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________________ प्राकृत व्याकरण - (३६) अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान में काइं और कवण आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे:-इसी अध्याय के नियम २१ की पादटिप्पणी एक में देखो-'काई न दूरे देक्खई' (किं न दूरे पश्यति ?) और नियम २२ की पादटिप्पणी दो में 'ताहँ पराई कवण घृण' ( तयोः परकीया का घृणा ?); 'किं गजहि खल मेह' ( किं गर्जसि खल मेघ)। . ___ (४०) अपभ्रंश में युष्मद्, अस्मद्-विषयक नियमों को न लिख कर यहाँ हम उनके रूप ही लिख रहे हैं। ये रूप हेमचन्द्र के अनुसार हैं। नियमों के लिए उन्हीं के ४. ३६० से ४. ३८१ तक सूत्रों को देखना चाहिए। अपभ्रंश में युष्मद् शब्द के रूपःएकवचन बहुवचन प्रथमा तुहुं तुम्हे, तुम्हइं द्वितीया पई, तई तुम्हे, तुम्हइं तृतीया पई, तई तुम्हेहि पञ्चमी तउ, तुज्झ, तुध्र ( तुहु) तुम्हह षष्ठी , " " " तुम्हहं . सप्तमी पई, तई तुम्हासु अपभ्रंश में अस्मद् शब्द के रूपः अम्हे, अम्हई द्वितीया मइं अम्हे, अम्हइं तृतीया मई अम्हेहि पञ्चमी महु, मज्झु अम्हहं षष्ठी महु, मज्झु अम्हहं सप्तमी मई अम्हासु प्रथमा
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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