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के तीन भेद-नागर, ब्राचड और उपनागर; पैशाच के तीन भेदकैकेय, शौरसेन और पाञ्चाल । इस तरह प्राकृत के सोलह भेद हुए।
मार्कण्डेय (१-४) की वृत्ति लिखते हुए किसी ने भाषा के आट, विभाषा के छ, अपभ्रंश के सत्ताईस और पैशाच के ग्यारह भेद माने हैं। इनके मत से प्राकृत के बावन भेद हुए। परन्तु मार्कण्डेय स्वयं इतने भेदों को नहीं मानते । वे अर्द्धमागधी को मागधी के तथा बाह्रीकी को आवन्ती के अन्तर्गत मानते हैं। दाक्षिणात्य का कोई लक्षण नहीं मिलने से उसे भाषा के भीतर नहीं मानते। इस प्रकार उक्त वृत्तिकार द्वारा बतलाये आठ प्रकारों वाली भाषा का खण्डन कर छ प्रकार की विभाषा में औढ़ी को शाबरी में अन्तर्भावित मानते तथा द्राविडी की जगह ढक्की भाषा का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि द्राविडी ढक्क देश की भाषा के भीतर आ जाती है।
'ढक्कदेशीयभाषायां दृश्यते द्राविडी तथा।
अत्रैवायं विशेषोऽस्ति द्रविडेनादृता परम् ॥' (मार्क० १. ६.) एवं प्रकारेण मार्कण्डेय ने सत्ताईस प्रकार के अपभ्रंश तथा ग्यारह प्रकार के पैशाच का एक का दूसरे में अन्तर्भाव मानकर क्रम से तीनतीन भेद माने हैं । इस तरह बावन प्रकार के बदले उसके केवल सोलह ही भेद स्थिर किये हैं । दण्डी ने 'काव्यादर्श' में चार प्रकार की भाषा बतलाई है-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र। ।
'तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा ।
अपभ्रंशश्च मिश्रश्चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥' (काव्या० १. ३६) इनके अनुसार संस्कृत से देवताओं की भाषा, प्राकृत से तद्भव, तत्सम और देशी भाषा, अपभ्रंश से आभीर आदि जातिविशेष की भाषा
और मिश्र से मिली हुई भाषाओं का बोध होता है। शास्त्र में संस्कृत से इतर सब भाषायें अपभ्रंश कहलाती हैं। इनके अनुसार प्राकृत के महाराष्ट्री, शौरसेनी, गौडी, लाटी और भूतभाषा (पैशाची) ये पाँच भेद हैं । प्राकृत के ये और भी अन्य भेद मानते हैं। दूसरे कई आचार्यों