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________________ एकादश अध्याय २१७ (४१) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में तिङ् का आदेश 'हिं' विकल्प से होता है। जैसे:-धरहिं, करहिं, सहहिं ( धरतः, कुरुतः, शोभन्ते) . (४२) अपभ्रश में धातु से, वर्तमान काल के मध्यम पुरुष के एकवचन में, तिज के स्थान में 'हि' आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-रुअहि (रोदिषि ), लहहि' ( लभसे ); पक्ष में रुअसि इत्यादि। (४३) अपभ्रंश में धातु से, वर्तमान काल के मध्यम पुरुष के बहुवचन में, आनेवाले तिङ् के स्थान में हु आदेश विकल्प से होता है । जैसे:-इच्छहु ( इच्छथ ); पक्ष में इच्छह । १. मुह-कबरि-बन्ध तहें सोह धरहिं । नं मल्ल-जुझु ससिराहु करहिं ।। ( मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभां धरतः। . ननु मल्ल-युर्द्ध शशिराहू कुरुतः ॥) तहें सहहि कुरल भमर-उल-तुलिश्र। नं तिमिर डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ॥ ( तस्याः शोभन्ते कुरलाः भ्रमरकुलतुलिताः।। ननु भ्रमरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलिताः॥) २. बप्पीहा पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रुअहि हयास । तुह जलि महु पुणु वल्लहइ विहुँ वि न पूरिश्र श्रास ॥ चातक ( पपीहा ) पिबामि पिबामि ( प्रियः प्रियः) भणित्वा कियत् रोदिषि हताश तव जले मम पुनर्वल्लभे द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥) २. बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ ।' जइ इच्छहु बहुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ ॥
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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