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________________ प्राकृत व्याकरण विशेष-कहीं-कहीं यह नियम नहीं लागू होता है। जैसे: विएणाणं (विज्ञानम् )* (६) अनादि एकाकी व्यञ्जन, जो कि पूर्वोक्त नियमों से संयुक्त व्यञ्जन के लुक् होने पर अवशिष्ट रहता है द्वित्वा को प्राप्त करता है । जैसे: प्राकृत संस्कृत दिट्ठी [षलुक् ; ठद्वित्व] दृष्टिः हत्थो [स लुक् ; थ द्वित्व] हस्तः (७) वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ वर्गों के द्वित्व का प्रसङ्ग हो तो द्वितीय वर्ण के ऊपर उसी वर्ग के प्रथम और चतुर्थ के ऊपर उसी वर्ग के तृतीय अक्षर होते हैं। जैसे:-वक्खाणं (व्याख्यानम् ); अग्यो (अर्घः) . (८) दीर्घ स्वर एवं अनुस्वार से पर में रहनेवाले संयुक्तशेष व्यञ्जन (ऊपर से नियमों से संयुक्ताक्षरों में व्यञ्जन के लुक् हो जाने पर अवशिष्ट व्यञ्जन ) का द्वित्व नहीं होता है । जैसेः * शौरसेनी में ज्ञ के स्थान में अ होता है। मागधी और पैशाची में ज्ञ के स्थान में ञ होता है। पैशाची में राजन् शब्द सम्बन्धी ज्ञ चिञ् विकल्प से होता है। शौरसेनी, मागधी और पैशाची में न्य और एय के स्थान में भी ञ होता है। +हेमचन्द्र ने 'अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम्' २.८९. सूत्र बनाकर श्रादेश का भी द्वित्व माना है । जैसे:-उक्को, जक्खो, रग्गो, किच्ची, रुप्पी । कहीं पर यह नियम नहीं लगता है । जैसे-कसिणो । अनादि कहने से खलिअं, थेरो, खम्भो में नियम नहीं लगा। * यहाँ दीर्घ और अनुस्वार नियमवश सम्पन्न ( लाक्षणिक ) और स्वाभाविक (अलाक्षणिक) दोनों गृहीत हैं । लाक्षणिक दीर्घ:-छूढो,
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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