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________________ १२ प्राकृत व्याकरण ( २ ) कहीं-कहीं अनन्त्य मकार का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होता है। जैसे - वणम्मि, वर्णमि (वने) (३०) स्वर के पर में रहने पर अन्त्य मकार का अनुस्वार विकल्प से होता है । जैसे - फलं अवहरइ, फलमवहरइ ( फलमवहरति ) विशेष- अनुस्वार के अभाव पक्ष में म्का म् ही रह गया । लुकू का अपवाद होने से लुकू (१.१६) नहीं हुआ । ( ३१ ) कभी-कभी 'म्' के अतिरिक्त दूसरे व्यञ्जनों के स्थान में भी पाक्षिक मकार होता देखा जाता है। जैसे—वीसुं, पिहं, सम्मं, सक्खं, जं, तं, ( विष्वक्, पृथकू, सम्यक्, साक्षात्, यत्, तत्, ) (३२) व्यञ्जन वर्णों के पर में रहने पर ङ् ञ् ण् न् के स्थान में अनुस्वार होता है। जैसे—पंती, परंमुहो, कंचुओ, वंचणं; संमुहो, उकंठा; कंसो, अंसो (पक्तिः, पराङ्मुखः, कञ्चुकः, वञ्चनम् ; षण्मुखः, उत्कण्ठा; कंसः, अंशः ) ( ३३ ) वक्रप्रभृति | शब्दों में कहीं प्रथम, कहीं द्वितीय तथा कहीं तृतीय स्वर के आगे अनुस्वार का आगम होता है । * वीसुं वासा-नीसित्त-महि-ले ऊस- मालि ते अस्स (विष्वग्वर्षानिषिक्तमहीतले उस्रमालितेजसः । कुमार पा० १.३२. + वक्रत्र्यसवयस्याश्रु श्मश्रुपुच्छातिमुक्तकौ ; गृष्टिर्मनस्विनी स्पर्शश्रुतप्रतिश्रुतं तथा । निवसनं दर्शनञ्चैव वक्रादिष्बेवमादयः ॥ ( प्राकृतकल्पलतिका के अनुसार वक्रादि गण । यह गया आकृति गण माना जाता है । )
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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