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________________ प्राकृत व्याकरण (पृथ्वी); समिद्धीः (समृद्धिः); किवो (कृपः); वित्ती (वृत्तिः); उकिट्ठ (उत्कृष्ठम् ) विशेष-कल्पलतिका के अनुसार नीचे लिखे शब्दों में ऋकार का नित्य ही इत्व होता है शेष में विकल्प से-भृङ्गभृङ्गारशृङ्गाराः कृपाणं कृपणः कृपा । शृगालहृदये वृष्टिदष्टिवृंहितमेव च । समृद्धिकृशरातृप्तिवृत्ति वृद्धिस्तु कृत्रिमम् । कृकराकुस्तथेत्यादौ नित्यमित्वं ऋतो मतम् । विकल्प जैसेविसो, वसो (वृषः) किण्हो, कण्हो (विष्णुवाची कृष्ण) (८२) पृष्ठ शब्द जहाँ किसी समास आदि में उत्तर पद नहीं हो, वहाँ ऋ का इ विकल्प से होता है जैसे-पिटुं, पढे (पृष्ठम् , । विशेष—महिविडं (महीपृष्ठम्) में उत्तरपद रहने से पृष्ठ शब्द का वैकल्पिक इत्व नहीं हुआ। (८३) ऋतु प्रभृति शब्दों में आदि ऋ का उकार होता है । जैसे—उदू (ऋतुः); पउत्ती (प्रवृत्तिः); परामुट्ठो (परामृष्टः); पाउसो (प्रावृट् ); परहुओ (परभृत्); णिव्वुअं, णिव्वुदं (निवृतम); उसहो (ऋषभः); भाउओ (भ्रातृकः); पहुदि (प्रभृति); संवुदं . * कल्पलतिका में ऋत्वादि गण यो माना गया है ऋतुर्मृदङ्गो निभृतं वृतः परभृतो मृतः । प्रावृट् प्रवृतिवृत्तान्तोमातृका भ्रातृकस्तथा । मृणालपृथिवीवृन्दावनजामातृका अपि । वृन्दारकश्च प्रभृतिः पृष्ठ वृद्धादयः परे ॥ अत्र लक्ष्यानुसारतोऽन्येऽपि शब्दा शेयाः। (यहाँ लक्ष्यों के अनुसार ऐसे ही दूसरे शब्दों को भी जानना चाहिए।)
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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