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________________ अष्टम अध्याय १८५ (१७) शौरसेनी में भविष्यत् अर्थ में विहित प्रत्यय के पर में रहने पर स्सि होता है । जैसे :-भविस्सिदि. करिस्सिदि, गच्छिस्सिदि। विशेष-धातु और प्रत्ययों के बीच में आने के कारण 'स्सि' विकरण है। __(१८ ) शौरसेनी में अत् से पर में आनेवाले सि के स्थान में आदो और आदु ये आदेश होते हैं और शब्द के टि (अ) का लोप होता है । जैसे:-दूरादो, दूरादु (दूरात् )। (१६) शौरसेनी में इदानीम् के स्थान में दाणिं यह आदेश होता है । जैसे :-अनन्तर करणीयं दाणिं आणेवदु अय्यो। विशेष-उक्त नियम साधारण प्राकृत में भी लागू होता देखा जाता है। (२०) शौरसेनी में तस्मात् के स्थान में ता आदेश होता है । जैसे :-ता जाव पविसामि | ता अलं एदिणा माणेण | ___ (२१) शौरसेनी में इत् और एत् के पर में रहने पर अन्त्य मकार के आगे णकार का आगम विकल्प से होता है। इकार के पर में जैसे :-जुत्तंणिमं, जुत्तमिमं, सरिसंणिमं, सरिसमिमं; एकार के पर में जैसे :-किंणेदं, किमेदं; एवंणेदं, एवमेदं । (२२) शौरसेनी में एव के अर्थ में य्येव यह निपात प्रयुक्त होता है । जैसे :-मम य्येव बम्भणस्स; सो य्येव एसो। (२३) चेटी के आह्वान अर्थ में शौरसेनी में हले इस निपात का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-हले चदुरिके। ' (२४) विस्मय और निर्वेद अर्थों में शौरसेनी में हीमाणहे इस निपात का प्रयोग किया जाता है । विस्मय में जैसे :
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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