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________________ १२६ प्राकृत व्याकरण +रुध क्रियते भी 44 mi_on a ज्ञा . स्त्रिह उबरुह्यइ, उबरुधिन्नइ उपरुध्यते हीरइ, हरिनइ ह्रियते कृ कीरइ, करिजइ तीरइ, तरिज्जइ तीर्यते जीरइ, जरिजइ जीर्यते विढप्पइ, विढविज्जइ,अजिजइ अय॑ते Jणचइ, णजइ, जाणिज्जइ, ज्ञायते (णाइज्जइ वि+आ+ह वाहिप्पइ, वाहरिजइ व्याहियते आ+रभ आढप्पइ, आढवीअइ आरभ्यते सिप्पइ स्निह्यते सिंच सिप्पड़ सिच्यते ग्रह घेप्पइ, गण्हिजइ स्पृश छिप्पइ (२७) धातु के अन्त्य उवर्ण के स्थान में अव आदेश होता है । जैसे :-हु धातु का 'एहव' इत्यादि । (२८) धातु के अन्त्य ऋवर्ण के स्थान में 'अर' आदेश होता है । जैसे :-कृ का कर इत्यादि । विशेष-वृषादि के ऋकार का 'अरि' आदेश होता है । जैसे :-वृष का वरिस कृष का करिस इत्यादि । (२६) धातु के इवर्ण और उवर्ण का गुण होता है । जैसे :नेइ (नयति ), मोत्तुण ( मुक्त्वा ) । (३०) रुष आदि धातुओं के स्वर का दीर्घ होता है। जैसे:-रूसइ, पूसइ, सीसइ, तूसइ, दूसइ, (रुष्यति, पुष्णाति शिनष्टि, तुष्यति, दुष्यति) गृह्यते स्पृश्यते ..
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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