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द्वितीय अध्याय जइ, नई, गा*, मअणो,वअणं, मत्रो (यदि, नदी, गदा, मदनः, वदनम् मदः); पलोप जैसे--रिऊ, सुउरिसो, कई, विउलं (रिपुः, सुपुरुषः, कपिः, विपुलम् ); यलोप जैसे-आलू , णअणं, विओओ, वाउणा (दयालुः, नयनम्, वियोगःवायुना); वलोप जैसे--जीओ, दिअहो, लाअण्णं,)( विओहो, वडाणलो$ (जीवः, दिवसः, लावण्यम् , विबोधः, वडवानलः) विशेष--(क) प्रायः कहने से कहीं-कहीं लोप नहीं होता
है । जैसे-सुकुसुमं, प्रयाग-जलं, पियगमणं, सुगदो, अगुरू,() सचावं, विजणं, अतुलं, सुतरं, विदुरो, आदरो, अपारो, अजसो
देवो, दाणवो सवहुमानं इत्यादि । (ख) स्वर से पर में नहीं रहने के कारण
संकरो, संगमो, णकंचरो,[ धणंजओ,
* हेम० व्या० 'गया' पा० । +हेम० व्या० 'मयणो' पा० ।
हेम० व्या 'दयालू' पा० । A 'नयणं पा० हेम० व्या० । ('लायएणं' पा० हेम० व्या०। $ 'वलयाणलो' पा० हेम० व्या० ।
'अगरू' पा० हेम० व्या० । 1 'सुतार' पा० हेम० व्या० । उनकंचरो पा० हेम० व्या० । नत्तंचरो भी पाठ मिलता है।