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________________ अष्टम अध्याय १८७ ( ३२ ) शौरसेनी में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान शब्दों से पर में आनेवाले जस और शस् के स्थान में णि आदेश और पूर्व स्वर का दीर्घ भी होता है । जैसे : ―वणाणि, घणाणि (वनानि, धनानि ) | ( ३३ ) शौरसेनी में तिङ् प्रत्ययों के पर में रहने पर भूधातु के स्थान में भो आदेश होता है । जैसे :- भोमि । विशेष – लृट् ( अर्थात् भविष्यत् काल के तिङ् ) के पर में रहने पर उक्त नियम लागू नहीं होता । जैसे :- भविस्सिदि । ( ३४ ) शौरसेनी में तिङ् के पर में रहने पर दा धातु के स्थान में दे आदेश होता है और केवल लृट् के पर में रहने पर दइस्स आदेश । सामान्यतः तिङ् में जैसे :- - देमि । लृट् के पर में रहने पर जैसे : —दइस्स । (३५) शौरसेनी में कृञ धातु के स्थान में कर आदेश होता है | जैसे :- करेमि | ( ३६ ) शौरसेनी में तिङ के पर में रहने पर स्था धातु के स्थान में चिट्ठ आदेश होता है । जैसे :- चिट्ठदि । '' ( ३७ ) शौरसेनी में ति के पर में रहने पर स्मृ, दृश और अस धातुओं के स्थान में क्रमशः सुमर, पेक्ख और अच्छ आदेश होते हैं । जैसे :- सुमरदि, पेक्खदि, अच्छन्ति ( स्मरति, पश्यति, सन्ति ) | ' विशेष – (क) तिप् के साथ अस धातु के सकार के स्थान में स्थि आदेश होता है । अस्थि । जैसे :- पसंसिदं णात्थि में वाआ-विहवो । (ख) भविष्यत् काल में मिप्-सहित अस के स्थान में विकल्प से स्सं आदेश होता है। पक्ष में धातु के स्वर का दीर्घत्क भी होता है । स्सं; आस्सं ।
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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