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________________ १६६ प्राकृत व्याकरण विशेष—(क) उक्त नियम जहाँ लगता है, वहाँ संयोग के आगे-पीछे के वर्षों का लोप नहीं होता । (ख) ग्रीष्म शब्द में उक्त नियम के लागू नहीं होने से गिम्हवाशले ( ग्रीष्मवासरः ) होता है। (५) द्विरुक्त ट ( ) और षकार से आक्रान्त ( युक्त) ठकार के स्थान में मागधी में मृ आदेश होता है । दृ में जैसे :पस्टे ( पट्टः ), भस्टालिका ( भट्टारिका ), भमृणी ( भट्टिनी ), ष्ठ में जैसे:-शुस्टु कदं ( सुष्टु कृतम् ) कोस्टागालं ( कोष्ठागारम् )। (६) स्थ और र्थ इन दोनों के स्थान में मागधी में सकार से संयुक्त तकार होता है । स्थ में जैसे:- उवस्तिदे ( उपस्थितः), शुस्तिदे (सुस्थितः ); र्थ में जैसे:-अस्तवदी (अर्थवती ), शस्तवाहे (सार्थवाहः)। (७) मागधी में ज, द्य और य के स्थान में य आदेश होता है । ज का जैसे :-यणवदे ( जनपद: ), अय्युणे ( अर्जुनः ), दुय्यणे ( दुर्जन: ), गय्यदि ( गर्जति ); द्य का जैसे :-मय्यं ( मद्यम् ), अय्य किल विय्याहले आगदे - ( अद्य किल विद्याहर आगतः । ); य का जैसे :-यादि ( याति)। विशेष—इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय के चौदहवें नियम के बाधनार्थ य के स्थान में पुनः य का विधान किया जाता है। (८) मागधी में न्य, ण्य, ज्ञ और न इन संयुक्ताक्षरों के
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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