्कृत यम छिद बढ संवेल्ल युध गृध सिध प्राकृत जच्छ छिंद जुह्य गिह्य सिह्य पत वृध वेष्ट संवेष्ट उद् + वेष्ट वेल्ल, उ ( ३६ ) खाद और धाव धातुओं के होता है । जैसे :- खाइ, खाअइ; धाइ, धाअइ (खादति, धावति ) अन्त्य वर्ण का लुक् 1 पड वेड १. २. केवल क्त्वा, तुम और तव्य के पर में रहने पर उक्त आदेश होता है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत षष्ठ अध्याय १३६. (३७) मृज धातु के अन्त्य वर्ण का 'र' आदेश होता है । जैसे:-सिरह ( सृजति) (३८) शक आदि धातुओं के अन्त्य अक्षर का द्वित्व होता है । जैसे:-सक्क, लग्ग, कुप्प, नस्स इत्यादि । (३६) क्त प्रत्यय के सहित तत्तद् सोपसर्ग अथवा निरुपसर्ग धातुओं के स्थान में नीचे लिखे अफुण्ण आदि आदेश होते हैं : संस्कृत आक्रान्तः अफुण्णो उत्कृष्टम् उक्कोसं स्पष्टम् अतिक्रान्तः वोलीणो विकसितः वीसहो (वोसट्टो) लुग्गो नष्टः विल्हक्को प्रमृष्टः पम्हट्टो अर्जितम् विढतं स्पृष्टम् छित्तं त्यक्तम् जढं क्षिप्तम् ह्मासि आस्वादितम् चक्खि स्थापितम् निमिश्र इत्यादि रुग्णः १. तुलना कीजिए-अवधी के 'फुरे कहत हई' से। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय [ कुछ विशिष्ट पद] ' प्राकृत के विशेष-विशेष पदों की सिद्धि के लिए विभिन्न प्राकृत व्याकरणों में विशेष-विशेष नियम दिये गये हैं। हम यहाँ उनके विशेष रूप बतला रहे हैं। पादटिप्पणी में विशेष सूत्रों का भी यथासम्भव उल्लेख किया जा रहा है। प्राकृत संस्कृत अगणी, अग्गी' अग्निः अंकोल्लो अकोठः अङ्गारः अच्छेरं, अञ्चरिअं ) अच्छरिअं, अच्छअरं ४ आश्चर्यम् अच्छरिजं, अच्छरीअं) अलचपुरं अचलपुरम् अलसी अतसी अङ्गारो १. स्नेहाग्न्योर्वा । हेम० २. १०२. २. अकोठे लः । हेम० १. २००. ३. पक्वाङ्गारललाटे वा । हेम० १. ४७. से इ के अभाव पक्ष में । ४. वल्ल्युत्करपर्यन्ताश्चर्य वा । हेम० १. ५८. आश्चर्ये । हेम० २.६६. अतो रिपाइ-रिज-रीअं । हेम० २. ६७. ५. अचलपुरे चलोः। हेम० २. ११८. ६. अतसी-सातवाहने लः । हेम० १. २११. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय: १४१ अणिउत्तयं, अणितयं अतिमुक्तकम् अन्तेउर अन्तःपुरम् अन्तेआरी अन्तश्चारी अन्नन्नं, अनुन्नं अन्योन्यम अप्पा, अत्ता आत्मा अम्बं आम्रम् अज्जो आर्यः अहिमजू , अहिमञ्जु , अहिमन्नू । अभिमन्युः अहूं, अद्धं अर्द्धम् अणं ऋणम् अरहो, अरहो, अरिहो" अर्हः अरुहंतो, अरहंतो, अरिहंतो१२ अलाऊ, अलाउं अलावुः १. 'यमुनाचामुण्डा'...........' हेम० १. १७८. क्वचिन्न भवति । अइमुतयं, अइमुत्तयं । २-३. तोऽन्तरि । हेम० १. ६०. ४. 'श्रोतोऽद्वान्योन्य......' हेम० १. १५६. ५. श्रात्मनि पः । वर० ३. ४८. ६. ताम्राने म्बः । हेम० २. ५६. । ह्रस्वः संयोगे । हेम० १.८४. ७. द्य-य्य-यों जः । हेम० २. २४. । ह्रस्वः संयोगे । हेम० १.८४ ८. अभिमन्यौ जी वा । हेम० २. २५. ९. श्रद्धर्द्धिमृोर्धन्ते वा । हेम० २. ४१. १०. ऋतोऽत् । हेम. १. १२६. ११. उच्चाहति । हेम० २. १११. १२. उच्चाहेति । हेम० २. १११. १३. वालाब्बरण्ये लुक । हेम० १. ६६. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अडो, अवडो' अवह अरह अट्ठी* अल्लं, अद्द आफंसो आओ, आओ" आइरिओ, आओरिओ' आओज्जं ' आढिओ" आमेलो" आढतो, आरो प्राकृत व्याकरण 93 आणालं '३ अवटः अवहृतम् अष्टादश अस्थि आर्द्रम अस्पर्शः आगतः आचार्यः आतोद्यम् आहतः आपीड: आरब्धः आलानम् १. यावत्तावज्जीवित।वर्तमानावटप्राचारक देवकुलैवमेवे वः । हेम० १.२२१ २. प्रार्ष प्रयोग है । ३. ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे । हेम ० २. ३४ । संख्यागद्दे रः । हे० १.२१९ ४. ठोऽस्थि विसंस्थुले । हे० २. ३२. ५. उदोद्वा । हेम० १. ८२. ६. 'स्पृशः फासफंस .... हे० ४. १८२. ७. व्याकरणप्राकारागते कगोः । हेम० १. २६८. ८. श्राचार्ये चोऽच्च । हेम० १.७३. ९० द्यय्य-यजः । हेम० २. २४. १०. श्रादृते ढिः । हेम० १. १४३. ११. एत्पीयूषापीड विभीतककीदृशे दृशे । हेम० १. १०५. आपेलो, आवेडो ये दो रूप भी देखे जाते हैं। देखो - नीपापीडे मो वा । हेम० १. २३४ आमेलो, मेडो । १२. 'मलिनोभयशुक्तिछुप्तारब्ध" .." हेम० १.१३८, १३. आालाने लनोः । हेम० २.११७. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ सप्तम अध्याय आली' आली आत्तमाणो, आवत्तमाणो आवर्तमानः आसोसय (आसीसा) आशीः आलिळं, आलिद्धं आश्लिष्टम् अङ्गारः इङ्गालो ईषत् ईसि इआणी इत्तिों इदानीम् एतावत् ऋद्धिः इड्ढी ' इक्खू " उच्च उक्करो, उक्केरो उच्चस् उत्करः १. ओदाल्यां पङ्क्तौ । हेम० १. ८३ के अभाव में । २. 'तस्य धूर्तादौ। हेम० २. ३०। 'यावत्तावज्जीवितावर्तमान..." हेम० १. २७१. ३. गोणादयः । हेम० २. १७४ ४. पाश्लिष्टे लधौ । हेम० २. ४९. ५. पक्वाङ्गारललाटे वा । हेम० १. ४७. ६. शिथिलेऽङ्गुदे वा । हेम० १. ८९. ७. गौणस्य...' हेम० २. १२९. के अभाव पक्ष में ईसि होता है। ८. यत्तदेतदोतोरित्तित्र एतल्लुक् च । हेम० २. १५६. ९. इत्कृपादौ । हे० १. १२८. १०. प्रवासीक्षौ । हे० १. ९५ के अभाव में । ११. उच्चै चैस्यैत्रः । हेम० १. १५४. १२. 'वल्ल्युत्कर".' हेम० १. ५८. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ . प्राकृत व्याकरण उच्छवो उत्सवः उत्थारो, उच्छाहो उत्साहः उसुओ, उच्छुओ उत्सुकः उम्बरो, उडम्बरो उदुम्बरः उलूखलं, ओक्खलं' उलूखलम् उव्वीढं, उव्वूढं उद्द्व्यूढम् उवरि उपरि उन्भ, उद्धं ऊर्ध्वम् उसहो ऋषभः, वृषभः ऋजुः ऋतुः आद्रम् उल्लेइ१३ आद्रयति ऊसारो आसारः उज्ज उऊ, उद११ उल्लं१२ १. सामोत्सुकोत्सवे वा । हेम० २. २२ २. वोत्साहे थो हश्च रः । हेम० २. ४८. ३. सामर्थ्योत्सुकोत्सवे वा । हेम० २. २२. ४. 'दुर्गादेव्युदुम्बर''.' हेम० १. २७०. ५. 'न वा मयूख.." हेम० १. १७१. ६. ईर्वोद्व्यूढे । हेम० १. १२० ७. वोपरौ। हेम० १. १०८. अवरिं भी होता है । पकाव । ८. वो? । हेम० २. ५९. ९. उदृत्वादौ । हेम० १. १३१. । वृषभे वा । हेम० १. १३३. १०-११. उदृत्वादौ । हेम० १. १३१ । रि का अभाव । देखो हेम० १. १४१. १२-१३. उदोद्वा । हेम १. ८२. १४, ऊद्वासारे । हेम० १. ७६., Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय १४५ - उच्छू ऊसवो इक्षुः उत्सवः एक्कारो अयस्कारः एङ्गि, एत्ताहे" इदानीम् एरिसो ईशः एआरह एकादश एकसि, एकसिअं, एक्कईआ, एगआ एकदा एरावणो ऐरावतः अयि ओल्लेइ आर्द्रयति ओसढं, ओसह, औषधम् ओली आली (लिः) कउहं, ककुधं२ ककुदम् ककुहा ककुप कण्डुअणं कण्डूयनम् १. प्रवासीक्षौ । हेम० १. ९५. २. छ का अभाव । देखो-सामोत्सुकोत्सवे वा । हेम० २. २२. ३. 'स्थबिरविचकिलायस्कार..' हेम० १. ६६. ४. एहिं एताहे इदानीमः । हेम० २. १३४. ५. 'एत्पीयूष... १. १०५. ६. वेलादः सि सिधे इआ। हेम० २. १६२.. ७. ऐतः एत् । हेम० १. १४८, ८. अयो वेत् । हेम० १. १६९. ९. उदोद्वा । हेम० १. ८२, १०. वौषधे । हेम० १. २२७. ११. श्रोदाल्यां पंक्तौ । हेम० १. ८३. १२. ककुदे हः । हे० १. २२५. १३. ककुभो हः । हेम० १. २१. । 'कउहा' भी देखा जाता है। १४. उद्धृहनूमत्कण्डूयवातूले । हेम० १. १२१. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयम् १४६ प्राकृत व्याकरण कामे कतमः कइवाह, कइअर कडणं, कअणं कदनम् कलम्बो, कअम्बो कदम्ब कवटि कदर्थितम् कअलं, केलं, केली, करली कदलम् , कदली कण्डलिआ कन्दरिका कमंधो, कअंधो कबन्धः कणवीरो' करवीरः कणेरू" करेणू कण्णेरो, कण्णिआरो कर्णिकारः कामुकः काहावणो, कहावणो' कार्षापणः काउंओ१२ १. मध्यमकतमे द्वितीयस्य । हेम० १. ४८. २. डाहवौ कतिपये । हेम० १. २५०, ३. दशन-दष्ट दग्ध दोला दण्ड-दर-दाह दम्भ दर्भ-कदन-दोहदे दो वा डः । हेम० १. २१७. ४. कदम्बे वा । हेम० १. २२२. ५. कदर्थिते वः । हेम० २२४. ६. कदल्पामद्रुमे । हेम० १. २२०. । वा कदले । हेम० १. १६७. ७. कन्दरिकाभिन्दिपाले ण्डः । हेम० २. ३८. ८. कबन्धे मयौ । हेम० १. २३९. ९. करवीरे णः । हेम० १. २५३. १०. करेणूवाराणस्योः । हेम० २. ११६ ११. वेतः कर्णिकारे । हेम० १. १६८. कर्णिकारे वा। हेम० २. ९५. १२. 'यमुनाचामुण्डा".' हेम० १. १७८. १३. कार्षापणे । हेम० २.७१. ह्रस्वः संयोगे । हेम० १. ८४. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालासं, कालाअसं' कम्हारो कंसुअं, केसुअं, किंअं, किसु करिआ * किसलं, किसलअ" किलिणं रिसो सप्तम अध्याय कोहलं, कोऊहलं, को उहल्लं, कुऊहलं कुब्ज (पुष्प अर्थ में ) कोहण्डी, कोहली, कोहडी " कोप्पर ११ किची " ९. कालायसम् काश्मीरः .. किंशुकम् क्रिया किसलयम् क्लिन्नम् कीदृशः कुतूहलम् कुब्जम् कुष्माण्डी कूर्परम् कृत्तिः १. 'किसलयकालायस .... हेम० १. २६९. काश्मीरे । हेम ० १. १००. २. ३. किंशुके वा । हेम० १. ८६ । मांसादेव । हे म० १.२९. ४. 'र्हश्रीह्रीकृत्स्न' हेम० २. १०४. ५. ‘किसलयकालायस हे० १.२६९. । ६. लातू । हेम० २. १०६. . ७. दृशः क्विप्टक्सकः । हेम० १. १४२. । 'एत् पीयूषापीड.. हे० १. १०५. ८. कुतूहले वा ह्रस्वश्च । हेम० १. ११७. । 'न वा मयूख' हेम ० १. १७१. । हेम० २. ९९. १४७ कुब्जकर्परकीले कः खोऽपुष्पे । हे० १. १८१. पुष्पे पर्युदास से ख का प्रभाव | ..." १०. श्रोत्कुष्माण्डी हेम० १.१२४. । 'कुष्माण्ड्यां ११. श्रोत्कुष्माण्डीतूणीर कूर्पर. हेम० १. १२४. १२. कृत्तिचत्वरे चः । हे० २.१२. ..." हेम० २.७२. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसरम् १४८ प्राकृत व्याकरण किसं, कसं कृशम् कसिणो, कसणो (रंग में) कृष्णः कण्हो (वासुदेव में) कसिणं (णो) कृत्स्नम् किसरं, केसरं केढवो कैटभः कुच्छेअअं, कौच्छेअअं कौक्षेयकम् कन्दो स्कन्दः खन्दो स्कन्दः खणो ( समय में ) क्षणः कपरम् क्षमा, क्षमा स्तम्भः खित्तं क्षिप्तम् खप्पर खमा खंभो१२ १. इत्कृपादौ । हेम० १२८. तथा ऋतोऽत् । हेम० १. १२६. २. कृष्णे वर्णे वा । हेम० २. ११०. ३. 'हश्रीही...' हेम० २. १०४. ४. 'एत इद्वा वेदना..' हेम० १. १४६. ५. कैटभे भो वः । हेम० १. २४०. ऐतः एत् । हेम० १. १४८. ' __'सटाशकटकैटभे.." १. १९६. ६. कौक्षेयके वा । हेम० १६१. ७. शुष्कस्कन्दे वा । हेम० २. ५. ८. कस्कयो नि । हेम० २. ४. पक्ष में 'कन्दो' होगा। ९. 'क्षः खः...' हेम० २. ३. १०. 'कुब्जकर्पर..' हेम० १, १८१. ११. क्षमायां कौ। हेम० २. १८. १२. स्तम्भे स्तो वा । हेम० २. ८. पक्ष में थम्भो होगा। १३. क्ष-ख । देखो-हेम० २. ३. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय खाणू' खसिओ, खइओ खुडिओ, खण्डिओ खल्लीडो खासि खीलओ खुजों खेडओ खेडिओ गेंदु गग्गरं१ गड्डो२ गड्डहो, गद्दहोश गम्भिणं१४ . स्थाणुः खचितः खण्डितम् खल्वाटः कासितम् । कीलकः कुब्जः वेटकः स्फेटिकः कन्दुकः गद्गदम् गतः गर्दभः गर्भितम् १. स्थाणावहरे । हेम० २. ७. २. 'खचित...' हेम० १. १९३. ३. 'वन्द्रखण्डिते..." हेम० १. ५३. ४. ईः स्त्यानखल्वाटे । हेम० १. १७४. ५. 'कुब्जकर्परकीले...' हेम० १. १८१. में देखो-आर्षेऽन्यत्रापि खासिअं। ६, ७. 'कुब्जकपरकीले...' हेम० १. १८१. ८, ९. दवेटकादौ । हेम० २. ६. १०. एच्छय्यादौ । हेम० १. ५७ तथा 'मरकतमदकले...' हेम० १. १८२. ११. संख्यागद्गदे ः। हेम० १. २१९. १२. गर्ते डः । हेम० २. ३५. १३. गर्दभे वा । हेम० २. ३७. १४. गर्भितातिमुक्तके णः । हेम० १. २०८. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०. . प्राकृत व्याकरण गउओ' गंभिरी गेा गलोई गहवई गवयः गाम्भीर्यम् प्राह्यम् गुडूची गृहपतिः गोदा, गोदावरी गौः (पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग में) गोला, गोआवरी गोणो, गउओ, गावो, गउआ, गावीश्रो, गावी गारवं, गउरवं गौरवम् घरं चविलो, चविडो चविडा, चवेडा चंदिमा चाउंडार गृहम् चपेटः चपेटा चन्द्रिका चामुण्डा १. गवये वः । हेम० १. ५४. २. एद् प्राथे। हेम० १. ७८. ३. 'श्रोत्कुष्माण्डी: हेम० १. १२४. ४. गृहस्य घरोऽपतौ । हेम० २. १४४. में देखो-अपतौ पर्युदास । ५. गोला, गोपावरी इति तु गोदागोदावरीभ्यां सिद्धम् । देखो__गोणादयः । हेम० २. १७४. ६. गव्यउ आअः । हेम० १. १५८. तथा गोणादयः । हेम० २.१७४. ७. पाच गौरवे । हेम० १. १६३. ८. गृहस्य घरोऽपतो । हेम० २. १४४. पा. घरो। ९, १०. चपेटापाटौ वा। हेम० १. १९८ तथा 'एत इद्वा वेदना चपेटा...' हेम० १. १४६. ? ११. चन्द्रिकायां मः । हेम०१. १८५. १२. 'यमुनाचामुण्डा...' हेम० १. १७८. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चइत्तं' चोरिअं चोग्गुणो, चउग्गुणो चोट्ठो (त्थो ), चउट्ठो (त्थो ) चोट्ठी (त्थी ), चउट्ठी (त्थी ) ̈ चोह, चउद्द चोदसी, चउदसी चोव्वारं, चउव्वारं सप्तम अध्याय चचर चिहुरं" चुच्छं" चिलाओ १२ चिन्धं, चिह्न छणो ( उत्सव में ) १४ 93 चैत्यम् चौर्यम् चतुर्गुणः चतुर्थः चतुर्थी चतुर्दश चतुर्दशी चतुर्वारम् ... चत्वरम् चिकुरः तुच्छ म् किरातः चिह्नम् क्षणः १. त्योऽचैत्ये । हेम० २. १३. के अभाव में । ...) २. 'स्याद्भव्य' हेम० २, १०७. ३. 'न वा मयूख' हेम० १. १७१. ४, ५. 'न वा मयूख हेम० २. ३३. हेम० १. १७१. तथा स्त्यानचतुर्थार्थे वा । ६, ७, ८. 'न वा मयूख हेम० १. १७१. ९. कृत्तिचत्वरे चः । हेम० २. १२. १५१ १०. निकषस्फटिकचिकुरे हः । हेम० १. १८६. ११. तुच्छे तश्चछौ । हेम० १. २०४. १२. किराते चः । हेम० १. १८३ तथा हरिद्रादौ लः । हेम० १. २५४. १३. चिह्ने न्घो वा । हेम० २.५०. १४. क्षण उत्सवे । हेम० २. २०. | Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ छमा ( पृथिवी में ) १ छूट" छीअं छुहा छत्तं, छिक्क छालो (ली ) छाहा (अनाप में ) छम छम्मं छडिओ' छुच्छ" छमी" - १२ प्राकृत व्याकरण छंमुहो छट्टो ' छट्ठी ४ 193 ) क्षमा, दमा क्षिप्तम् क्षुतम् क्षुधा क्षुप्तम् छाग: ( गी ) छाया. छद्म छर्दिक: तुच्छम् शमी षण्मुखः षष्ठः षष्ठी १. क्षमायां कौ । हेम० २. १८. २. 'वृक्षक्षिप्तयो ं' हेम० २. १२७. ई: क्षुते । हेम० १. ११२. ३. ४, ५. छोऽक्ष्यादौ । हेम० २. १७. तथा क्षुधो हा । हेम० १. १७. ६. छागे लः । हेम० १. १९१ ७. छायायां होऽकान्तौ वा । हेम० १. २४९ ८. पद्ममूर्खद्वारे वा । हेम० २.११२. ९. 'संमई..' हेम० २. ३६. १०. तुच्छे तचछौ । हेम० १. २०४. ११. 'षट्शमी..' हेम० १. २६५. १२. 'ञणनो..' हेम० १: २५ तथा हेम० १.२६५. - १३, १४. 'षट्शमीशाव..' हेम ० १. २६५. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तपर्णः सप्तम अध्याय छत्तिवण्णो, छत्तवण्णो' छिरा शिरा छुहा' सुधा छि स्पृहा जडिलो' जटिलः जम्मणं, जम्मो जन्म जिन्भा, जीहा जिह्वा जुण्णं, जिएणं जी जीविअं° जीआ१ ज्या जह, जहा यथा जउंणा'3 यमुना जीणम् जीवितम् जीवितम् १. सप्तवर्णे वा । हेम० १. ४९. तथा हेम० १. २६५. २, शिरायां वा । हेम० १. २६६. पक्ष में 'सिरा'। ३. षट्शमीशावसुधासप्तपर्णेष्वादेश्छः । हेम० १. २६५. ४. स्पृहायाम् । हेम० २. २३, ५. जटिले जो मो वा । हेम० १. १९४. ६. न्मो मः । हेम० २. ६१. तथा 'अन्त्य'.." हेम० १. ११. ७. 'ईर्जिह्वा..' हेम० १. ९२. तथा हो भो वा । हेम० २. ५७. ८. उजाणे । हेम० १. १०२. जुण्णसुरा । जिणे भोश्रण-मत्ते ९, १०. “यावत्तावज्जीविता..' हेम० १. २७१. ११. ज्यायामीत् । हेम० २. ११५. १२. 'वाव्ययोत्खाता..' हेम० १. ६७. १३. 'यमुनाचामुंडा...' हेम० १. १७८. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्राकृत व्याकरण जा, जाव, जित्ति जहुटिलो, जहिहिलो झडिलो झओ झुणि टगर टसरो" यावत युधिष्ठिरः जटिलः ध्वजः ध्वनिः तगरम् त्रसरः स्तम्भः स्त्यानम् स्तब्धः दोल: ठंभों ठीण ठहो डोलो डोहलो डाहो'३ दोहदः दाहः १. 'यावत्तावज्जीवितावर्तमाना...' हेम० १. २७१. तथा हेम० १.११ २. युधिष्ठिरे वा । हेम० १. ९६. तथा उतो मुकुलादिष्वत् । हेम० १. १०७. ३. जटिले जो झो वा । हेम० १. १९४. ४. त्वथ्वद्वध्वां चछजमाः क्वचित् । हेम० २. १५. ५. 'त्वथ्वद्वध्वां...' हेम० २.१५ तथा ध्वनिविष्वचो रुः। हम० १.५२. ६, ७. तगरत्रसरतूवरे टः । हेम० १. २०५. ८. थठावस्पन्दे । हेम० २. ९. ९. ई. स्त्यानखल्वाटे । हेम० १. ७४. १०, ११. स्तब्धे ठढौ । हेम० २. ३९. १२, १३. दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन दोहदे दो वा डः। हेम० १. २१७. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय . डट्टो' डसनर डरो ( भय में ) डंभो डंडो डढू (ड्ढो) णिवुत्तं, णिउत्तं, णिअत्तं णिसीढो, णिसीहो णिञ्चलो गुमण्णो, णिसण्णो णडालं, णिडालं, णलाडं तविअं, तत्तं२ दष्टः दशनम् दरः दम्भः दण्डः दग्धम् निवृत्तम् निशीथः निश्चलः निषण्णः ललाटम् तप्तम् ताम्रम् ताम्बूलम् तावत् तम्बं१३ तम्बोलं ता, ताव, तित्ति १. २. ३. ४. ५. ६. वही. ७. निवृत्तवृन्दारके वा । हेम० १.१३२. ८. निशीथपृथिव्योर्वा । हेम० १. २१६. ९. दुःखे णिच्चलः । हेम० ४. ९२ की पादटिप्पणी ५ देखो. १०. उमो निषण्णे । हेम. १. १७४. ११. ललाटे लडोः । हेम० २. १२३ तथा पक्काङ्गारललाटे वा । हेम. .. १, ४७. १२. शर्षतप्तवजे वा। हेम० २. १०५. १३. ह्रस्वः संयोगे । हेम० १. ८४. तथा ताम्राने म्बः । हेम० २. ५६. १४. 'श्रोत्कुष्माण्डी..."हेम० १. १२४. १५. 'यावत्तावज्जीविता..' हे० १. २७१. तथा 'यत्तदेतदो..." हेम. २. १५६. एवं १. ११. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ तित्तिरो तिरिच्छी तिक्खं, तिह 3 तेह, तूहं, तित्थं * तोणं, तूणं तोणी तूर तेरह " तेवीसा तेत्तीसा" तीसा " तेवण्णा १२ 93 प्राकृत व्याकरण ..... तित्तिरिः तिर्यक तीक्ष्णम् तीर्थम् ९, १०. वहो । ११. विंशत्यादेर्लुक् । हेम० - १. २८. १२. १३. 'स्तस्य थो ं.'' हेम ० २.४५ के से तंबो होता है । तूणम् तूणीरम् तूर्यम् त्रयोदश १. तित्तिरौ रः । हेम० १. ९० २ तिर्यचस्तिरिच्छः । हे० २.१४३. ३. 'सूक्ष्मश्न .., हेम ० २.७५. तथा तीक्ष्णे णः । हेम० २८२. ४. तीर्थे हे । हे० १. १०४. ह्रस्वः संयोगे । हेम० १.८४ तथा दुःख दक्षिणतीर्थे वा । हेम० २. ७२. ५. स्थूणातूणे वा । हेम० १. १२५. ६. 'श्रोत्कुष्माण्डी..' हेम० १. १२४. त्रयोविंशतिः त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशत् त्रिपञ्चाशत् स्तम्बः ७. 'ब्रह्मचर्यतूर्य'.'' हेम० २. ६३. ८. 'एत्रयोदशादौ' हेम ०१. १६५. संख्यागद्गदे रः । हेम० १. २१९ तथा हेम० १. २६२. गोणादयः । हेम० २.१७४. असमस्त स्तम्बे इस पर्युदास Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय तवो थेणो, थूणो स्तवः स्तनः स्तम्भः थंभो थवो स्तवः थी थेरो थीणं थाणू स्थविरः स्त्यानम् स्थाणुः स्थूणा स्थूलम् स्थैर्यम् थोणा, थूणा थोरं, थूलं (थुल्लो) थेरि तूवरः दुवरो२ दाढा दंष्ट्रा १. स्तवे वा । हेम० २. ४६. से थ के अभाव में । २. उः स्तेने वा । हेम० १४७. ३. 'स्तस्य थो...' हेम० २. ४५. ४. स्तवे वा । हेम० २. ४६. ५. स्त्रिया इत्थी । हेम० २. १३०. से 'इत्थी' के अभाव में । ६. स्थविरविचकिलायस्कारे । हेम० १. १६६. ७. स्त्यानचतुर्थार्थे वा । हेम० २. ३३. से ठ के अभाव में थीणं होता । है। तथा ई: स्त्यान-खल्वाटे । हेम. १. ७४. ८. स्थाणावहेर । हेम० २. ७. से हर अर्थ में ख के अभाव में थाणु होता है। ९. स्थूणातणे वा । हेम० १. १२५. १०. थुल्लो, थोरो (थेरो A.) सेवादौ वा । हेम० २. ९९. ११. स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात् । हेम० २. १०७. १२. हेमचन्द्र के अनुसार दुवरो रूप नहीं होता है । १३. दंष्ट्राया दाढा । हेम० २. १३९. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दडदें" दंडो दिण्ण दहो, द दंभो " दरो (अल्प में ) दस, दह दसणं दहमुहो, दसमुहो दो" दाहिणो, दक्खिणो" दाहो, दाघो" दिवहो, दिवसो 93 १. ' दशनदष्टदग्ध .. ३. इ: स्वप्नादौ । हेम० २.४३. प्राकृत व्याकरण 1 ..) १०. दुग्धम् दण्डः 'दत्तम् दनुजवधः दम्भः दरः दश दशनम् दशमुखः दष्टः दक्षिणः दाहः दिवस: ४. लुग्भाजनदनुज' हेम० १.२६७. ५. दशनदष्टदग्ध' हेम० १.२१७, से ड के अभाव में । ६. वही । ७. दशपाषाणे हः । हेम० १. २६२. हेम० १. २१७ से ड के प्रभाव में । २. वही । हेम० १. ४६. तथा पञ्चाशत्पञ्चदशदत्ते । ८. दशनदष्टदग्ध हेम० १.२१७ से ड के प्रभाव में । ९. श का वैकल्पिक ह । देखो - दशपाषाणे हः । हेम० १.२६२, • हेम० १.२१७. के प्रभाव में । ११. वैकल्पिक ह । दुःखदक्षिणतीर्थे वा । हेम० २.७२, तथा दीर्घ दक्षिणे हे । हेम ० १. ४५. १२. हो घोऽनुस्वारात् । क्वचिदननुस्वारादपि - दाघो । पक्षे हेम ० १. २६४. । १३. स का वैकल्पिक ह । दिवसे सः । हेम० १. १६३. दाहो । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय .१५६ दिग्धो, दीहो' दुहं, दुक्खं दुअल्लं, दुऊलं, दुगुल्लं दुग्गावी, दुग्गा-एवी दूहवो, दुहओ दीर्घः दुःखम् दुकूलम् दुर्गा देवी दुर्भगः दुष्कृतम् दुहिता हप्तः दुक्कड दुहि" देवरः दरिओ दिअरो, देअरो देउलं, देवउलं. देव्वं, दइव्वं, दइवं" 'दोहलो देवकुलम् देवम दोहदः १. हेम० २. ७९. तथा दीर्घ वा । हेम० २९१. २. वैकल्पिक ह । दुःखदक्षिणतीर्थे वा । हेम० २. ७२. ३. ऊकार का वैकल्पिक अत्व और लकार का द्वित्व । देखो-दुकूले वा लश्च द्विः । हेम० १. ११९ । आर्ष प्राकृत में दुगुल्लं होता है । ४. दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतनपादपीठेऽत्तर्दः । हेम० १. २७०. ५. लुकि दुरो वा। हेम० १. ११५. और ऊत्वे दुर्भगसुभगे वः । 'हेम० १. १९२. ६. प्रत्यादौ डः । आर्षे दुकडं । हेम० १. २०६. ७. 'दुहितृभगिन्योः ...' हेम० २. १२६ इससे 'धूआ' श्रादेश के अभाव में। ८. अरिहते । हेम० १. १४४. ९. एत इद्वा वेदनाचपेटादेवरकेसरे । हेम० १. १४६. १०. 'यावत्तावत्...' हेम० १.२७१. ११. एच्च दैवे । हेम० १. १५३. १२. प्रदीपिदोहदे लः । हेम० १. २२१. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्राकृत व्याकरण दोला' देरं, दुआरं, दारं, दुवार दिही धूआ दोला द्वारम धृतिः । दुहिता धनुः धात्री धिक धिगस्तु धणुहं, धणू धत्ती, धाई, धारी धिइ धिरत्थु धिई . धिट्ठो, धट्ठो घट्ठजणो धीरं, धि नत्तिओ, नत्तुओ२ धृतिः वृष्टद्युम्नः धैर्यम् १. 'दशनदष्टदग्धदोला..' हेम० १. २१७. से ड के अभाव में । २. द्वारे वा । हेम० १. ७९. पाछ ममूर्खद्वारे वा। हेम० २. ११२. ३. धृतेर्दिहिः । हेम० २. १३१. ४. धूआ, दुहिआ। 'दुहितृभगिन्योः ..' हेम० २. १२६. ५, धनुषो वा । हेम० १. २२. ६. धात्र्याम । हे० २. ८१. ह्रस्व से पहले ही रलोप होने पर धाई और पक्ष में धारी ये रूप होते हैं। ७. गोणादयः । हेम० २. १७४. . ८. धृतेर्दिहिः । हेम० २. १३१. इससे 'दिहि' के अभाव में । ९. मसृणमृगाङ्कमृत्युशृङ्गधृष्टे वा । हेम० १. १३०. तथा हेम० २. ३४. १०. धृष्टद्युम्ने णः । हेम० २. ९४. ११, ईधैर्ये । हेम० १. १५५. तथा धैर्ये वा । हेम० २. ६४. १२. 'इदुतौपृष्ठवृष्टि...' हेम० १. १३७. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोहलिआ ' निहसो निम्बो निसढो * डं, नीडं" नीमो, नीवो नीमी, नीवी" ८ नेर नारइओ' नेउरं, निउरं, नूउरं" नापिओ " निज्झरो १२ 92 सप्तम अध्याय ..3 नवफलिका निकष: निम्ब: निषधः नीडम् नीपः नीवि: नैरयिकः नारकिकः नूपुरम् नापित: निर्भर: १. श्रोत्तर हेम० १. १७०. २. निकषस्फटिकचिकुरे हः । हेम ० १ १८६. ३. निम्बनापिते लहं वा । हेम० १. २३०. इसके अभाव में । १६१ ४. निषधे धो ढः । हेम० १.२२६. ५. नोडपीठे वा । हेम० १. १०६. ६. नीपापीडे मो वा । हेम० १.२३४. ७. स्वप्ननीव्योर्वा । हेम० १.२५९, ८. ९. कथं नेरइओ, नारइभो ? नैरयिक-नारकिकशब्दयोर्भविष्यति । देखो -द्वारे वा । हेम० १.७९. १०. इतौ नूपुरे वा । हेम० १. १२३. ११. निम्बनापिते लहं वा । हेम० १. २३० से ०ह के अभाव में । तथा हेम० १. १७७. १२. द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः । हेम० २. ९०. ११ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्राकृत व्याकरण नमोकारो नीचर नावा पक, पिक" : पण्णरह पञ्चावण्णा, पण्णण्णा पण्णासा पडाया पट्टणं पाइको, पाआई" पोम्म, पउमं, पम्म२ पहो नमस्कारः नीचः नौः पक्कम् पक्ष्म पञ्चदश पञ्चपञ्चाशत् पञ्चाशत् पताका पत्तनम् पदातिः पद्मम् पन्था १. 'नमस्कार"" हेम० १. ६२. २. उच्चैर्नीचस्यै भः । हेम० १. १५४. ३. नाण्यावः । हेम. १. १६४. ४. पक्काङ्गारललाटे वा । हेम. १. ४७. ५. पक्ष्म-श्म-म-स्म-ह्मा म्हः । हेम० २. ७४. ६. पश्चाशत्पश्चदशदत्ते । हेम० २. ४३. ७. गोमादयः । हेम० २. १७४. ८. पञ्चाशत्पञ्चदशदत्ते। २. ४३. ९. प्रत्यादी डः । हेम० १.२०६. १०. 'वृत्तप्रवृत्त....' हेम० २. २९. ११. 'मलिनोभय शुक्ति....' हेम० २. १३८. . . १२. श्रोत्पझे। हेम० १. ६१. 'पद्म-छम...' हेम० २. ११२. १३. 'पथि पृथिवी.... हेम० १. ८८. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्यायः परोप्पर परस्परम् पारकं, पारिक, पारकेरं, पाराकेर । परकीयम् पेरन्तो, पज्जन्तो पर्यन्तः पल्लट्ट, पल्लत्थं . पर्यस्तम् पल्लाणं, पडायाणं पर्याणम् पलिअं, पलिल पलितम् पल्लङ्कों, पलिअंको पल्यङ्कः पाअवडणं, पावडणं. पादपतनम् पावीडं, पाअवीड पादपीठम् पहिहो° पान्थः (पथिकः) पापर्द्धिः पारद्धी १. 'नमस्कारपरस्परे..." हेम० १. ६२.. २. 'परराजभ्या ..." हेम० २.१४८. ३. एतः पर्यन्ते । हेम० २. ६५. ४. पर्यस्ते थठौ। हेम० २. ४७ तथा 'पर्यस्तपर्याण...' हेम० २. ६८. ५. पर्याणे डा वा । हेम० १. २५२. 'पर्यस्तपर्याण...' हेम० २. ६८ ६. पलिते वा । हेम० १. २१२. ०७. पल्लको इति च पल्यङ्कशब्दस्य यलोपे द्वित्वे च । पलिअंको इत्यपि चौर्यसमत्वात् । देखो-पर्यस्तपर्याणसौकुमार्ये लः। हेम० २.६८. ८. 'दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतन...' हेम० १. २७०. ९, 'दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतन" हेम० १. २७०. १०. पथोणस्येकट-पहिरो । हेम० २. १५२. ११. पापौ रः । हेम० १. २३५. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ . प्राकृत व्याकरण पारेवओ, पारावो' पाहाणो, पासाणो पिहढो, पिढरो पिउसिआ, पिउच्छा पिसल्लो, पिसाओं पेढं, पीढं पी पीवलं, पीपलं , पेउसं पुण्णामो पारावतः . पाषाणः . पिठरः . मितृष्वसा पिशाचः पीठम् पीतम् पीतलम् पीयूषम् पुरिसो पोप्पलं१२ पुन्नागः पुरुषः पूगफलम् पूगफली पोप्पली १. पारावते रो वा । हेम० १. ८०. २. दशपाषाणो हः । हेम० १. २६२. ३. पिठरे हो वा रश्च डः । हेम० १. २०१. ... ४. मातृपितुः स्वसुः सिपाछौ । हेम० २. १४२. ५. 'खचितपिशाचयोः..." हेम १. १९३. ६. नीडपीठे वा । हेम. १. १०६. ७. ल इति किम् ? पीअं । देखो-पीते वो ले वा । हेम० १. २१३. ८. पीते वो ले वा । हेम० १. २१३. तथा विद्युत्पत्रपीतान्धालः । हेम० २. १७३. ९. 'एत्पीयूष.." हेम० १. १०५. . . १०. पुन्नागभागिन्योर्गो मः । हेम० १. १९०. ११. पुरुषे रोः। हेम० १. १११. १२. 'श्रोत्पतरवदर'..' हेम० १. १७०. १३. वही। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वम् सप्तम अध्याय १६५ पोरो' पूतरः पुरिमं, पुवं.. पिधं, पिह, पुधं, पुहं पृथक पुहई, पुढवी, पुहवी' पृथिवी पउरिसं पौरुषम् । पवट्ठो, पउट्ठो प्रकोष्ठः पइण्णा प्रतिज्ञा पइट्ठा प्रतिष्ठा पडंसुआ प्रतिश्रुत् पईवं. प्रतीपम् पहो, पचुसो" प्रत्यूषः पुदम, पदुमं, पढमं, पढम प्रथमम् १. वही। २. पूर्वस्य पुरिमः । हेम० २. १३५. ३. 'इदुतोवृष्टवृष्टिः.." हेम. १. १३७. तथा पृथकि धो वा। हेम. १. १८८. ४. 'पथिपृथिवी...' हेम० १.८८. तथा उदृत्वादौ । हेम० १. १३१. ___ एवं निशीथपृथिव्योर्वा । हेम० १. २१६. ५. अउः पौरादी वा । हेम० १. १६२. ६. 'श्रोतोद्धान्योन्यप्रकोष्ठ... १. १५६. ७. ८. प्रायः कथन सेसनहीं हश्रा। देखो-प्रत्यादौडः। हेन० १.२०६. ९. प्रत्ययादौ डः । हेम० १. २०६. 'पचिपृथिवी...' हेम० १. ८८. तथा वकादावन्तः । हेम० १. २६. १०. प्रायः कथन से ड नहीं हुआ। देखो-प्रत्यादौ डा। हेम० १.२०६. ११. प्रत्यूषे षश्च हो वा । हेम.. २. १४. १२. प्रथमे पथोर्वा । हेम. १. ५५. तथा 'मेथिशिथिर...' हेम. १. २१५. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राकृत व्याकरण प्रवासी पावासू पअटुं. पउत्तं' . पसढिलं, पसिढिलं पारो, पाआरो" . पाहुई पांगुरणं, पाउरणं, पावरणं पावारओ, पारओ पलक्खो फणसो फलिहा" फलिहो प्रवृत्तम् प्रशिथिलम् प्राकारः प्रामृतम् प्रावरणम् प्रावारकः . प्रतः पनसः परिखा परिधः परुषः पारिभद्रः फरुसो१२ फालिहहो३ १. प्रवासीक्षौ । हेम० १. ९५. अतः समृद्धयादौ वा । हेम० १. ४४. २. उहत्वादी । हेम० १.१३१. तथा 'वृत्तप्रवृत्त...' हेम० २. २९.. ३. शिथिलेङ्गुदे वा । हेम० १.८९. . ४. 'व्याकरणप्राकारागते..' हेम० १. २६८. ५. उदृत्वादौ । हेम० १. १३१. तथा प्रत्यादौ डः । हेम० १. २०६. ६. प्रांवरणे अपवाऊ । हेम० १. १७५... ७. 'यावत्तावनीविता..' हेम०१. २७१.... . . ८. प्लने लात् । हेम० २: १०३. ९. 'पाटिपरुष...' हेम० १. २३२.. १०. वही तथा हरिद्रादी लः । हेम० १. २५४. ११. वही । १२. 'पाटिपरुष..' हेम० १. २३२. . . १३. वही तथा हरिद्रादौ लः । हेम० १. २५४. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय फलिहं' भइणी भरहो भवि भवन्तो भस्सं, भप्प भामिणी भाभणं, भाणं भारिआ ( पैशाची में) भिण्डिवालो भिष्फो१ भेडो१२ भसरो, भसलो भिउडी१४ स्फटिकम् ... भगिनी मरतः भव्यम् भवान् भस्म ... भागिनी भाजनम् भार्या भिन्दिपालः भीष्मः भेरः . भ्रमरः भ्रकुटिः .. . . १. स्फटिके लः हेम० १. १९७. तथा निकषस्फटिक..., हेम. १. १८६. फलिहो भी देखा जाता है। . ... .. २. 'दुहितृभगिन्योः ...' हेम० २. १२६. बहिणी के अभाव में. ३. वितस्तिवसतिभरत..." हेन० १. २१४. ४. 'स्याद्भव्य..." हेम. २. १०७. ५. गोणादयः । हेम.. २. १७४. ६. भस्मात्मनोः पो वा । हेम० २. ५१.: । ७. पुन्नागभागिन्योर्गो मः। हेम० १. १६०. ८. 'लुग्भाजनदनुज"" हेम० १,२६७. ' ९. 'यस्नष्टय..., हेम. ४. ३१४. . १०. कन्दरिकाभिन्दीपाले ण्डः । हेम० २. ३८. ११. भीष्मे ष्मः। हेम० २. ५४. १२. किरिभेरे रो डः। हेम० १. २५१. १३. भ्रमरे सो वा । हेम० १. २४४. १४. इ कुटौ। हेम० १. ११०. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ भुलया' भिन्मलो भयप्फइ, भयस्सई मघोणो अगल मम महो, माहो" महुअं, महू मोहरं, मणहरं प्राकृत व्याकरण मल्लू (न्तू ), मण्णू (न्तू)" मोहो, मऊहो" मोरो, मऊरो, मयुरो १२ भ्रूलता विह्वलः बृहस्पतिः ..." मघवान् मदकल: मध्यमः मध्याह्नः मधूकम् मनोहरम् मन्युः मयूखः मयूरः १. उ हनुमत्कण्डूयवातूले । हेम० १.१२१. २. वा विले वौ वध । हेम० २. ५८ पक्ष में विब्भलो, विहलो । ३. बृहस्पती बहो भयः । हेम० २. १३७. तथा बृहस्पतिवनस्पत्योः सो वा २. ६९. ष्पस्पयोः फः । हेम० २. ५३. ४. गोणादयः । हेम० २. १७४. ५. मरकतमदकले गः । हेम १. १८२. ६. मध्यमकत द्वितीयस्य । हेम० १.४८. ७. मध्याह्ने हः । हेम० २ ८४ तथा ह्रस्वः संयोगे । हेम० १.८४ ८. मधूके वा । हेम० १. १२२. ९. श्रोतोद्वान्योन्य हेम० १. १५६. १०. मन्यौ न्तो वा । हेम० २. ४४. ११. 'न वा मयूख ं ं.' हेम० १. १७१. १२. मोरो मउरो इति तु मोरमयूरशब्दाभ्यां सिद्धम् । देखो - हेम० १. १७१. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरग' मडि मइलं, मलिणं मसिणं, मसणं * महन्तो" मरहट्ठ मयन्दो माउसिया, माउच्छा' महुरिअं मञ्जरो, मज्जारो " मेरा " मुक्कं, मुत्तं मूसलं, मुसलं 93 ..9 .... सप्तम अध्याय .... " मरकतम् मर्द्दितम् मलिनम् १. 'मरकतमदकले' हेम० १. १८२. २. 'संमर्दवितर्दि हेम० २. ३६. ३. 'मलिनोभयशुक्ति' हेम० २.१३८. ४. ‘मसृणमृगाङ्क‘‘हेम० १.३०. ५. गोणादयः । हेम० १ १७४ ( मत्तूण महन्ता तवस्सन्ति । कुमा० पा० ७.५१ ) महाराष्ट्र । हेम० १. ६९. ८. मातृषितुः स्वसुः सिमा छौ । सेम० २. १४२. ९. खद्यथघभाम् । हेम० १. १८७. १०. मार्जारस्य मजरवजरौ । हेम० २.१३८. मिरायाम् । हेम० १.८७. ११. १२. 'शक्तमुक्तदष्ट हेम० २. २. १३. उत्सुभगमुसले वा । हेम० १. ११३. मसृणम् महान् महाराष्ट्रम् माकन्दः १६६ मातृष्वसा माधुर्यम् मार्जारः मिरा ( मर्यादा अर्थ में) मुक्तम् मुसलम् ७. गोणादयः । हेम० २. १७४. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० मुरुखो, मुक्खो' मुड्ढा, मुद्धा मोल्लं मूसओ मित्रांको, मअंको मडअ मट्टिआ मिश, मधू मिांगो, मुइंगो माउ, मउअं, माउक्कं " माउत्तणं, मउत्तणं, माउ" मुसा, मूसा, मोसा १२ ܘ प्राकृत व्याकरण .." १०. ७. ८. 'मसृणमृगाङ्कमृत्यु ९. इ: स्वप्नादी । हेम० हेम० १. १२७. मूर्ख: मूर्धा मूल्यम् मूसिक: मयङ्कः १. पद्मकद्ममूर्खद्वारे वा । हेम० १. ११२. २. श्रद्धर्द्धिमूर्धोऽर्धेन्ते वा । हेम० २. ४१. ३. 'श्रोत्कुष्माण्डी' हेम० ० १. १२४. " ४. 'पथि पृथिवी' हेम० १.८८. ५. 'मसृणमृगाङ्क'' म० १. १३०. प्रत्यादौ डः । हेम० १. २०६ । मडं 'वृत्तप्रवृत्तमृत्तिका'' ६. मृतकम् मृत्तिका मृत्युः मृदङ्गः मृदुकम् मृदुत्वम् मृषा म० २.२९.. हेम० १. १३०.. १. ४६. तथा 'इदुतौ वृष्टवृष्टि - आत्कृशामृदुकमृदुत्वे वा । हेम० १. १२७. तथा 'शक्तमुकदष्ट' हेम ० २. २. ११. वहीं । १२. उदोन्मृषि | हेम० १.१३६. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय १७१ मुसावाआ' मेढी मंस्सू मसाणं रणं, रत ... रअणं राइक, राअकेरं, रायक राउलं, राअउलं, राई, रत्ती रुएणं रुक्खो .. रणं२ रिच्छो, रिक्खो मृषावाक मेथिः श्मश्रु श्मशानम् रक्तम् रत्नम् राजकीयम् राजकुलम् रात्रिः रुदितम् वृक्षः अरण्यम् ऋक्षः १. वही। २. 'मेथिशिथिर'.." हेम० १. २१५. ३. वक्रादावन्तः। हेम० १.२६. तया 'आदेः श्मश्रु" हेम० २.८६. ४. वर० ३. ६. तथा श्रादेः श्मश्रुश्मशाने । हेम० २. ८६. ५. केन दिण्णादयः । वर० ८. ६२. ... ६. रयणं । 'क्ष्माश्लाघा...' हेम० २. १०१ तथा रअणं । 'क्लिष्ट शिष्ट..' वर० ३.६०. ७. परराजभ्यां कडिको च । हेम० २. १४८. . ..... ८. 'लुग्भाजनदनुजराजकुले..' हेम. १. २६७... . : ९. रात्री का। हेम. २. ८८ तथा हेम० २. ८...: . १०. क्तेन दिण्णादयः वर० ८. ६२. “११. वर० १.३२, ३.३१.; हेम० २. १२७: .. . १२. वालाचरण्ये लुक् । हेम० १. ६६. १३. रिः केवलस्य । हेम० १. १४० तथा ऋक्षे वा. हेम. २. १९. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७२ प्राकृत व्याकरण रिज रिजरे रिड्ढी, रिद्धी रिण रिसहो रिसी लहुरं लुको, लुग्गों लोण, लअणं' लाहलो" ऋजुः ऋतुः ऋद्धिः ऋणम् ऋषभः ऋषिः लघुकम् रुग्णः लवणम् लाहल लागलः यष्टिः निम्बः लांगलो" लट्ठी लिम्बो १. 'ऋणवृषभ...' हेम० १. १४१. २. वही। ३. रिः केवलस्य । हेम० १४०. ४. 'ऋणवृषभ..." हेम० १. १४१. ५. वही। ६. 'ऋणयषभ...' हेग० १. १४१. ७. लघुके लहोः । हेम० २. १२२. ८. 'शतमुकदष्टरुग्ण..." हेम. २. २. ९. न वा मयूख""हेम० १. १७१. १०. लाहललाललाङ्गले वादेर्णः । हेम० १. २५६. इससे ण के अभाव में ११. वही। १२. टस्यानुष्ष्ट्रेष्टासंदष्टे । हेम० २. ३४. तथा यष्टयां लः। हेम. १. २४७. १३. निम्बनापिते लण्हं वा । हेम १. २३०. . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय लाऊ' अलाबुः : लागलो लाङ्गलः ब एवं व वार बारह बइल्लो वम्हचेरं, वम्भचेरं, वह्मचरिअं बहिणी वम्महो वइरं, वज बुंद्र, वंद्र. वोरं वोरी द्वारम् द्वादश बलीवर्दः ब्रह्मचर्यम् भगिनी मन्मथः वज्रम् वन्द्रम् वदरम् वदरी १. वालाव्बरण्ये लुक् । हेम० १. ६६. २. लाहललाङ्गललागले वादेर्णः। हेम० १.२५६. इससे ण के अभाव में । ३. उत्वाभाव । देखो-हेम० २. ११२. उत्वपक्ष में दुवारं होता है. ४. पशपाषाणो हः । हेम० १. २६२. तथा हेम० १. २१९.. ५. गोणादयः । हेम० २. १७४. ६. 'स्याद्भव्य...' हेम० २. १०७. हेम० २. ९३. हेम० २. ७४. हेम. २. ६३. ७. दुहितृभगिन्योधूना-बहिण्यो । हेम० २. १२६. . ८. मन्मथे वः । हेम० १. २४२. ९. शर्षतप्तवज्रे वा । हेम० २. १०५. १०. चन्द्रखण्डिते णा वा । हेम० १. ५३. ११. 'श्रोत्पूतरवदर...' हेम० १. १७६. १२. वही. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्यम् वल्ली वाउलो वारूप २७४ प्राकृत व्याकरण वणस्सई, वनफई वनस्पतिः विलया, वणिदा वनिता वरिअं वेल्ली, वल्ली वसही वसतिः वाहि, वाहिर वहिष वातूलः वाणारसी वाराणसी वाहो (नेत्र जल में) वाप्पो (धूम में) वीसा विंशतिः वेइल्लं, विअइल्लं" विचकिल्लं विच्छडो२ विच्छर्दः १. बृहस्पतिवनस्पत्योः सो वा । हेम २. ६९. तथा पस्पयोः फः। हे. २. ५३. २. वनिताया विलया। हेम २. १२०. ३. 'स्याद्भच्यचैत्य हेम० २. १०७. ४. 'वल्ल्युत्कर..' हेम० १. ५८.. ५. वितस्तिवसति'.."हेम. १.२१४. ६. वहिषो वाहि-वाहिरौ । हेम० २. १४०. ७. उधूं-हनूमत्कण्डूयवातूले । हेम० १. १२६. ८. 'करेणुवाराणस्यो...' हेम० २. ११६. ९. वाष्पे होऽणि । हेम० २. ७०. . १०. ईजिहा..." हेम० १. ९२. तथा हेम. १. २८. ११. 'स्थविरविचकिला...' हेम० १. १६६. १२. 'संमर्दवितर्दिविच्छर्द...' हेम० २. ३६. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विअड्डी' विअड्ढो हेडअडो वीसंभो वसुं वीसत्थ विसढो, विसमो विसंकुलं विहणो, विहीणो विब्भलो, विहलो " वीरिअं " वच्छो" वहं ( हो 93 सप्तम अध्याय .. सर्वत्र ५. 'लुप्तयव 'ध्वनि..' हेम० १. ५२. वितर्द्धिः विदग्धः विभीतक: विश्रम्भ: विष्वक विश्वस्तः १. वही । २. ' दग्धविदग्ध..' हेम० २.४०. ३. 'एत्पीयूषापीडविभीतक हेम० १. १०५.; १.८८; १. २०६. रामचन्द्रे | हेम० २. ७९. तथा हेम० १.४३. ४. ' हेम० १. ४३. वा स्वरे मश्च । हेम० १. २४. तथा ६. 'लुप्तयरव.." हेम० १.४३. ७. विषमे मो ढो वा । हेम० १. २४१. ८. ठोऽस्थिविसंस्थुले । हेम० २. ३२. ९. ऊनविहोने वा । हेम० १. १०३. . १०. वा विहले चौ वच । हेम० २. ५८. विषमः विसंष्ठुलं विहीनः विह्वलः वीर्यम् वृक्षः वृत्तम् १७५ ११. 'स्याद्भव्य' हेम० २. १०७. . १२. रुक्ख आदेश का अभाव । देखो - हेम० २.१२७. १३. ' वृत्तप्रवृत्त..' हेम० २.२९. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ प्राकृत व्याकरण वृद्धः वृद्धिः वृत्तम् वृन्दारकः वृश्चिकः वृषभः वुड्ढो' वुड्ढी वेण्टं, वोण्टं, विण्ट वुन्दारओ' विछुओ, विच्छुओ, विंचुओ,) विछिओं वसहो विटुं, बुढे विट्टी, वुट्ठी वडुयरं विहप्फई, वुहप्फई, वहप्फई। वहस्सई, वुहस्सई वेल वेडिसो विअणा, वेअणा' वृष्टम् वृष्टिः बृहत्तरम् बृहस्पतिः वेणुः वेतसः वेदना १. उहत्वादौ । हेम० १. १३१. तथा हेम २. ४०. २. वही। ३. इदेदोवृन्ते । हेम० १. १३९. ४. विवृत्तवृन्दारके वा । वुन्दारया, वन्दारया । हेम० १. १३२. ५. वृश्चिके श्चक्षुर्वा । हेम० २. १६. तथा हेम० १. १२८. . ६. वृषभे वा वा । हेम० १. १३३. तथा हेम. १. १२६. ७. 'इदुतौ वृष्टवृष्टिः.." हेम० १. १३७. ८. वही। ९. गोणादयः । हेम० २. १७४. १०. वा बृहस्पतीः । हेम. १. १३८., २. १३७., २. ६९. २. ५३. ११. वेणौ णो वा । हेम० १. २०३. १२. इस्वप्नादौ । हेम० १. ४६. इत्वे वेतसे । हेम० १. २०.७ १३. 'एत इद्वा वेदना...' हेम० १. १४६. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय १७५ वेरुलिअं वैदूर्यम् (वैडूर्यम्) . वारणं, वापरण व्याकरणम् वावडो व्यापृतः विउस्सग्गो व्युत्सर्गः वोसिरणं" व्युत्सर्जनम् सअर्ड शकटम् सक्को, सत्तो सणिअगे शश्वरः समरो' शवरः सुवओ शावकः सारंगं शाङ्गम् सिढिलं, सढिलं' शिथिलम् सिरोवेअणा, सिरविअणा१२ शिरोवेदना सीभरो, सीहरो, सीअरो3 शीकरः शक्तः १. वैडूर्यस्य वेरुलिअं । हेम० २. १३३. २. व्याकरणप्राकारागते कगोः । हेम० १. २६८. ३. प्रत्यादौ डः । हेम० १. २०६. ४. गोणादयः । हेम० २. १७४. ५. वही । ६. 'कगचजतदप...' हेम. १. १७७. सयढं। 'सटाशकट" __ हेम० १. १९६. ७. 'शक्तमुक्त...' हेम २. २. ८. इत्सैन्धवशनैश्चरे । हेम० १. १४९. सणिच्छरोभी देखा जाता है। ९. शवरे वो मः हेम० १. २५८. १०. शाङ्गं.."हेम• २. १००. ११. शिथिलेजदे वा । हेम० १. ८९. तथा हेम० १. २१५. १२. श्रोतोद्वान्योन्य..' हेम० १. १५६. १३. शीकरे भहौ वा । हेम० १. १८४. १२ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्राकृत व्याकरण सिप्पी' शुक्तिः सुङ्ग, सुक्क शुक्लं, शुल्कम् सिंगं, संग शृङ्गम् संकलं' शृङ्खलम् सोडी शौण्डीर्यम् सोरिश्र शौर्यम् सा, साणों श्वा सीआणं, सुसाणं श्मशानम् श्यामाकः सलाहा श्लाघा सेलिफो, सेलिम्हो" श्लेष्मा सटा सामओ सढा२ १.मलिनोभयशुक्ति...' हेम० २. १३८. २. शुक्ले हो वा । हेम० २. ११. ३. 'मसृणमृगाङ्कमृत्युशृङ्ग.." हेम० १. १३०. ४. शृङ्खले खः कः । हेम० १. १८९. ५. 'ब्रह्मचर्यतूर्यसौन्दर्यशौण्डीय..' हेम० २. ६३. । ६. स्याद् भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात् । हेम० २. १०७. ७. श्वनशब्दस्य तु सा साणो इति प्रयोगौ भवतः । देखो-ध्वनि विष्वचो रुः । हेम० १. ५२. ८. आर्षे श्मशानशब्दस्य सीधाणं सुसाणं इत्यपि भवति । देखो हेम० २. ८६. ९. श्यामाके मः । हेम० १. ७१. ' १०. 'क्ष्माश्लाघा..' हेम. २. १०१, ११. लात् । हेम. २. १०६; सेफो, सिलिम्हो २. ५५. १२. सटाशकटकैटभे ढः। हेम० १९६. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय सत्तरी सत्तरह समत्थो संमडो समत्त सररुहं, सरोरुह सव्यंगिओ सक्खिणो सालवाहनों सज्झसं सामच्छ, सामत्थं" सुण्हा सीहो, सिंघो3 सप्ततिः सप्तदश समर्थः संमर्दः समस्तम् सरोरुहम् सर्वाङ्गीणः साक्षी सातवाहनः साध्वसम् सामर्थ्यम् साना सिंहः १. सप्ततौ रः । हेम० १. २१०. २. संख्यागद्गदे रः । हेम० १. २१९. ३. हेम. २. ७९ ४. 'संमर्दीवतदि..." हेम० २.३६. ५. असमस्तस्तम्ब इति किम् ? समतो, तंबो । देखो-हेम० २. ४५. ६. 'श्रोतोद्वान्योन्य...' हेम० १. १५६. ७. सर्वाङ्गादौनस्येकः । हेम० २. १५१. ८. गोणादयः । हेम० २. १७४.. ९. अतसीसातवाहने लः । हेम० १. २११. १०. साध्वसध्यह्यां मः । हेम० २. २६. ११. सामोत्सुकोत्सवे वा । हेम० २. २२. १२. उः सास्नास्तावके । हेम० १. ७५. १३. मांसादेर्वा । हेम० १. २९, १. ९२, तथा १. २६४. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्राकृत व्याकरण सिंहदत्तः सिंहराजः सुकुमारः सुकृतम् सुभगः सूक्ष्म सिंहदत्तो' सिंहराओ सोमालो, सुउमालो, सुकुमालो सुकडं (आर्ष में ) सूहवो, सुहवों सुण्हं, सोह, सुहम ( आर्ष में ) सूरिओ सूआसो सिंधर्व सिण्णं, सेण्णं सणिद्धं, सिणिद्धं सुण्हा, सुसा२ सिआ3 सूर्यः सोच्छासः सैन्धवम् सैन्यम् स्निग्धम् स्नुषा स्यात् १. बहुलाधिकारात्क्वचिन्न भवति । देखो-हेम० १. ९२. २. वही। ३. 'न वा मयूख...' हेम १. १७१. ४. प्रत्यादौ डः । हेम० १. २०६. ५. 'ऊत्वे दुर्भगसुभगे...' हेम० १. १९२ तथा हेम० १. ११३. ६. अदूतः सूक्ष्मे वा । हेम० १. ११८. तथा २. ७५. ७. 'स्याद्भव्यचैत्य...' हेम० २. १०७. ८. ऊत्सोच्छ्वासे । हेम० १. १५७. . ९. इत्सैन्धवशनैश्चरे । हेम० १. १४९, १०. सैन्ये वा । हेम० १. १५० तथा अइदैत्यादौ च । हेम० १.१५१. साइन्नं भी होता है। ११. स्निग्धे वादितौ । हेम० २. १०९. १२. स्नुषायां हो न वा । हेम० १. २६१. १३. स्याद् भव्य.." हेम० २.१०७. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ सप्तम अध्याय सिविणो, सिमिणो' स्वप्नः हामन्तो हनूमान् हीरो, हरो हडडई, इरडई हरीतकी हलिआरो, हरिआलों हरितालः हलद्दी, हलिद्दी, हलहा हरिद्रा हरिअंदो हरिश्चन्द्रः हूणो, हीणो हीनः हिअं, हिअअं हृदयम् १. इः स्वप्नादौ । हेम० १. ४६, हेम० १. २५९. तथा स्वप्ने नात् ___ हेम० २. १०. २. उद्धृहनूमत्कण्डूयवातूले । हेम० १२१. तथा हेम० २. १५९. ३. ईहरे वा । हेम० १. ५१. ४. हरीतक्यामीतोऽत् । हेम० १. ९९. ५. 'हरिताले....' हेम० २. १२१. ६. हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये । देखो 'पथिपृथिवी..' हेम० १. ८८. ७. श्चो हरिश्चन्द्रे हेम० २. ८७. ८. ऊहींनविहीने वा। हेम० १. १०३. ९. इत्कृपादौ । हेम० १. १२८. तथा किसलयकालायसहृदये यः । हेम० १. २६९. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय [शौरसेनी] (१) 'प्रकृतिः संस्कृतम्" इस उक्ति के अनुसार शौरसेनी में जितने भी शब्द आते हैं, उनकी प्रकृति संस्कृत है। (२) शौरसेनी में अनादि में वर्तमान असंयुक्त त का द आदेश होता है । जैसे :-मारुदिणा मन्तिदो (त का द); एदाहि, एदाओ ( एतस्मात् ) - विशेष-( क ) संयुक्त होने के कारण अजउत्त और सउन्तले में त का द नहीं हुआ। ( ख ) आदि में होने के कारण 'तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि' में तधा और तस्स के तकारों का द नहीं हुआ। (३) लक्ष्य के अनुरोध से शौरसेनी में वर्णान्तर के अधः (बाद में) वर्तमान त का द होता है। जैसे :-महन्दो, निश्चिन्दो, अन्दे-उरं ( महान्तः, निश्चिन्तः, अन्तःपुरम् )। विशेष-उक्त नियम संयुक्त त के विषय में क्वाचित्क है । (४) शौरसेनी में तावत् शब्द के आदि तकार का दकार विकल्प से होता है । जैसे :-दाव, ताव ( तावत्)। (५) शौरसेनी में इन्नन्त शब्द से आमन्त्रण ( सम्बोधन की प्रथमा विभक्ति ) के सु के पर में रहने पर पूर्व के 'इन्' के. १. देखो-हेम० १. १. की वृत्ति तथा वर० १२. २. .. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १८३ न का आकार विकल्प से होता है। जैसे :-भो कञ्चइआ (भो कचुकिन् }; सुहिआ (सुखिन् ) अन्यत्र भो तवस्सि (भो तपस्विन् ); भो मणस्सि ( भो मनस्विन )। (६) शौरसेनी में आमन्त्रणवाले सु के पर में रहने पर पूर्ववाले नकारान्त शब्द के न के स्थान में विकल्प से म होता है। जैसे :-भो रायं ( भो राजन् ); भो विअयवम्म (भो विजयवर्मन् ) अन्यत्र भयव हुदवह ( भगवन् हुतवह ) होता है। (७) शौरसेनी में भवत् और भगवत् शब्दों से सुविभक्ति के पर में रहने पर पूर्व के नकार का मकार होता है। जैसे:एदु भवं, समणे भगवं महावीरे । पजलितो भयवं हुदासणो। (८) शौरसेनी में र्य के स्थान में य्य आदेश विकल्प से होता है । जैसे :-अय्यउत्त पय्याकुली कदम्हि (आर्यपुत्र पर्याकुलीकृतास्मि); सुय्यो (सूर्यः) पक्ष में अजो (आर्यः), पज्जाउलो (पर्याकुलः ); कज्जपरवसो (कार्यपरवशः)। ___ (६) शौरसेनी में थ के स्थान में ध विकल्प से होता है। जैसे :-णाधो, णाहो, कधं, कह; राजपधो, राजपहो (नाथः, कथं, राजपथः)। (१०) शौरसेनी में 'इह' और 'हच्" आदेश के हकार के स्थान में ध विकल्प से होता है। जैसे :-इध (इह); होध (होह =भवथ ); परित्तायध (परित्तायह = परित्रायध्वे )। (११) शौरसेनी में भू धातु के हकार का भ आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-भोदि, होदि (भवति)। १. मध्यम पुरुष के बहुवचन में इत्था और ह अथवा त्य होते हैं। देइस पुस्तक के छठे अध्याय के वर्तमानकाल के प्रत्ययों में मध्यम पुरुष तथा हेम० ३. १४३. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ प्राकृत व्याकरण (१२) शौरसेनी में पूर्व शब्द का 'पुरव' यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-अपुरवं नाड्यं; अपुरवागदं (अपूर्व नाट्यम् अपूर्वागतम् ); पक्ष में अपुव्वं पदं, अपुव्वागदं (अपूर्व पदम् , अपूर्वागतम्)। (१३) शौरसेनी में स्वा प्रत्यय के स्थान में इप और दूण ये आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे:-भविय, भोदूण; हविय, होदूण; पढिय, पढिदूण; रमिय, रन्दूण | पक्ष में-भोत्ता, होत्ता, पढित्ता, रन्ता। . विशेष-वररुचि ( १२. ६ ) के अनुसार केवल इय होता है। _ (१४) शौरसेनी में कृ और गम धातुओं से पर में आनेवाले क्वा प्रत्यय के स्थान में अडुअ (किसी किसी पुस्तक के अनुसार अदुअ) आदेश विकल्प से होता है। और धातु के टि का लोप हो जाता है। जैसे :-कडुअ, गडुअ । पक्ष मेंकरिय, करिदूण; गच्छिय, गच्छिदूण | विशेष-वररुचि ( १२. १०.) के अनुसार दुअ होता है। (१५) शौरसेनी में त्यादि के आदेश' इ और ए के स्थान में दि आदेश होता है । जैसे :-नेदि, देदि, भोदि, होदि । (१६) अकार से पर में यदि नियम १५ वाले इ और ए हों तो उनके स्थान में दे और दि ये दोनों आदेश होते हैं। जैसे:-अच्छदे, अच्छदि; गच्छदे, गच्छदि; रमदे, रमदि; किजदे, किन्जदि। १. देखो-इसी पुस्तक के छठे अध्याय के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन तथा इसी अध्याय का नियम ४ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १८५ (१७) शौरसेनी में भविष्यत् अर्थ में विहित प्रत्यय के पर में रहने पर स्सि होता है । जैसे :-भविस्सिदि. करिस्सिदि, गच्छिस्सिदि। विशेष-धातु और प्रत्ययों के बीच में आने के कारण 'स्सि' विकरण है। __(१८ ) शौरसेनी में अत् से पर में आनेवाले सि के स्थान में आदो और आदु ये आदेश होते हैं और शब्द के टि (अ) का लोप होता है । जैसे:-दूरादो, दूरादु (दूरात् )। (१६) शौरसेनी में इदानीम् के स्थान में दाणिं यह आदेश होता है । जैसे :-अनन्तर करणीयं दाणिं आणेवदु अय्यो। विशेष-उक्त नियम साधारण प्राकृत में भी लागू होता देखा जाता है। (२०) शौरसेनी में तस्मात् के स्थान में ता आदेश होता है । जैसे :-ता जाव पविसामि | ता अलं एदिणा माणेण | ___ (२१) शौरसेनी में इत् और एत् के पर में रहने पर अन्त्य मकार के आगे णकार का आगम विकल्प से होता है। इकार के पर में जैसे :-जुत्तंणिमं, जुत्तमिमं, सरिसंणिमं, सरिसमिमं; एकार के पर में जैसे :-किंणेदं, किमेदं; एवंणेदं, एवमेदं । (२२) शौरसेनी में एव के अर्थ में य्येव यह निपात प्रयुक्त होता है । जैसे :-मम य्येव बम्भणस्स; सो य्येव एसो। (२३) चेटी के आह्वान अर्थ में शौरसेनी में हले इस निपात का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-हले चदुरिके। ' (२४) विस्मय और निर्वेद अर्थों में शौरसेनी में हीमाणहे इस निपात का प्रयोग किया जाता है । विस्मय में जैसे : Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ प्राकृत व्याकरण हीमाणहे जीवन्तवच्छा मे जणणी । निर्वेद में जैसे :-हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निपविधिणो दुव्ववसिदेण । (२५) शौरसेनी में ननु के अर्थ में णं यह निपात प्रयुक्त होता है । जैसे :-णं अफलोदया; णं अय्यमिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्तं, णं भवं मे अग्गदो चलदि । विशेष-आर्ष में णं का वाक्यालङ्कार में भी प्रयोग होता है । जैसे :-नमोत्थु णं जयाणं। (२६) शौरसेनी में हर्ष प्रकट करने के लिए अम्महे इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे :-अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं । (२७) शौरसेनी में विदूषक के हर्ष द्योतन में 'हीही' इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे :-हीही भो, संपन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स । (२८) शौरसेनी में व्यापृत शब्द के त का तथा कहीं-कहीं पुत्र शब्द के त का भी ड होता है। जैसे :-बावडो; पुडो पुत्तो (व्यापृतः, पुत्रः)। (२६) शौरसेनी में गृद्ध जैसे शब्दों के ऋकार का इकार होता है । जैसे :-गिद्धो ( गृध्रः)। (३०) ब्रह्मण्य, विज्ञ, यज्ञ, और कन्या शब्दों के ण्य, ज्ञ और न्य के स्थान में आ आदेश विकल्प से होता है। किन्तु पैशाची में यही कार्य नित्य ही होता है । जैसे:-ब्रह्मञ्जो, विञ्जो, जञ्जो और कञ्जा । पक्ष में बह्मण्णो, विण्णो, कण्णा (ब्रह्मण्यः, विज्ञः, कन्या)। (३१) शौरसेनी में सर्वज्ञ और इङ्गितज्ञ शब्दों के अन्त्य ज्ञ के स्थान में ण होता है। जैसे :-सवण्णो, इङ्गिअण्णो ( सर्वज्ञः, इङ्गितज्ञः)। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १८७ ( ३२ ) शौरसेनी में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान शब्दों से पर में आनेवाले जस और शस् के स्थान में णि आदेश और पूर्व स्वर का दीर्घ भी होता है । जैसे : ―वणाणि, घणाणि (वनानि, धनानि ) | ( ३३ ) शौरसेनी में तिङ् प्रत्ययों के पर में रहने पर भूधातु के स्थान में भो आदेश होता है । जैसे :- भोमि । विशेष – लृट् ( अर्थात् भविष्यत् काल के तिङ् ) के पर में रहने पर उक्त नियम लागू नहीं होता । जैसे :- भविस्सिदि । ( ३४ ) शौरसेनी में तिङ् के पर में रहने पर दा धातु के स्थान में दे आदेश होता है और केवल लृट् के पर में रहने पर दइस्स आदेश । सामान्यतः तिङ् में जैसे :- - देमि । लृट् के पर में रहने पर जैसे : —दइस्स । (३५) शौरसेनी में कृञ धातु के स्थान में कर आदेश होता है | जैसे :- करेमि | ( ३६ ) शौरसेनी में तिङ के पर में रहने पर स्था धातु के स्थान में चिट्ठ आदेश होता है । जैसे :- चिट्ठदि । '' ( ३७ ) शौरसेनी में ति के पर में रहने पर स्मृ, दृश और अस धातुओं के स्थान में क्रमशः सुमर, पेक्ख और अच्छ आदेश होते हैं । जैसे :- सुमरदि, पेक्खदि, अच्छन्ति ( स्मरति, पश्यति, सन्ति ) | ' विशेष – (क) तिप् के साथ अस धातु के सकार के स्थान में स्थि आदेश होता है । अस्थि । जैसे :- पसंसिदं णात्थि में वाआ-विहवो । (ख) भविष्यत् काल में मिप्-सहित अस के स्थान में विकल्प से स्सं आदेश होता है। पक्ष में धातु के स्वर का दीर्घत्क भी होता है । स्सं; आस्सं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ प्राकृत व्याकरण (३८) शौरसेनी में स्त्री शब्द के स्थान में 'इत्थी' आदेश होता है । जैसे : - इत्थी (स्त्री) । ( ३६ ) शौरसेनी में इव के स्थान में विअ आदेश होता है । जैसे :–विअ | (४०) जस् सहित अस्मद् के स्थान में वअं और अम्हे ये दोनों रूप शौरसेनी में होते हैं। जैसे :- अं और अम्हे ( वयम् ) " ( ४१ ) शौरसेनी में सर्वनाम शब्दों से पर में आनेवाली ( सप्तमी - एकवचन की ) ङि विभक्ति के स्थान में सित्वा आदेश होता है । जैसे :- सब्वसित्वा, इदर सित्वा (सर्वस्मिन् इतरस्मिन्) । ( ४२ ) शौरसेनी से भावकर्म और कर्ता अर्थों में धातु से परस्मैपद के ही प्रत्यय होते हैं । भाव जैसे :- किं दाणिं दासीपुत्ता ? दुभिवरुढरङ्क विभ उद्धकं सासाअसि एसा सा सेति । कर्ता में जैसे :- अज्ज वन्दामि । कर्म में जैसे :- दोजेव कामी अदि । (४३) आश्चर्य शब्द का अच्चरिअ रूप शौरसेनी में होता है । जैसे :- अहह, अञ्चरित्र अञ्चरिअं । (४४) शेष शब्दों के साधन प्राकृत अथवा महाराष्ट्री के अनुसार किये जाते हैं । प्राकृतसर्वस्त्र के अनुसार शौरसेनी के शब्द : शौरसेनी अउव्वं अगिम्मि अङ्गारो अहिमण्णू अव्वह्मणं अव्वह्मजं (अं) संस्कृत अपूर्वम् अग्नौ अङ्गारः अभिमन्युः अब्रह्मण्यम् विशेष निर्देश्य इत् का अभाव अ का अभाव Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १८९ इदो अअं रुक्खो अयं वृक्षः अमु जणो असौ जनः अमु वहू असौ वधूः अमु वणं अदो वनम् अदो कारणादो एतस्मात् (अमुष्मात् ) कारणात् अहं अहम् अम्हे वयं, अस्मान् अम्हं, अम्हाणं अस्माकम् इतः इअंबाला इयं बाला इणं धणं इदं धनम् इदं वणं इदं वनम् इङ्गिअज्जो ( जो) इङ्गितज्ञः ईदिसं ईदृशम् एत का अभाव उलूहलो उलूखलः ओत् का अभाव उवरि उपरि अत् का अभाव उत्थिदो उत्थितः ठ का अभाव एसो जणो एष जनः कधं कथम् कत्थ, कस्सि, कहि कस्मिन् म्मि नहीं हुआ कण्णआ कन्यका कज (अ) आ ) कबन्धः किंसुओ किंशुकः ओत्व का अभाव किरातो किरातः च का अभाव म्म र कबन्धो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण एत का अभाव हस्व का अभाव कीदिसं कुमारी कुदो कुम्हण्डो केसुओ कोदूहलं खणो खीरं गद्दहो चउट्ठी चउद्दही चिण्हं जधा जण्णसेणो जादिसं जुहुट्ठिरो दुज्ममाणो णईओ गणं तत्थ, तहि, तस्सि कीदृशम् कुमारी कुतः कुष्माण्ड: किंशुकः कौतूहलम् क्षण. क्षीरम् गर्दभः चतुर्थी चतुर्दशी ह का अभाव ओत्व का अभाव द्वित्व का अभाव छ का अभाव छ का अभाव उ का अभाव ओत् का अभाव ओत् का अभाव न्ध का अभाव ह्रस्व का अभाव चिह्नम् । अत् का अभाव यथा यज्ञसेनः यादृशम् युधिष्ठिरः दह्यमानः नद्यः नूनम् तस्मिन् ।' म्मि का अभाव त्वया, त्वयि हस्व का अभाव तधा तादिसं तुण्डं । ओत्व का अभाव तथा तादृशम् तुण्डम् वं अथवा त्वाम् यूयम् , युष्मान् युष्माभिः तुम तुम्हे तुम्हेहिं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १६१ द्वित्व का अभाव दश . देवम् इत् का अभाव अइ का अभाव तुम्हेहिन्तो युष्मभ्यम् तुम्हाणं युष्माकम् तुम्हेसु युष्मासु तुमोदा त्वत् तुम्ह, ते तव थूलं स्थूलम् दस, दह दसरहो दशरथः तव देअरो देवरः देव्वं नइए [ नद्या, नद्याः, । नद्याः, नद्याम् पओहो प्रकोष्ठः पासाणो पाषाणः पावो पापः पिण्डं पिदणा , पृतना पुरुसो पुरुषः पोक्खरं पुष्करम् पोक्खरणी पुष्करिणी फोडओ स्फोटकः भिन्दिवालो । भिण्डिवालो । भिन्दिपालः भाणुओ, भाणओ भानवः मए मया मंसं. मांसम् । षत्व का अभाव ष, ह का अभाव पिण्डम् एत्व का अभाव इत्व का अभाव तख का अभाव Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्राकृत व्याकरण मइ मऊरो प्रोत् का अभाव मत् मयि मयूरः मत् मम मधूकः मत् मातरम् मालाः मृतः मह, मम महूसो मत्तो, ममादो मादरं मालाओ मिओ ओत् का अभाव माम् मोत्ती रुक्खो लवणं लावण्यं वअरं कन्फो वयं मम मुक्ता वृक्षः लवणम् लावण्यम् ओत का अभाव ओत् का अभाव ओत् का अभाव ओत् का अभाव वदरम् वहुए वाष्पः वयम् वध्वा, वध्वाः, । वध्वाः, वध्वाम् वध्वः वालया, बालायाः, । बालयाः, बालायाम् वायौ वहूओ वालाए वाउम्मि विहप्फदी वेअणा वेदसो बृहस्पतिः वेदना वेतसः भ आदि का अभाव इत् का अभाव इत् का अभाव Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय १६३ वः (युष्मान् , युष्माकम् ) सहलं सफलम् सरिक्खं सक्षम् छ का अभाव सम्महो सम्मर्दः उ का अभाव प्राकृत सर्वस्व के अनुसार शौरसेनी में तिङन्त रूपों के नियम (४५) ( क ) धातुओं से परस्मैपद ही होते हैं। (ख ) तीनों कालों में प्रायः लट् लकार ही होता है। (ग) त्यादि के तकार का दकार होता है। (घ) बहुवचन में तकार का घकार होता । (छ) उत्तम पुरुष में म्ह होता है। (च) उत्तम पुरुष में मिप के साथ स्सम् ही होता है। (छ) ज, ज, हा, सोच्छं वोच्छं ये सब नहीं होते हैं। प्राकृतसर्वस्व के अनुसार शौरसेनी धातुं संस्कृत शौरसेनी सिद्ध क्रियापद भो और हो भोदि, होदि, क्त में भूदं दृश पेच्छ' पेच्छदि वुच्च वुच्चदि कधेदि जिग्घ जिग्यदि भा भाअ भादि मृज फुस फुसदि घुम्म घुम्मदि १. हेमचन्द्र के अनुसार पेक्ख आदेश होता है । देखो अष्टम अध्याय का नियम ३७ । कथ कध घा घूर्ण Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्राकृत व्याकरण भा गेण्ड शीङ सुआ रुध थुण थुणदि भादि पस पसदि चव्व चव्वदि गेण्डदि गेझ, घेप्प गेज्मदि, घेप्पदि शक सक्कुण, सक्क सक्कुणादि, सक्काद मिआअ मिआअदि उद्+स्था उत्थ उत्थेदि स्वप सुअ सुअदि सुआदि रोव रोवदि रोददि बुडदि दुध दुहीअ दुहीअदि उह्य वहीअ वहीअदि लिह्य लिहीअ लिहीअदि प्राकृतसर्वस्व के अनुसार नीचे लिखे शब्दों को भी शौरसेनी में जानना चाहिये। भिफ्फो ( भीष्मः), सत्तग्यो ( शत्रुघ्नः ), जेत्तिकं ( यावत् ', तेत्तिकं ( तावत् ), एत्तिकं ( एतावत् ), भट्टा । भर्ता) धूदा, दुहिदिआ (दुहिता), इत्थी (स्त्री), भादा, भदुओ (भ्राता, भ्रातरः), जामादा, जामादुओ (जामाता, जामातरः)। द्राक् अर्थ में दउत्ति, निश्चय अर्थ में क्खु और खुः इव के अर्थ में व्व एव के अर्थ में जव और जेव तथा ननु के अर्थ में णं प्रयुक्त होते हैं। 44 FTII महज Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय [ मागधी ] ( १ ) प्रकृतिः शौरसेनी ( वर० ११.२ ) इस वररुचि सूत्र के अनुसार मागधी की प्रकृति शौरसेनी मानी गई है । साथ ही साधारण प्राकृत के शब्द भी मागधी के मूल माने जाते हैं । ( २ ) मागधी में अदन्द पुंल्लिङ्ग शब्दों का प्रथमा के एकवचन में ओकारान्त रूप न होकर एकारान्त रूप होता है । जैसे :- एशे मेरो; एशे पुलिशे ( एष मेषः, एष पुरुषः ); करेमि भन्ते ( करोमि भदन्त ) | ― (३) भागधी में रेफ के स्थान में लकार और दन्त्य सकार के स्थान में तालव्य शकार होते हैं । रेफ का जैसे :नले, कत्ले ( नरः करः ), स का श जैसे :- हंशे ( हंस: ); दोनों का जैसे :- शालशे, पुलिशे ( सारसः पुरुषः ) | " ( ४ ) मागधी में यदि सकार और षकार ( अलग-अलग ) संयुक्त हों तो उनके स्थान में स होता है। ग्रीष्म शब्द में उक्त आदेश नहीं होता । संयुक्त सकार में जैसे :- पक्खलदि हस्ती (प्रस्खलति हस्ती ) बुहस्पदी ( बृहस्पत्तिः ) मस्कली ( मस्करी ), विस्मये ( विस्मय: ); संयुक्त षकार में जैसे :शुष्क- दालु ( शुष्कदारु ), कस्टं कष्टम् ), विस्नुं ( विष्णुम् ), उस्मा (ऊष्मा), निस्फलं (निष्फलम् ) धनुस्खण्डं ( धनुष्खण्डम् ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ प्राकृत व्याकरण विशेष—(क) उक्त नियम जहाँ लगता है, वहाँ संयोग के आगे-पीछे के वर्षों का लोप नहीं होता । (ख) ग्रीष्म शब्द में उक्त नियम के लागू नहीं होने से गिम्हवाशले ( ग्रीष्मवासरः ) होता है। (५) द्विरुक्त ट ( ) और षकार से आक्रान्त ( युक्त) ठकार के स्थान में मागधी में मृ आदेश होता है । दृ में जैसे :पस्टे ( पट्टः ), भस्टालिका ( भट्टारिका ), भमृणी ( भट्टिनी ), ष्ठ में जैसे:-शुस्टु कदं ( सुष्टु कृतम् ) कोस्टागालं ( कोष्ठागारम् )। (६) स्थ और र्थ इन दोनों के स्थान में मागधी में सकार से संयुक्त तकार होता है । स्थ में जैसे:- उवस्तिदे ( उपस्थितः), शुस्तिदे (सुस्थितः ); र्थ में जैसे:-अस्तवदी (अर्थवती ), शस्तवाहे (सार्थवाहः)। (७) मागधी में ज, द्य और य के स्थान में य आदेश होता है । ज का जैसे :-यणवदे ( जनपद: ), अय्युणे ( अर्जुनः ), दुय्यणे ( दुर्जन: ), गय्यदि ( गर्जति ); द्य का जैसे :-मय्यं ( मद्यम् ), अय्य किल विय्याहले आगदे - ( अद्य किल विद्याहर आगतः । ); य का जैसे :-यादि ( याति)। विशेष—इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय के चौदहवें नियम के बाधनार्थ य के स्थान में पुनः य का विधान किया जाता है। (८) मागधी में न्य, ण्य, ज्ञ और न इन संयुक्ताक्षरों के Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय - १६७ स्थान में द्विरुक्त ञ होता है । न्य का जैसे :-अहिम - कुमाले, ( अभिमन्युकुमारः ) कञकावलणं ( कन्यकावरणम् ); ण्य का जैसे :-अबम्हनं ( अब्रह्मण्यम् ), पुत्राहं (पुण्याहम् ); ज्ञ का जैसे :-पाविशाले (प्रज्ञाविशाल:) शव्वये ( सर्वज्ञः ), अवज्ञा ( अवज्ञा ); ञ्ज का जैसे :-असली ( अञ्जलिः ), धणजए (धनञ्जयः ), पबले ( पञ्जरः)। (६) मागधी में व्रज धातु के जकार का ठञ आदेश होता है । जैसे :-कबदि (व्रजति )। विशेष-उक्त नियम इसी अध्याय के सातवें नियम का अपवाद है । अन्यथा य आदेश हो जाता है। (१०) मागधी में अनादि में वर्तमान छ के स्थान में शकार से संयुक्त चकार । श्च) होता है। जैसे :-गश्च, गश्च ( गच्छ, गच्छ ), उश्चलदि ( उच्छलति), पिश्चिले (पिच्छिलः), तिरिश्चि पेस्कदि' (तिरिच्छि पेच्छइ तिर्यक् प्रेक्षते)। (११ } मागधी में अनादि में वर्तमान क्ष के स्थान में जिह्वामूलीय क' आदेश होता है। जैसे :-य के ( यक्षः ), ल-कशे ( रक्षसे । (१२) मागधी में प्रेक्ष और आचक्ष के क्ष के स्थान में स्क आदेश होता है। जैसे:-पेस्कदि (प्रेक्षते), आचस्कदि (आचक्षते)। विशेष—पूर्व नियम (ग्यारहवें) का यह नियम अपवाद है। १. देखो-अगला नियम (१२)। २. प्राकृत प्रकाश के अनुसार स्क आदेश होकर यस्के और लस्कशे रूप होते हैं । दे०-वर० ११. ८. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्राकृत व्याकरण . (१३) मागधी में स्था धातु के तिष्ठ के स्थान में चिष्ठ आदेश होता है । जैसे :-चिष्ठदि (तिष्ठति ) । विशेष-किसी-किसी पुस्तक के अनुसार चिट्ठ आदेश होकर चिट्ठदि रूप भी होता है। (१४) मागधी में अवर्ण से पर में आनेवाले उस् ( षष्ठी के एकवचन ) के स्थान में आह आदेश विकल्प से होता है। आह के पूर्ववर्ती टि का लोप होता है । जैसे :-हगे न इदिशाह कम्माह काली ( अहं न ईदृशस्य कर्मणः कारी ); पक्ष में-भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि । (५५) मागधी में अवर्ण से पर में विद्यमान आम के स्थान में आह आदेश विकल्प से होता है और पूर्व के टि का लोप हो जाता है । जैसे :-जाह ( येषाम् ); पक्ष में-जाणं ( येषाम् )। ___(१६) मागधी में अहम् और वयम् के स्थान में हगे आदेश होता है। जैसे :-हगे शक्कावदालतिस्तणिवाशी धीवले ( अहं शक्रावतारतीर्थनिवासी धीवरः)। विशेष—प्राकृतप्रकाश के अनुसार अहं के स्थान पर हके और अहके भी होते हैं। ___प्राकृत-प्रकाश के अनुसार मागधी के विशेष शब्द | संस्कृत मागधी प्रा. प्र. अ. सूत्र माषः माशे ११ ३ विलासः विलाशे जायते यायदे परिचयः पलिचये गृहीतच्छलः गहिदच्छले wr xx * * Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजल: निर्झरः हृदये आदरः कार्यम दुर्जनः राक्षसः दक्षः अहम् एष राजा एष पुरुषः हसितः पुरुषस्य तिष्ठति कृतः मृतः गतः सोढ़वा कृत्वा शृगालः नवम अध्याय वियले णिज्झिले हडके आलले कये. दुय्य लस्कशे दस् हके, अहके, हगे एशि लाआ एशे पुलिशे हशिदु, हशिद, हशिद पुलिशाह, पुलिशरश चिष्ठदि कडे 'मडे गडे सहिदाणि कारिदाणि शिआले, शिआलके av av av ११ ११ ११ ११ ११ ११ १६६ mx x ५ 99 15 ११ ११ ६ ११ १० ११ १० ११ ११ ११ १२ ११ १४ ११ १५ ११ १५. ११ १५. ११ १६ ८ ११ १६ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय [पैशाची] (१) पैशाची की प्रकृति शौरसेनी है। (२) पैशाची में ज्ञ के स्थान में ब्ञ होता है। जैसे:पञा (प्रज्ञा ), स ( संज्ञा), सव्वो ( सर्वज्ञः ), ञानं (ज्ञानम् ), विज्ञानं ( विज्ञानम् )। (३) राजन् शब्द के रूपों में जहाँ-जहाँ ज्ञ रहता है, उस ज्ञ के स्थान में चिञ् आदेश विकल्प से होता है। जैसे :राचिबा लपितं, रूसा लपितं ( राज्ञा लपितम् ), राचियो धनं रब्यो धनं ( राज्ञो धनम् )। (५) पैशाची में न्य और ण्य के स्थान में ऊब आदेश होता है। जैसे :-कञका अभिमब्यू ( कन्यका, अभिमन्युः ) । पुञकम्मो, पुज्ञाहं ( पुण्यकर्म, पुण्याहम् ) । (५) पैशाची में णकार का नकार हो जाता है। जैसे :गुनगनयुत्तो (गुणगणयुक्तः ), गुनेन (गुणेन)। (६) पैशाची में तकार और दकार के स्थान में तकार हो जाता है। जैसे :-भगवती, पव्वती (भगवती, पार्वती)। मतनपरवसो (मदनपरवशः), सतनं (सदनम् ), तामोतरो (दामोदरः), होतु ( होदु शौ०)। . (७) पैशाची में लकार के स्थान में ळकार हो जाता है । जैसे:-सळिळं, कमळं ( सलिलं कमलम्) । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय - २०१ (८) पैशाची में श और ष के स्थान में स होता है। जैसे:-सोभति, सोभनं, ससी (शोभते, शोभनं, शशी)। विसमो, विसानो (विषमः, विषाणः)। (१) पैशाची में हृदय शब्द के यकार के स्थान में पकार हो जाता है । जैसे:-हितपक (हृदयकम् )। (१०) पैशाची में टु के स्थान तु आदेश विकल्प से होता जैसे :-कुतुम्बकं, कुटुम्बकं (कुटुम्बकम् )। (११) पैशाची में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में तून आदेश होता है । जैसे:-गन्तून, हसितून, पठितून (गत्वा, हसित्वा, पठित्वा)। (१२) पैशाची में ट्वा के स्थान में खून और त्थून आदेश होते हैं । जैसे:-नद्धन, नत्थून; तळून, तत्थून (नष्ट्वा, दृष्ट्वा )। (१३) पैशाची में कहीं कहीं र्य, स्त्र और ष्ट के स्थानों में क्रमशः रिय, सिन और सट आदेश होते हैं। जैसे:-भारिया, सिनातं, कसटं ( भार्या, स्नातम् , कष्टम् )। विशेष-( क ) प्राकृतप्रकाश ( १०. ७. ) के अनुसार स्त्र के स्थान में सन आदेश होता है । जैसे :-सनानं, सनेहो ( स्नानम् , स्नेहः )। (ख) नियम १३ में कहीं-कहीं' कहने से सुज्जो (सूर्यः ), सुनुसा और तिट्ठो (दिष्टः) में उक्त नियम नहीं लगा । (१५) पैशाची में भाव-कर्मवाले यक के स्थान में इय्य आदेश होता है । जैसे:-रमिय्यते, पठिय्यते (रम्यते, पठ्यते)। (१५) पैशाची में कृ धातु से पर में आये हुए भाव-कर्मवाले यक के स्थान में ईर आदेश होता है और धातु के टि ( ऋ) का लोप हो जाता है । जैसे:-कीरते (क्रियते)। (१६) पैशाची में याहश, तादृश आदि के ह के स्थान में Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ प्राकृत व्याकरण ति आदेश होता है। जैसेः-यातिसो, तातिसो, भवातिसो, अब्बातिसो, युम्हातिसो, अम्हातिसो ( यादृशः, तादृशः, भवा. दृशः, अन्याशः, युष्मादृशः, अस्मादृशः)। (१७ ) पैशाची में इच और एच (देखो छठे अध्याय में वर्तमान काल के प्रत्यय) के स्थान में ति आदेश होता है । जैसे:-वसुआति, भोति, नेति, तेति । (८) पैशाची में अकार से पर में आनेवाले इच और एच के स्थान में ते और ति दोनों आदेश होते हैं। जैसे:-लपते, लपति; अच्छते, अच्छति; गच्छते, गच्छति; रमते, रमति । (१६) पैशाची में इच और एच के स्थान में, भविष्यत् काल में, स्सि न होकर एय्य आदेश ही होता है। जैसे :हुवेय्य' ( भविष्यति)। (२०) पैशाची में अकार से पर में आनेवाले ङसि के स्थान में आतो और आतु ये दो आदेश होते हैं । जैसे:-तुमातो, तुमातु; ममातो, ममातु । (२१ ) पैशाची में टा के साथ तद् और इदम् शब्दों के स्थान में नेन और खीलिङ्ग में नाए आदेश होते हैं। जैसे :नेन कतसिनानेन ( तेन कृतस्नानेन अथवा अनेन इत्यादि ); पूजितो च नाए ( पूजितश्चानया)। प्राकृत-प्रकाश के अनुसार पैशाची के विशेष शब्दसंस्कृत पैशाची प्रा. प्र. अ. सूत्र मेघः मेखो . .. १० २ गगनम् गकनं राजा १. तं तद्भून चिन्नितं रञा का एसा हुवेय्य ( तां दृष्ट्वा चिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यति ! राचा Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय निर्भरः वडिशम् दशवदनः माधवः गोविन्दः केशवः सरभसं शलभः संग्रामः इव तरुणी कष्टम् स्नानम् स्नेहः भायो विज्ञातः सर्वज्ञः कन्या कार्यम् राज्ञा राज्ञः दत्त्वा गृहीत्वा हृदयकम् णिच्छरो वटिशं दसवत्तनो माथवो गोविन्तो केसवो सरफसं. सलफो संगामो पिव तलुनी कसठं सनानं सनेहो भारिआ विञ्जातो सव्वञ्जो कञ्जा कच्चं राचिना, रञ्जा राचिनो, रञ्जो दातूनं घेत्तनं हितअकं 2222222222222222222222 ___* यह सूत्र नहीं लगा। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय [अपभ्रंश ] (१) अपभ्रंश में किसी एक स्वर के स्थान में कोई एक दूसरा स्वर प्रायः हो जाता है। जैसे :-कञ्चित के लिए अपभ्रश में कच्च और काञ्च; वेणी के लिए वेण और वीण; बाहु के लिए बाह और बाहा; पृष्ठ के लिए पट्टि, पिट्टि और पुट्ठि; तृण के लिए तणु, तिणु और तृणुः सुकृतम् के लिए सुकिदु, सुकि उ और सुकृदु, क्लिन्न के लिए किन्न उ, किलिन्नउ; लेखा के लिए लिह, लीह और लेह तथा गौरी के लिए गउरी और गोरी ये रूप विभिन्न स्वरों के आने से होते हैं । (२) अपभ्रश में स्वादि विभक्तियों के आने पर प्रायः कभी तो प्रातिपदिक के अन्त्य स्वर का दीर्घ और कभी ह्रस्व हो जाता है । सु विभक्ति में जैसे :-ढोल्ला, सामला ( विट, श्यामला, ह्रस्व स्वर का दीर्घ ); धण, सुवण्णरेह (धण संस्कृत का धन्या है । कुछ लोग प्रिया शब्द के स्थान में धण आदेश मानते हैं। सुवर्णरेखा। इनमें दीर्घ स्वर का १-१. ढोल्ला सामला धण चम्पावण्णी। णाइ सुवण्णरेह कसवइ दिण्णी ॥ (विटः श्यामलः धन्या चम्पकवर्णा । इव सुवर्णरेखा कषपट्टके दत्ता ॥) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २०५ स्व हुआ है ।) स्त्रीलिङ्ग में जैसे :- विट्टीएं ( पुत्रि । यहाँ ह्रस्व का दीर्घ हुआ है ), पट्टि ( प्रविष्टा । यहाँ दीर्घ का ह्रस्व हुआ है | ), निसिश्री खग्ग ( निशिताः खड्गा । यहाँ दीर्घ का ह्रस्व हुआ है । ), घोडा ( अश् स्वर का दीर्घ हो गया है । ) ( ३ ) अपभ्रंश में सु ( प्रथमा के एकवचन ) और अम् विभक्तियों के आने पर शब्द के अन्तिम अ के स्थान में उहो जाता है । जैसे :- दहमुहु, तोसिअ - संकरु, चउमुहु, छंमुहु ( दशमुखः, तोषित - शंकरः, चतुर्मुखं, षण्मुखम् ) (४) अपभ्रंश में पुंल्लिङ्ग में वर्तमान शब्द ( प्रातिपदिक ) के अन्त्य अ के स्थान में ओ विकल्प से होता है, जब कि उन १. विट्टीए मइ भणिय तुहुँ मा करु वङ्की दिठि । पुत्ति सकण्णी भलि जिवं मारइ हिश्र पट्ठि ॥ ( पुत्रि मया भणिता त्वं ' मा कुरु वक्रां दृष्टिम्' । पुत्रि सकर्णा भल्लिर्यया मारयति हृदये प्रविष्टा ॥ ) २. एइति घोडा एह थलि एइ ति निसि खग्ग । एत्थु मुणीसिम जाणिश्रइ जो न वि वालइ वगा ॥ ( एते ते श्रश्वाः एषा स्थली एते ते निशिताः खड्गाः । अत्र मनुष्यत्वं ज्ञायते यः नापि वालयति वल्गाम् ॥ ) ३. दहमुहु भुवंण - भयंकरु तोसिअ संकरु णिग्गड रहवर चडाउ । चउमुहु छंमुहु फाइव एक्कहिं लाइव णावर दहवें घडिउ || ( दशमुखः भुवनभयंकरः तोषितशङ्करः निर्गतः रथवरे श्रारूढः । चतुर्मुखं षण्मुखं ध्यात्वा एकस्मिन् लगित्वा इव दैवेन घटितः ) । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ . प्राकृत व्याकरण अकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों से पर. में सु विभक्ति आई हुई हो । जैसे :-जो', सो ( यः, सः)। विशेष—पुंल्लिङ्ग में कहने से 'अङ्गहिं अङ्गु न मिलउ हलि' ( अङ्गः अङ्गं न मिलितं सखि ) में नपुंसक अङ्गु और मिलिउ में ओ नहीं हुआ। (५) अपभ्रंश में टा विभक्ति के आने पर शब्द के अन्तिम अ के स्थान में ए हो जाता है । जैसे:-पवसन्तेण ( प्रवसता), नहेण ( नखेन)। (६) अपभ्रंश में शब्द के अन्त्य अकार और ङि ( सप्तमी एकवचन ) के स्थान में इकार और एकार होते हैं । जैसे :तलि घल्लइ, तले घल्लइ ( तले क्षिपत्ति)। . (७ ) अपभ्रंश में शब्द के अन्त्य अ के स्थान में, मिस् (तृतीया के बहुवचन ) के पर में रहने पर, एकार आदेश विकल्प १. अगलिअ नेह-निवडाहं जोअण-लक्खु वि जाउ। वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ ॥ ( अगलितस्नेहनिर्वृत्तानां योजनलक्षमपि जायताम् । वर्षशसेनापि यः मिलति सखि सौख्यानां स स्थानम् ॥) २. जेमहु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण | ताण गणन्तिएँ अङ्गुलिउ जजरिआउ नहेण ।। ( ये मम दत्ताः दिवसाः दयितेन प्रवसता । तान् गणयन्त्याः अङ्गुल्यः जर्जरिताः नखेन ॥) ३. सायरु उप्परि तणु धरइ तलि धल्लइ रयणाई। सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेइ खलाई ॥ ( सागरः उपरि तृणानि धरति तले क्षिपति रत्नानि । स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति संमानयति खलान् ॥) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ एकादश अध्याय से होता है । जैसे :-लक्खेहि' (लक्षैः); पक्ष में गुणहिँ (गुणैः)। (८) अपभ्रंश में अकारान्त शब्द से पर में आने वाले उसि विभक्ति के स्थान में हे और हु आदेश होते हैं । जैसे :-- वच्छहे गृण्हइ, वच्छहु गृण्हइ ( वृक्षात् गृहणाति)। (E) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से पर में आने वाले भ्यस् ( पञ्चमी बहुवचन ) के स्थान में हुं आदेश होता है । जैसे :गिरि-सिङ्गहुँ, ( गिरिशृङ्गेभ्यः)। — (१०) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से पर में आने वाले उस ( षष्ठी एकवचन ) के स्थान में सु, हो और स्सु ये तीन आदेश होते हैं । जैसे :-तसु (तस्य), दुल्लहहो ( दुर्लभस्य) सुअणस्सु (सुजनस्य )। १. गुणहि न संपइ (कत्ति पर फल लिहिया भुञ्जन्ति । के सरि न लहइ बोड्डिअ विगय लक्खोहिं घेप्पन्ति ॥ ( गुणैः न संपत् कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजाः लक्षैः गृह्यन्ते ॥) २. वच्छ, गृण्हइ फलइँ जणु कडु पल्लव बज्जेइ । तो वि महदुमु सुअणु जिवे ते उच्छङ्गि धरेइ ।। ( वृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः कटुपल्लवान् वर्जयति । तथापि महाद्रुमः सुजन इव तान् उत्सङ्गे धरति ॥ ) ३. दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ । जिह गिरिसिङ्गहुं पडिअ सिल अन्नु विचूरु करेइ ॥ (दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं मारयति । यथा गिरिशृङ्गेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णीकरोति ।) ४. जो गुण गोबइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु । तसु हर कलिजुगि दुल्लहो बलि किजउं सुअणस्सु ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ . प्राकृत व्याकरण (११) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से पर में आने वाले आम् के स्थान में हं आदेश होता है । जैसे:-तणहं' ( तृणानाम् )। (१२) इदन्त और उदन्त शब्दों से पर में आने वाले आम् के स्थान में, अपभ्रंश में हुं और हं दोनों आदेश होते हैं। जैसे :-सउणिहर ( शकुनीनाम् ) इत्यादि । विशेष-उक्त नियम सुप् सप्तमी-बहुवचन ) में भी लागू होता है । जैसे :-दुहुँ ( द्वयोः)। (१३) अपभ्रंश में इदन्त, उदन्त शब्दों से पर में आने वाले जसि, भ्यस और ङि के स्थान में क्रमशः हे, हुं और हि आदेश होते हैं। जैसे :-गिरिहे, तरुहे ( गिरेः, तरोः ) भ्यस् का ( यः गुणान् गोपयति आत्मीयान् प्रकटान् करोति परस्य । तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य ॥) १. तणहं तइजा भङ्गि न वि तें अबड-यडि वसन्ति । अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइ मन्जन्ति ॥ (तृणानां तृतीया भङ्गी नापि तानि अवटतटे वसन्ति । अथ जनः लगित्वा उत्तरति अथ सह स्वयं मन्जन्ति ॥) २. दइवु घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहँ पक्क फलाई । सो वरि सुक्खु पइट्ठण वि कण्णहिं खलवयणहि ॥ ( देवः घटयति वने तरुणं शकुनीनां कृते) पक्कफलानि । तद् वरं सौख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि ॥) ३. धवलु विसूरइ सामिअहो, गरुआ भरु पिक्खेवि । हउं कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहि, खण्डई दोणि करेवि ॥ (धवलः खिद्यति स्वामिनः गुरुं भारं प्रेक्ष्य । अहं किं न युक्तः द्वयोर्दिशोः खण्डे द्वे कृत्वा ॥) ४. गिरिहें सिलायलु तरुहें फलु घेप्पइ नोसावन्नु । घरु मेल्लेप्पिणु माणुसहँ तो वि न रुच्चइ रन्नु । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय ૨૦૨ का हुँ : - तरुहुँ' (तरुभ्य: ); ङि का हि जैसे :-- कलिहि ( कलौ ) । (१४) अपभ्रंश में अदन्त शब्द से स्थान में ण और अनुस्वार आदेश ( दयितेन ), पवसन्तेण ( प्रवसता ) | नियम ५ की पाद टिप्पणी | (१५) अपभ्रंश में इकारान्त, उकारान्त शब्दों से पर में आने वाले टा के स्थान में एं, ण और अनुस्वार आदेश होते हैं । जैसे : — अग्गिएँ ( अग्निना ); अग्गिण ( अग्निना ); अगि ( अग्निना ) | - पर में आने वाले टा के होते हैं । जैसे :- - दइएं देखो - इसी अध्याय में ( गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्यते निःसामान्यम् । गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचते अरण्यम् ॥ ) १. तरुहुँ वि वक्कलु कलु मुणिवि परिहण असणु लहन्ति । सामिहुँ एत्तिउ अग्गलडं श्रयरु भिच्चु गृहन्ति ॥ (तरुभ्यः अपि वल्कलं फलं मुनयः अपि परिधानम् अशनं लभन्ते स्वामिभ्यः, इद् अधिकादरं भृत्या गृह्णन्ति । ) २. ग्रह विरल पहाउ जि कलिहि धम्मु । ( अथ विरलप्रभाव एव कलौ धर्मः । ) ३. अग्गिएँ उहउ होइ जगु वाएं सीश्रलु तेवं । जो पुणु अगिंग सीलां तसु उण्हत्तणु केवं ॥ ( श्रग्निना उष्णं भवति जगत् वातेन शीतलं तथा । गः पुनः अग्निना शीतलः तस्य उष्णत्वं कथम् ? ) विपि र इइवि पिउ तो वि तं आणहि अज्जु । अग्गिण दड्ढा जइ वि घरु तो तें अगिंग कज्जु ॥ ( विप्रियकारकः यद्यपि प्रियः तदपि तमानय अद्य अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं तदपि तेन अग्निना कार्यम् ॥ ) १४ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० प्राकृत व्याकरण ( १६ ) अपभ्रंश में सु, अम्, जस् और शस् विभक्तियों का लोप हो जाता है। देखो इसी अध्याय के नियम २ की पादटिप्पणी ३ में 'एइ ति घोड़ा' इत्यादि में सु, अम्, जस् का लोप | (१७) अपभ्रंश में षष्ठी विभक्ति का प्रायः लुक् हो जाता है | जैसे :- गय' ( गजानाम् ) । (१८) अपभ्रंश में यदि किसी शब्द से संबोधन में ज विभक्ति आई हो तो उसके स्थान में हो आदेश होता है। जैसे:तरुणहो, तरुणिहो' ( हे तरुणा: हे तरुण्यः ) | विशेष : - यह नियम पूर्वोक्त सोलहवें नियम का अपवाद है। ( १६ ) अपभ्रंश में भिस् और सुप के स्थान में हिं आदेश होता है । जैसे :- गुणहि (गुणैः ); मग्गेहि तिहिं (मार्गेषु त्रिषु) । ( २० ) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले जस और शस् ( प्रत्येक ) के स्थान में उ और ओ आदेश होते हैं । जैसे :- अङ्गुलिउ ( अङ्गुल्यः । जस् = उ ); सव्त्र 1 १. संगर - एहिं जु वण्णिश्रइ देक्खु अम्हारा कन्तु । श्रमत्तहं चत्तङ्कुसहं गय कुम्भई दारन्तु ॥ ( संगरशतेषु यो वर्ण्यते पश्य अस्माकं कान्तम् । श्रतिमत्तानां त्यक्ताङ्कुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् ॥ ) २. तरुणहो तरुणिहो मुणिउ मई करहु म अप्पहों, घाउ । ( हे तरुणाः, हे तरुण्यः (च) ज्ञातं मया श्रात्मनः धातं मा कुरुत । 1) ३. भाईरहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टा । ( भागीरथी यथा भारते मार्गेषु त्रिषु प्रवर्तते । ) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २११ ङ्गाउ' ( सर्वाङ्गीः । शस् = उ ); विलासिणीओ' ( विलासिनीः । शस् = ओ ) । ( २१ ) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले टा (तृतीया - एकवचन ) के स्थान में ए आदेश होता है | जैसे :- ससिमण्डल - चन्दिमए ( शशिमण्डलचन्द्रिकया ) | (२२) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले इस (षष्ठी - एकवचन) और ङसि (पञ्चमी - एकवचन) के स्थान हे आदेश होता है । जैसे :- मज्महे, * तहे, " घणहे इत्यादि ( मध्यायाः, तस्याः, धन्यायाः इत्यादि ); बालहे" ( बालायाः ) | ૪ १-२, सुन्दर-सव्वङ्गाउ विलासिणीओ पेच्छन्तरण । ( सुन्दर सर्वाङ्गीः विलासिनीः ग्रेक्षमाणानाम् ॥ ) ३. नि-मुह - करहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्ख इ । ससि-मण्डल- चन्दिमए पुणु काइँ न दूरे देवखइ ॥ ( निजमुखकरैः अपि मुग्धा करमन्धकारे प्रतिप्रेक्षते । शशिमण्डलचन्द्रिकया पुनः किं न दूरे पश्यति ? ) ४-७. फोडेम्ति जें हियडउं अप्पणउं ताहं पराई कवण घृण । रक्खेज्जहु लोहो अपणा बालहे जाया विसम थण ॥ ( स्फोटयतः यौ हृदयमात्मीयं तयोः परकीया का घृणा ? रक्षत लोकाः श्रात्मानं बालायाः जातौ विषमौ स्तनौ ॥ ) तुच्छ मज्झहे तुच्छ - जपिरहे । तुच्छच्छरोमावलिहे तुच्छरायतुच्छयरहास हे । पियवयणुलहन्ति हे तुच्छकाय - वम्मह - निवास हे ॥ अन्नु तुच्छउँ तहें घणहे तं क्खणह न जाइ । कटरि थणंतरु मुद्धहे जें मणु विश्चि ण माइ ॥ ( तुच्छमध्यायाः तुच्छजल्पनशीलायाः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ प्राकृत व्याकरण (२३) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले भ्यस् ( पञ्चमी-बहुवचन) और आम् ( षष्ठी-बहुवचन) के स्थान में हु आदेश होता है । जैसे:-वयंसिअहु: (वयस्याभ्यः अथवा वयस्यानाम् )। (२४) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले डि ( सप्तमी-एकवचन) के स्थान में हि आदेश होता है । जैसे:-महिहि ( मह्याम् )। (२५) अपभ्रंश में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले जस् ( प्रथमा-बहुवचन) और शस् (द्वितीया-बहुवचन ) के स्थान में इं आदेश होता है । जैसे:-कमलई अलिउलई ( कमलानि, अलिकुलानि)। । तुच्छाच्छरोमावल्याः तुच्छरागायाः तुच्छतरहासायाः । प्रियवचनमलभमानायाः तुच्छकायमन्मथनिवासायाः॥ अन्यद् यत्तच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुं न याति । आश्चर्य स्तनान्तरं मुग्धायाः येन मनो वर्त्मनि न माति ॥) १. भल्ला हुआ जु मारिश्रा बहिणि महारा कन्तु । लज्जेजन्तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एन्तु ॥ (भव्यं भूतं यत् मारितः भगिनि अस्मदीयः कान्तः । अलाजध्यत् वयस्याभ्यः (नाम् ) यदि भग्नः गृहं ऐष्यत् ॥) २. वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठ सहस त्ति । अद्धा वलया महिहि गम श्रद्धा फुट तडत्ति ॥ (वायसं उड्डापयन्त्याः प्रियो दृष्टः सहसेति ।। अर्द्धानि वलयानि मह्या गतानि अर्द्धानि स्फुटितानि तटिति ॥) १. कमलई मेल्लवि अलिउलइं करि-गण्डाई महन्ति । असुलह-मेच्छण जाहं भलि ते ण वि दूर गणयन्ति ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २१३ ( २६) अपभ्रंश में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान कान्त (जिसके अन्त में असहित क हो ) शब्द से पर में आनेवाले सु (प्रथमाएकवचन ) और अम् (द्वितीया-एकवचन ) के स्थान उं आदेश होता है। जैसे :-इसी अध्याय के नियम २२ की पाद टिप्पणी २ में तुच्छउं (तुच्छम् ) है । और भग्गउं' (भग्नकम् ) इत्यादि को भी देखना चाहिए। (२७) अपभ्रंश में अकारान्त सर्वादि से पर में आनेवाले असि ( पञ्चमी-एकवचन) के स्थान में हाँ आदेश होता है। जैसे :-जहाँ होन्तउ आगदो, तहाँ होन्तउ आगदो ( यस्मात् भवान् आगतः, तस्मात् भवान् आगतः ) एवं कहाँ (कस्मात् )। (२८) अपभ्रंश में अकारान्त किम् (क) से पर में आनेवाले सि के स्थान में इहे आदेश और क के अकार का लोप विकल्प से होता है । जैसे :-किहे२ (कस्मात् ), कहाँ (कस्मात् )। (२६) अपभ्रंश में अकारान्त सर्वादि शब्दों से पर में आने वाले सप्तमी के एकवचन लि के स्थान में हिं आदेश होता है। ( कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान् कांक्षन्ति । असुलभम् एष्टुं येषां निर्बन्धः ते नापि दूरं गणयन्ति ॥) १. भग्गउं देक्खिवि निय-बलु, बलु पसरिअउं परस्सु । उम्मिल्लइ ससिरेह जिवं करि-करवालु पियस्सु ॥ (भग्नकं दृष्ट्वा निजकं बलं बलं प्रसृतकं परस्य । उन्मीलति शशिलेखा यथा करे करवालः प्रियस्य ॥) २. जइ तहें तुहल नेहडा मई सहुँ न वि तिल-तार । तं किहें वङ्केहिं लोअणेहिं जोइन्जउँ सय चार ॥ ( यदि तस्याः त्रुट्यतु स्नेहः मया सह नापि तिलतारः । तत् कस्मात् बक्राभ्यां लोचनाभ्यां दृश्ये ( अहं) शतवारम् ॥) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ प्राकृत व्याकरण जैसे:-जहिं', तहिं, एक्कहिं ( यस्मिन् , तस्मिन् , एकस्मिन् ) (३०) अपभ्रंश में अकारान्त यद्, तद् और किम् ( य, त, क) से पर में आनेवाले षष्ठी के एकवचन उस के स्थान में आसु आदेश विकल्प से होता है। और शब्द के टि (अ) का लोप भी होता है। जैसेः-जासु, तासु, कासु' ( यस्य, तस्य, कस्य)। (३१) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान यद्, तद्, किम् ( या, ता, का) से पर में आनेवाले षष्ठी के एकवचन उस् के स्थान में विकल्प से अहे आदेश और टि (आ) का लोप भी होता है। जैसेः-जहे केरउ, तहे केरउ, कहे केरउ ( यस्याः कृते, तस्याः कृते, कस्याः कृते )। (३२) अपभ्रंश में सु और अम् (प्रथमा-द्वितीया के एकवचन) के पर में रहने पर यद् और तद् शब्दों के स्थान में १. जहिं कप्पिन्नइ सरिण सरु छिज्जइ खरिंगण खग्गु । तहिं तेहइ भड-घड-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ॥ ( यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः छिद्यते खड्नेन खड़गः । तस्मिन् तादृशे भट घटा-निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥) २. कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छइँ रूसइ जासु । अत्यिहिं, सत्यिहिं हत्यिहिं वि ठाउ फेडइ तासु ॥ ( कान्तः अस्मदीयः हला सखिके निश्चयेन रुष्यति यस्य । अस्त्रैः शस्त्रैः हस्तैरपि स्थानमपि स्फोटयति तस्य ॥ ) जीविउ कास न वल्लहउँ घणु पुणु कासु न इछु । दोण्णि वि अवसर-निवडिअई,तिण सम गणइ विसिटु ॥ जीवितं कस्यै न वल्लभकं धनं पुनः कस्य नेष्टम् । द्वे अपि अवसर-निपतितं तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २१५ क्रमशः धुं और त्रं आदेश विकल्प से होते हैं । जैसे:- प्रङ्गणि चिट्ठदि नाहु धुं त्रं रणि करदि न भ्रन्ति ( प्राङ्गणे तिष्ठति नाथः यत् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम् ); पक्ष में तं बोल्लिअइ जु निव्वहइ ( तत् जल्प्यते यन्निर्वहति ) । ( ३३ ) अपभ्रंश में नपुंसक -लिङ्ग में वर्तमान इदम् शब्द के स्थान में सु और अम् के पर में रहने पर इमु आदेश होता है । जैसे : - इमु कुलु तुह तणउँ; इमु कुलु देक्खु (इदं कुलं इत्यादि) । ( ३४ ) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचनों में एतद् शब्द के स्त्रीलिङ्ग में एह, पुंल्लिङ्ग में एहो और नपुंसक में एहु रूप होते हैं । जैसे:- एह कुमारी. एहो नरु, एहु मणोरह ठागु ( एषा कुमारी, एष नरः, एतन्मनोरथस्थानम् | ) में ( ३५ ) अपभ्रंश जस्-शस् के आने पर एतद् शब्द के स्थान एइ आदेश होता है । देखो - इसी अध्याय के नियम २ तथा ३ की पादटिप्पणी एइ पेच्छ ( एतान् प्रेक्षस्व ) | ( ३६ ) अपभ्रंश में जस्-शस् के आने पर अदस् शब्द के स्थान में ओइ आदेश होता है । जैसे:- ओइ' | ( ३७ ) अपभ्रंश में इदम् शब्द के स्थान में आय आदेश स्वादि विभक्तियों के पर में रहने पर होता है । जैसे :- आयई ( इमानि ), आयेण ( एतेन ), आयहो ( अस्य ) इत्यादि । ( ३८ ) अपभ्रंश में सर्व शब्द के स्थान में साह आदेश विकल्प से होता है । जैसे :- साहु विलोड; सव्वु विलोड ( सर्वोऽपि लोकः ) । १. जइ पुच्छह घर वड्डाई तो वड्डा घर ओइ । विहलि जण - श्रब्भुद्धरणु कन्तु कुडोरइ जोइ ॥ ( यदि पृच्छथ गृहाणि महान्ति तद् महान्ति गृहाणि श्रमूनि । विह्वलितजनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटीर के पश्य ॥ ) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण - (३६) अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान में काइं और कवण आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे:-इसी अध्याय के नियम २१ की पादटिप्पणी एक में देखो-'काई न दूरे देक्खई' (किं न दूरे पश्यति ?) और नियम २२ की पादटिप्पणी दो में 'ताहँ पराई कवण घृण' ( तयोः परकीया का घृणा ?); 'किं गजहि खल मेह' ( किं गर्जसि खल मेघ)। . ___ (४०) अपभ्रंश में युष्मद्, अस्मद्-विषयक नियमों को न लिख कर यहाँ हम उनके रूप ही लिख रहे हैं। ये रूप हेमचन्द्र के अनुसार हैं। नियमों के लिए उन्हीं के ४. ३६० से ४. ३८१ तक सूत्रों को देखना चाहिए। अपभ्रंश में युष्मद् शब्द के रूपःएकवचन बहुवचन प्रथमा तुहुं तुम्हे, तुम्हइं द्वितीया पई, तई तुम्हे, तुम्हइं तृतीया पई, तई तुम्हेहि पञ्चमी तउ, तुज्झ, तुध्र ( तुहु) तुम्हह षष्ठी , " " " तुम्हहं . सप्तमी पई, तई तुम्हासु अपभ्रंश में अस्मद् शब्द के रूपः अम्हे, अम्हई द्वितीया मइं अम्हे, अम्हइं तृतीया मई अम्हेहि पञ्चमी महु, मज्झु अम्हहं षष्ठी महु, मज्झु अम्हहं सप्तमी मई अम्हासु प्रथमा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २१७ (४१) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में तिङ् का आदेश 'हिं' विकल्प से होता है। जैसे:-धरहिं, करहिं, सहहिं ( धरतः, कुरुतः, शोभन्ते) . (४२) अपभ्रश में धातु से, वर्तमान काल के मध्यम पुरुष के एकवचन में, तिज के स्थान में 'हि' आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-रुअहि (रोदिषि ), लहहि' ( लभसे ); पक्ष में रुअसि इत्यादि। (४३) अपभ्रंश में धातु से, वर्तमान काल के मध्यम पुरुष के बहुवचन में, आनेवाले तिङ् के स्थान में हु आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-इच्छहु ( इच्छथ ); पक्ष में इच्छह । १. मुह-कबरि-बन्ध तहें सोह धरहिं । नं मल्ल-जुझु ससिराहु करहिं ।। ( मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभां धरतः। . ननु मल्ल-युर्द्ध शशिराहू कुरुतः ॥) तहें सहहि कुरल भमर-उल-तुलिश्र। नं तिमिर डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ॥ ( तस्याः शोभन्ते कुरलाः भ्रमरकुलतुलिताः।। ननु भ्रमरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलिताः॥) २. बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रुअहि हयास । तुह जलि महु पुणु वल्लहइ विहुँ वि न पूरिश्र श्रास ॥ चातक ( पपीहा ) पिबामि पिबामि ( प्रियः प्रियः) भणित्वा कियत् रोदिषि हताश तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥) २. बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ ।' जइ इच्छहु बहुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ प्राकृत व्याकरण . (४४) अपभ्रंश में धातु से पर में आनेवाले वर्तमानकालिक उत्तम पुरुष के एकवचन तिङ् के स्थान में उं आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-कड्ढउं (कर्षामि); पक्ष में कड्ढामि (कर्षामि) (४५) अपभ्रंश में धातु से पर में आनेवाले वर्तमानकालिक उत्तम पुरुष के बहुवचन तिङ के स्थान में हुं आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-लहहुं, लभामहे ); जाहुं ( यामः); वलाहुं ( वलामहे )। (४६) अपभ्रंश में हि और स्व के स्थान में इ, उ और ए ये तीनों आदेश विकल्प से होते हैं । इ जैसे:-सुमरि', मेल्लि ( स्मर, मुश्च ); विलम्बु' (विलम्बस्व ); करे (कुरु ) पक्ष मेंसुमरहि इत्यादि । ( बलेः अभ्यर्थने मधुमथनो लघुकीभूतः, सोऽपि । यदि इच्छथ महत्त्वं दत्त मा मार्गयत कमपि ॥) २. विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि बिसाउ । संपइ कढउँ वेस जिवँ छुडु अग्घइ ववसाउ ॥ (विधिविनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये कुरु विषादम् । संपदं कर्षामि वेषमिव यदि अर्घति व्यवसायः॥) ३. खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहुँ पिय तहिँ देसहिँ जाहुँ । रण- दुभिक्खें भग्गाइं विणु जुज्में न वलाहुँ ॥ (खड्ग-विसाधितं यत्र लभामहे तत्र देशे यामः। रणदुर्भिक्षेण भग्नाः विना युद्धेन न वलामहे ॥) १. २. ३. कुञ्जर सुमरि म सल्लइउ सरला सास म मेल्लि । कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि ॥ भमरा एत्थु वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु । घण-पत्तलु छाया.बहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २१६ (४७) अपभ्रंश में भविष्यत्कालिक तिङ-संबन्धी 'स्य' के स्थान में सआदेश विकल्प से होता है। जैसे :- होसइ '; पक्ष में - होहि ( भविष्यति ) । (४८) संस्कृत के 'क्रिये' इस क्रियापद के स्थान में अपभ्रंश में की यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे :- 'तसु कन्तहों बलि की ( तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये ) | संस्कृत धातुओं के अपभ्रंश में आदेश :धातु आदेश उदाहरण भू (पर्याप्ति में) हुच्च ब्रू --- ब्रुव ब्रोप्प प्रिय एम्बहिँ करें सेल्लु करि छंडहि तुहुँ करवालु । जं कावालिय बप्पुडा लेहि अभग्गु कवालु ॥ ( कुअर स्मर मा सल्लकीः सरलान् श्वासान् मा मुञ्च । कवला ये प्राप्ता विधिवशेन तांश्वर मानं मा मुञ्च ॥ भ्रमर अत्रापि निम्बके कति दिवसान् विलम्बस्व । घनपत्रवान् छायाबहुल : फुल्लति यावत्कदम्बः ॥ प्रिय एवमेव कुरु भलं करे त्यज त्वं करवालम् । येन कापालिका वराका लान्ति अभग्नं कपालम् ॥ ) १. दिहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मनोरहं पच्छ । जं अच्छा तं माणिइ होसइ करतु म अच्छि ॥ ( दिवसाः यान्ति वेगैः पतन्ति मनोरथाः पश्चात् । यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति कुर्वन् मा आस्स्व ॥ ) २. हेम ० ४ ३९०. ३. हेम० ४. ३९१. ४. हेम० ४. ३९१० "" अहरि पहुच नाहु (अधरे प्रभवति नाथः ) वह सुहासिउ किंपि ( ब्रूत सुभाषितं किञ्चित् ) त्रोप्पिणु ( उक्त्वा ) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० व्रज वुञ दृश प्रस्स ग्रह गुण्ह तक्ष छोल्ल तापि झलक शल्याय खुडुक्क गर्ज घुडुक्क प्राकृत व्याकरण वुञइ, जेपि, विणु' प्रस्सदि ४ पढ, गुहेपितु ( पठ गृहीत्वा व्रतम्) ससि छोल्लिजन्तु ( शशी अतक्षिष्यत ) सासानलजाल झलक्कि अउ " ( श्वासानलज्वालासन्तापितम् । ) हिअइ खुडुकई' (हृदये शल्यायते ) घुडुक मेहु (गर्जति मेघः ) ( ४ ) अपभ्रंश में पद के आदि में अवर्तमान किन्तु स्वर सेपर में आनेवाले और असंयुक्त क, ख, त, थ, प, फ, वर्णों के स्थान में प्रायः ग, घ, द, ध, ब और भ क्रम से ही होते हैं । जैसे :- पिअमाणुसविच्छोह गरु (प्रिय मनुष्यवि क्षोभकरम् ); सुि चिन्तिज्जइ माणु ( सुखं चिन्त्यते मान: ); कधिदु ( कथितम् ); सबंधु ( शपथम् ); सभलउ ( सफलम् ) । (५०) अपभ्रंश में पद के आदि में अवर्तमान असंयुक्त मकार के स्थान में अनुनासिक वकार विकल्प से होता है । जैसे:- कवलु, भवँरु ( कमलम्, भ्रमरः ); जिवँ, तिवँ ( जिम, तिम ) | ( ५१ ) अपभ्रंश में संयोग के बादु में आनेवाले रेफ का लुक विकल्प से होता है । जैसे :- जइ केवइ पावीसु पिउ ( यदि १. हेम० ४. ३९२. २. हेम० ४. ३९३. ४. हेम० ४. ३९५. ३. हेम० ४. ३९४. ५. तुलना कीजिए - भोजपुरी के 'फरकना' से । हेम० ४. ३९५. ६. 'काँटे जैसा आचरण करना' इस अर्थ में । हेम० ४. ३९५. ७. तुलना कीजिए - हिन्दी के 'घुडकना' से । हेम० ४. ३९५. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २२१ कथञ्चित् प्राप्स्यामि प्रियम् ); पक्ष में- जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु प्रियेण ( यदि भग्नाः परकीयास्तत्सखि मम प्रियेण | ) (५२) अपभ्रंश में कहीं-कहीं सर्वथा अविद्यमान रेफ भी होता देखा जाता है । जैसे::- त्रासु महारिसि एंड भणइ ( व्यासः महर्षिः एतद् भणति'; 'कहीं कहीं' ऐसा कहने से 'वासेण वि भारहखम्भि बद्ध ( व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् । ) में नियम लागू नहीं हुआ । (५३) अपभ्रंश में आपद्, विपद्, और संपद् के अन्त्यद् के स्थान में कहीं-कहीं इ हो जाता है । जैसे :- अणउ करन्तहा पुरिसहो आवइ आवइ ( अनयं कुर्वतः पुरुषस्य आपद् आयाति ); विवइ (विपद् ); संपइ ( संपद ); 'कहीं-कहीं' कहने से 'गुण हिं' न संपय कित्ति पर ' ( उपर्युक्त नियम ७ की पादटिप्पणी ४ ) में संपइ न होकर संपय हुआ । (५४) अपभ्रंश में कथं, यथा और तथा के थादि अवयवों के स्थान में हर एक के एम, इम, इह और इध ये चार आदेश होते हैं और पूर्व केटि का लोप होता है। जैसे:- 'केम' (केवर) समप्पर दुहु दिणु किध रयणी हुड होय' ( कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं कथं रात्रिः शीघ्रं भवति ? ) एवं किह; जेम ( वँ), जिम ( वँ), जिह, जिध, तेम ( वँ), तिम ( वँ ), तिह तिध होते हैं । " ( ५५ ) अपभ्रंश में यादृश्, तादृश् कीदृश् और ईदृश् शब्द क्रमशः जेहु, तेहु, केहु और एहु रूप प्राप्त करते हैं । जैसे :जेहु, तेहु, केहु, एहु ( यादृक्, तादृक् कीदृक्, ईदृक् ) 3 १. तुलना कीजिए— गुजराती के केम, जेम और तेम से । २. तुलना कीजिए—– हिन्दी के क्यों, ज्यौं और त्यौं से । ३. मई भणिउ बलिराय तुहुं केहउ मग्गण एहु । -- Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२२ प्राकृत व्याकरण (५६) अकारान्त यादृश, तादृश, कीदृश और ईदृश के स्थान में जइस, तइस, कइस और अइस रूप होते हैं । जैसे:जइसो, तइसो, कइसो और अइसो ( यादृशः, तादृशः इत्यादि) (५७) अपभ्रंश में यत्र के रूप जेत्थु और जत्त तथा तत्र के रूप में तेत्थु और तत्तु होते हैं। जैसे:-जेत्थु, जत्तु ( यत्र ); तेत्थु, तत्तु' (तत्र)। (५८) अपभ्रंश में यावत् के रूप जाम (जाव), जाउं, जामहिं और तावत् के रूप ताम ( ताव), ताउ,तामहि (तावत् ।। जेहु तेहु न वि होइ बढ़ सई नारायण एहु॥ ( मया भणितः बलिराज त्वं कीदृग् मार्गणः एषः । याक, तादृक् नापि भवति मूर्ख स्वयं नारायणः इदृक् ॥) १. जइ सो घडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु । जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सारिक्खु ॥ ( यदि स घटयति प्रजापतिः कुत्रापि लात्वा शिक्षाम् । यत्रापि तत्रापि अत्र जगति भण तदा तस्याः सदृक्षीम् ॥) २. जाम न निवडइ कुम्भ-यडि सीह-चवेड-चडक्क । ताम समत्तहँ मयगलहं पइ पइ वजइ ढक्क ॥ ( यावन्न निपतति कुम्भ-तटे सिंह चपेटाचटात्कारः । तावत्समस्ताना मदकलानां पदे पदे वाद्यते ढका ॥) तिलहँ तिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलन्ति । जामहि विसमी कज्ज-गइ जीवहँ मज्झे एइ ॥ (तिलानां तिलत्वं तावत् परं यावत् न स्नेहा गलन्ति । यावत् विषमा कार्यगतिः जीवानां मध्ये आयाति ॥) तामहिं अच्छउ इयर जणु सुअणु वि अन्तर दे । ( तावत् आस्तामितरः जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति ॥) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय . २२३ (५६ ) अपभ्रंश में कुत्र के स्थान में केत्थु और अत्र के स्थान में एत्थु रूप होते हैं। जैसे:-केत्थु ( कुत्र); एत्थु' (अत्र) (६०) अपभ्रंश में (परिमाणार्थक) यावद् और तावद् के स्थान में जेवड और तेवड रूप विकल्प से होते हैं। इसी प्रकार (परिमाणार्थक) इयत् और कियत् के स्थान में एवड और केवड रूप विकल्प से होते हैं। जैसे:-जेवडु अन्तरु रावण रामह तेवडु अन्तरु पट्टण-गामह (यावदन्तरं रावणरामयोः तावदन्तरं पत्तन ( पट्टण) ग्रामयोः) एवं एवडु अन्तरु ( इयत् अन्तरम् ); केवडु अन्तरु ( कियत् अन्तरम् )। (६१) अपभ्रंश में परस्पर के स्थान में 'अवरोप्पर' रूप होता है। जैसे:-अवरोप्परु जोअन्ताहं सामिउ गञ्जिउ जाहं ( परस्परं युद्ध थमानानां स्वामी पीडितः येषाम् )। (६२) अपभ्रंश में कादि (क+आदि) व्यञ्जनों में स्थित ए और ओ एवं पदान्त में वर्तमान उं, हुं, हिं और हं का लघु उच्चारण किया जाता है। जैसे:-अनु जु तुच्छउँ तहें धणहे; बलि किजउँ सुअणस्सुः दइउ घडावइ वणि तरुहुँ; तरहुं वि वक्कलु; खग्ग विसाहिउ जहिं लहहुं; तणहँ तइज्जी भङ्गि न वि ।। ___(६३) प्राकृत के नियमानुसार जहाँ म्ह हुआ हो उसका ( म्ह का ) अपभ्रंश में म्भ होता है । जैसे:-संस्कृत में ग्रीष्मः, प्राकृत में गिम्हो और अपभ्रंश में गिम्भो रूप होते हैं। (६४ ) अपभ्रश में अन्याहश शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइस ये आदेश होते हैं । जैसे:-अन्नाइसो, अवराइसो ( अन्यादृशः)। १. इन उदाहरणों के लिए इसी अध्याय के नियम ५७ की पादटिप्पणी २ देखो। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ . प्राकृत व्याकरण नीचे कुछ अन्य संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश रूप मात्र ही दिये जा रहे हैं। विशेष जानकारी के लिए हेमचन्द्र के व्याकरण का अवलोकन करना चाहिए । संस्कृत अपभ्रंश हेम० सूत्र संख्या प्रायः प्राउ, प्राइव, प्राइम्व, पग्गिम्ब ४. ४१४. अन्यथा अनु, अन्नह ४. ४१५. कुतः कउ, कहन्ति हु ४.४१६. ततः, तदा ४. ४१७. एवं एम्ब ४.४१८. परम् पर समम् समाणु ध्रुवम् तो मा मनाक मणाउ किर अहवइ ४.४१६ किल अथवा दिवा सह नहि सहुं नाहिं पश्चात् पच्छ ४२०. एम्बइ जि एवमेव एव इदानीम् प्रत्युत इतः विषण्णः एम्वहिं, एम्वहि पञ्चलिउ एत्तहे बुन्नउ ४.४२१ " " उक्तम् वुत्तउं Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ ४.४२१., ३५०. ४.४२२. द्रवक्क देहि निश्चह्न एकादश अध्याय वर्त्मनि विधि शीघ्रम् वहिल्लउ कलहकारी घञ्चल अस्पृश्यसंसर्ग विद्याल भयं आत्मीयम् अप्पणं दृष्टि गाढ साधारण सडढल कौतुक कोडु क्रीडा खण्ण अद्भुत ढकरि हे सखि हेल्लि पृथक् पृथक जुअंजुअ मूढ नालिउ, वढ नव नवख अवस्कन्द दडवड यदि संबन्धी केर, तण मा भैषीः मब्भीसा यद् यद् दृष्टम् जाइटिआ ४.४२३. घुग्घर १. शब्दानुकरण अर्थ में। २. चेष्टानुकरण अर्थ में । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण । घई " : : पुणु विणु : ४.४२४. खाई " केहि ४. ४.५. " " रेसि " " " " तणेण' " " पुनः ४. ४२६. विना " " अवश्यम् अवसें अवस ४.४२७. एकशः एकसि ५.४२८. (६५) अपभ्रंश में नाम (प्रातिपदिक) के आगे स्वार्थ में अ, अड, और उल्ल प्रत्यय होते हैं। और स्वार्थिक क प्रत्यय का लुक भी होता है । जैसे:-बे दोसडा (द्वौ दोषौ) कुडुल्ली (कुटी)। विशेष:-जहाँ अड और उल्ल प्रत्यय होते हैं, वहाँ पूर्व के टि का लोप भी हो जाता है। (६६) पूर्वोक्त नियमानुसार जो प्रत्यय किये जाते हैं तदन्त नाम से स्त्रीत्व अर्थ के द्योतन में ई प्रत्यय हो जाता है और टि का लोप भी होता है । जैसे:-गोरड + ई =गोरडी। (६७) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग के द्योतन करने वाले अप्रत्ययान्त से पर में आने वाले प्रत्यय से पुनः आ प्रत्यय होता है। जैसे:-धूलि =धूल =धूलडधूलडिआ (धूलिः)। विशेष:-स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नहीं रहने पर यह नियम लागू नहीं होता । जैसे:-कन्नडइ ( कर्णे)। १. २. अनर्थक निपात। ३. ४. ५. ६. ७. तादर्थ्य निपात । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय २२७ ( ६८ . ) अपभ्रंश में युष्मदादि शब्दों से पर में आने वाले ई प्रत्यय का आर आदेश होता है । और उसके पूर्व के टिका लोप भी होता है । जैसे :- तुहारेण ( युष्मदीयेन ); अम्हारा ( अस्मदीयम् ); महारा ( अस्मदीयः ) | ( ६६ ) अपभ्रंश में इदम् किम्, यद्, तद् और एतद् शब्दों से पर में आने वाले अंतु प्रत्यय के स्थान में एत्तुल आदेश होता है और पूर्व के टिका लोप होता है । जैसे :- एतुलो, केत्तुलो, जेलो, तेत्तुलो । ( ७० ) अपभ्रंश में सप्तम्यन्त सर्वादि से पर में आने वाले प्रत्यय के स्थान में एतहे आदेश होता है । पूर्व के टिका लोप होता है । जैसे :- एत्तहे, तेत्त हे ( अत्र तत्र ) । (७१) अपभ्रंश में त्व और तल प्रत्ययों के स्थान में प्रायः पण आदेश होता है । जैसे :- बडप्पर ( महत्वम् ); पक्ष मेंवडत्तणहो ( महत्त्वस्य ) | ( ७२ ) अपभ्रंश में तव्य प्रत्यय के स्थान में इएव्बउं, एव्वर्ड और एवा ये तीन आदेश होते हैं । जैसे:- करिएव्बउं, मरिएव्वर्ड I ( कर्तव्यम्, मर्तव्यम् ); सहेव्वरं ( सोढव्यम् ); सोएवा, जग्गेवा ( स्वपितव्यम्, जागरितव्यम् ) । (७३) अपभ्रंश में क्त्वा प्रत्यय के स्थान में इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एवि और एविणु आदेश होते हैं । इ जैसे :- मारि (मारयित्वा ); इड जैसे : - भज्जिउ ( भङ्क्तवा), इवि जैसे :- चुम्बिधि ( चुम्बित्वा ); अवि जैसे :- विछोडवि ( विच्छाय ); एप्पि जैसे : - जेपि ( जित्वा ); एप्पिणु जैसे :- एपिणु ( त्यक्त्वा ); एवि जैसे : – पालेवि ( पालयित्वा ): एविणु जैसे : - लेविशु ( लात्वा ) । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ प्राकृत व्याकरण (७४) अपभ्रंश में ' नुम् ' प्रत्यय के स्थान में एवं, अण, अहं, अहिं, एप्पि, एप्पिणु, एवि और एविणु ये आठ आदेश होते हैं । एवं जैसे : — देवं ( दातुम् ); अण जैसे :- करण ( कर्तुम् ); अणहं और अहिं जैसे :- भुञ्जणहं, भुञ्जगहिं ( भोक्तुम् ); एप्प, एपिणु, एवि और एविणु जैसे :जेपि चएप्पिर, पालेवि और लेविणु ( जेतुं त्यक्तुं, पालयितुं और लातुम् ) । विशेष :- गम धातु से एप्पिणु आने पर गम्पिणु और गमेपि रूप होते हैं । उसी तरह एप्पि के रहने पर गम्पि और गमेपि रूप होते हैं | ( ७५ ) अपभ्रंश में तृन् प्रत्यय के स्थान में अणअ आदेश होता है । जैसे :- मारणउ ( ओ ); बोल्लणड ( मारयिता, कथयिता ) | ( ७६ ) अपभ्रंश में इव ( उत्प्रेक्षा में ) के अर्थ में नं, नङ, नाइ, नाइव, जणि, जग्गु ये छ: रूप होते हैं । K नं जैसे:- नं मल्ल जुज्झु ससिराहु करहिं ( ननु मल्लयुद्धं शशिराहू कुरुत: ) नउ जैसे :- नउ जीवग्गलु दिष्णु | ( ननु जीवागलो दत्तः ) नाइ जैसे : – थाह गवेसइ नाइ | ( स्तोघं गवेषयतीव ) नावइ जैसे :- - नावइ गुरु-मच्छर भरिउ | ( ननु गुरु- मत्सर - भरितम् ) जणि जैसे: सोहइ इन्दनीलु जणि कणइ बहुउ ( शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशित: ) जणु जैसे :- निरुषम-रसु पिएं पिएवि जणु । ( निरुपमरसं प्रियेण पीत्देव ) | Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ एकादश अध्याय (७७) अपभ्रंश में लिङ्ग प्रायः बदलते रहते हैं। जैसे:गय-कुम्भई (गजकुम्भानि | कुम्भ शब्द पुंल्लिङ्ग है, किन्तु नपुंसक के रूप में व्यवहृत हुआ है)। ___ (७८) अपभ्रंश के शेष कार्य सौरसेनी के अनुसार किये जाते हैं। इति शुभम् । Page #250 --------------------------------------------------------------------------  Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट अक्षरानुक्रम शब्दसूची अअं रुक्खो शौ. ८. ४४. अइमुतयं १. ३३. अइसरिअं १. ८९. अइसो अप. ११.५६. rood शौ. ८. ४४., पा. २. ९. अक्कंवलं १.२. अक्को (वि.) २.१, ३.३. अक्खइ (वि.) २.३. अगणी ७. अ. अगरू (वि. ) पा. २.१. अगिम्मि शौ. ८. ४४. अगुरूं (वि.) २.१. अग्गओ १.४६. अग्गिएं अप. ११, १५. अग्गिण अप. ११.१५. अगिणी १.२. अग्गिं अप. ११. १५. अग्गी ७. अ. अग्घो ३. ७., अङ्को १. ३. अंकोल्ल तेले (वि.) ३.४०. ., (वि.) २. १० अंकोल्लो ७. अ. अङ्गणं १. ३७. अंगणं १. ३७. अङ्गारो शौ. ८. ४४. ७. अ. अङ्गु अप. (fa.) 99. 8. अङ्गुलिठ अप. ११.२०. अरिअं शौ. ८. ४३, ७. भ. अच्छुरं ७. अ., पा. १. ५७. अच्छइ ६. ६. अच्छति पै.१०.१८. अच्छते पै. १०. १८. अच्छदि शौ. ८. १६. अच्छदे शौ. ८. १६. अच्छन्ति शौ. ८. ३७. अच्छति ६. ६. अच्छरसा (वि.) १.२०,१.२५० अच्छरा ३.२२, १.२५, १, २०. अच्छरा चावार० पा. १२०. अच्छ रिअं पा. १. ५७, ७. अ. अच्छरिज्जं ७. अ. पा. १.५७. अच्छरीअं पा. १ ५७. ७. अ. अच्छरेहिं पा. १. २५. अच्छ १. ४२. अच्छसि ६. ६. अच्छह ६. ६. अच्छामि ६. ६. अच्छामि ६.६. अच्छित्था ६.६. अच्छी ३. १४; पा. १.४१, १.४२ अच्छीई १.४१, पा० १. ४१. अच्छेर ७. अ., ३.२२, १. ५७. पा. १. ५७. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अजसो (वि.) २.१. अजिज ६.२६. अजोग्गो (वि.) २. १४. अज-उत्त शौ. (वि.) ८. २. अज्जा १. ६५. ३.५. अजो ७. अ., शौ. ८.८ अज्झाओ ३.२४. अञ्जलीइ पा. १. ४४. अञ्जली मा. ९.८. अञ्जातिसो पै. १०. १६. अट (वि.) २. ४. अट्ठारह ७. अ. अट्ठाए दण्डो अर्द्ध. पा. १. ६. अट्ठी ७. अ. अडो ७. अ. अड्ढ ७. अ. अणं ७. अ. अणि उत्तयं ७. अ. अणिउंतयं ७. भ. अणिउँतयं १.३३. अणुरुधिजह ६.२६. अण्णधा शौ. पा. २.३. अण्णा पा. २. ५० अण्णा रिसो ९.८७. अण्णरुमइ ६.२६. अण्णा अणुक्कण्ठो पा. १. १५. अतुलं (वि.) २.१. प्राकृत व्याकरण अत्ता ७. अ. अस्थि ६. ६, शौ. ( चि. ) ८. ३७. अदीहाउसमाणी पा. १. २५. अदो कारणादो शौ. ८. ४४. अहं ७. अ. अहो ३.३. अर्द्ध ७. अ. raण (वि.) २.३. अधम्माय कुज्झइ अर्द्ध. पा. १.६. अधीरो (वि.) २.३. अनु अप. ११. ६४. अनुत्तेन्तो ( वि . ) पा. १. १९. अनुवत्तन्तो (वि.) पा. १. १९. अन्तरं १. ३७. अन्तरप्पा १. १९. अन्तरिदा १. १९. अन्ते आरी ७. अ. अन्ते. उरं ७. अ. अंतरं १. ३७. अंतावेइ १.७. अन्दे ठरं शौ. ८. ३. अंधलो स्वा. प्र. ३. ४५. अन्नलं ७. अ. अनह अप. ११. ६४. अन्नाइसो अप. ११. ६४. अन्नुन्नं ७. अ. अपारो (वि.) २.१. अपुरवं शौ. ८.१२. अपुरवागदं शौ. ८. १२. अवं शौ. ८. १२. अपुब्वागदं शौ. ८. १२. अप्पज्जो ३. ५. अपणइआ (वि.) ४. ४१. अप्पणा ४. ४१. अपणिआ (वि.) ४. ४१. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पणो ४.४१. अप्पणं अप. ११.६४. अप्पण्णू ३. ५. अप्पमत्तो (वि.)२.९. अप्पं ४.४१. अप्पा ४. ४१., ७. अ. अप्पाओ ४. ४१. अप्पाणम्मि ४.४१. . अप्पाणा ४.४१. अप्पाणाओ४.४१. अप्पाणाणं ४.४१. अप्पाणाहिंतो ४. ४१. अप्पाणे ४. ४१. अप्पाणेण ४. ४१. अप्पाणेसु ४. ४१. .अप्पाणेहिं ४.४१. अप्पाणो ४. ४१. अप्पाणं ४.४.. अप्पाण्णस्स ४.४१. अप्पादो ४.४१. अप्पाहिंतो ४. ४१. अपिअं १. ५८. अप्पुल्ल (वि.)३. ४४. अप्पे ४.४१. अप्पे १.५८. अप्पेसुं४.४१. अप्पेहि ४. ४१. अफुण्णो ६. ३९. अबाम्नं मा. ९.८. अभिमन्नू पै. १०.४. अमुगो (वि.)२. १. शब्द-सूची | अमुजणो शौ. ८. ४४. अमुणा ४. ४७.. अमुणो ४.४७. अमुम्मि ४. ४७. अमु वणं शौ. ८. ४४. अमु वह शो. ८. ४४. अमुस्स ४. ४७. अमुं४. ४७. अमू ४.४७. अमूउ ४. ४७. अमूओ ४. ४७. अमूणे ४.४७. अमूणो ४. ४७. अमूणं ४. ४७. अमूसु ४. ४७. अमूहि ४. ४७. अमूहिंतो ४.४७. अम्बं७. अ. अंबं १. ६७. अम्महे शौ. ८.२६. अस्मि हेरू., पा. ४. ४७., ४. ४७. अम्ह हेरू., पा. ४. ४७. शौ. ४. ४७. अम्हं हेरू., पा. ४. ४७.शौ. ४. ४७. अम्हइ अप. ४. ४८. अम्हइं अप. ११.४०. अम्हकेरं ३. १२. अम्हकेरो ३. ३७. अम्हकरं ३. १२. अम्हत्तो ४. ४७., हेरू., पा. ४. ४७. अम्हम्मि ४.४७, हेरू., पा. ४. ४७. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ प्राकृत व्याकरण . अम्हसु ४. ४७. हेरू., पा. १. ४७. | अम्हो ४. ४७. हेरू. पा. ४. ४७. अम्हहं अप. ११.४०. । अयम्मि ४. ४७, (वि.) ४. ४७.. अम्हहे अप. ४. ४८. अया (वि.) ४. २९. अम्हा ४.४७. अय्य मा. ९.७. अम्हाण हेरू., पा. ४. ४७. अय्यउत्त शौ. ८.८. अम्हाणं ४. ४७.,शौ. ४. ४७., ८.१४., अय्युणे मा. ९.७. हेरू. पा. ४. ४७. अरहंतो ७. अ. अम्हातिसोपै. १०. १६. अरहो ७. अ. अम्हारा अप. ११. ६८. अरिहंतो ७. म. अम्हारिसो १.८७., ३. २९.. अरिहो ७. अ. अम्हारो अप. (वि.) ३.३८. अरुहंतो ७. अ. अम्हासु अप. ११. ४०., हेरू., पा. अरुहो ७. अ. ४.४७. अलचपुरं ७. अ. अम्हासुंतो हेरू. पा. ४. ४७. अलसी ७. अ. अम्हाहि हेरू. पा. ४. ४७. . अलिअं १. ७३. अम्हाहि ४. ४७. अलिउलइं अप. ११. २५. अम्हाहिंतो हेरू. पा. ४. ४७. अलीअं (वि.) १.७३. - अम्हि ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. अलाउं७. अ. अम्हे ४. ४७., शौ. ८. ४५., ८. ४०., अलाऊ २. १२, ७. अ. ४. ४७., अप. ११.४०., ४. ४८., अलाव २. १२. हेरू. पा. ४. ४७. अल्लं ७. अ. अम्हेएच १. ४८. अवअवो (वि.) २. १४. अम्हेच्चयं ३.३८. अवासो १. ९४. अम्हेव्व १. ४८. अवगरं (पि.) १. ९४. अम्हेसु हेरू. पा. ४. ४७, शौ. ४. ४७. | अवजसो (वि.) २. १४. अम्हेसुंतो हेरू. पा. ४. ४७. अवज्जं ३.२३ अम्हेहि अप. ११. ४०, ४.४७. अवज्ञा मा. ९.८. शौ. ४. ४७. अवडो ७. अ. अम्हेहि अप. ४. ४८, हेरू. पा. अवरण्हो ३. २८. ४.४७. अवराइसो अप. ११. ६४. अम्हेहितो अप. ४.४८, शौ. ४. ४७. | अवरिलो स्वा. प्र.३.४५. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ शब्द-सूची अवरूवं शौ. पा. २. १. अहिजाई पा. १. ५२. अवरोप्पर अप. ११.६१. अहिजो ३. ५., (वि.) १. ५६. अवस अप. ११. ६४. . अहिण्णू १. ५६., ३.५. अवसदो (वि.) १. ९४. अहिमज्जू ७. अ. अवसरइ १. ९४. अहिमा ७. अ. अवस अप. ११. ६४. अहिमञ्जकुमाले मा. ९. ८. अवहडं ७. अ. अहिमण्णू शौ. ८.४४. अव्वह्मजं शौ. ८.४४. अहिमन्नू ७. अ. अन्वह्मण्णं शौ. ८. ४४. अहिमुंको १. ३३. अव्वह्मक्षं शौ. ८. ४४. अहेसि (वि.) ६.८. अस्तवदी मा. ९. ६. अंसुं १. ३३. अस्मासु अप. ४. ४८. अंसो १.३२. अस्स ४. ४७. अस्सि ४. ४७. आ अस्सो १. ५२. आअओ ७. आ. अस्सं १.६७. अह (वि.)४.४७. आअदो २. ६. . अहअं४.४७. आअरिओ ७. आ अहके मा. प्रा. प्र. ९. १६, मा. (वि.) आइदी २. ६. ९. १६. आइरिमो ७. आ. अहम्मि ४. ४७. आउण्टणं आ. (वि.) २. १.. अहयं. हेरू., पा. ४. ४७. आउदी २. ६. अहरुट, १. ६७. आएण अप. ११.३७. अहव १.६१. आओ ७. आ. अहवह अप. ११.६४ आओज ७. आ. अहवा १.६१. अहं ४. ४७, हेरू, पा. ४.४७, शो. भागरिसो (वि.) २. १.. ४.४७., ८.४४. आगारो (वि.) २. १. महाजा (वि.)२.१४. आचस्कीद मा. ९. १२. . अहि २.३. माढत्तो ७. आ. अहिआई १. ५२. | आढप्पड ६.२६. आगमण्णू १.५६. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३६ आठवी ६. २६. आढिओ ७. आ. आणा ३.५. आणालं ७. आ. आणिअं १. ७३. आत्तमाणो ७. आ. आदरो (वि.) २.१. आफंसो ७. आ. आमेलो ७. आ. आयई अप. ११.३७. आयो अप. ११. ३७. आयासं (वि.) १.६७. आरद्धो ७. आ. आरम्भो १. ३७. आरंभो १. ३७. आलले मा., प्रा. ९. १६. आलिट्ठ ७. आ. आलिद्धं ७. आ. आलिहिदा २.३. आली ७. आ. - आवइ अप. ११. ५३. आवत्तओ (वि.) ३.२. आवत्तणं (वि.) ३.२१. आवत्तमाणो ७. आ. प्राकृत व्याकरण enifer (fa.) §. 4. आसीसा ७. आ. आसीसय ७. आ. आसो १. ५१, १.५२. आस्सं शौ. (वि.) ८. ३७. आहरणं २.३. आहिआई १.५२. हिजाई पा. १. ५२. इ इ हेरू., पा. ४. ४७. इअ (वि.) १.५०. इअ उअह० १. ६९. इअ जं० १. ६९. इम्मि ४.४७. इअं (वि.) ४.४७. इअं बाला शौ. ८. ४४. इआणि १.३६. इआणि १.३६. इण ७. इ. इङ्गालो १.३., ७. इ. इङ्गिभजो ३.५, इङिओ शौ. ८. ४४. शौ. ८. ४४. अण्णू ३.५. इङ्गिभण्णो शौ. ८. ३१. इङ्गुभं ७. इ. इङ्गुदी एवं ३.४०. इच्छह अप. ११. ४३. इच्छहु अप. ११. ४३. इट्टाचुणं व्व (वि.) ३.१८. इड्ढी १. ८१, ७. ई. इण ४. ४७. इणं (वि.) ४.४७. इणं धणं शौ. ८. ४४. इत्तिअं ३. ४१, ७. इ. इत्तो ४. ४७. इत्थी शौ. ८. ३८, प्रास. ८.४५. इदर सित्वा शौ. ८.४१ • Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची .. २३७ ईसाल ३.४४. . . इंदहण १.३. इदो ४.४७, शौ. ८. ४४. इदं (वि.)८. ४७. इदं वणं ८. ४४. इध शो. ८. १०. इन्धं (वि.) २. १. इमस्स ४.४७. इमस्सि ४. ४७. इम ४.४७. इमादो ४. ४७. इमाणं (वि.) ४. ४७, ४. २९. इमाए ४.२९ इमिआ (वि.) ४. ४७. इमिणा ४. ४७. इमिए ४. २९. इमीणं ४. २९. इमु अप. ११.३३. इमे ४.४७. इमेण ४.४७. इमेहिं ४.४७ इमेहिंतो ४. ४७. इमो ४. ४७. इसि १.५४, पा. १. ५४. इसी १.८१, १.८६. इह ४.४७. इहं १.३१. ईक्खू ७.ई. ईदिशाह मा. ९. १४. ईदिसं शौ. ८. ४४. ईयम्मि (वि.) ४. ४७. ईसरो ३.८, (वि.) १.६७. उइदं २. १. उऊ ७. उ., (वि.)२.६. उत्तिओ (वि.) ३. २१. उकरो पा. १. ५७, ७. उ. उक्कण्ठा (वि.). १. १९, १.३७. उक्कंठा १.२, १.३७., १.३२. उक्का ३.३., १.२. उकिटं ८. ८१. उक्के रो. ५. ५७, ७. उ., पा. १. ५७.. उको पा. ३.६. उकोसं ६.३९. उक्ख रं १.६१. उक्खा १.६१. उच्च ७. उ. उच्छण्णो (वि.) १. ७७. उच्छवो ७. उ. उच्छाहो ३. २२. (वि.)१.७७.७. उ.. उच्छुओ ७. उ. उच्छू ३. १४., ७. उ. उजू १.८३. उज्जू १. ८६., ७, उ, ३. ११. उज्ज्ञ हेरू., पा. ४. ४७. उज्झेहिं ४.४७. हेरू. पा. ४. ४७. उट्टो (वि.)३. १८. उडम्बरो ७. उ. उण्णयं १. १७. उण्हीसं ३. २८. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ उत्तिमो १.५४. ७. उ. दो शौ. ८. ४४. उत्थेदि शौ., प्रास. ८. ४५. उदू ७. उ., १.८३, १.८६, २.६ "उद्धं ७. उं. उपसग्गो २.८. उप्पलं ३. १, उपाओ (वि.) पा. १. १९, ३.१. उनरुधिजइ ६. २६. सबरुह्यइ ६.२६. उब्भ हेरू. पा. ४. ४. उभं ७. उ. म्बरं १.३. उम्बरो ७. उ. उम्ह हेरू. पा. ४. ४७. रू. पा. ४.४७. उम्हाण हेरू. पा० ४. ४७. उम्हाणं रू. पा० ४.४७. प्राकृत व्याकरण ४.४७. उम्हहिं ४, ४७., रू. पा. ४. ४७. उन्हं ३. २९. उयह हेरू. पा. ४. ४७. उच्हत्तो रू. पा. ४. ४७. उम्हे हेरू. पा. ४. ४७ उम्हेहिं हेरू. पा. ४. ४७. उलूखलं ७. ३. उलूहलो शौ. ८. ४४. उल्ले७.उ. उल्लं ७. उ. / उवज्झाओ १. २४. उवणिअं १. ७३. उवणीओ १. ७३. उवमा २. ९. उवरं (वि.) पा. १. १९. उवरि शौ. ८. ४४. उवरिं १. ३३; ७. उ. उवस्तिदे मा. ९. ६. उवहसमाणि ६. १३. उन्ग्गिो (वि.) ३.३. उव्वीढं ७. उ. उठवूढं ७.उ. उश्चलदि मा. ९ १०. उसहो १. ८३., ७. उ., १८६. उस्मा मा. ९. ४. ऊआसो १.९५. उच्छुओ १.७७. ऊज्जा १. ६५. ऊसओ १. ७७. ऊसव (वि.) १.६७., ७. उ. ऊससरो ३. ३५. ऊसारो ७. उ. ऊसारिओ (वि.) ३.२२. ऊसित्तो १.७७. ऊसुओ १.७७, ७. उ. ऊसो १.५१. ऊहसिअं १.९५. ऋणं १.८६. ऋ ए ए हेरू. पा. ४. ४७. अ (वि.) पा. १. १९. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ शब्द-सूची 'एअम्मि (वि.)४.४७. । एगत्तणं (वि.) २. ५. एअस्स ४. ४७ एगो (वि.) २.१. एअस्सि ४. ४७. एणं ४. ४७. एअं (वि.) पा. १. १९., वि. २. एम्हि ७. ए. एभा (वि.) ४. ४७. एते ४. ४७. एआउ (वि.) ४. ४७. एतेहिं ४. ४७. एआए ४.२९. एतेहिंतो ४. ४७. एआओ ४. ४७., (वि.)४. ४७. एतं ४. ४७. एआणं. ४. २९. एत्तहे अप. ११. ७०., ११.६४. एआरह ७. ए. एत्ताहे ७. ए. (वि.) ४. ४७. एमआरिसो १.८७. एत्ताहो ४. ४७. एआहि (वि.) ४. ४७. एत्तिअमत्तं १. ६६. एआहिंतो (वि.) ४. ४७. एत्तिअमेत्तं १. ६६. एइ पेच्छ अप. ११. ३५. एत्तिअं३. १२. एईए ४. २९. एत्तिकं शौ., प्रास. ८. ४५. एईणं ४. २९. एत्तिलं ३.४२. एएसिं ४.४७. एत्तलो अप. ११. ६९. एएसु ४.४७. सत्तो ४.४७. (वि.) ४.४७. एएहि ४.४७. एस्थ पा. १. ५७., १. ४७. एओ ३. १२. एस्थु अप. ११. ५९. एओ एत्थ १. १२. एदस्स ४.४७. एकसि ७. ए. एदाओ शौ. ८.२. एकलो स्वाप्र. ३. ४९. एदाणं ४. ४७. एक्कईआ ७. ए. एदाहि शौ. ८.२. एकल्लो स्वाप्र. ३. ४५. एदिणा १. ४७. एक्कसि ७. ए. एदे ४. ४७. एक्कसि अप. ११.६४. एदेण ४. ४७. एक्कहिं अप. १. २९. एदेसु ४. ४७. एकारो ७. ए. एदेहि ४. ४७. एको ३. १२. एदहं ३. ४२. एगा ७. ए. एम्व अप. ११. ६४. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण | एहिं ४. ४७. एहु अप. ११.३४., ११. ५५. एहो अप. ११.३४. एम्वइ अप. ११. ६४. एश्वहि अप. ११. ६४. एम्वहिं अप. ११.६४. एयाए महिमाए पा. १. ४४. एरावणो १.८८., ७. ए. एरिसो १. ८७., ७. ए. एलया (वि.) १.२९. एक १.३६. एवहु अप. ११.६०. एवमेदं शौ. ८.२१. एवं १.३६. एवं णेदं शौ. ८.२१. एव्व (वि.) पा. १. १९. एग्वं (वि.)पा. १. १९. एशे मा. (वि.) ४.५., मा. ९. २. एशे पुलिशे मा. प्राप्र. ९. १६. एशि लाभा मा. प्राप्र. ९. १६. एस ४. ४७. एसा अच्छी १.४१. एसा अंजली १.४४. एसा गरिमा १.४४. एसा बाहा १. ४५. एसा महिमा १.४४. एसु ४.४७. एसो ४.४७. एसो अंजली १.४४. एसो गरिमा १.४४. एसो जणो शो. ८.४४.. एसो बाहू १. ४५. एसो महिमा १.४४. एह अप. ११.३४. । ओ आआसो १. ९१, १.९५. ओह अप. ११.३६. ओक्खलं ७. उ. ओप्पिअं १. ५८. ओप्पेह १. ५८. ओमालं १. ४७. ओमलं १. ४७. ओली ७. ओ. भोलेट ७ ओ. ओसढं ७ ओ. ओसरह १. ९४. ओसह ७. ओ. ओसिअन्तो १.७३. ओहणं १. ९४. ओहसिअं १. ९५. क काग्गहो १.२., २.१.. कअणं ७. क. कअं १.८०., (वि.)२.६. कअंधो ७.क. कअम्बो ७. क. कलं ७. क. कइअवं ७. क. कइआ ४.४७. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २४१ कइमे ७. क. कडे मा. प्राप्र. ९. १६. कहरवं १. ९०.. कड्ढउं अप. ११.४४. ... कइलासो १. ९०. कडढामि अप. ११.४४. कइवाहं ७. क.. कणअं२. ८. कणवीरो ७. क. कइसो अप. ११. ५६. कणेरू ७.क. कई २.१. कउ अप. ११. ६४. कण्टओ १.३७. . कउक्खेअओ १.९३. कंटओ १.३७. कउरओ १. ९३. कण्डं १.३७. कउला १. ९३. कण्डु अणं ७.क. कठहं ७. क. कंडं १.३७. कण्णा शौ. ८.४४. कउहा० पा. १. २६., १. २६. कण्ण उरं (वि.) १. २. कधं ७. क. कण्णा शौ. ८.३०. ककुहा ७. क. कण्णिआरो ७. क. . कंकोडो १.३३. कण्णेरो ७. क. कचं पै. प्राप्र. १०.२१. कण्हो ७.क., ३. २८, (वि.) १.८१. कच्चु अप. ११.१. कत्तरी (वि.) ३.२१.. कजमा शो. ८. ४४. कत्तिओ (वि.)३.२१. कजपरवसो शौ. ८. ८. कत्तो ४. ४७. कज्जं ३.२३. कत्थ शौ. ८.४४, ४.४७. कन्चु ओ १.१. कदो शौ. (वि.) ४.४७, ४. ४७. कन्चुइआ शौ. ८. ४. कधं शौ. ८. ४४, ८.९. कन्चु ओ १. ३७. कधिदु अप. ११. ४९. कंचुओ १.३२., १.३७. कधेदि शौ. प्रास. ८.४५. कञ्जमा शो. ८. ४४. . कंथा (वि.)२.३. का पै. प्राप्र. १. २१., शौ. ८. ३०. . कन्दो ७. क. कञका पै. १०.४. कन्नडह अप. (वि.) ११.६७. . कम्जकावलणं मा. ९.८. कबन्धो शौ. ८.४४. . कटं ३. १८. कमढो २. ४. कडणं ७. क. कमंधो ७. क. कडुअ शौ. ८. १४. कमलई अप. ११. २५. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२. प्राकृत व्याकरण 'कमळं पै. १०..७. कमो (वि.) ३. ३२. कम्पइ (वि.) २.९, १. ३७. कंपड १.३७. करमसं (वि.)३. ३. कम्माह मा. ९. १४. कम्मि ४. ४७. . कम्मो १.३९. . कम्हा ४.४७. कम्हारो ३. २९, ७. क. कयग्गहो पा. २. १. कय्ये मा. प्राप्र. ९. १६. कर ६.२८. करण अप. ११.७४. करणिज्ज २. १५. करला ७.क. करे अप. ११.४६. करेमि शौ. ८.३५. कलओ १.६१. कलम्बो १. ३७, ७. क. कलंबो १.३७. कलाओ २.९. कलिहि अप. ११. १३.. कले मा. ९.३. कल्हारं ३.३१. कवण अप. (वि.) ४. ४७.११ ३९. कवलु अप. ११.५०. कवटि ७. क. कवोलो २. ९. - कव्वं (वि.)३. ३. कसटं 4. १०. १३, प्राप्र. १०.२१. कसणो ७ क. कसं ७. क. कसिणो ७.क., पा. ३. ६. कसिणं ७. क. | कस्टं मा. ९.४. कस्स ४. ४७. कस्सि १. ४७. कस्सि शौ. ८.४४. कह १. ३६. कहन्तिाह अप. ११.६४. कहमवि १. ४९. कहं २. ३. शौ. ८..९., १.३६., अप. (वि.)४. ४७. कह पि १. ४९. कहावणो ३. ९., ७. क. कहां अप. ११. २७., ११. २८. कररुहो १. ४३. कररुहं १. ४३. करहिं अप. ११.४१. कराविभाइ ६. १९. कराविजह ६. १९. करावि . १९. करिएन्वउ अप. ११.७२. करिणी (वि.)४. २९. करिजइ ६.२६. करिदण शौ.८. १४. करिय शौ. ८. १४... करिस (वि.)६.२८. करिसो १.७३. करिस्सिदिशौ. ८. १७. करीसो (वि.) १.७३. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कासी ६. ७. शब्द-सूची कहां अप. (वि.) १. ४७. कालो (वि.) २.१. कहि शौ. ८.४४... कास ४.४७. कहिं ४.४७. । कासह १.५१. कहे अप. ११.३१. कासो १. ५१. कहेहि २.३. कासवो १. ५१., २.९. कं४.४७. कसं १.६३, १.३६. कासु अप. (वि.) ४. ४७., अप. कंसो १.३२. ११.३०., ४.३२. . कंसिओ १. ६३. कासं १.३६. कंसुअं७. क. काहं ६.८, ६.९. का (वि.)४. ४७. काहावणो ७.क. काइ अप. (वि.)४. ४७. काहिह ६.८ काइमो ६.८. काहित्था ६.८. काइं अप. ११.३९. काहिमि ६. ८., ६.९. काहिसि ६.८. काउणं १.३४. काउंणो ७. क. काहिति ६.८. काऊण ३. ३६., (वि.) ६. १६., काही (वि.) १. ९., ६. ७. , १.३४. काहीभ ६.७. काए ४. ३२. काहे ४.४७. काओ ४.३२. कि१.३६. कार अप. ११.१. किम (वि.) ४. ४७. काणं ४. ४७. किअं२. १. कामीभदि शौ.८.४२. किई १. ८१. कारिदाणि मा. प्राप्र. ९. १६. किचं १. ८१. कारिखं ६. १९. | किसी ७. क., पा. ३. ६. कारिजइ ६. १९. किच्छं १. ८१. कालओ १.६१. | किजदि ८.१६. काला ४.२०., ४. १७.. किजदे शौ. ८. १६. कालाअसं ७. क. (वि.) पा. १. १९. किणा ४. ४७.. कालासं (वि.) पा. १. १९, ७. क. | किण्हो (वि.) १. ८१. काली ४. २९. | कित्ती (वि.)३. २१. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्राकृत व्याकरण किध अप. ११.५४. किं णेदं शौ. ८. २१., किट अप.११.१. किंपि १.४९. किंति १.५०. किंसुअं १.३६., ७ क. .. किमवि १. ४९. किंसुओ शौ. ८.४४., (वि.) १. ३७. किमेदं शौ. ८.२१. किस्सा (वि.)४. ४७. किर अप. ११. ६४. कीए (वि.) ४. ४७., ४. ३२. किरातो शौ. ८.४४. कीआ (वि.) ४.४७. किरिमा ७.क. कीई (वि.) ४. ४७. किलिटुं३. ३२. कीमो ४.३२. किलिण्णं ३.३२.,७. क. कीदिसं शौ. ८. ४४. किलिनाउ अप. ११. १. कीणो ४.४७. किलिस्सह ३. ३२. कीरह ६.२६. किलेसो ३. ३२. कीरते पै. १०.१५. किवणो १. ८१. कीलइ २.४. किवा १.८१. कीस १.४७. किवाणं १.८१. की अप. ११. ४८., ४. ३२. किविणो १.५४... कीसे (वि.)४.४७. किवो १.८१. कुऊहलं ७. क. किसरं ७. क. कुक्खेअओ १. ९३. किसरो १.८१.. कुच्छेष ७. क. किसलअं७. क.. कुटुम्बकं पै. १०.१०.. किसलं ७. क. कुडल्ली अप. ११.६५. . किसाणू १. ८१: किसिमो १.८१. कुतुम्बकं पै. १०. १०. . . किसो १.८१.. कुदो (वि.) १.४५., शौ. ८. ४४. किसं ७. क. . कुप्प ६.३८. किसुअं ७. क. कुप्पलं ३. १६. किह अप. ११. ५४... कुब्ज ७. क. किहे अप. ११. २८. कुमरो १.६१. किं अप. ११.३९..वि.) १..१७... कुमारी १.६१. १.३६. | कुमारी शौ. ८. ४४., (वि.) ४. २९. कुढारो २.४. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ शब्द-सूची केलासो १. ८८., १.९०. केली ७. क. केवट्टो ३. २१. कुम्हण्डो शौ. ८.४४. कुरुचरा ४. २८. कुरुचरी १. २८. कुल (वि.) पा. १. १९. कुलं १.४१., ४.४१. कुलाई ४.३९, ४. ४१. . कुलाई ४. ३९. कुलाणि ४. ४१., ४, ३९. कुलूदाहिपो १.१. कुलो १. ४१. कुल्ला (वि.)३.३. कुवल (वि.) पा. १. १९. कुसुम पयरो ३. १०. कुसुमप्पयरो ३. १०. कुसो २. १९. कुंपलं १. ३३. केवडु अप. ११.६.. केव अप. ११.५४. केसरं ७. ६. केसवो पै. प्राप्र. १०.२१. | केसि ४. ४७. केसु ४. १७. केसुकं १.३६., ७. क. केसुओ शौ. ८.४४. केहिं अप. ११. ६४., ४. ४७. केहिंतो १.४७. केहु अप. ११.५५. कैअवं पा. १.१., १.८९. को ४. ४७. कोउहलं ३. १२. कोउहब ७.क., ३. १२. . कोऊहलं ७. क. कोट्टिमं १. ७९. कोडं (वि.) २. ४. कोत्थुहो १. ९१. कोदूहलं शौ. ८. ४४. कोन्तलो १. ७९. कोंचा १.९१. कोड्ड अप. ११. ६४. कोप्परं ७. क. कोमुई १. ९१. कोसलो (वि.) १. ९३. कोसंबी १. ८१. कोसिमो १.९१. केढवो ७. क., १.८८. केण ४. ४७. केणवि १. ४९. केणावि १. ४९. केत्तिअं३. ४२. केत्तिलं ३. ४२. केत्तलो अप. ११. ६९. केत्थु अप. ११.५९. केदह ३. ४२. केम अप. ११. ५४. केर अप. ११.६४. केरवं १. ९०. केरिसो १. ८७., ७. क. केलं ७. क. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाइअं१.६१. प्राकृत व्याकरण कोस्टागालं मा.९, ५.. खाइ ६. ३६. .. कोहडी ७.६. कोहण्डी ७. क. खाई अपः ११.६४. कोहलं ७. क. खाण ३. १२., ७. ख. कोहली ७. क. . खासिअं७. ख. कौच्छेअअं७. ६. खित्तं ७. ख. कौरवा पा. १. १.. खिद्यति ३. १३. क्खु शौ. ८.४५. खीणं ३. १३. ख खीरं शौ. ८.४४. . खइ १.६१. खीलओ ७. ख. खइओ ७. ख. खु शौ. ८. ४५. खभो ३. १३. खुजो ७. ख. खग्गं १. ४३. खुडिओ ७. ख. खग्गो १. २., ३. १., १. ४३. खुडका अप. ११. ४८. खन्दो ७. ख. खेडओ ७. ख. खंधावारो३.१७. खेडिओ ७. ख. खंधो ३. १७. खेड्ड अप. ११. ६४. खट्टा (वि.)२.४. खडगो (वि.)२. ४. खणौ ३. १५., ७. ख. शौ. ८.४४. गा २.१. खण्डिओ ७. ख. गठमा ७. ग. खण्ण अप. ११. ६४. गउओ ७. ग. खण्णू ३. १२. गउडो १. ९३. खप्परं ७. ख. गउरवं ७. ग. खमा ७. ख. . गउरी अप. ११.१. खम्भो पा. ३. ६.. गओ २. १., (वि.)२. ६. खंभो ७. ख. गकनं पै. प्राप्र. १०.२१. खलिअंपा, ३. ६., ३. १., पा. ३. १. गग्गरं ७. ग. खल्लोडो ७.ख. गच्छति पै. १०. १८. खसिओ ७. ख. गच्छते पै. १९. १८.. खाभइ ६.३६. .. गच्छदि शौ. ८. १६. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २४७ गच्छदे शो. ८. १६. गरुभाइ ६. १... गच्छं ६. ९. गरई १.७५. गच्छिदूण शौ. ८. १७. गरुओ १.७६. गच्छिय शौ. ८. १४. | गरुलो २.४. गच्छिस्सिदि शौ. ८. १७. गलोई १. ७५., ७. ग. गजह (वि.)२.३. गश्च मा.९.१०. गजतो (वि.)२.३. गहवाई ७. ग. गडुअ शौ. ८. १४. | गहिअं १. ७३. गडे मा. प्राप्र. ९. १६. गहिदच्छले मा. प्राप्र. ९. १६. गड्डहो ७. ग. गहिरं १. ७३. गड्डो ७. ग. गहो ३.३. गंठी १. ४४. गाई ४.३७. गण्हिजइ ६. २६. गाढजोवणा (वि.)२. १४. गद्दहो शौ. ८. ४४., ७. ग. गारवं ७. ग. गन्वून पै. १०. ११. | गावी ४.३७., ७. ग. गन्ध उडि १. १३. गावीओ ७. ग. गन्धो (वि.)२.१. गावो ७. ग. गडिमणं शो. (वि.) पा. २. १., गाहा २. ३. . ७. ग. गिट्ठी १. ८१. गमिजइ ६. २६. गिड़दी १.८. गमेपि अप. (वि.) ११.७४. गिंठी १.३३. गमेप्पिणु अप. (वि.) ११. ७४. गिद्धो शौ. ८. २९. गम्पि अप. (वि.) ११. ७४. गिम्हो ३. २९. गम्पिणु अप. (वि.) ११. ७४. गिरउ हेरू. ४. १९. गंभिरीअं७. ग. गिरोअ हेरू. ४. १९. गम्मा ६.२६. . . गिरवो हेरू. ४. १९. गय अप. ११. १७. गिरा १. २१., पा. १. २१. गयकुम्मइं अप. ११. ७७. गिरि ४. १९., हेरू. ४. १९. गया पा. २. १. गिरि ४. १९., हेरू. ४. १९., १. २८. गय्यदि मा. ९. ७. गिरिण ४. १९. गरुमाअइ ६. १. | गिरिणं ४. १९. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ प्राकृत व्याकरण गिरिणा ४. १९., हेरू. ४. १९. गिरिणो ४. १९., हेरू. ४. १९. गिरित्तो ४. १९. हेरू. ४. १९. गिरिम्मि ४. १९. हेरू. ४. १९. गिरि-सिङ्गहुं अप. ११. ९. गिरि सुंतो ४. १९. गिरि हितो ४. १९. .. गिरिस्स ४. १९., हेरू. ४. १९.. गिरिहे अप. ११. १३. गिरी ४. १९. हेरू. ४. १९. गिरीठ हेरू. ४. १९. गिरीमो हेरू ४. १९. गिरीओ ४. १९. गिरीग हेरू. ४. १९. गिरीणं हेरू. ४. १९. गिरीस ४. १९., हेरू. ४. १९. गिरीसुं ४. १९. हेरू. ४. १९. गिरीसुतो हेरू. ४. १९. गिरीहिं १. १९. गिरीहि ४. १९., हेरू. ४. १९. गिरीहितो हेरू. ४. १९., हेरू. ४.१४. गिम्भो अप.११.६३. गिम्ह-वाशले मा. (वि.) ९.४. गुज्झं ३.३० गुडो (वि.) २.४. गुणहि अप. ११. ७. गुणहिं अप. ११. १९. गुणाई पा. १. ४३. गुणो १. ४३. गुणं १.४३. गुण्ठी १.३३. गुत्तो ३. १. गुनगनयुत्तो पै. १०.५. गुनेन पै. १०.५. गुम्फह (वि.) २. ११. . गुरउ हेरू. ४. १९. । गुरओ हेरू. ४. १९. गुरवो हेरू. ४. १९. गुरु ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुई ३. ३३. गुरूउ हेरू. १. १९. गुरुओ १. ७६., हेरू. ४. १९. गुरुण ४. १९. गुरुणं ४. १९. गुरुणा ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुणो ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुत्तो ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुम्मि ४. १९. हेरू. ४. १९. गुरुलावा १. ६७. गुरुवी ३.३३. गुरुस्स ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुहितो ४. १९. गुरुं ४. १९., हेरू. ४. १९. गुंछ १. ३३. गुरू ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरूउ हेरू. ४. १९. गुरूओ हेरू. ४. १९. गुरूण हेरू. ४. १९. गुरूणं हेरू. ४. १९. गुरुसु ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुसुं ४. १९., हेरू. ४. १९. गुरुसुंतो हेरू. ४. १९. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूहि ४.१९., रू. ४. १९. गुरूहिं ४. १९, हेरू. ४. १९. गुरूहिंतो रू. ४. १९. गुलो (वि.) २. ४. गृहेणु अप. ११.४८. गेज्झदि शौ., प्रास. ८. ४५. गण्डदि शौ., प्रास. ८. ४५. गेंडु (वि.) १.५७. गेही ६.८. गेन्दुअ पा. १. ५७, ७. ग. गेह्यं ७. ग. गोआवरी ७. ग. गोट्टी ३.१. गोणो ७. ग. गोदमो १.९१. गोरडी अप. ११. ६६. गोरी (वि.) ४.२९., अप. ११. १. गोला ७. ग. गोविन्तो पै., प्रा. १०. २१. गोवेइ २. ९. घ घ १.८०. शब्द-सूची अप. ११.६४. घड्वल अप. ११. ६४. घड २. ४. घडो २. ४. azi (fa.) 2. 8. घरं ७. घ. घिणा १.८१. घुग्ध अप. ११. ६४. घुटुक्कड् अप. ११. ४८. घुम्मदि शौ., प्रास. ८. ४५. घुसिणं १. ८१. घेत्तण ३. ३६. घेत्तूनं पै., प्रा. १०. २१. घेई ६.२६. घेपदि शो, प्रास. ८. ४५. घोडा अप. ११. २. च चत्तं (वि.) ३. १९, ७. च. चइतो १.९०. चग्गुणो ७. च. चट्ठी ७. च., शौ. ८. ४४. चउडो ७. च. उन्हं ४. ४८. चउत्थी ७. च. चठत्थो ७. च. चउदसी ७. च. चउद्दह ७. च. उद्दही शौ. ८. ४४. चउमुहु अप. ११.३. चउरो ४. ४८. चउव्वारं ७. च. २४६ चउसु ४. ४८. चहि ४. ४८. चऊहिंतो ४. ४८. एपिणु अप. ११.७४., अप. ११.७३. चक्कं ३. ३. चक्काओ (वि.) १. १३.. चक्खिअं ६. ३९. चक्खू १. ४१. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खूइं १.४१. चरं ७.च. चहु पा. १. ६१. चत्तारि ४. ४८. चत्तारो ४. ४८. चन्दो १. ३७. चन्दो (वि.) ३. ३. चन्दिमा ७. च. चन्दो १.३७, ( चि. ) ३.३. * चवेडा ७. च. saदि शौ., प्रास. ८. ४५. चाउण्डा ७. च. चमरं १. ६१. गुण ७. च. 'चम्मं (वि.) १. ४०, (वि.) चोट्ठी ७. च. चोट्टो ७. च. पा. १.४०. चविडा ७. च. चविडो ७. च. चविलो ७. च. प्राकृत व्याकरण चाहु पा. १. ६१. चामरं १. ६६. चिह्न (वि.) २. ४. चिट्ठदि मा० (वि.) ९.१३., शौ. ८. ३६. चिणइ ६. २२, ६. ३१. चिणिजइ ६.२३. चिन्हं १. ६८., शौ. ८. ४४. चिन्धं ७. च. चिम्म ६. २४. चिलाओ ७. च. चिन्व ६.२३. चिरं ७. च. चिह्न ७. च. चुअ ३. १, पा. ३. १. चुच्छं ७.. चुण ६. ३१. चुण्णो १.६७. चुम्बिवि अप. ११. ७३. चेहं १. ६८. चेत्तो १.९०. चोरथी ७. च. चोरथो ७. च. चोदसी ७. च. चोद्दह ७. च. चोरिअं ७. च. चोरिआ १. ४४. चोरिओ १. ४४. चोरो (वि.) २.१. चोव्वारं ७. च. छ छti (वि.) ३. १४. छउमं ७. छ. छट्ठी ७. छ. छट्टो ७. छ. छड्डिओ ७. छ. कुणा ३. १५, ७. छ. छत्तवण्णो ७. छ. छत्तिवष्णो ७. छ. चिष्ठदि मा. प्रा. ९.१६., मा. ९.१३. | छुमा ७. छ. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ. छमी ७. छम्मं ७. छ. छाआ ७. छ. छाली ७. छ. छालो ७. छ. छाहा, २.१७, ७. छ., ४. ३०. छाही ४.३०. छिक्कं ७. छ. छत्तं ६. ३९. छिप ६.२६. छिरा ७. छ. छिहा ७. छ. छी ७. छ. छीणं ३. १३. छुच्छं ७. छ. छुड अप. ११. ६४. छत्तं ७. छ. छुहा १. २२., ७. छ. छूट ७. छ. छूढो पा. ३. ८. छेच्छं ६.९. छोलिजन्तु अप. ११.४८. छंमुहु अप. ११.३. छंमुहो ७. छ. ज जअइ ६. ९., ६. १४. जइ अहं १. ४८. ज १.६४, २. १. जइशं अप. (वि.) १.८७. जइसो अप. ११. ५६. शब्द-सूची जइहं १.४८. जउंणा ७. ज. जओ (वि.) २..६. जक्खो पा. ३. ६. जग्गेवा अप. ११. ७२. जज्जो ३. २३. जञ्ज शौ. ८.३०. जडालो ३. ४४. जढिलो ७. ज. जढं ६. ३९. जणि अप. ११. ७६. जणु अप. ११. ७६. जण्णवक्त्रेण १.२. जण सेणो शौ. ८. ४४. जहू ३.२८. जन्तु अप. ११. ५७. जत्तो ४. ४५. जस्थ ४. ४५. जत्थञ्जलिना पा. १. ४४. जदो ४. ४५. जधा शौ., पा. २. ३. शौ. पा. १. ६१., शौ. ८. ४४. २५१ जमलं स्वाप्र. ३. ४५. जमो २. १४. जम्परो ३. ३५. जम्मणं ७. ज. जम्मो ३. २६०, ७. ज., १.३९., पा. १. ३९. जम्मि ४. ४५. जम्हा ४. ४५. 2 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ प्राकृत व्याकरण जरिजह ६. २६. . | जामादुओ १. ८३. जलभरो (वि.) २.१. जारो (वि.)२.१. जलचरो (वि.)२. १. जाला पा. ४.४५. जलं १.२८. जाव (वि.) पा. १. १९., ७. ज., १. जसो १. ३९., पा. १. ३९., १. १४., १.१६. जाव अप. ११.५८. जस्स ४.४५. जास ४.४५. जरिंस ४.४५. जासु अप. पा. ४.४५.,अप. ११.३०. जह १.६१., ७.ज. जासुंतो ४.४५. जहटिअं.१.७. जाहिंतो ४. ४५. जहणं २.३. जाहँ मा. ९. १५. जहा १.६१.,७. ज. जाहंट. पा. ४.४५. जहाँ अप. ११.२७. जाहुं अप. ११. ४५. जहिहिलो १.७५., ७. ज. जाहे पा. ४.४५. जहिं अप. ११. २९., ४. ४४. जि अप. ११.६३. जहुढिलो १.७५., ७. ज. जिअह १. ७३. जहे अप. ११.३१., अप. पा. ४. ४५. जिभउ १. ७३. जा (विः)पा. १. १९., ७. ज. जिग्धदि शौ. प्रास. ८.४५. जाइ २.१४. जिण ४.४५. जा इहिमा अप. ११. ६४. जिणइ ६. २२. जाउं अप. ११.५८. जिणधम्मो (वि.) २.३. जामो ४. ३२., ४.४५. जिण्णं ७. ज. जाणं शौ., पा. ४. ४५. जित्तिअं३. ४१., ७ ज. जाणं मा. ९. १५., ३. ५., ४. ४५. जिध अप. ११. ५४. . जाणिजह ६.२६. जिब्मा ७. ज. जातिसं पै. (वि.) १.८७. | जिम अप. ११. ५४. जादिसंशो. (वि.) १. ८७., शौ. | जिव अप. ११.५४., ११. ५०. ८.४४. जिह अप. ११.५४. जाम अप. ११.५८. . | जी ४.४६. जामहि अप. ११.५८. . जीआइ (वि.) १.७३. . जामाउसो १.८३. . जी (वि.) पा. १. १९., ७.. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची झो ७. झ. जीआ७. ज. जेहिं १.४५. जीओ २. १., ४. ३२. जो ४.४५., अप. ११.४. जीया ४. ४६. जोग्गो १.२. जीरइ ६.२६. जोण्हा ३. २८. जीविरं (वि.) पा. १. १९., ७. ज. ! जोण्हालो ३. ४४. . जीहा ७. ज. | जोव्वणं १. ९१., ३. १. . जु अप. ११.३२. ज्जेव शौ. ८.४५. जुगुच्छह ३. २२. जं १.३१., ४. ४५. . जुग्गं ३. २. जुण्णं ७. ज. जुत्तंणिमं शौ.८.२१. झडिलो ७. श. जुत्तमिमं शौ. ८. २१. झलकिभउ अप. ११. ४८. जुवइ अणो (वि.) १.८. झाणं ३. २४. जुहुहिरो शौ. ८. ४४. झिजह ३. १३. जे ४. ४५. झुणि ७.. जेण ४. ४५. झे ४.४७. . . जेत्तिरं ३. ४२. जेत्तिकं शौ. प्रास. ८. ४५. | आनं पै. १०., २. जेत्तिलं३.४२. जेत्तुलो अप. ११. ६९. ट जेत्थु अप. ११. ५७. टगरं ७. ट. जेदु शौ. पा. ६. ९. - टंकः (वि.)२. ४. जेदह ३.४२. टसरो ७. ट. जेप्पि अप. ११. ७३., ११.७४. जेम अप. ११. ५४. ठड्ढो ७. ठ. जेव शो. ८.४५. जेवहु अप. ११. ६०. ठविसं १. १६., पा. १.६.. जेव अप. ११. ५४. ठाई (वि.)२. ४. जेसि ४. १५. ठाविरं १.६१. . ठासी ६.७. जेसु ४. ४५. जेहु अप. ११. ५०. । ठाही ६.७. | ठंभो ७. ७. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण २५४ ठीणं ७. ७. रजनमाणो शो. ८.४४. डहो ७. ड. डड्ढो ७. ड. डंडो ७. ३. डंभो ७. ढ. बरो ७. ड. डसइ २. ७. डसनं ७ ड. डहइ २.७.. डहिज्जह ६. २६. डाइ ६.२६. साहो ७. ड. डिभो (वि.)२. ४... बोलो ७.. डोहलो ७. उ. उणा १.६०. णठणाइ १.६०. णउला ४. ६. उलेसु ४. ९. णउलेहिं ४. ९., ४. १०. णउलेहि ४. १०. गउलेहिँ ४.१०. णउलो २. १. उलं ४.७. णठले ४. १४. उलेम्मि ४. १४. उलस्स ४. १३. ओ २.१. णकचरो (वि.) २. १., १. २. पञ्चह ६. २६. णचा ३. २०. णज्जह ६.२६. णदृइ ३. २१. णमो ३.२१. डालं ७.ण. णडो २. ४. गडं (वि.) २.४. णस्थि (वि.) १. १५. णरामओ १. ६. णरो २.८. णलाउ ७. ण. णलं (वि.)२. ४. णहं पा. १.४०., १. १६., २.३. जा हेरू. पा. ४. ४६. णाइज्जह ६. २६. . णाणं ३. ५., ३. २४. . . ढक्करि अप. ११.६४. डोहा अप. ११. २. . ण लक्षणं.. ४१., २.१. अणो १.४१. णमरं २.१. जइ.सोत्तं १. ४... नई २. ८. . गईभो शौ. ८.४४. गई सोत्त २... जउण १.६०. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ शब्द-सूची णाधो शो. ८.९. णीसासो १.७०. णाराभो १. ६१. णीडं (वि.)२. ४.. णाली (वि.)२. ४. णुमजइ १. ७१.. णाहो शौ. ८.९. गुमण्णो १.७१., ७. ण. णिभत्तं ७. ण. णूणं शौ. ८.४४. जिउअं १. ८३. णे ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४६., हेरू. णिउक्कण्ठं (वि.) १. १९. पा. ४. ४७. . णिठत्तं ७. . णेद्दा १. ६८. मिचलो ७. ण. ण ४. ४६. हेरू. पा. ४. ४६., ४.४७. णिचलो (वि.)३. २२. णेणं ४.४७. णिच्छरो प. प्राप्र. १०.२१. णेसु हेरू. पा. ४.४६. . णिज्झिले मा. प्राप्र. ९. १६. णेसं हेरू. पा. ४.४६. णिडालं ७. ण. जेहिं ४. ४६., ४. ४७. णिहा १. ६८., शौ.(वि.) १. ६८. हो ३. १., पा. ३. १. णिदालू ३. ४४. णो ४. ४७. णिरओ (वि.) १. ७०. णोआ २.१. जिराबाधं १. १९. ण हेरू. पा. ४.४६., ४.४७. णिरुत्तरं १. १९. णं ४.४६. शौ. ८.२५. (वि.)८. २५. णिवड १.७१. शौ. ८.४५. जिवुत्तं ७. ण. ण्हव ६. २७. णिवुअं १. ८३. पहाऊ३. २८. णिम्वुई १.८३. पहाणं ३. २८. णिव्वुदी २. ६. णिसण्णो ७.१. तइ १. ६४., ४. ४७., हेरू., पा. ४. णिसिअरो १.६४. ४७., शौ. ४. ४७. णिसीढो ७. ण.. तइअं १. ७३. मिसीहो ७. ण. तहआ हेरू. पा.४.४६. णिस्सहो (वि.) १. ७०. तइत्तो हेरू. पा. ४. ४७., ४. ४७. णिहुअं १. ८३. तइशं अप. (वि.) १. ८७. णिहुदं १. ८३. तहसो अप. ११. ५६. . णीसहो १.७०. | तई अप. ४. ४७., अप. ११.४०.. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण तटअप.११.४०. तंबं१.६७. तउहोंत अप.१.४७. तंबो (वि.) ३. २५., ७. त. तए शौ. ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७., तम्मि ४. ४६. , शौ. ८.४४. तम्हा ४. ४६., हेरू. पा. ४. ४६. तो (वि.) २.६. तयाणिं १. ७३. तर भा.(वि.) ३. २२. तरणी १. ३८., पा. १. ३८. तण अप. ११. ६४. तरिजइ ६. २६. तणहं अप. ११. ११. तरुणहो अप. ११. १८. तणु अप. ११.१. तरुणिहो अप. ११. १८. तणुई ३. ३३. तरुहुं अप. ११. १३. तणेण अप. ११. ६४. तरहे अप. ११. १३. तणं १..८०. तरू (वि.)२. १. तत्त अप. ११. ५७. तलवेण्टं १. ६१. तत्तो ४.४६., ४.४७., हेरू.पा. ४.४७. तलावो २. ४.. तत्तं ७. त. तलि अप. ११. ६. तत्थं शौ. ८.४४., ४. ४६. तलुनी पै. प्राप्र. १०. २१. तस्थून पै. १०. १२. तवह २.९. तत्थं भा. (वि.)३. २२. तवरिस शौ. ८.५. तदो ४.४६., ४. ४७. तविअं७. त. तधून पं. १०. १२. तवो ७. त. तधा शौ. (वि.) ८. २., शौ. पा. तसु अप. ११.१०. . २.३०., शौ. ८.४४., शो. पा. तस्स शौ. (वि.) ८.२., ४. ४६. १. ६१. हेरू. पा. ४. ४६. तध्रहोंत अप. ४. ४७. तस्मि शौ. ८.४४. . तमवि १. ४९. तस्सि ४.४६., हेरू. पा. १.४६. तमे ४.४७. तह १.६१., शौ. ४. ४७. अप. पा. तमेण पा. १. ३९. तमो १.३९. तहत्ति १. ५०. तंपि १.४९. तहाँ अप. ११. २७. तम्बोल ७. त. तहि शौ. ८.४४. तम्ब ७.त. । तहिं अप. ११. २९., ४. ४६. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची तहितो हेरू, पा. ४.४७. तिणा हेरू. पा. ४.४६. तहे अप. ११. २२., अप. ११.३१. तिणु अप. ११.१. ता (वि.) पा. १. १९. शौ. ८. २०., तिणुवी ३.३३. ___४. ४६., हेरू. पा. ४.४६.,७. त. तिणि ४.४८. ताउं अप. ११.५८. । तिण्णं ४.४८. ताओ (वि.) २. ६., ४. ३२., ४. ४६ । तिण्ड ३.२८. ताणं ४. ४६., शौ. पा. ढ. पा. १. तित्तिा ३.४१., ७. त. तित्तिरो ७. त. तातिसं पै. (वि.) १. ८७. | तित्थं १.७४६, ७. त., १.६७. तातिसो पै. १०. १६. तिध अप. ११.५४. तादिसं शौ. ८. ४४., शौ. (वि.) तिप्प १.८१. तिम अप. ११.५४. ताम अप. ११.५८. तिरिच्छी ७. त. तिरिश्चि मा. ९. १०. तामहि अप. ११.५८. तिव अप. ११.५०., भए. ११.५४. तामोतरो पं. १०.६. तिह अप. ११.५४. तारिसो १.८७. तिहिं अप. ११. १९. तालवेण्टं १.३. तिलु ७. त. तालवेण्टं १. ६१. ती ४.४७. ताला हेरू. पा. ४.४६. तीमा ४. ४७. ताव १. १६., (वि.)पा. १. १९., तीभो ४.३२. शौः ८. ४.,७. त. ताव अप. ११.५८. तीरह ६.२६. तीसा १.३५., ७. त. तास हेरू. पा. ४. ४६. तीसु ४.४८. तासु अप. ११.३०., भप., पा. ४.४६. . ताहिंतो ४.४६. तीहि ४.४८. तीहिंतो ४.४८. ताहे हेरू. पा. ४. ४६. तु४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. ताहं ट. पा.४.४६. तुइ ४. ४७. तिअस-ईसो १. १५. तुए ४.४७. तिमसीसो १. १५. तुच्छउं अप.११.२६. तिक्खं ७. त. तुज्क्ष ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७., तिहो पै. (वि.) १०. १३. अप.११.४०. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ प्राकृत व्याकरण तुज्झत्तो ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुज्झम्मि ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुज्झं हेरू. पा. ४. ४७.. तुझसु हेरू. पा. ४. ४७. तुज्झाण हेरू. पा. ४. ४७. तुज्झाणं हेरू. पा. ४. ४७. . तुझासु हेरू. पा. ४. ४७. तुज्झाहिंतो ४.४७. तुज्झेसु हेरू. पा. ४.४७. तुझेहि हेरू. पा. ४. ४७., ४.४७. तुज्ने शौ. ४. ४७. तुण्डं शो. .४४. तुहिमओ ३. १२. तुहिको ३. १२. तध्र अप. ११. ४७. तुम हेरू. पा. ४. ४७. तुब्भत्तो हेरू. पा. ४.४७. सुब्मम्मि हेरू. पा. ४.४७. . तुब्मसु हेरू. ४.४७. तुम्माण हेरू. पा. ४. ४७. तुकाणं हेरू. पा. ४..४७. तुम्भासु हेरू. पा. ४.४७. तुम्मे हेरू. पा. ४ ४७. तुब्भेसु हेरू. पा. ४. ४७. तुब्भेहि हेरू. पा. ४. ४७. तुब्भ हेरू. पा. ४. १७. तुम ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुमं हेरू. पा. ४.४७. तुमह ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुमए ४. ४७., हेरू. पा. ४७. तुमत्तो ४. ४७, हेरू. पा. ४. ४७. तुम ४. ४७., शौ. ४.४७., ८.४४. तुमहिंतो ४. ४७. तमम्मि ४.४७.. हेरू. पा. ४. ४७. तुमसु ४. ४७., हेरू. पा. ४.४७. तुमाइ ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुमाण. ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुमाणं हेरू. पा. ४. ४७. तुमातु पं. १०.२०. तुमातो पे. १०.२०. तुमायो शौ. ८. ४४. तुमे ४. ४७., हेरू. पा. ४. १७. तुमेसु हेरू. पा. ४. ४७. तुमो हेरू. पा. ४. ४७. तुम्म ४. ४७. तुम्मि ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हइं अप. ११. ४०. तुम्ह ४. ४७., शौ. ४. ४७. शौ. ८.४४. हेरू.पा. ७.४७. तुम्हकेरो ३.३७. तुम्हत्तो १. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हम्मि हेरू. पा. ४.४७. तुम्हसु हेरू. पा. ४. ४७. . तुम्हहं अप. ४. ४७., भप. ११.४०. तुम्हं अप. ४. ४७.,हेरू. पा. ४.४७. तुम्हाइं अप. ४. ४७. तुम्हाण ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हाणं शौ. ४. ४७., शौ. ८. ४४. हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हादो शौ• ४. ४७. तुम्हारिसो १. ८७., २. १६. तुम्हासु अप. ११. ४०., अप. ४.४७. हेरू. पा. ४. ४७. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २५६ तुम्हाहिंतो शौ. ४. ४७., ४. ४७. .. तुहाण ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हे शौ. ४. ४७., शौ. ८. ४४., अप. | तुहाणं हेरू पा. ४.४७. ४. ४७., अप. ११. ४०. तुहारेण अप. ११. ६८. तुम्हेच्चयं ३.३८. तहु अप. ११.४०. तुम्हेसु ४. ४७., शौ. ८. ४४., हेरू. तुहुं अप. ११. ४०. पा. ४. ४७. तुहेसु ४. ४७., हेरू. पा. ४.४७. . तुम्हेसुं शौ. ४. ४७. तुहं ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुम्हेहिं अप. ११. ४०. ४. ४७., शौ. तुम्हेहिं ४. ४७. ४. ४७., ८. ४४. तुझ ४. ४७. तुम्हेहिन्तो शौ. ८. ४४. तुझत्तो ४. ४७. तुयहत्तो हेरू. पा. ४. ४७. तुद्याण ४.४७. तुय्ह हेरू. पा. ४. ४७. तुाहोत अप. ४. ४७. तुरहे हेरू. पा. ४.४७. तुझे ४. ४७. तरहेहि हेरू. पा. ४. ४७. तुह्येसु ४. ४७. तुव १. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तुं ४.४७. तुवत्तो हेरू. पा. ४. ४७., ४. ४७. तुबम्मि ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. तूणं ७. त. तुवरए ६.४. तूरं ७. त. तूसइ ६.३०. तुवरसे ६.४. तूह ७. त., १.७४. तुवसु हेरू. पा. ४. ४७. तृणु अप. ११. १. तुवाण हेरू. पा. ४. ४७., ४. ४७. ते ४. ४६ शौ. ८. ४४., हेरू. पा. ४. तुवाणं हेरू. पा. ४. ४७. ४६., ४. ४७., शो. ४.४७. तुवे ४.४७. तुवेसु हेरू. पा. ४. ४७. तेअस्स पा. १.३९., पा. १.३१. तुवं ४.४७. तेो १.३९. तेति पै. १०. १७. तुसु ४. ४७., हेरू. पा. ४.४७.. तुह ४. ४७. अप. ४. ४७., हेरू. पा. तेत्तहे अप. ११. ७०. ४.४७. तेत्तिसं ३. ४२. तुहत्तो हेरू. पा. ४. ४७., ४.४७. । तेत्तिकं शौ. प्रास. ८.४५. तुहम्मि ४.४७.. हेरू. पा. ४. ४७. । तेत्तिलं ३. ४२. तुहसु ४. ४७., हेरू. पा. ४.४७. तेत्तीसा ७. त. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० प्राकृत व्याकरण तेत्तलो अप. ११. ६९. तोसिभ संकरु अप. ११.३. तेत्थु अप. ११.५७. तोसिअं६. १९. तेदह ३. ४२. | अप. ११.३२. तेण ४. ४६०, हेरू. पा. ४. ४६. तेम अप. ११.५४. थवो ७. थ. तेरह ७.त. तेरहो १. ५७. थंभो ७. थ. तेलोकं (वि.) ३. १०. थाणू ७. थ. तेलं ३. ११. थिण्णं ३. १२. तेखक १.८८. थी ७. थ. तेझोकं (वि.)३. ३०. थीणं ३. १२., ७. थ. तेवदु अप. ११.६०. थुई ३.२५. तव अप. ११. ५४. थुदि शौ. प्रास. ८.४५. तेवण्ण ७. त. थुलो ७. थ., ३. १२. तेवीसा ७. त. थूणा ७. थ. तेर्सि ४.४६., हेरू. पा. ४. ४६. थूणो ७. थ. तेसु ४.४६., हेरू. पा. ४.४६.' थूलं शो. ८. ४४., ७. थ. तेसुं हेरू. पा. ४. ४६. थेगो ७. थ. तेह ७. त. थेरिअं७. थ. तेहिं ४.४६., हेरू. पा. ४. ४६., अप. थेरो पा. ३. ६., ७. य. ११. ६४. थोअं३.३५. तेहितो ४. ४७. थोणा ७. थ. तेहु अप. ११. ५५. थोत्तं ३. २५. तं ४.४६., ४. ४७., हेरू.फा. ४. ४६. | थोरो ३. १२. १.३१., अप. ११.३२. थोरं ७. थ. तंसं १.३३., पा. ३. ८. तो ४. ४७., अप. ११. ६४. तोणं ७. त. दभालू २. १. तोणीरं ७. त. दइएं अप. ११. १४. तोण्डं १. ७९. दइवअं १. ८९. तोसविरं ६.१९. : दइचं १. ८९. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २६१ दहवज्जो ३.५. दइण्णं १.८९. दइवण्णू ३.५. दइवं ७. द., ३. १२. दइन्वं ३. १२., ७. द. दइस्स शौ. ८.३४. दउत्ति शौ. ८.४५. दक्खिणो (वि.) १.५३., ७. द. दहो ७.द. दडवड अप. ११.६४. दड्ढं ७. द. दणुभावहो ७. द. दणु इन्दरुहिर० १.१०. दवहो ७.द. दंडो ७. द. दतं (वि.) १.५४. दछु ३. ३६. दमदमाअइ ६.१. दमदमाइ ६.१. दंभो ७. द. दयालु पा. २. १. दरिओ ७. द. दरो ७. द. दलिद्दो २. १८. दवग्गी पा. १.६१. दवो (वि.)२. १. दस ७. द., शौ. ८.४४. दसणं ७. द. दसरहो शौ. ८.४४. दसवतनो पै.प्राप्र. १०.२१. दसमुहो ७. द. दस्के मा. प्राप्र. ९. १६. दह शो. ८.४४., ७. द. दहमुहु अप. ११.३. दहमुहो ७. द. दहि ४.४१. दहि ईसरो १.९. दहि ४.४१. दहीइ ४.४१. दहीइं ४. ४१. दहीणि ४. ४१. दहीसरो १.९. दहो ३.४., पा.३.४. दाव शौ. ८. ४. दावग्गी पा. १. ६१. दाघो (वि.)२.२०., ७. द. दातूनं पै. प्राप्र. १०.२१. दाडिम (वि.)२.४. दाढा ७.द. दाणवो (वि.)२.१. दाणिं शौ. ८. १९. दाणं ४.४६. दामं १. ४०. दारं ७. द., (वि.)३.३. दालिम (वि.) २.४. दाहिणो १.५३. दाहिणो ७. द. दाहिमि ६.९. दाहो ७. द. दाहं ६.९. दि.हेरू. पा. ४.४७. दिअरो ७. द. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्राकृत व्याकरण दिअहो २.१. दिउओ १.७३. . . दिउणो १. ७१.. दिओ १. ७१., (वि.)३.३. दिग्धो ७. द. दिठो ३. ६., १.८१., ३. १८. दिटुं१.८१. दिलु ति १.५०. दिण्णं ७. द., १.५४. दिप्पड २.७. दिवसो ७. द. दिवहो ७. द. दिवे अप. ११.६४. दिसा.पा. २. २४. दिसा १.२४. दिहा गयं (वि.) १.७२. दिही ७. द. दीयो २. १५. . दीजो २. १५. दीसह (नि.) ६. १५. दीहरं स्वाप्र. ३. ४५. दीहाउसो १.२५. दीहाऊ १.२५., पा. १. २५. दीहो ७.६. दुअलं७. द. दुआई (वि.)३.३. दुआरं ७. द. दुइ १.७३. दुइओ १.७१. दुउणो १.७१. दुजलं ७. द. . | दुक्कडं ७. द. दुकरं (वि.)३. १७.. दुक्खं ७ द. दुगुलं ७. द. दुग्गा एवी ७. द. दुग्गावी ७.द. दुद्ध ३.१. दुणि ४. ४८. दुब्मइ ६.२५. दुय्यणे मा. ९. ७., मा.प्राप्र. ९. १६. दुरागदं १. १९. दुरुत्तरं १. १९. दुलहहो अप. ११.१०. दुलहो २.३. दुवक्षणं १..७१. दुवरो ७. द. दुवाई १.७१. दुवारिओ १. ९२. दुवारं ७. द. दुवे १. ७१., ४. ४८. . दुसहो १. ७८. दुस्सहो १. १८. दुस्सहो विरहो (वि.) १. ७८, दुहमो १.७८., ७. द. दुहा इअं १. ७२. दुहा किजदि १. ७२. दुहा वि० (वि.) १. ७२. दुहि ४. ४७. दुहिआ ४. ३१., ७. द. दहिजइ ६.२५. .. | दुहिदिआ शौ. प्रास. ८. ४५. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहिंतो ४.४७. दुहीअदि शौ. प्रास. ८. ४५. दहुँ अप. (वि.) ११.१२. दुह ७. द. दूरादु शौ. ८.१८. दूरादो शौ. ८. १८. दूसइ ६.३०. दूसहो १. १८., १. ७८. दूसासणी १.५१. दूहओ १.७८. दूहवो ७. द. दे ४. ४६., ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७., शौ. ४.४७., शौ. ८. ४४. ७. ६०, शौ. ८. ४४. देइ (वि.) ६. ३१. देउलं ७. द. देच्छं ६.९. देदि शौ. ८. ९५. देमि शौ. ८. ३४. देरं ७ द. देव ४. १४. देव- उलं ७. द. देवत्तो ४. १४, ४. ११, ४.१२. देव-ई ३.१०. शब्द-सूची देव थुई ३. ११. देवदत्त (वि.) १.५४. देवरस ४. १३, ४. १४. देवाउ ४. ११, ४. १४., ४.१२. देवाओ ४. ११, ४. १२, ४.१४. देवाण ४. ., ४. १४. देवाणि १. ४३. देवाणं ४. १४, ४. ८. देवा सुंतो ४. १४. देवाहि ४. ११, ४. १२., ४.१४. देवाहित्तो ४. १४, ४.११. देवाहितो ४. १२, ४.१४. देवीए एत्थ १. १२. देवे ४. १४. देवेण ४. ८, ४. १४. देवेणं ४. १४. | देवेम्मि ४. १४. देवे देवेसुं ४. १४. देवेसुंतो ४. १२. देवे हि ४ १०, ४. १२., ४.१४. ४.९, ४. १४. देवे हि ८. ९.. ४. १४., ४.१०. देवेहिं ४. १४, ४.१०. दो ४. ४८. दोणि ४. ४८. दोष्णं ४. ४८. दो ४. ४८. दोदुहिसुंतो हे रू. पा. ४.४७. देवा ४. १४., १. ४३., ४. ६., पा. दोदुहिहिंतो हेरू. पा. ४. ४७. ४. ११. २६३ देवे हिंतो ४. १४. देवो (वि.) २.१, ४.१४., ४.५. देवं ४. १४., ४. ७., अप. ११. ७४. देव्वं ७. द., शौ. ८.४४. दोला ७. द. दोवअणं १. ७१. दोसडा अप. ११. ६५. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ प्राकृत व्याकरण दोसु ४. ४८. दोहग्गं १.९१. दोहलो ७. द. दोहा इथं १. ७२. दोहा कि द १. ७२. दोहि ४.४८. दोहि ४.४८. देहितो ४. ४८.. दोहो ३. ४. दंसणं १.३३. द्रवक अप. ११.६४. दहो ३. ४., पा. ३. ४, द्रेहि अण. ११. ६४. दोहो ३.४. द्विरो १.७१. . ध . . घट्ठजणो ७.ध. घट्ठो ७. ध. धण अप. ११.२. धणवन्तो ३. ४४.. धणहे अप. ११. २२. धणाणि शौ. ८. ३२.. धणिरो (वि.)३.४४. धणुहधरो पा. १. २७. धणुहं ७. ध., १. २७. धणू पा. १. २७. धणू १. २७., ७. ध. धणंजओ (वि.)२.१. धणअए मा. ९.८. धत्ती ७.ध. धत्थं ३.३. धनुस्खण्डं मा. ९.४. धम्मिलं १. ६८., शौ. (वि.) १. ६८. धम्मेल्लं १. ६८. धरहिं अप. ११.४१. धाअह ६.३६. धाइ ६.३६. । धाई ७.ध. धारी ७.ध. धाव ..३१. घि ७.ध. धिई ७.ध. धिई १.८१. विजं ७.ध. घिहो ७.ध. धिप्पइ २.७. धिरत्थु ७. ध. धीरं ३. ९. ७.ध. धुत्तो (वि.)३. २१. धुरा १. २१. "धुरा पा. १. २१. धुवह ६.३१. धूआ ७.ध. धूदा शौ. प्रास. ८. ४.. धूलडिआ अप. ११.६७. घेणु ४. ३७. घेणं ४.३७. धेणू ४. ३३., ४. ३७. घेणूम ४. ३७. धेणूआ १. ३७. धेणूह ४. ३७. धेणूउ ४.३३., ४. ३७. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेणू ४. ३७. वेणू ४. ३३, ४. ३७. घेणूण ४. ३७. घेणू ४. ३७. दो ४. ३७. वेणू ४.३७. वेणू ४. ३७. वेणू सुंतो ४. ३७. वेणूहि ४. ३७. हिं ४. ३७. घेणूर्हितो ४. ३७. ध्रुवु अप. ११. ६४. धुं अप. ११. ३२. न नइ ४. ३७. न. गामो ३.१०. नइ ग्यामो ३. १०. नई ४.३७. नई २. १.; २. ८, ४. ३७. नई ४.३७. नईआ ४. ३७. नई वू ४. ३७. नईए ४. ३०., शौ. ८. ४४. नईओ ४. ३७. नईण ४.३७. नई ४. ३७. नइदो ४. ३७. नई सु४. ३७. नई ४.३७. नई सुंतो ४. ३७. शब्द-सूची नई हि ४. ३७. ४. ३७. नहिं ४.३७. नहिंतो ४. ३७. नउ अप. ११. ७६. नओ पा. २. १. नकरं पै. (वि.) पा. २. १. नकचरो (वि.) पा. २. १. नक्खा ३. १२. नग्गो ३. २. न जुत्तं ति १.५०. नणन्दा ४. ३१. नत्तिओ ७. न. ७.न. नक्तंचरो (वि.) पा. २. १. नत्थून पै. १०.१२. नहून पै. १०. १२. नमोक्कारो ७. न. नम्म० पा. १.३९. नम्मो १.३९. नयणा पा. १. ४१. नयणाई पा. १. ४१. नयणं पा. २.१. नयरं पा. २. १. नरिन्दो १.६७. नरो २.८. उनले मा. ९.३. नवख अप. ११. ६४. नवल्लो स्वाप्र. ३. ४५. नरस ६. ३८. नहा ३. १२. २६५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ हुलिहणे आवन्धत्तएँ १. १२. नहे अप. ११.५. नहं १.४०. ना ४. ४७. नाइ अप. ११. ७६. नाए नाडी (वि.) २.४. नापिओ ७. न. नारह्यो ७. न. नालिउ अप. ११. ६४. पै., पा. ४. ४६., पै. १०. २१. नावइ अप. ११. ७६. नावा ७. न. नासइ (वि.) ६. ३१. नाहिं अप. ११. ६४. नाहो २.३. निउरं ७. न. निक्काम्मं (वि.) ३.१७. निक्खं ३. १७. निचट्ट अप ११. ६४. निच्चलो ३. १. निच्चिन्दो शौ. ८. ३. निश्च्चं ३. १९. निज्झरो ७. न. निठुरो ३. १. निष्णं ३ २४. प्राकृत व्याकरण निष्फेसो ३. २७. निमिअं ६.३२. निम्बो ७. न. निम्मलं १.४७. निरुत्तरं १. १९. निवत्तभ ३.२१. निवत्तणं (वि.) ३. २१. निविडं (वि.) २: ४. निवो १.८१. निसढो ७. न. निसारो १. १३. निसिआ अप. ११. २. निस्फलं मा. ९.४. निस्सहं १. १८. निहसो ७. न. निहिओ ३. १२. निहित्तो ३. १२. निही १. ४४. ● निही पा. १. ४४. नीचअं ७. न. नीडं ३. १२, ७. न. नीमी ७. न. नीमो ७. न. नीला ४. २९. नीली ४. २९. नीलुप्पलं १.६७. नीवी ७. न. नीवो ७. न. नीसह १. ५१. नीसह १. १८. नीसासो पा. ३.८. नीसो १.५१. नूउरं ७. न. नूण १. ३६. नूणं १. ३६. नेइ ६. २९. नेउरं ७. न. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २६७ नेडं ३. १२. नेडं ३. १२., ७..न. . . नेति पै. १०. १७. . नेदि शौ. ८.१.. .. नेन पै., पा. ४: ४६, पै. १०. २१. नेरइओ ७. न. नोहलिआ ७. न. । नं. अप. ५१.७६. न्यायः (वि.) २.८. "प पा. १. ३९. पअट्ट ७. प. पभडं १. ५२.. पअरो १. ६२. पारो १.६२. पावई २. १. पहा १. ४७., ७. प., (वि.) २. ५. पाहाणं (वि.) २. ५. पहहि अप. ११.२. पइटिअं १. ४७. पइण्णा (वि.) २. ५., ७.५. पहवं (वि.) २. ५. पइं अप. ४. ४७., अप. ११. ४०. पई (वि.) १. ९. पईवो २. ९. पईवं ७. प. पउअं १.६१.. पउहो ७. प. पउत्तं ७. प. पउत्ती १. ८३. पउमं ७. प. . . परिसं १. ९३., ७. प. पओ १. ३९. पओट्टो शौ. ८.४४. . पक्कं ७.प. पखलो (वि.) २. ३.. पग्गिरव अप. ११. ६४. पको १.१., १.. ३७. पंको.१.३७, पंत्ती १.३२. पञ्चओ ३. १९. पञ्चच्छं ३. १९. . पञ्चलिउ अप. ११. ६४. पच्चुसो ७. प. . पच्चुहो ७. प. . पच्छइ अप.११. ६४. पच्छा ३. २२. पच्छिमं ३. २२. . पच्छं ३. २२. पजन्तो पा. १. ५७. पजत्तं ३. १. पजन्तो ७. प. पज्जन्तं ३. २३. पज्जा ३. ५. . . पज्जाउलो शौ. ८. ८. पज्जाओ ३. २३. . पज्जुण्णो ३. २४. . पञ्चा ४.५०. पञ्चावण्णा ७. प. पञ्चाहिं ४. ५०. . . पञले मा. ९. ८. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्थो १.३७. २६८ प्राकृत व्याकरण पआ पै. १०. २. । पण्णरह ७. प. पाविशाले मा. ९.८. पण्णा ३. ५., ३. २४. पट्टणं ७ प. पण्णावण्णा ७. प. पट्टि अप. ११.१. पण्णासा ७. प. पढे १.८२. पण्णो (वि.) १.५६. पठि ६. १७. पहा १. ४२. पठितून पै. १०.११. .. पण्हो १. ४२., ३. २८. पठिय्यते पै. १०.१४. पत्सलं स्वाप्र. ३. ४५. पडामा शौ. (वि.) पा. २. १. पत्थरो पा. १. ६१., ३. २५, पडाया ७. प. पत्थारो पा. १. ६१. पडायाणं ७. प. पडिफही ३. २७. पंथो १.३७. पडिप्फद्धी १.५२. पमुहेण २. ३. पडिमा २.५. पमुकं (वि.)३. १०. पडिवक्षा १.५२. पम्मुक्कं (वि.) ३. १०. पडिवणं २.५. पम्म ७. प. पडिवही २. ६. पम्ह ७. प. पडिसरो २.५. पम्हट्टो ६. ३९. पडिसिद्धी १. ५२. पयावई पा. २. १. . पडिसुभा १. ३३. पय्याकुलीकदम्हि शो. ८... पर्दिसुदं १.३३. पर अप. ११. ६४. पडंसुआ ७. प. परहुओ १. ८३. पढई (वि.)२. ९. परामुठो १. ८३. पढित्ता शो. ८. १३. परिहा १. ४७. पटिदूण शौ. ८. १३. परिहि १. ४७. पढन्तो ६. १२. परिठविसं १. ६१. पढमाणो ६.१२. . परिठाविअं १.६१. पढमं७ प. परित्तायध शौ. ८. १०. पढिय शो. ८. १३.. परोप्परं ७. प. पदुम पा. २. ३. परोहो १. ५२. पदुम ७. प. .. | परंमुहो १. ३२. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची .. २६६ पलक्खो ७. प. पहारो पा. १.६१. . पलंबघणो (वि.)२. ३. पहिहो ७. प. पलिअंको ७. प. पहुच्चा अप. ११. ४८. पलिअं ७. प. पहुदि १.८३. पलिचये मा. प्राप्र. ९. १६. पहुवी पा. २.३. पलित्तो २. ७. पहो ७. प. पलिलं ७. प. पाअइ ६. २१. पलिविअं १. ७३. पाउं १. ५२. . पलीबेइ २. ७. पासवडणं ७. प. पल्बको ७. प. पाशवीडं ७. प. पहस्थं ७. प. पाआई ७.प. पब७. प. पाआरो ७. प. पहाणं ७. प. पाइ ६. २१. पल्हाभो ३.३१. पाइको ७. प. पाउअं१.६१., १. ८३. पवट्टो ७. प. पाउरणं ७. प. पवत्तओ (वि.)३. २१. पाउस पा. १. २४. पवत्तणं (वि.)३.२१. . पाउसो १. २४., १.३८., १. ८३., पवसन्तण अप. ११.५., अप. ११.१४. पा. १.३८. पवहो १६२., पा. १. ६१. पाओ (वि.) १.९. पम्वतीं पे. १०. ६. पांगुरणं ७. प. पवासू १. ५२. पाडिप्फद्धी १. ५२. पवाहो १. ६२., पा. १. ६१. पाडिवा १. ५२. पवो (वि.)३. ३२. पाडिवया (वि.) १.२०. पसढिलं ७. प. पाडिसिद्धी १. ५२. पसदि शौ. प्रास. ८. ४५. पाणि १. ७३. पसिअ १. ७३. पाणिणीमा (वि.)३. ३७. पसिढिलं ७. प. पाणी (वि.) १. ७३. पसिद्धी १. ५२. पसुत्तं १. ५२. पारकरं ७. प. पस्टे मा. ९.५. पारकं (वि.)३. ३७., ७. प. पहरो पा. १.६१. | पारद्धी ७. प. पारओ७. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० पाराओ (वि.) पा. १. १९. पाराकेरं ७. प. पारावओ (वि. पा. १. १९, ७.प. पिअरादो ४ . २३ . पारिकं ७. प. पारेवओ ७. प. पारो ७. प. पारोहो १. ५२. पालेवि अप. ११. ७३., अप. ११.७४. पावउणं ७. प. पावरणं ७ प. पावारओ ७. प. पावासू ७. प., १.५२. पावीडं ७. प. पावी अप. ११. ५१. पावो शौ. ८. ४४. पावं (वि.) २.१, २. ९. पासह १. ५१. पासाणो शौ. ८. ४४, ७.प. पासिद्धी १. ५२. पासुतं १.५२. पासू १. ३६. पासं पा. ३. ८. पाहाणी ७. प. पाहुडं ७.प. पाहु १.८३. पिअ हेरू. ४. २३. पिअउ हेरू. ४. २३. पिअओ हेरू. ४. २३. प्राकृत व्याकरण पिअरम्मि ४. २३. पिअरस ४. २३. पिअर हिंतो ४.२३. पिअरा रू. ४. २३., ४.२३. पिअराणं ४. २३. पिअरे हेरू. ४. २३, ४.२३. पिअरेण ४. २३., हेरू. ४. २३. पिभरेणं हेरू. ४. २३. पिअरे ४.२३. पिअरेहि हेरू. ४. २३. पिअरेहि हेरू. ४. २३. पिभरेहिं ४. २३. पिअरो ४. २३., हेरू. ४. २३. पिअरं ४ . २३ ., हेरू. ४. २३. पिश्रवो हेरू. ४. २३. पिआ ४. २३., हेरू. ४. २३. पिपिअं १.८. पिउ अप. ११. ५१. पिउओ १. ८३. पिच्छा ७.प. पिउना हेरू. ४. २३. पिठो रु. ४. २३. पिठवणं १.८४. पिठ सिआ ७. प. पिऊ हेरू. ४. २३. पिऊहिँ हेरू. ४. २३. पिऊहिं हेरू. ४. २३. पिऊहि हेरू. ४. २३. विभत्ति १५०, (वि.) १.६९. पिक्कं पा. १. ५४., १.२., ३.३., ७. प. पिच्छी ३. २०. पिट्ठ १.६८, १.८२. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २७१ पिटिअप. ११.१. पुञकम्मो पै. १०.४. पिढरो ७. प. पुजाहं मा. ९. ८., पै. १०.४. पिण्डं १. ६८., शौ. ८. ४४., शौ. पुहि अप. ११.१. (वि.) १. ६८. . | पुट्ठी १.४२. पित्थी १. ८१. पुट्ठो. ३. १८. पिदणा शौ. ८. ४४., ४. २३. पुहं १. ४२.; १. ८३. पिदुणो ४. २३. पुडो शौ. ८. २४. पिदुणं ४. २३. पुढमं ७. प. पिदुम्मि ४. २३. पुढवी ७. प. पिदुसुं४. २३. पुढुमं ७. प. पिदुहितो ४. २३. पुणु अप. ११. ६४. पिधं ७. प. पुण्णमंतो (वि.)३. ४४. पियगमण (वि.) २. १. पुण्णामो ७. प. पिलुटुं ३. ३२. पुत्तो शौ. ८. २८. पिव पै. प्राप. १०.२१. पुधं ७. प. पिश्चिले मा. ९. १०. पुप्फ (वि.)२. ११.३. २७. पिसल्लो ७. प. पुरो १.४६. पिसाओ ७. प. पुरंदरो (वि.)२.१. पिसाजी (वि.) २. १. पुरा. २१. पिहढो ७. प. पुरिमं ७. प. पिहं १.३१., ७. प. पुरिल्ल (वि.)३. ४४. पीअलं स्वा. प्र.३. ४५.,७ प. पुरिसो ७. प. पीअं ७. प. पुरिसो त्ति (वि.) १. ६९., १.५०. पीआपीअं १. ८. पुरुषो शौ. ८. ४४. पीडि(वि.) २.४. पुलिशश्श मा. प्राप्र. ९. १६. पीढं ७. प. पुलिशाह मा. प्राप्र. ९. १६. पीणआ (पा.) (वि.)३.३९. पुलिशे मा. ९. ३. पीणतणं ३. ३९. पुलोमी १. ९२. पीणिमा ३. ३९. पुव्वण्हो १. ६१., ३. २८. पीवलं स्वाप्र. ३. ४५.; ७. प. पुवाण्हो १.६१. पुंछ १.३३. पुष्वं ७. प. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्राकृत व्याकरण पुहइ १. ८३. | प्रयाग-जलं (वि.) २... पुहई ७. प. प्रस्सदि अपः ११. ४८. पुहवी ७. प. प्राइम्व अप. ११. ६४. पुहवीमो १. ११. प्राइव अप. ११. ६४. पुहुवी १. ८३., ३. ३३. प्राउ अप. ११. ६४. पुहं ७. प. प्रियेण अप. ११.५.. पूसइ ६. ३०. पूसो १. ५१. फकवती पै. (वि.) पा. २. १. पेअं२. १५. फणसो ७.५. पेउसं ७. प. फणी (वि.) २. ११. पेक्खदि शो. ८. ३७. फन्दनं १.३. पेच्छदि शौ. प्रास. ८. ४५. फन्दणं ३. २७. पेज २. १५. फरुसो ७. फ. पे] १. ६८. फलमवहरइ १.३०. पेढं ७. प. फलिहो ७. फ. पेण्ड १. ६८. फलिहं ७. फ. पेम्म ३.११. फलिहा ७. फ. पेरन्तो पा. १. ५७., ७. प. फलं १. २८. पेरन्तं १. ५७. फलं अवहरइ १.३०. पेस्कदि मा. ९. १२. फाडेह (वि.) २. ४., २. २०, पोक्खरणी शौ. ८.४४. फालिहद्दो ७. फ. पोक्खरिणी ३. १७. फालेह (वि.)२. ४., २. १०. पोक्खरं शौ. ८. ४४., ३. १७., १.७९. फासो पा. ३. ८. पोस्थ १. ७९. फुडं ६.३९. पोपली ७. प. फुसदि शौ. प्रास. ८. ४५. पोप्पलं ७. प. फोडओ शौ. ८.४४. पोम्म ७. प. फंसो १. ३३., ३. २७. पोरो ७. प. पंसनो १. ६३. बइको ७. ब. पंसुरंपा. १. ६१. बड्डुत्तणहो अप. ११. ७१. पंसू १. ३०., १. ६३. बड्डप्पणु अप. ११. ७१. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधवो १. ३७. बन्धवो १.३७. बन्धिजह ६.२६. बम्भचेरं (वि.) ३.२९. बम्हचेरं ३. २९. बम्हणो १. ६१, ३. २९. बम्हा ३. २९. बहिणां ७. ब. ब्रह्मणो शो. ८. ३०. बाम्हणो १. ६१. बारह ७. ब. बालहे अप. ११. २२. बालाए ait. c. 88. बाह अप. ११. १. बाहा अप. ११. १. बाहाए पा. १४५. बाहूसु पा. १. ४५. बीओ (वि.) १.९. बुज्झा ३. २०. बुडदि शौ. प्रास. ७. ४५. बुड्ढी १.८३. बुद्धि रू. ४. ३७. बुद्धि ४. ३७. शब्द-सूची २७३ बुद्धीओ ४.३३, ४. ३७., हेरू. ४.३७. बुद्धीण ४. ३७.. हेरू. ४. ३७. बुद्धीणं ४. ३७., हेरू. ४. ३७. बुद्धी ४. ३७, हेरू. ४. ३७. बुद्धीसुं ४. ३७, हेरू. ४. ३७. बुद्धीसुंतो रू. ४. ३७. बुद्धीहितो रू. ४. ३७. बुधो १. ३३. बुहरुपदी मा. ९.४. बुद्धित्तो रू. ४. ३७. बुद्धिं ४. ३७., हेरू. ४. ३७. बुद्धी ४. ३७, हेरू. ४.३७., ४.३३. बुद्धीअ ४. ३४., हेरू. ४. ३७. बुद्धी ४. ३७. रू. ४.३७., ४.३४. बुद्धीइ ४. ३७, हेरू. ४. ३७., ४. ३४. बुद्धीउ ४. ३३., ४. ३७., हेरू. ४.३७. बुद्धीए ४. ३४, ४.३७., हेरू. ४.३७. १८ बोलणउ अप. ११. ७५. ब्रह्मओ शौ. ८.३० ब्रुवह अप. ११.४८. ब्रोप्पिणु अप. ११४८., भ भअवं ४. ४२ भद्दणी ७. भ. भइरवो १.८९. भगवती पे. १०.६. भगवं शौ. ८. ७. भग्गउं अप. ११.२६. भग्गो ३. २. भज्जा ३.२३. भजिउ अप. ११. ७३. भट्टा शौ. प्रास. ८. ४५. भडो २. ४. भणइ ६. ६. भणए ६. ६. भणह ६. ६. भणन्ति ६. ६. भणन्ते ६. ६. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्राकृत व्याकरण भणमि ६.६ भणसि ६.६. भणसे ६. ६. मणिस्था ६.६. भणिमो ६.६. भणिरे ६. ६. भणेमो ६.६. भणामो ६.६. भणामि ६. ६. भत्तउ हेरू. ४. २३. भत्तो हेरू. ४. २३. भत्तारम्भि ४. २३., हेरू. ४. २३. भत्तारस्स ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तारहितौ ४. २३. भत्तारा ४. २३., हेरू. ४. २३. भत्तााराउ हेरू. ४. २३. भत्ताराओ हेरू. ४. २३. भत्ताराण हेरू. ५.२३. भत्ताराणं ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तारादो ४. २३. भत्तारासुंतो हेरू. ४. २३. भत्ताराहि हेरू. ४. २३. भत्ताराहिंतो हेरू. ४. २३. भत्तारे ४. २३., हेरू. ४. २३. भत्तारेण ४. २३., हेरू. ४. २३. भत्तारेसु ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तारेसुंतो हेरू ४. २३. . भत्तारेहिं ४. १३. हेरू.४.२३. भत्तारेहि हेरू. ४ २३. भत्तारेहितो हेरू. ४. २३. खत्तारं ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तारो ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तिवन्तो ३. ४४. मत्तणा ४. २३. हेरू. ४.२३. भत्तणो ४. २३. हेरू. ४. २३. अत्तुण ४. २३. भत्तम्मि ४. २३. हेरू. ४. २३. भत्तसु ४. २३. भत्तुस्स हेरू. ४. २३. भत्तहि ४.२३. भत्तहिंतो ४. २३. भत्त हेरू. ४.३. भत्तओ हेरू. ४. २३. | भत्तणं हेरू. ४. २३. भत्तण हेरू. ४. २३. भत्तसु हेरू. ४. २३. भत्तसुतो हेरू. ४. २३. भत्तहिं हेरू. ४. २३. भत्तहि हेरू. ४. २३. भत्तहितो हेरू. ४. २३. भत्तं ३. १. भद्दे ३.४. भद्रं ३. ४. भन्ते मा. ९. २. भप्पं ७. भ. भमया स्वाप्र.३.४५. भमाडइ ६. १९. भमाडेइ ६. १९. भमावह ६. १९. भमिअ ३. ३६. भमिरो ३. ३५. भयफ्फइ ७. भ. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ शब्द-सूची भयव शौ. ८. ६. . । भारिया पै. १०. १३. भयवं शौ. ८.७. मिउडी ७. भ. भयस्सई ७. भ. भिऊ १.८१. भरधो शौ. (वि.) पा. २. १. | भिंगारो १. ८१. भरहो ७. भ. भिंगो १.८१. भवओ (वि.) १.४६. भिण्डिवालो ७. भ. शौ. ८. ४४. भवन्तो (वि.) १. ४६.७. भ. भिन्दियालो शौ० ८.४४. भवरू अप. ११.५०. भिप्फो ७. भ. शौ. प्रास. ८.४५. ' भवातिसो पै. १०. १६. मिम्मलो ७. भ. भविअं७. भ. भिसा १.२३. भविय शौ. ८. १३. भिसिणी २. १३. भविस्सिदि शौ. ८. १७. शौ. (वि.) भीमशेणस्स मा. ९. १४. ८.३३. भुई १.८३. भवं १.४२. शौ. ८. ७. भुक्षणहं अप. ११.७१. मसरो ७. भ. भुञ्जणहिं अप. ११. ७४. भसलो ७. भ. भुतं ३१. भस्टालिका मा. ९. ५. भुमया स्वाप्र. ३. ४५. भस्टिणी मा. ९.५. भुक्तया ७. भ. भस्सं ७. भ. (वि.) पा. १. १९, भूदं शौ. प्रास. ८.४५. भादि शौ. प्रास. ८.४५. भे हेरू. पा. ४.४७. हेरू. ४. ४७. भाइरही २. १. भेच्छं ६.९. भाउओ १. ८३. भेडो ७. भ. भाणओ शौ. ८. ४४. भेत्तु आण पा. ३.३६. माणुओ शो.८.४४. भोअणमेम (वि.) १. ६६. . भाणं (वि.) पा. १. १९., ७. भ. मोच्चा ३. २०. भादा शौ. प्रास. ८.४५. भोच्छं ६.९. भादि शौ. प्रास. ८.४५. मोति पै.१०. १७. भादुओ शौ. प्रास. ८.४५. भोत्तव्यं ६. ३३. मामिणी ७. भ. भोत्ता शौ. ८. १३. भामेई ६. १९. भोत्ताण ३. ३६.. भारिआ पै. प्राम. १०.२१. पै. ७. भ. । भोत्तं ६. ३३. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्राकृत व्याकरण भोत्तण ६.३३. मऊहो ७. म. भोदि शौ. ८. ११., शौ. ८. १५. मए ४. ४७. शौ. ८. ४४., शो. ४. शौ. प्रास. ८. ४५. ६७., हेरू. पा. ४. ४७. मोदी ४.४३. मएसु ४. ७. भोदूण शौ. ८. १३. मओ. ८०., २. १. भोमि शौ. ८. ३३. मग्गओ १.०६ मग्गू ३.१. मग्गेहि अप. ११. १९. मागलो ७. म. मग्गो (वि.)२. १. मभको २. १. मघोणो ७ म. मअंको (वि.) १.८३. मच्चू, ७. म. मणो २. १. मच्छरो ३. २२. मा ४. ४७. मज्जारो पा. १.६१.; ७. म. मइ शौ. ८. ४४., ४. ४७. शौ. ४. मज्जं ३. २३. ४७., हेरू. पा. ४. ४७., अप. मज्झ हेरू. पा. ४. ४७. ४.४८. मज्झत्तो हरू. पा. ४. ४७. महत्तो ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. मज्झम्मि हेरू. पा. ४. ४७, मइदु हेरू. पा. ४. ४७. मज्झसु हेरू. पा. ४. ४७. महदो ४.४७. हेरू. पा. ४. ४७. मझहे अप. ११. १२. महलं ७. म. मझहो ७. म. मई शप. ११. ४०. मज्झाण हेरू. पा. ४.४७. मईअपक्खे (वि.)३. ३७. मज्झाणं हेरू. पा. ४. ४७. मउअं ७. म. मज्झिमो ७. म. मउड १.७५. मज्झु अप. ११.४०. मउणं १. ९३. मण्झेसु हेरू. पा. ४. ४७. मउत्तणं७. म. मज्झं हेरू. पा. ४. ४७.; ३. २४. मउली १. ९३. मझ ३. ३०. मउलो २.१. मारो ७. म. मउलं १. ७५. मट्टिा ७. म. मऊरो शौ. ८.४४. मडअं७. म. मऊरो ७. म. । मडे मा. प्राप्र. ९. १६. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २७७ मड्डि ७. म. । ममत्तो ४. ४७. मढा २. ४. हेरू. पा. ४. ४७. मण स्वा. प्र. ३. ४५. | ममदुहि ४. ४७. मणस्सि शौ. ८. ५. ममम्मि ४. ४७. मणहरं ७. म. हेरू. पा. ४.४७. . मणाउ. अप. ११, ६४. ममसु हेरू. पा. ४.४७. ४.४७. मणासिला १.५१. ममाइ ४. ४७. हेरू. पा. ४. ४७. मणि स्वाप्र. ३. ४५. . ममाण हेरू. पा. ४. ४७. मणोज्ज ३.५. ममाणं हेरू पा. ४. ४७. मणोण्णं ३.५. ममात पं. १०.२०० मणोरहो २. ३., ७. म. ममातो पै. १०.२०. मगंसिणी १. ३३. १. ५२. ममादो शी. ८.४४. शौ. ४.४७. मणंसिला १.३३. ममासुंतो ४. ४७. हेरू. पा. ४. ४७. मणंसी १.५२. ममाहिंतो हेरू पा. ४. ४७., ४. ४७. मण्डलग्गं १. ४३. ममेसु ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. मण्डलग्गो १. ४३. ममेसुंतो ४. ४७., हेरू. पा. ४.४७. मंडुक्को ३. ११. मम ४.४७. मण्णू ७. म. मम्महो ३. २६. मतन परवसो पं. १०.६. मयको पा. २.१. मत् शौ. ८.४४. मयणो पा. २. १. मत्तौ हेरू. पा. ४. ४७. ; ४. ४७.; मयन्दो ७. म. शौ. ४. ४७. शौ. ८. ४४. मयि अप. ४.४८. मधुरो पा. १. ६१. मयुरो ७. म. मनूसो १.५१. मय्यं मा. ९. ७. मन्तिदो शौ. ८.२. मरगअं ७. म. मन्तू ७. म.. मरलो पा. १.६१. मब्भीसा अप. ११. ६४. मरहदं ७. म. मम ४. ४७. शो. ८.४१. मरालो पा. १.६१. - हेरू. पा. ४.४७. शौ. ४. ४७. मरिएचउं अप. ११. ७२. ममए ४. ४७. मलिणं ७, म. हेरू. पा. ४. ४७. मल्लू७. म. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. २७८ प्राकृत व्याकरण मल्लू (वि.)३.३. महूणि ४.४१. मसणं ७. म. महेसु हेरू. पा. ४. ४७., ४. ४७.. मसाणं ७. म. महो २.३. मसिणं ७. म. महं हेरू. पा. ४.४७., ४. ४७. मस्कली मा. ९. ४. मा. ४७., अप. ४.४८. मह हेरू. पा. १.४७., शौ. ४.४७., महत्तो ४.४७. ४.४७., शो. ८.४४. माणं ४. ४७. महत्तो ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. मह्य अप. ४.४८. महन्तो ७. म. मालो ७. म. महन्दो शौ. ८.३. माअ ४. ३७. महम्मि ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. माअं ४.३७. महसु हेरू. पा. ४. ४७., ४. ४७. मा ७.३७. महाण हेरू. पा. ४. ४७. माआअ ४.३७. महाणं ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. माआइ ४.३७. महारा अप..११. ६८. मााण ४.३७. महिमा पा. १. ४४. माआणं ४.३७. महिवालो २.९. . माआदो ४. ३७. महिविर्ट (वि.) १. ८२. माआसु ४.३७. महिहि अप. ११. २४. माआसुं ४. ३७. महु ४. ४१., अप. ११. ४०. अप. माआसुतो ४.३७. ४.४८. मााहिंतो ४. ४७. महुँ ४. ४१. माइणो (वि.) १. ८५. महुअरो २.३. माह मण्डल १.८५. महुअं७. म. माउअं३. १२. ७. म. महुई १.१०. माउआ १.८३. महुरिअ ७. म. माउक्कं ३. १२.७. म. महुव्व ३. ४५. माउच्चा ७. म. महअं ७. म. माउत्तणं ७. म. महूइ ४. ४१. माउ मण्डलं १.८५., १.८४. महूई ४.४१. माउ सिआ ७. म. महमओ ८.४४. माउहरं १.८५., १.८४. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माऊ १. ८३. माए १.३७. माएहि ४.३७. माएहि ४.३७. माएहिं ४.३७. माज्जारो पा. १. ६१. माणुलो २. ८. माणंसिणी १. ५२. . माणंसी १. ५२. माथवो पै. प्राप्र. १०.२१. मादु १. ८३. . मादरं शो.८.४४.. मादुहरं १. ८५.; १. ८४. मादुमण्डल :. ८४., १.८५. मारणउ अप. ११.७५. मारणओ अप. ११.७५. मारि अप. ११. ७३. मारुदिणा शौ. ८. २. माला ४. ३३. मालाउ १.३३. मालाओ शौ. ८.४४. मालाओ ४.३३. माशे मा. प्रास. ९. १६. मासलं १.३६. मास १.३६. माहवीलदा २.३. माहप्पो १.४१. माहप्पं . ४१. माहो २.३. मि ४. ४.७., हेरू. पा. ४. ४७. मिअंको ७. म. शब्द-सूची . मिअंगो ७. म. मिअदि शौ. प्रास. ८.४३ मिइङ्गो पा. १. ५४. मिओ शौ. ८. ४७. मिच्चू ७. म. मिच्छा ३. २२. मिट्ठ १. ८१. मिमे ४. ४७. मिमं हेरू. पा. ४. ४७. . मिरिअं १.५४. मिलाणं ३. ३२. मि लउ अप. (वि.) ११.४. मिलिच्छो १. ६७. मिसालिअ स्वाप्र. ३. ४५. मिहणं २. ३. मी ४. ४७. मुअको (वि.) १. ८३. मुइंगो १.५४.७. म. मुक्को ३. १२. मुक्कं ७. म. मुक्खो ७. म. सुग्गरो ३. १. मुग्गो ३. १. मुशाय (अ)णो १. ९२. मुट्ठी ३. १८. मुडाल १.८३. मड्ढा ७. म. मुंडे १.३३. मुंढा १. ३३. मुत्ताहलं २.११. मुत्ती (वि.)३.२१. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्राकृत व्याकरण मुत्तो (वि.) ३. २१. | मोडं (वि.)२. ४. मुत्तं ३. १.; ७. म. मोत्तव्वं ६.३३. मुद्धा ७. म. मोत्ता.१.७९. मुद्धाअ ४. ३४. मीत्ती शौ. ८. ४४. मुद्धाइ ४.३४. मोत्तण ६. २९. मुद्धाए ४. ३४. (वि.) १.९. मोत्तं ३. ३६. ; ६. ३३. मोत्तण ६. ३३. मुनिंदो १.६७. मोरो ७. म. मुरुखो ७. म. मोल्लं७. म. मुसलं ७. म. मोसा. ७. म. मुसा ७. म. मोहो ७. म. . मुसावाा ७. म. मं हेरू. पा. ४. ४७.; ४. ४७. मुहत्तो (वि.)३.२१. शौ. ४. ४७.; अप. ११. ६४. मुहं २.३. मंजारो १. ३३. मूओ ३. १२. मंसलं १. ३६. मूसओ ७. म. मंसुल्लो ३. ४४. मूसलं ७. म. मंसं १. ६३., शौ. ८. ४४., १. ३६. मूसा ७. म. मंस्सू ७. म. मे शो. ८.४४. ४. ४७.: हेरू, पा. | म्मि हेरू. पा. ४. ४७., ४७. शौ. ४. ४७. मेखो पै. प्राप्र. २. २१. म्हा ६. ६. मेढी ७. म. म्हि ६. ६. मेरा ७. म. म्हो ६.६. मेल्लि. अप. ११.४६. मेहला २.३. यणवदे मा. ९.७. मेहो २.३. यदि मा. ९. ७. मेशे मा. (वि.)४.५. यंति १. ५०. मा. ८.२. यस्के मा. पा. ९. ११. मो हेरू. पा. ४. ४७. य के मा. ९. ११. मोच्छं ६. ९. यातिसो पै. १०. १६. मोण्ड १. ७९. यादि मा. ९. ७. . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची । २८१ यायदे मा. प्रार. ९. १६. युम्हातिसो पै. 10. १६. स्येव शौ. ८.२२. र (वि.)२.६. रअओ २. १. रअदं २. १. ; २.६. रअणं ७. र. र. १. रग्गो पा. ३. ६. रच्छा ३. २२. रञा पै. प्राम. १०. २१. रो पै. प्राप्र. १०.२१. रक्षा पै. १०.३. रो पै. १०.३. रणं ७.६. रण्णा हेरू. ४. ४१.; ४. ४१. रगो ४. ४१. रण्णो हेरू. ४. ४१. रणं ७. र. रत्ती ७. र.; ३. ३. रत्तं ७. . रन्ता शौ. ८. १३. रन्दूण शौ. ८. १३. रमणिज्जं २. १५. रमणीअं२. १५. रमति पै. १०. १८. रमते पै. १०. १८. रमदि शी. ८. १६. रमदे शौ. ८. १६. रमिअ ३. ३६. रमिय शौ. ८. १३. रमिय्यते पं. १०.१४. रयणीअरो १. १३. रसा-अलं २. १. रसायलं पा. २. १. रसालो ३. ४४. रस्सी ३.२. (वि.) ३. २९.' राअ-उलं १. १५., ७. र. राअफेरं ७. र. रामम्मि ४. ४१. राअस्स ४.४१. राअं ४.४१. रामा ४.४१. राआणो ४.४१. राआणं ४.४१. राआण्ण ४.४१. राआदु ४. ४१. राआदो ४. ४१. राहिंतो ४. ४१. राइक (नि.) ३. ३७., ७. र. राइणा हेरू. ४. ४१., ४ ४१. राइणो ४. ४१.. हेरू. ५. ४१. राइणं ४. ४१. हेरू. ४. ४१. राइत्तो हेरू. ४. ४१. राइम्मि हेरू. ४.,४१., ४. ४१. राइहिंतो ४.४१. राई ७. र. राईण हेरू. ४. ४१. राईणं हेरू. ४. ४१. राईसुहेरू. ४. ४१. राईसुं हेरू. ४. ४१. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ प्राकृत व्याकरण राईहिं हेरू. ४. ४१. राईहि हेरू. ४.४१. राईहि हेरू. ४. ४१. राठलं १. १५.. ७. र. राए ४.४१. राएण हेरू. ४.४१. राएणं हेरू. ४. ४१. राएसु हरू. ४. ४१., ४. ४१. रापसु हेरू. ४. ४१., ४. ४१. राएहि हरू. ४. ४१. राएहि हेरू. ४. ४१. राएहिं हेरू. ४. ४१., ४.४१. राओ (वि.) १. ६२. राचा पै. प्राप्र. १०. २१. राचित्रा पै. १०. ३. राचिनो पे. १०.३. राचिना पं. प्र. १०.२१. राचिनो पै. प्राप्र. १५. २१. राजपधो शौ. ८. ९. राजपहो गो. ८. ९. राय हेरू. ४. ४१. रायकं ७. र. रायत्तो हेरू. ४.४१. रायम्मि हरू. ४. ४१. रायस्स हेरू. ४. ४१. राया हेरू. ४. ४१. रायाण रू. ४. ४१. रायाणो हेरू. ४. ४१. रायाणं हरू. ४. ४१.. राये हेरू. ४. ४१. रायं हरू. ४. ४१., शौ. ८. ६. राहा २.३. रिऊ २. १., १. ८६., (वि.) २. ९.,, ७.र. . रिक्खो ७. र. रिच्छो ७. र. रिज्जू १. ८६., ७. र. रिड्ढी ७. र. रिणं १. ८६., ७. र. रिद्धी १. ८६., ७. र. रिसहो १. ८६., ७. र. रिसी १. ८६., ७. र. रुअसि अप. ११. ४२. रुअहि अप. ११ ४२. रुक्खा '१. ४३. रुक्खाइं १. ४३. रुक्खो शौ. ८. ४४., ७ र. रुक्खे मा. (वि.) ४.५. रुच्मी (वि.)३.१६. रुद्दो ३. ४. रुद्रो ३.". रुण्णं ७. र. रुप्पिणी ३. १६. रुप्पी पा. ३. ६. रुप्पं ३. १६. रुवह ६.३१. रूसइ ६.३०. रेभो २.११. रेसि अप. १६.६४.. रेसिं अप. ११. ६४. रोअदि २. .. । रोचिरो ३.३५. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोच्छं ६.९. रोत्तब्वं ६. ३३. रोत्तुं ६. ३३. रोत्तूण ६. ३३. रोददि शौ. प्राप्स. ८. ४५. रोवइ ६. ३१. रोवति शौ. प्रास. ८.४५. ल लअणं ७. ल. लक्खेहिं अप. ११.७. लखणं ३. १३. लगा ६. ३८. लगं ३.२. लङ्कणं १. ३७. लंघणं १. ३७. लज्जिरो ३. ३५. लन्छुणं १.३७. लट्ठी ३. १८.; ७. ल. लदत्तो हेरू. ४. ३७. लदाहिंतो ४. ३७. लदा ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदाऊ ४. ३०., हेरू. ४. ३७. लदाइ ७. ३७. हेरू. ४. ३७. लदाउ ४. ३७. हेरू. ४. ३७. लदाए ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदाओ ४. ३७, हेरू. ४. ३७. लदाण ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदाणं ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदादो ४. ३७. लदासु ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदासुं ४. ३७., हेरू. ४. ३७. शब्द-सूची लदासुंतो हेरू. ४. ३७. लदाहि ४. ३०., हे रू. ४. ३७. लदाहिं ४. ३७, हेरू. ४. ३७. लदाहिं ४. ३७., हेरू. ४. ३७. लदाfम्तो हेरू. ४. ३७. लद ४. ३७. हरू. ४. ३७. लपति प. ५०. १८. लपते पॅ. १०. १८. लवणं शौ. ८. ४४. लस्कशे मा. पा. ९. १६. मा. प्रा. ९. १६. ल कशे मा. ९. ११. लहहि अप. ११. ४२. लहहुं अप. ११.४५. लहु २. ३. लहुअं ७. ल. लहुई ३.५३ लहुवी ३. ३३. लाअण्णं २.१. लाऊ . ल. लाङ्गलो ७. ल. लांगलो ७. ल. लायण्णं पा. २.१. लावण्यं शौ. ८. ४४. लासं ३. ८. लाइअं २. ३. लाहलो ७. ल. लिच्छइ ३. २२. लिम्बो ७. ल. लिह अप. ११. १. लिहइ २. ३. २८३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ प्राकृत व्याकरण लिहीअदि शौ. प्रास. ८. ४५, वइसालो १. ८९. लोह अप. ११. १. वइसाहो १. ८९. लुको ७. ल. वइसिओ १. ९०. लुग्गो ७. ल., ६.३९. वइसंपाअणो १.९०. लुणइ ६, २२. वहस्साणरो १. ८९. लुम्पा (वि.)२.३. वकलं ३.३. लेइ (वि.) ६.३१. वक्खाणं ३. ७. लेविणु अप ११. ७३., अप. ११. ७४. लेह अप. ११.१. वग्गो ३. ३. (वि.)२.१. लोअणो १. ४१., पा. १. ४१. वंक १.३३. लोअणो पा. १. ४१. वच्छहु अप. ११.८. लोअणं १. ११. वच्छहे ११. ८. लोओ २. १. वच्छाओ (वि.) १. ९. लोणं ७. ल. वच्छा चलन्ति १. ६. लोद्धओ १.७९. वच्छेण १.३४. लोहिमाअइ ६. १. वच्छेणं १.३४. लोहिलाइ ६. १. वच्छेसु १.३४. वच्छेसुं १.३४. वच्छं १. २८. वअणो १.४१. वच्छो ३. २२., ७. व. वअणं २. १. २. ८., १. ४१., वजं ३.२३., ७. व. वअरं शौ. ८.४४. वञ्चणीयं १.३. वअं शौ... ४४.; ४. ४७. शौ. ८. ४०. वंचणं १. ३२. वइअम्भो १.८९. वञ्जिअं .३७. वहालियो १.९०. वंजिअं १.३७. वहआलीओ :.८९. वादि मा. ९.९. वइएसो १. ८९. वटिशं पै. प्राप्र. १०.३१. वइएहो १. ८९. वट्ठी ३. २१. वहरं ७. व. वट्टो ७. व. वहरं १. ९०. वट्ठ ७. व. वहसवणो १. ९०. वडाणलो २. .. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूची २८५ वडिसं (वि.) २. ४. वयंसिभ अप. ११. २३. वड्डयरं ७.व. वयंसो १.३३. वड्ढी १. ८०. वरिअं७. व. वढ अप. ११. ६४. वरिस (वि.) ६.२८. वणम्मि १. २९. वला १.६१. वणं ४.३८. वलयाणलो पा. २. १. वर्णमि १. २९. वलवामुहं २.४. वणस्सई ७. व. वलही २.४. वणाणि शौ. ८.३२. वला १.६१. . वणिदा ७. व. वलाहुं अए. ११. ४५. वण्ही ३. २८. वलिसं (वि.)२.४. वत्ता ३. २१. वल्लो पा. १. ५७., ७. व. वत्तिा (वि.)३. २१. वसही ७. व. वत्तिओ (वि.)३. २१. वसहो १. ८०.; ७. व. वदणं शौ. (वि.) पा. २. १. वसुआति पै. १०. १७. वनप्फई ७. व. वसो (वि.) १.८१. . वन्दामि शौ. ८. ४२. वहप्फई ७. व. पन्दित्ता (वि.)३.३६. वहस्सई ७. व. वन्दित्त (वि.)३. ३६. वहिरो २.३. वन्द्र ७. व. वहिनउ अप. ११. ६४. वन्फो शो. ८.४४. वहीअदि शौ. प्रास. ८.४५. वम्फा १.३७. वहु ४.३७. वंफइ १.३७. वहुए शो. ८. ४४. वम्भचेरं ७. व. वहुमुहं १.८. वम्महो ७. व. वहुहुत्तं ३. ४३. वम्मिओ १. ७३. वम्मो १.३९. वम्ह चेर ३.९.: ७.व., वहू ४.३३., ४. ३७.. वयणा पा. १.४१. वहूअ ४. ३७. वयणाई पा. १. ४१. वहूआ ४.३७. वयं शौ. ४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७., वहूई १.३७. (वि.) १.४०. | वहूर ४.३३. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्राकृत व्याकरण वहुए ४. ३७. |वासेसी १. ९. वहओ ४. ३३., ४. ३७., शौ. ८.४४. वाहइ २.३. वहूण ४.३७. वाहरिजइ ६. २६. वहूणं ४.३७. . वाहिओ ३. १२. वहूदो ४.३७. वाहित्तो ३. १२. . वहूमुह १.८. वाहितं १.८१. वहूसु ४.३७. वाहिप्पइ ६. २६. वहूसुं ४.३७. वाहिरं ७. व. वहसुंनो ४. ३७. घाहिं ७. व. वहूहि ४. ३७. वाहो २. ३.; ७. व. वहूहिं ४. ३७. विअ शौ. ८. ३९. ; १. १०. वहहिं ४. ३७. विभइल्लं ७. व. वहूहिंतो ४. ३७. विअडी ७. व. वहेडअडो ७. व. विभड्ढो ७. व. वह्मचरिअं७. व. विअणा ७. व. वाभरणं ७. व. विअणो पा. १. ५४. वाआ १.२०. विअणं १.५४, वाआच्छलं पा. १.२०. विषय वम्मं शौ. ८. ६. वाआ. विहवो पा. १. २०. वि अवयासो १. १०. वाउणा २.१. विभाणं २.१. वाउम्मि शौ. ८. ४४. विआरिल्लो ३. ४४. वाउलो ३. १२., ७. व. विआरुल्लो ३. ४४. वाउल्लो ३. १२. विठणो (वि.)३. ३. वाणारसी ७.व. विउदं २.६. वाप्पो ७. व. विटलं २. १. वारणं ७. व. विउस्सग्गो ७. व. वारं (वि.)३.३., ७. व. विओओ २. १. वावडो शौ. ८.२८., ७. व. . विओहो २.१. वास इसी १. ९. विकासरो १.५१. वासा १.५१. | विकओ १.२. चासेण अप. ११.५२. विक्कयो ३.३. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्चि अप. ११. ६४. विच्छड्डो ७. व. विच्छुओ ७. व. विच्छोह गरु अप. ११.४९. विछोड अप ११.७३. विज्ञणं (वि.) २.१. विज्जला स्वाप्र. ३. ४५. विज्जा ३. २३. विज्जू (वि.) १. २०. विज्जं ३. २०. विन्चुलो १.८१. विछिओ ७. व. विंधुओ ७. व. विज्ञातो पै. प्रा. १०. २१. विञ्जो शौ. ८.३०. विञ्जानं पै. १०.२. - विट्ठाल अप. ११. ६४. विट्ठी ७. व. विट्टोए अप. ११.२. विट्ठ ७. व. विडवो २. ४. विड्डा ३. ११. चिड्ढी १.८१. विदत्तच्छुरसं पा. १. २५. वित्तं ६. ३९. विढप्पड़ ६. २६. विढविज्ञइ ६. २६. विणि ४. ४८. विणु अप ११. ६४. विष्टं ७. व. fauoroi (fa.) 3. 4., 228. शब्द-सूची विष्णो शौ. ८.३०. विण्डू १. ६८.; ३. २८. वितिहो १.८१. वित्ती १.८१ वित्तं १. ८१. विदुरो (वि.) २.१. विद्वाओं (वि.) १.७५. विप्पस्स देहि १६. विग्भलो ७. व. विमृओ ३. २९. वियले मा. प्रा. ९.१६. विय्याहले मा. ९.७. विरसमालक्खिमोएहि १. १२. विरहग्गी १.६७. विलम्बु अप. ११. ४६. विलया ७. व. विलाशे मा. प्रा. ९.१६. विलासणीओ अप. ११. २१. विलिअं १.७३ १.५४. विल्लं ५.६८. विल्हको ६. ३९. विवह अप. ११. ५३. विसढो ७. व. विसमइओ १.५५. विसमओ १.५५. विसमो ७. व. पै. १०.८. विमानो पै. १०.८. विसी १.८१. विसो (वि.) १.८१. विसं (वि.) २. १३. विसंटुकं ७. व. २८७ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्राकृत व्याकरण विस्नु मा. ५.४ । वुजेप्पि अप. ११. ४८. विस्मये मा. ९. ४. वुजेप्पिणु अप. ११. ४८. विहप्फई ७. वः वुट्ट ७. व. विहप्फदी शौ. ८.४४ वुट्ठी ७. व. विहलो ७. व., ३. ९. वुड्ढी ७. व. विहसन्निं ६. १३. वुड्ढो १. ८३., ७. व. विहा १. ८१. वुत्तउं अव. ११. ६४. विहि ४. ४८. वुत्तानो १. ८३. विहिओ ३. १२. वुन्दारमा ७. व. विहित्तो ३. १२. वृंदावणं १. ८३. विही १. ४४. वंदं १. ८३. विहीणो ७.. वुन्द्रं ७. व. विहूणो ७. व. वुनउ अप. ११.६४. विहेइ (वि.) ६.३. वुहप्फइ ७. व. विजझो ३. २४. वुइस्सई ७. व. विंझा पा. ३. ८. वेअणा ७. व. शौ. ८. ४४. विहिओ १. ८१. ' वेआलिओ १. ९०. वीण अप. ११.१. वेहल्लं ७. व. वीरिअं७. व. वेच्छ ६. ९. वीसस्थो ७. व. वेजं ३. २३. वीलहो ६.३९. वेडिसो १.५४.७. व., पा. १. ५४. वीसभो ७. व. वेण अप. ११. १. वीसा १.३५. ७. व. वेणि ४. ४८. वीसामो १.५१. वेण्टं ७. व. वीसमइ १.५१. वेण्णं ४.४८. वीससह १.५१. वेण्हू १. ६८. वीसासो १.५१. वेदसो शौ. ८.४४. वीसुं १.३१. 1. ५१., ७. व. वेरुलिअं७. व. वुच्चा (वि.) ६. १५. वेरं १. ९०. वुच्चदि शौ. प्रास. ८.४५. वेलू ७. व. वुअइ अप.११. ४८.. | वेल्लं १.६८. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची . २८९ वेल्लो पा. १.५७.७. व., १. ५७. वेविरो ३. ३५. वेसिओ १.९०. वेसवणो १.९०. वेसु ४. ४८. वेसु ४. ४८. वेतंपाअणो १. ९०. वेहव्वं १. ८८, वेहितो ४. ४८. चैकुंठो (वि.)२.४. वो हरू. पा. ४. ४७., शौ. ८. ४४. चोक्कन्तं १. ७९. . वोण्टं ७. व. वोगी ७. व. वोरं ७. व. वोलीणो ६. ३९. बोसट्टो ६. ३९.. वोसिरणं ७. व. वंसिओ १. ६३. वाइ ६. २६. वासु० अप. ११. ५२. व शौ.८.४५. व्वावडो शौ. (वि.)पा. २. १. स सअडं ७. स. सअढं २.१. सअणं २.८. सइ १.६४., १.१. सई २.१. सउण (वि.)२.१. सउणिहं अप. ११. १२. सउत्तले शौ. (वि.)४. २. . सउरा १. ९३. सउहं १. ९३. सक्क ६.३८. सक्कअं १.३५. सक्कदि (वि.) शौ. प्रास. ८. ४२. सकारी १.३५. सक्कुणादि शी., प्रास. ८. ४५. सको १. २., ७. स. सक्खिणो ७. स. सक्खं १.३१. सङ्का १.१. सङ्खो १. १., १. ३७. संकतो ३. ८.. संकरो (वि.)२. १. संखो १. ३७., (वि.) २. ३. संगच्छं६.९. संगमो (वि.)२. १. संगामो पै. प्राप्र. १०.२१. संगं ७. स. संघो (वि.) २. ३.. संचावं (वि.)२.१. शवजे मा. ९. ८. शस्तवाहे मा. ९. ६. शालसे मा. ९. ३. शिआलके मा. प्राप्र. ९. १६. शिभाले मा. प्राप्र. ९. १६. शुस्क दालु मा. ९. ४. शुस्टु कद मा. ९.५. शुस्तिदे मा. ९. ६. हेरू. पा. ४. ४६. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सज्जनो (वि.) १.१६. सज्जो ३. १. सज्झसं ७. स. सज्झाओ ३. २४. मझो ३. ३०. सन्झा १.३७. सन्जा पै. १०.२. सड्ढल अप. ११. ६४. सदा ७. स. सढिलं ७. स. सढो २. ४. सनिअरो ७. स. सणिअं स्वाप्र. ३. ४५. सद्धिं ७. स. सण्ढो १.३७. संढो १.३७. सण्णा ३.५. सहं ३. ३.; ३. ३८., ७.स. सतनं पै. १०. ६. सत्तरह ७. स. सत्तरी ७. स. सत्तावींसा (वि.) १.२.१.७. सत्तअं १. ३५. सत्तग्वो शौ. प्रास. ८. ४५. सत्तो ७. स सद्दहणं ६. ३१ प्राकृत व्याकरण सहाणं ६. ३१. सद्दो ३. ३. सद्धा १. १७. सनानं पै., प्रा. १०. २१. सन्तो (वि.) १.४६. सप्पओ ३. १. सफं ३. २७. सबधु ११. ४९. समरी २. ११. सभलउ अप. ११. ४९. सभिक्खू (वि.) १. १६. समत्तं ७. स. ; (वि.) ३.२५. समत्थो ७. स. समरो ७. स. समाणु अप. ११. ६४. समिद्धी १. ५२. ; १.८१. समुद्दो ३. ४. समुद्रो ३. ४. समुहं १. ३६. ० सम्म पा. १. ४०. (वि.) १.४० ; १. ३१. सम्मो शौ. ८. ४४. सम्हो ३. २९. सयढं पा. २. १. यो (वि.) ३.३४. सरअ १.२३. सरओ १. ३८. ; पा. १. ३८. पा.. १. २३. सरदो पा. १.२३. सरफ पै., प्रा. १०. २१. सररुहं ७. स. सरिआ १.२०. सरिक्खं शौ. ८. ४४. पै. (वि.) १०. १३. सनेहो पै., प्राम. १०. २१., पै. सरिच्छो १.८७. ; १.५२. सरिया (वि.) १२०. (वि.) १०. १३. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची २६१ सरिसमिमं शौ. ८. २१. | सव्वु अप. ११.३८. सरिसो १. ८७. सब्वे ४. ४५. सरिसणिमं शौ. ८. २१. सव्वेण ४.१५. सरेण पा. १. ३९. सव्वेसिं ४. ४५. सरो १. ३९., ३. २. पा. ३. २.; | सव्वेसु ४. ४५, + (वि.) ३. २९. सब्वेसुं ४. ४५. सरोरुहं ७. स. सम्वेहितो ४.४५. सर्वे (वि.) ४. ४४. सम्वो ४.४५. सलफो पै., प्राप्र. २१. सवं ४. ४५., (वि.)३..३. सलाहा ७. स. सव्वंगिओ ७. स. .. सलिलं १. १०७. ससा ४.३१. सवलो २. १२. ससिमण्डलचन्दिमए अप. ११. २१. सवहुमान (वि.)२. १. ससी पै. १०.८. सवहो २. ३., २. ९. २. २. सहआरो (वि.)२.१. सव्वओ १. ४६. सहकारो (वि.) २.१. सम्वङ्गाउ अप. ११.२०. सहचरा (वि.)२. १. सव्वजो (वि.) १. ५६., ३. ५. सहरी २.११. सम्वो पै. प्राप्र. १०. २१., सहलं शौ. ८. ४४. पै. पा. १५६. सहहिं अप. ११.४१.. सव्वजो पै. १०. २. सलिलसेअसंभमुग्गादो ४. ड., पा. सवण्णू १. ५६, ३. ५. सवण्णो शौ. पा. १.५६., सहा २. ३. - शो. १.३1 सहावो २. ३. सव्वत्तो ४.४५. सहिदाणि मा. प्राप्र. ९. १६. सव्वस्थ ४.४५. सही २. ३. ४. ३३. . . सव्वदो ४. ४५. सहीउ ४.३३. सम्वम्मि ४.४५. सहीओ ४.३३. सवशित्वा शौ. ८. ४१. सहुं अप. ११. ६४. सव्वस्स ४. ४५. सहेउं अप. ११. ७२. सम्वस्सि ४.४५.. सा ४. ४७., ७. स. सम्वहिं ४. ४५. सारो २. १. सव्वाणं ४.४५. | साणो ७. स. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्राकृत व्याकरण सामओ ७. स. सामच्छं ७. स. सामत्थं ७. स. सामला अप. ११. २. सामिद्धी १. ५२. सारंग ७. स. सारिच्छो १. ५२. सालवाहनो ७. स. सालाहणो (वि.) १. १३. साओ २. २.० २.९. सासाअसि शौ.८.४२. सासं १. ५१. साहणा ४. २२. साहणी ४. २८. साहु अप. ११. ३८. साहू २. ३. . सि ६. ६. सिआ ७. स. सिंगारो १. ८१. सिंगं ७. स. सिंघो १.३६.; २. २०., ७. स. सिट्ठी १. ८१., ३. १८. सिट्ठ १. ८१. सिटिलं ७. स. सिणिद्धो ३. १. सिणि ७. स. सिण्णं ७. स. सित्थं ३. १. सिनातं पै..१०. १३. सिदूरं १. ६८. सिंधवं ७. स. सिप्पह ६. २६. सिप्पी ७. स. सिभा २.११. सिमिणो ७. स. सियालो १. ८१. सिरह ६.३७. सिर विअणा ७. स. सिरिमंतो (वि.)३. ४४. सिरिसो १. ७३. सिरोवेअणा ७. स. सिरं १. १६., १. ४०. पा. १. ४०. सिलिई ३. ३२. सिलोओ ३. ३२. सिविणो १. ५४., पा. १. ५४., ७. स. सिं ४. ४६., ४. ४७. सिंहदत्तो ७. स. सिंहराओ ७. स. सीअरो ७. स. सीमाणं ७. स. सीउआण ३.३६. सीभरो ७. स. सोसइ ६.३०. सीसो १.५१. सीसं पा.३.८. सीहरो ७. स. सीहो १.३६. २. २०., ७.८. सुअणस्सु अप. ११. १०. सुअदि शौ. प्रास. ८.४५. सुआदि शौ. प्रास. ८. ४५. सुइदी २.६. सुउमालो ७. स. सुररिसो (वि.) १. १३.; २. १. सुकडं आ.७. स. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ शब्द-सूची सुकिउ अप. ११. १. - | सुय्यो शो. ८. ८. सुकिदु अप. ११.१.. सुरुग्यो (वि.)३. ३३. सुकुमालो ७. स. सुवह .. ५९. सुकुसुम (वि.) २. १. सुवओ ७. स. सुकृदु अप. ११. १. सुवण्ण रेह अप. ११. २. सुक्कपक्खो (वि.) ३. ३२. सुवणिओ १. ९२. सुक्कं ७. स. सुवे कअं ३. ३४. सुगदो (वि.) २.१. सुवे जना ३. ३४. . सुगन्धत्तणं १. ९२. सुसा ७. स. सुधि अप. ११. ४९. सुसाणं ७. स. सुहवो ७. स. सुङ्ग ७. स. सुहम आ. ७. स. सुज्जो पै. (वि.) १०. १३. सुहिआ शौ. ८. ५. सुणाउ ६. १४. सुहुमं आ.(वि.)३. ३३. सुंडो १. ९२. सूअअं२. १. सुण्हा ७. स. सुण्ह ७.स. सूई २.१. सुतरं (नि.) २. १. सूरिओ ७. स. सुतारं (वि.) पा. २. १. सूरिसो (वि.) १. १३. सुत्तं ३. १. सूहवो ७. स. सुनुसा पै. (वि.) १०. १३. से ४. ४६. ; ४. ४७., शौ.पा. ४. ४६. सुन्दरिअं १. ९२. सेञ्च १. ८८. सुन्देरं पा. १. ५७., १. ९२., १. ५७. सेज। १. ५७. ; पा. १. ५७; ३. २३. सुंदर ३. ९. सेण्णं ७. स. सुप्पणहा ४. २९. सेत्तं १. ८८. सुप्पणही ४. २९. सेंदूरं १. ६८. सुमणाण (ठि.)पा. १. ४०. सेभालिआ २. ११. सुमणं (वि.) १.४०. सेलो १. ८८. सुमरदि शौ. ८..३७. सेलिफो ७. स. सुमरहि अप. ११. ४६. सेलिरहो ७. स. सुमरि अप. ११. ४६. सेवा ३. १२. सुमिणो आ. श. १. ५४. | सेव्वा ३. १२. सूआसो ७. स. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ प्राकृत व्याकरण संजा ३. सेव्वे (दि.) ४.४४. | सोसिअं६. १९. सेसो २. १९. सोहइ २. ३. सेहालिआ २. ११. सोहग्गं १. ९१. सो अप. ११.४., ४. ४६ ; हेरू. पा. सोहणं २. ३. . ४.४६. सोहिल्लो ३. ४४. सो अ (वि.)२. १. सौदामिणी शौ. (वि.) पा. २. १. सोअमल्लं १. ७५. । सौंअरिअं पा. १. १. सोउमाण (वि.) ३.३६. संघारो २.२०. सोएवा अप. ११. ७२. संजत्तिओ १. ६३. सोचा ३. २०. संजदो २.६. सोच्छिह ६.९. संजमो (वि.)२. १४. सोच्छिरथा ६.९. सोच्छिन्ति ६. ९. संजादो २. ६. . सोच्छिमि ६. ९. संजोओ (वि.)२. १४. सोच्छिमो ६. ९. ' संझा १.३७., ३. ८. पा. ३. ८. सोच्छिसि ६.९. संठविअं १. ६१. सोच्छिस्सं ६. ९. संठाविरं १.६१. सोच्छिहिद ६. ९. संणा ३. २४. सोच्छिहिनि ६.९. संदद्वो (वि.) ३. १६. सोच्छिहिमो ६.९. संपह अप. ११. ५३. सोच्छिहिसि ६. ९. संपई (वि.) २. ५. सोच्छं ६. ९. संप (वि.)२. ६. सोडोरं ७. स. संपआ १. २०. सोत्त ३. ११. संपदि २. ६. सोभति पं. १०.८. सपथ अप. ११.५३. सोभनं प. १०. ८. संपया (वि.) १.२०. सोमालो ७. स. सफाप्लो १. ५१. सोम्मो ३. २. संमड्डो ७. स. सोरिअं ७. स. संमुहो १.३.. सोवह १. ५९. संमुहं १.३६. सोसविअं ६. १९. । संरुधिजह ६. २६. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ शब्द-सूची . संरुवह ६. २६. हरो ७. ह. संवट्टि ३. २१. हलद्दा ४.३०., २. १८., ७. ह. संवत्तओ (वि.)३. २१. हलद्दी ७. ह. ४. ३०. संवत्तणं (वि.)३. २१. हलिआरो ७. ह. सवरो (वि.)२. १. हलिओ १. ६१. संवुदी २. ६. हलिद्दी ७. ह. संवुदं १. ८३. हवह ६.३१. संसाराए सुखं अर्द्ध. पा. १. ६. हवहिइ पा. ६.८. संसिद्धिओ १. ६३. हविय शौ. ८. १३. संहरइ (वि.) १.३७. हविहिह पा. ६. ८. संहारो २.२०. हशिद मा. प्राप्र. ९. १६. स्सं शौ.(वि.)८.३७. हशिदि मा. प्राप्र. ९. १३. हशिदु मा. प्राप्र. ९. १६. हासो (वि.)२. ६. हस ६. ९. हउ अप. ४.५८. हसइ ६. १४., ६.२०. हउं अप. ११. ४०. हसउ.६. ९., ६. १४. । हके मा. ४. ४८. मा. (वि.) ९. १६, हसन्नु ६. ९. मा० प्राप्र. ९. १६. हसन्तो ६. १२. हगे मा. ४ ४८., मा. ८. १६. मा. हसंतो ६. १४. प्राप्र.९.१६. हसमाणा ४. २९. हो शौ. ८. २३. हसमाणो ६. १२. हडक्के मा. प्राप्र. ९. १६. हसमाणी ४. २९. हडडई ७.ह. हसमि ६. ५. हणुमन्तो ७. ह. हसमु ६. ९. हत्थो ३. ६., ३. २५. हससु ६. ९. हदो २. ६., ४. ५. हसह ६.९. हम्मद ६. २४. हसहि ६. ९. हरडई ७. ह. हसामि ६. ५.. "हरिभदो ७. ह., ४. ५. हसामो ६. ६., ६. ९. हरिमाला . . हसिअह ६. १५. हरिजर ६. २६. हसिअव्वं ६. १६. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्राकृत व्याकरण हसिकं ६. १७. हसिउं६. १६. हसिऊण ६. १६. हसिजह ६. १५. ६.; ६. २६. हसितून पै. १०. ११. हसिमु ६. ६. हसिमो ६. ६. हसिरो ३.३५. हसिस्सामो ६.८. हसिस्सं ६.८. हसिहामो ६.८. हसिहिइ ६. १६. हसिहित्था ६. ८. हसेअव्वं ६. १६. हसिह ६.८. हसिहिन्ति ६.८. हसिहिमि ६.८. हसेइ ६.१४. हसेउ ६. १४. हसई ६. १३. हसेउं ६. १६. हसेऊण ६. १६. हसेज्ज ६.१०. हसेज्जसु ६. ९. हसेज्जहि ६.९. हसेज्जा ६. १०. हसेज्जे ६.९. हसेन्तु ६. ९. हसेतो ६. १४.. हसेमु ६. ६. हसेमो ६. ६. हसेहिह ६. १६. हस्ती मा. ९.४. हस्सइ ६. २६. हालिओ १. ६१. हिअअं१.८:., ७. ह., शो.(वि.) पा. २. १. हि ७. ह., १.८१. हितअकं पं. प्राप्र. १०. २१. हितकं पै. १०.९. हितयं मा. (वि.) पा. २. १. हिवइ ६.३१. ही शौ. ४. ४७. हीणो ७. ह. हीमाणहे शौ. ८. २४. हीरइ ६. २६. हीरो ७. ह. हीही शौ. ८. २७. हुणइ ६.२२. हुत्तं ३.१२. हुवित्था पा. ६. ८. हुविहिन्ति प'. ६.८. हुविहिसि पा. ६... हुविहिहि पा. ६.८. हुवेय्य पै. १०. १९. हुहुरु अप. ११. ६४. हूअं ३. १२. हूणो ७. ह. हे कत्तार (वि.)४. २२. हे कुल ४. ४१. हे पिअ ४. २२. ; ४. २३. हे पिअर ४. २२. ; १. २३, - - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-सूची हे पिअरा ४. २३. । होस्सामु पा. ६. ८., ६.८. हे भत्तार ४. २३. ; हेरू. ४. २३. होस्सामो ६.८., पा. ६. ८. हे भत्तारा ४. २३., हेरू ४. २३. होहाम६.८. . हे भभवं ४.४२. होहामि ६. ८. पा. ६. ८. हे भवं ४.४२. होहामु ६.८. . हे लदाओ ४.३७. होहामो ६. ८. पा. ६. ८. हे लदे ४ ३७. ; हेरू. ४. ३७. होहिइ ६. ८.पा.६.८., अप. ११.४७. हेल्लि अप. ११. ६४. होहिओ पा. ६. १. हे सव्व ४. ४५. होहित्थ ६... होइ इह १. १४. होहिल्या पा. ६. ८. होज पा. ६. ८. होहिन्ति ६. ८., पा. ६.८. होजइ ६. ११. होहिन्तं ६.८. होजा पा. ६.८. होहिम ६. ८. पा. ६. ८. होजाइ ६.११. होहिमि ग. ६.८. होजहिइ पा. ६.८. होहिमु ६. ८. पा. ६. ८. होजाहिद पा. ६. ८. होहिमो पा. ६. ८. होतु पै. १०.६. होहिरे ६.८. होत्ता शौ. ८. १३. होहिसि ६.८. होदि शौ. ८. ११., शौ.प्रास., ८.५५., होहिस्सा . ६... शौ. ८. १५. होहित ६.८. होदण शौ. ८. १३. होहिहि पा. ६.८ होध शौ. ८. १२. होहिहिसि पा. ६. ८. होसइ पा. ६. ८., अप. १८. ४७. होहिह पा. ६. 1. होस्स पा. ६. ८. होही पा. ६... होस्साम ६. ८. . हं४. ४७., हेरू. पा. ४. ४७. होस्साम पा. ६. ८. हंशे मा. ९. ३. होस्सामि ६. ८., पा. ६. ८. | ह्मासि ६. ३९. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रन्थ-सूची (१) सिद्ध हेमशब्दानुशासन, अष्टम अध्याय ( हेमचन्द्रकृत ) (२) प्राकृतसर्वस्व (३) प्राकृत प्रकाश ( ४ ) प्राकृतमञ्जरी (५) कुमारपालचरित ( प्राकृतद्वयाश्रय काव्य ) (६) रावणव हो ( सेतुबन्ध काव्य ) (७) प्राकृत व्याकरण ( हृषीकेश भट्टाचार्य विरचित ) : संस्कृत एवं अंग्रेजी (८) अभिज्ञानशाकुन्तल ( कालिदास विरचित ) ( ९ ) विक्रमोर्वशीय ( कालिदास विरचित ) (१०) मुद्राराक्षस ( विशाखदत्त विरचित ) (११) पाणिनीयाष्टक (अष्टाध्यायीसूत्रपाठ ) (१२) गउड हो Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (बृहत् संस्करण) श्री वाचस्पति गैरोला इस ग्रन्थ को लिखते समय यह ध्यान रखा गया है कि पाठक परम्परा और पूर्वाग्रह के मोह में न पड़कर प्रत्येक विवादग्रस्त प्रश्न का समाधान स्वयं कर सकें। पाठक पर अपने विचार लादने की अपेक्षा उपयुक्त यह समझा गया है कि विभिन्न मतवादों की समीक्षा करके वह स्वयं ही विषय के सही ध्येय को ग्रहण कर सके। भारतीयता या विदेशीपन का पक्षपात त्याग कर किसी भी विद्वान् के स्वस्थ और सही विचारों को उधार लेने में सङ्कोच नहीं किया गया है। पुस्तक की विषय-सामग्री और उसकी रूप-रेखा का गठन भी ऐसे ढङ्ग से किया गया है, जिससे संस्कृत भाषा की आधारभूत भावभूमि का परिचय प्राप्त होने के साथ-साथ सम-सामयिक परिस्थितियों । का भी अध्ययन हो सके । आर्यों के आदि देश एवं आर्य भाषाओं के उद्भव से लेकर उन्नीसवीं सदी तक की सहस्राब्दियों में संस्कृत-साहित्य की जिन विभिन्न विचार-वीथियों का निर्माण हुआ और भारत के प्राचीन राजवंशों के प्रश्रय से संस्कृत भाषा को जो गति मिली, उसका भी समावेश पुस्तक में देखने को मिलेगा। मूल्य २०-०० प्राप्तिस्थानम्-चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास (परीक्षोपयोगी संस्करण) श्री वाचस्पति गैरोला संस्कृत-साहित्य के इतिहास का यह संक्षिप्त संस्करण इस उद्देश्य से लिखा गया है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित इतिहासविषयक ज्ञान के संवर्धनार्थ विद्यार्थीवर्ग का इससे लाभ हो सके। पाठ्यक्रम की दृष्टि से संस्कृत-साहित्य के इतिहास पर राष्ट्रभाषा हिन्दी में जो अनेक अन्य पुस्तकें लिखी गई हैं वे या तो सर्वांगीण नहीं हैं अथवा उनमें छात्रों के उपयोगी इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन की क्रमबद्ध रूपरेखा का अभाव है। .... यह इतिहास पाठ्यक्रम की दृष्टि से तो लिखा ही गया है; किन्तु संस्कृत के बृहद् वाङ्मय का आमूल ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत करने का भी इसमें उद्योग किया गया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि संस्कृत के छात्रों को वैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृत-साहित्य के इतिहास का अध्ययन कराया जाय, जिससे कि उनकी मेधाशक्ति का स्वतंत्र रूप से विकास हो सके और प्रस्तुत विषय पर मूल्य 8-00 प्राप्तिस्थानम्-चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१