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________________ द्वितीय अध्याय आदि के कादि के लोप जैसे - स ( स पुनः ), सो अ ( स च ) इन्धं (चिह्नम् ); च का ज जैसे – पिसाजी ( पिशाची ); आर्ष में च का ट जैसे—आउट (आकुञ्चनम् ) विशेष – जहाँ नियम २.१. के अनुसार कादि वर्णों के लोप हो चुकने पर अ अथवा आ अवशिष्ट हों, वहाँ लघुप्रयत्नतर यकार का उच्चारण जानना चाहिए । ४७ (२) अवर्ण से पर में अनादि प का लुकू नहीं होता है । जैसे - सवहो ( शपथः); सावो (शापः ) ( ३ ) स्वर से पर में होनेवाले संयुक्त तथा अनादि ख, घ, थ, ध और भ अक्षरों के स्थान में प्रायः ह आदेश होता है । होता । जैसे—वदणं, सौदामिणी । प्रायः कहने से हि श्रत्र में लोप हो जाता है । मागधी में छ के स्थान में च श्रादेश होता है । जघ के -स्थान में य होता है । य का लोप नहीं होता । पैशाची में त और 1 1 के स्थान में त होता है । हृदयं का हितयं रूप होता है । अपभ्रंश में स्वर से परे अनादि और असंयुक्त क, ख, त, थ, प और फ के स्थान में क्रमशः ग, घ, द, ध, व और भ ये ही आदेश होते हैं । पैशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान में क्रमशः वर्ग के प्रथम नकरं तथा भगवती कारण यहाँ इतनी बातें का और द्वितीय अक्षर होते हैं । जैसे नगरं का फकवती । प्रसङ्ग उपस्थित हो जाने के लिखी गइ ।
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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