SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० प्राकृत व्याकरण ( १६ ) अपभ्रंश में सु, अम्, जस् और शस् विभक्तियों का लोप हो जाता है। देखो इसी अध्याय के नियम २ की पादटिप्पणी ३ में 'एइ ति घोड़ा' इत्यादि में सु, अम्, जस् का लोप | (१७) अपभ्रंश में षष्ठी विभक्ति का प्रायः लुक् हो जाता है | जैसे :- गय' ( गजानाम् ) । (१८) अपभ्रंश में यदि किसी शब्द से संबोधन में ज विभक्ति आई हो तो उसके स्थान में हो आदेश होता है। जैसे:तरुणहो, तरुणिहो' ( हे तरुणा: हे तरुण्यः ) | विशेष : - यह नियम पूर्वोक्त सोलहवें नियम का अपवाद है। ( १६ ) अपभ्रंश में भिस् और सुप के स्थान में हिं आदेश होता है । जैसे :- गुणहि (गुणैः ); मग्गेहि तिहिं (मार्गेषु त्रिषु) । ( २० ) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले जस और शस् ( प्रत्येक ) के स्थान में उ और ओ आदेश होते हैं । जैसे :- अङ्गुलिउ ( अङ्गुल्यः । जस् = उ ); सव्त्र 1 १. संगर - एहिं जु वण्णिश्रइ देक्खु अम्हारा कन्तु । श्रमत्तहं चत्तङ्कुसहं गय कुम्भई दारन्तु ॥ ( संगरशतेषु यो वर्ण्यते पश्य अस्माकं कान्तम् । श्रतिमत्तानां त्यक्ताङ्कुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् ॥ ) २. तरुणहो तरुणिहो मुणिउ मई करहु म अप्पहों, घाउ । ( हे तरुणाः, हे तरुण्यः (च) ज्ञातं मया श्रात्मनः धातं मा कुरुत । 1) ३. भाईरहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टा । ( भागीरथी यथा भारते मार्गेषु त्रिषु प्रवर्तते । )
SR No.023386
Book TitlePrakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Prasad Mishra
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages320
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy