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प्रथम अध्याय
विशेष-शौरसेनी में यह ओत्व नित्य नहीं होता।
(८०) शब्द के आदि ऋकार का अकार होता है। जैसेघअं (घृतम् ); तणं (तृणम्); कअं (कृतम्) वसहो (वृषभः) मओ (मृगः अथवा मृतः) वड्ढी आदि।
(८१) कृपादिगण के शब्दों में आदि ऋकार का इत्व होता है। जैसे-किवा (कृपा); दिलै (दृष्टम् ); सिट्ठी (सृष्टिः); भिऊ (भृगुः), सिंगारो (शृङ्गारः); घुसिणं (घुमृणम्); इड्ढी (ऋद्धिः); किसाणू (कृशानुः) किई (कृतिः); किवणो (कृपणः); भिंगारो (भृङ्गारः); किसो (कृशः); विश्नुओ वृश्चिकः); विहिओ (बृंहितः); तिप्पं (तृप्तम् ); किच्चं (कृत्यम् ); हिअं (हृतम् ); विसी (वृषिः); सइ (सकृत् ); हिअअं (हृदयम् ); दिट्ठी (दृष्टिः); गिट्ठी (गृष्टिः); भिंगो (भृङ्गः); सियालो (शृगालः) विड्ढी (वृद्धिः); घिणा (घृणा); किच्छं (कृच्छ्रम् ); निवो (नृपः); विहा (स्पृहा); गिड्ढी (गृद्धिः); किसरो (कृशरः); धिई (धृतिः); किवाणं (कृपाणम्); किसिओ (कृषितः); वित्तं (वृत्तम् ); वाहित्तं (व्याहृतम् ); इसी (ऋषिः); वितिण्हो (वितृष्णः); मिट्ठ (मृष्टम् ); सिलु (सृष्टम् ); पित्थी __ + कृपादिगण के उदाहरणों की सिद्धि के लिए प्राकृतप्रकाश में इदृष्यादिषु सूत्र अाया है। ऋष्यादिगण के शब्दों की गणना कल्पलतिका में इस प्रकार की गई है--ऋष्यादिषु कृतिः कृत्या धृष्टो वृषभवृश्चिकः । वृषश्च पृथुलो गृध्रो मृगाको मसृणं कृषिः। सृष्टिदृढो भृतो गृष्टिवितृष्णकृतकृत्तयः । संज्ञावाजककृष्णोऽयमृष्यादिगण ईदृशः। प्राकृतमञ्जरीकार के मत से ऋष्यादिगण यों है-ऋषिदृष्टिः कृशो घृष्ठिः कृपाशृङ्गारवृश्चिकाः; मृदङ्गो हृदयं भृङ्गः शृगाल इति सृष्टयः । विमृष्टश्च मृगस्तद्वद् भृत्यश्च कृशरस्तथा । श्राकृतिः प्रकृतिश्चैव स्यादृश्यादिरयं गणः।