Book Title: Prakaranmala
Author(s): Harishankar Kalidas Vadhvanwala
Publisher: Bhogilal Tarachand Shah
Catalog link: https://jainqq.org/explore/023442/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण साधा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐॐॐ श्री प्रकरण माला. ( जाषान्तर ) GDFUL या पुस्तक श्री चतुर्विध संघने जणवा तथा वांचवा योग्य जाणी तेनुं शास्त्री हरिशंकर कालीदास वढवाणवाळा पासे गुजराती मां जाषान्तर करावी छपावी प्रसिद्ध कर्त्ता शा. जोगीलाल ताराचंद तथा भाषान्तर कर्त्ता. आवृति १ जी. अमदावाद श्री लक्ष्मि प्रिन्टिंग प्रेसमां छापी. संवत् १९६५ सन १९०९. किंमत रु. १-८ - ०. ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐo/ab goao ge ov Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . wmvmoonpeopaper/DP/0000000 आ पुस्तकने डापवा पाववा संबंधी सर्व हक प्रसिद्ध कर्ताए स्वाधिन राख्या . wanonp/app/B0000/0p/app/pop/app / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. या प्रकरणमालानुं पुस्तक स्वधर्माभिलाषी जैन श्रावकोना हाथमा अर्पण करवानी साथे मो तेमनी विनंती करीए बीए के, प्राजसुधीमां जैनर्धमनां बहु पुस्तको उपाइ बहार पड्यां बे. पण फक्त एक पुस्तकथी तेवां अनेक पुस्तको नो लाज मली शके तेवां पुस्तको तो घणां थोमां बहार पमेलां दीठाम यावे d. जीवाजीवादि पदार्थोंने जाणवाना हेतुथी जीवविचार नवतत्व बिगरे बहु पुस्तकोनो संग्रह करवो पमे ने तेमां व्यनो बहु खर्च थाय ते करतां थोमा खर्चथी तेवां बहु पुस्तकोनो लाज मली शके तेतुं एकज पुस्तक होय तो तेथी गरीब ने तवंगर एम सहुने खरखो लाज थइ प. अने तेवा कारणथीज यमे या प्रकरणमाला नामनुं पुस्तक उपाव्युं छे. या पुस्तकनी प्रथमावृति खपी जवाथ तथा केटलाक ग्रहस्थोनी बीजी आवृति उपाववानी जलामण थवाथी बीजी प्रवृत्ति सुधारावधारा साथे उपावी डे. च्या पुस्तकमां जीवविचार वि गरे ठावीश प्रकरणोनो समावेश थयो छे. तेमां उत्तरोत्तर वधारे रसीक ser बोधकारक प्रकरणोनो समावेश करवामां आव्यो डे. प्रथम जीवविचार, नवतत्व, दंरूक अने संग्रहणीनुं ज्ञान थया पटी इंडियाने नियममां राखवाना हेतु थी इंड्रियपराजयशतक ने पी वैराग्यदर्शक वैराग्यदशक दाखल करयुं छे. तेना पी गौतमकुलक विगेरे कुलकोनो समावेश करया पछी शाश्वता जीननी स्तुति ने शत्रुंजयकल्प विगेरे महात्म्यदर्शक प्रकरणनो समाबेस करपो बे. बेटे आत्मज्ञानं जाणपणुं थवाना कारणरूप समाधिशतक ने सऊन चित्त बज दाखल करयुं छे. बेवट ऋण प्रकरणो मूलपाठे दाखल करी या पुस्तकने पूर्ण करवामां प्राव्यं बे. मो आशा राखीए बीए के, जैनी जाइन जूदा जूदा आचार्योंए उपका रना हेतुथी बनावेला या प्रकरणने वांचवानो तथा अज्यास करवानो लान लइ ते आचार्योनो नृपकार भूलो जशे नही. या पुस्तक उपावती वखते जे कांई दृष्टिदोषथी अथवा जातिदोषथी भूल थर होय ते सऊन पुरूषोए सुधारी लेबुं. ली. प्रसिद्ध कर्ता. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. १. जीव विचार. २ नवतरवः १. रुक ४ संग्रहणी. ५ चैत्यवंदन जाय. ६ गुरुवंदन जाय. 9 पश्ञ्चरकाण जाष्य. इंडियपराजयशतक. ए वैराग्यशतक. १० अज व्यकुलक.' ११ पुण्य कुलक. १२ पुण्यपापकुलक. १३ गौतम कुलक. अनुक्रमणिका. पृष्ट. विषय. ११६ तपकुलक. १३ | १७ नाव कुक्षक. ३३ | १०. उपदेशरत्न कोश. ४५ | १५ शाश्वताजिन नामादि संख्या स्तवन. ԱՋ ६० २० त्रलोकना चैत्यत्रिंब संख्या यंत्र. ९३ २१ शत्रुंजय लघुकल्प. ११६ २२ रत्नाकरपचोशी. १४ दान कुलक. १५ शील कुलक. ८० पृष्ट. -१५० १६२ १६६ 10 १९७१ १99 १८० १८६ १५२ २१७ १३० | २३ समाधिशतक. १४० | २४ सान चित्तवलन. १२५ श्रीवीरजीन स्तवन. २२८ १४६ २६ श्रीमंधरस्वामी नुंस्तवन१३० १५० | २७ गुरुप्रव किया. २३२ १५४ २० जीवानुं शास्त्री कुलक. २३३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કેટિશઃ વંદના પૂજ્ય ગુરુદેવને ! ! ! . વિર્દૂનીયા પુરુદ્વેવ | NO C IT પ્રશાન્તસૂતિ શાસનસમ્રાટુ I||| સનપ્રભાવક પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવેશ. * પૂજ્ય પાદ આચાર્યમહારાઝાધિરાજ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવેશ * શ્રી વિજ્યોદયસૂરીશ્વરy શ્રી વિજયનમસૂરીશ્વરજી જ શ્રી વિજય+રુપ્રભસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહૅબ વી મહારાજ સાહેબ ) મહારાજ સાહેબ શાહ વિનયચંદ ખીમચંદ કોળીયાકવાળા સપરિવાર તરફથી ગુરુભક્તિ નિમિત્તે દર્શના થે.... Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री महावीरस्वामीने नमः ॥ ॥ प्रकरणमाला ॥ ॥ जीवविचार प्रकरण पहेद्रु.॥ ग्रंथकर्ता मंगलाचरणपूर्वक प्रयोजन सूचवे वे. जुवणपईवं वीरं, नमिकण नणामि अबुढबोदई ॥ जीवसरूवं किंचिकि, जह नणियं पुबसूरीहिं ॥१॥ शब्दार्थः--त्रणवनमा दोवा समान श्री वीरप्रजुने नमस्कार करीने जेम पूर्वना श्राचार्योए क बुडतेम अज्ञानी जीवोने बोध थवाने अर्थे कांश्क पण जीवनुं वरूप हुँ कहुं दुं ॥१॥ __ हवे जीवना नेदो कहे . जीवा मुत्ता संसा-रिणो य तस थावरा य संसारी॥ पुढवि जल जलण वाऊ, वणस्सई थावरा नेया॥२॥ शब्दार्थः-जीवो बे प्रकारनामे. एक मुक्तिना अने बोजा संसारी, संसारी जीवो के प्रकारना. एक त्रस अने बोजा स्थावर. पृथ्वीकाय, अप्पकाय, तेनकाय, वानकाय अने वनस्पतिकाय ए पांच स्थावर जाणवा. ॥२॥ हवे पृथ्वीकायना नेदो कहे बे. फलिमणिरयणविहुमादिंगुलहरियालमणसिलरसिंदा कणगाश्धान सेढी, वन्निअ अरणेट्टय पलेवा ॥३॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नय तूरी कसं, मट्टा पाहाणजाइन ऐगा॥ सोवीरंजण खूणाश, पुढविनेआइ इच्चाई ॥४॥ शब्दार्थः-स्फटिक,मणि, रत्न, प्रवालां, हिंगलोक, हरताल, मणसिल, पारो, सोनादि सात धातु; खमी, रमजी, पाषाणनी साथे मलेली धोली माटी, पारेवो पाषाण, पांच वर्णनो अबरख, तेजंतुरी खारीमाटी, माटी, अनेक पाषाणनी जातियो, सुरमो अने सिंधव आदि, इत्यादि पृथ्वीकायना नेदो जाणवा. ॥४॥ हवे अप्कायना लेदो कहे . नोमंतरिकमुदगं, नसा दिम करग दरितणू महिआ। हुँति घणोदहिमाई, नेया णेगा य आनस्स ॥५॥ शब्दार्थः -पृथ्वीनुं पाणी, आकाशनुं पाणी, उसनुं पाणी, हिमनुं पाणी, करानुपाणी, लीला घास नपरनुं पाणो, धुवरनुपाणी अने घनोदधिनुं पाणी, इत्यादि अप्कायना अनेक नेदो होय . ५ हवे अग्निकाय जीवोना नेदो कहे . इंगालजालमुम्मुर, उक्कासणिकणगविज्जुमाईआ ॥ अगणिजिआणं नेत्रा, नायबा निनणबुडीए ॥६॥ . शब्दार्थः-अंगारानो अग्नि, जालनो अग्नि, नरसामनो अग्नि, स्कापातनो अग्नि, वज्रनो अग्नि, कणियानो अग्नि अने विजलीनो अग्नि, इत्यादि अग्निकाय (तेनकाय) जीवोना दो सूक्ष्म बुद्धिथी जाणवा. ॥६॥ . - हवे बायुकायना नेदो कहे जे. उनामगजकलिया, मंमलिमहसुघगुंजवाया य॥ घणतणुवायाईया, नेया खलु वानकायस्स ॥७॥ शब्दार्थः-उजामकवायु, नत्कलितवायु, मंझलिवायु, महावायु, शुद्धवायु, गुंजारव करतो वायु श्रने घनवायु तथा .. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनवायु विगेरे वायुकायना नेदो निश्चे जाणवा. ॥७॥ जाणवा. ॥७॥ साहारणपत्रेय हवं वनस्पति कायना साहारणपत्तेया, वणसजीवा उहा सुए जाणा ॥ जेसिमणंताणं तणु, एगा सादारणा तेक ॥७॥ शब्दार्थः-साधारण अने प्रत्येक एवा वनस्पतिकाय जीवोना बे दो सूत्रमा कह्या . तेमां जे अनंत जीवोनुं एक शरीर होय ते साधारण जाणवा. ॥ ७॥ . हवे साधारण वनस्पतिकायनां नाम कहे . कंदा अंकुरकिसलय, पणगा सेवाल नूमिफोमा य॥ अल्लतियगजरमो-ब वहुला थेग पल्लंका ॥ए॥ शब्दार्थः-सूरण विगेरे सर्व जातिनां कंद, अंकुरा, कुंपलो, पांचवर्णनी लोलफुल, सेवाल, बीलामोना टोप थने त्रण जातवें बाउ, गाजर, मोथ, वबुलो, थेक, पाकानी नाजी. ॥ ए॥ कोमलफलं च सवं, गूढसिरा सिणापत्ताइं॥ थोहरिकुंआरिगुग्गुलि-गलोयपमुहा य बिन्नरुहा १० शब्दार्थः-वली सर्व जातिनां कोमल फल, जेनो कणसलो, नसो, सांधो प्रगट न देखातो होय ते, शण विगेरेनां पांदमां, सर्व जातनो थोर, गुगल, गलो ए विगेरे जे द्यां बतां फरी नगे ते. १० श्चाइणो अणेगे, हवंति नेया अणंतकायाणं तेसिं परिजाणणबं, लकणमेयं सुए नणियं ॥१॥ शब्दार्थः-इत्यादि अनंतकाय जीवोनांअनेक नेदो होय. तेमने जाणवा माटे या नीचे लखेळु लक्षण सूत्रमा कयुं . ११ हवे अनंतकाय वनस्पति जीवोनुं लक्षण कहे जे. गूढसिरसंधिपवं, समनंगमहीरुगं च बिन्नरुहं ॥ सादारणं सरीरं, तविवरीयं च पत्तेयं ॥ १३॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) शब्दार्थः-जेनां कणसला, सांधा के गांव्यो न देखाती . होय, नागी नाखवाथी जेना सरखा बे नागथता होय, जे रेता विनाना होय, तथा जे दोने वावोए तो पण फरीने नगे ते साधारण वनस्पतिकायनां शरीर कहेवाय अने तेनाथी विपरीत लक्षणवाली वनस्पति होय ते प्रत्येक जाणवी. ॥ १५ ॥ .. हवे प्रत्येक वनस्पतिकायनुं लक्षण कहे ले. : एगशरीरे एगो, जीवो जेसिं तु ते य पत्तेया ॥ फलफूलबल्लिकहा, मूलगपत्ताणि बीयाणि ॥१३॥ शब्दार्थः-वली जेमनां एक शरीरने विषे ऐक जीव होय ते प्रत्येक जाणवा. ते प्रत्येक वनस्पतिकायना सात जेद जे. सर्व जातिनां फल, फुल, गल, लाकमां, मूल, पांदमां अने बीज ए सर्व प्रत्येक वनस्पतिकाय जाणवां. ॥ १३ ॥ • हवे पांच स्यावर समनुं वर्णन करे . पत्तेयतरु मुत्तं, पंचवि पुढवाश्णो सयललोए । सुतुमा हवंति नियमा, अंतमुहुत्तान अहिस्सा ॥२४॥ शब्दार्थः-प्रत्येक वनस्पतिकायनेमूकोने चौद राजलोकने विषे सूक्ष्म एवा पांचे पृथ्वी कायादि निश्चे अंतर्मुहूर्त्तनां आयुष्यवाला अने अदृश्य (चर्मचकुथो न देखो शकाय तेवा) होय . हवे बे इंघिय जीवोना जेद कहे . . संखकवड्डय गंडुल-जलोयचंदणगअलसलदगाई॥ मेहरिकिमिपूअरगा, बेदिय माश्वादाई ॥१५॥ शब्दार्थः-शंख, कोमा, गंमोला, जलो, चंदनक (अरिया) अलसिया, लालीया, मेर, (लाकमाना कोमा) करमोया, पोरा अने चूमेल विगेरे प्रिय जीवो जाणवा. ॥ १५ ॥ . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे तेंघिय जीवोना नेद कहे . गोमीमंकणजूआ, पिपलि नदेदिया य मक्कोमा॥ शल्लियघयमिल्लीन, सावय गोगीमजाई ॥१६॥ गद्दहय चोरकोमा, गोमयकीडा य धनकोमा य, कुंथुगुवालियइलिया, तेइंदिय इंदगोवाई ॥१७॥ __ शब्दार्थ-कानखजूरा, मांकम, जू, कीमीयो, नधक्ष, वली मंकोमा, एलो, घोमेलो, सवा, गीगोमानो जातियो, गधैया, चो. रकोमा, बाणनाकीमा, धान्यनाकीमा, कुंथुश्रा, गोपालिका, एलो अने इंजगोप ए सर्वे तेरिंजिय जोवो जाणवा. ॥ १६-१७॥ हवे चनारयि जीवोना नेद कहे जे. चरिंदिया य विबू, टिंकुणनमरा य नमरिया तिमा मडियमंसा मसगा, कंसारी कविलमोलाई ॥१७॥ __ शब्दार्थः-वली विंगी, बगाई, जमरा तेमज नमरी, तीम, मांखो, मांस, मकर, कंसारी, कपिल अने खममाक्रमी ए चरिंघिय जीवो जाणवा. ॥ १० ॥ हवे पंचेंडिय जीवोना नेद कहे . पंचिंदिया य चनहा, नारय तिरिया मनुस्स देवा य॥ नेरश्या सत्तविहा, नायबा पुढविनेएणं ॥१९॥ - शब्दार्थ-वली पंचेंजियजीवो चार प्रकारना बे. तेमांनारको, २ तिर्यंच, ३ मनुष्य श्रने ४ देवता. तेमां नारको जोवो र. लप्रनादि पृथ्वीना लेदयी सात प्रकारना जाणवा. ॥ १५ ॥ हवे पंचेंघिय तिर्यंचना लेद कहे .. जलयरथलयरखयरा, तिविहा पंचेंदिया तिरिका य॥ सुसुमारमडकबव-गादा मगराइ जखचारी॥२०॥ शब्दार्थ-वली तिर्यंच पंचेंजिय जीवोत्रण प्रकारना . ते Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलचर, थलचर अने खेचर तेमां सुसुमार, मांडखा, काचवा; फुम थने मगर ए विगेरे जनचर जीवो जाणवा. ॥ २० ॥ हवे थलचर जीवोना जेदो कहे . चनपयउरपरिसप्पा,जुयपरिसप्पाय थलयरातिविदा॥ गोसप्पननलपमुदा, बोधवा ते समासेणं ॥१॥ . शब्दार्थ-थलचर जीवो त्रंण प्रकारना . ते चतुष्पद, उ. रपरिसर्प अने जुजपरिसर्प. ते अनुक्रमे गाय, सर अने नोखोया विगेरे संक्षेपथी जाण लेवा. ॥१॥ हवे खेचर जीवोना नेदो कहे जे. खयरा रोमयपरकी, चम्मयपरकी य पायमा चेव ॥ नरसोगान बाहिं, समुग्गपको विययपरकी॥२२॥ शब्दार्थ-खेचर जोवो बे प्रकारना . १ रोमजपक्षा,रच. मंजपक्षी. ते प्रसिझन . वलो मनुष्यलोकना बहार संकोचेलो पांखोवाला अने विस्तारेला पांखोवाला एम वे जातना पक्षोयो. हवे जलचर थलचर अने खेचरना बबे नेदो कहे बे. सधे जलथलखयरा, संमुहमा गन्नया उहा हुंति ॥ कम्माकम्मगनूमि-अंतरदीवा मणुस्ता य ॥२३॥ । शब्दार्थ-प्सर्वे जलचर, थलचर अने खेचरजीवो समूर्डिम तथा गर्नज एवा वे प्रकारना बे. वली मनुष्यो (१५)कर्मनूमिना, (३०)यकर्मनूमिनाथने (५६)अंतींपना एमत्रण प्रकारना.२३ . हवे चार निकायना देवोना लेदो कहे जे. . . दसहा नवणादिवई, अविहा वाणमंतरा हुँति जोसिया पंचविदा, उविदा वेमाणिया देवा ॥२४॥ १ था जोवो पामाना आकारे थाय . ५ चार पगवाला. ३ पेटवती चालनारा. ५ हायवती चालनारा. ५ रुवाटानी पांखोवाला. ६ चांममानी पांखोवाला. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-नवनपति देवता दश प्रकारना, वाणव्यंतर देवता श्राप प्रकारना, ज्योतिषी देवता पांच प्रकारना अने वै. मानिक देवता बे प्रकारना होय . ॥ २४ ॥ हवे सिइना नेद कहे . सिझा पनरसन्नेया, तिगतिबासिनेएणं ॥ एए संखेवेणं, जीव विगप्पा समकाया ॥२५॥ __ शब्दार्थ-तीर्थंकर श्रने अतीर्थंकरादि सिद्धना नेदे करीने सिको पंदर प्रकारना. श्रा संदेपे करोने जीवनानेदो कह्या के. हवे जीव विचारनां पांच द्वार कहे जे. एएसिं जीवाणं, सरीरमाऊ विश् सकायंमि ॥ पाणा जोणिपमाणं, जेसिं जं अनितं नणिमो॥३६॥ ____ शब्दार्थ-ए जीवोनुं शरीर, श्श्रायुष्य,३पोतानी कायामां स्थिति, प्राण, योनिनुं प्रमाण एजेने जेटलु डे ते कहीये बीये. हवे सात गाथाथी सर्वे जीवोनां शरीरनुं प्रमाण कहे . अंगुलअसंखनागो, सरीरमेगिंदियाण सवेसिं॥ जोयणसहस्समहियं, नवरं पत्तेयरुकाणं ॥२७॥ शब्दार्थ-सर्व एजिय जीवोनुं शरीर अंगुलना थसंख्या. तमा नागजेटलुं . तेमां एटलुं विशेष जाणवान डे के, प्रत्येक वनस्पतिकायनुं शरीर एक हजार योजनयो कांइक अधिक होयडे बारसजोयातिन्ने-व गाउआ जोयणं च अणुकमसो॥ बेइंदियतेइंदिय--चरिदिय देदमुच्चतं ॥२ ॥ . शब्दार्थ-बार जोजन, त्रण गान श्रने एक जोजन एम अं. नुक्रमे बेंजियतेंघिय अने चरिंजियनां शरीरनुं चपणुं जाणवू. धणुसयपंचपमाणा, नेरश्या सत्तमाश्पुढवीए ॥ ... तत्तो अ६खुणा, नेया रयणप्पहाजाव ॥२ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) शब्दार्थ - सातमी तमस्तमःप्रजा पृथ्वी आदिकमां रहे. नारा नारकी जीवोनां शरीर पांचसो धनुष्यनां प्रमाणवाला बे. त्यार पर्द्धा उठा शरीर प्रमाणवाला जीवो रत्नप्रजा नामनी पहेली नरक सुधी जाणवा. ॥ २९‍ ॥ जोयणसहस्समाणा, मला जरगा य गज्नया हुंति ॥ धष्णुपुहुत्तं परिकसु, जुयचारी गाउापुहुत्तं ॥ ३० ॥ शब्दार्थ -- गर्भज मत्स्य अने सर्पादि नरपरि सर्प एक इजार जोजन शरीर प्रमाणवाला होय ते. पक्षीयोना शरीरनुं प्रमाण बे धनुष्यथ मांगीने नव धनुष्य सुधीनुं होय बे ने नोलीया विगेरे जुजपरि सर्पनुं शरीर प्रमाण बे गानथी नव गान सुधीनुं होय . ॥३०॥ खयरा धणु प्रपुहुत्तं, जुयगा जरगा य जोयणपुहुत्तं ॥ गाउयपुहुत्तमिता, समुचिमा चनपया जणिया ॥ ३१ ॥ शब्दार्थ समूमि एवा खेचर ( पोयो ) नां शरीरनुं प्र मा बे धनुष्यी मांगीने नव धनुष्य सुधीनुं दोय बे छाने सपदि नरपरि सर्पनां शरीरनुं प्रमाण वे जोजनथे । मांगीने नव जोजन सुधीनुं होय बे. समुमि हाथी विगेरे चार पगवाला जीवोनां शरीरनुं प्रमाण वे गाउथी नवगाउ सुधीनुं कथं बे. ३१ बच्चेव गाउआई, चप्पया गया मुणेयवा ॥ कोस तिगं च मणुस्सा, उक्कोससरीरमाणेणं ॥ ३२ ॥ शब्दार्थ - गर्भज चार पगवाला हाथी विगेरे जीवो बगाउनां शरीर प्रमाणवाला मनाय बे ने मनुष्यो उत्कृष्ट शरीरना प्रमाणे करीने त्रण गान होय बे. ॥ ३२ ॥ ईसात सुराणं, रयणी सत्त हुंति उच्चतं ॥ १ चार हाथनुं एक धनुष्य जाणवु. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजुग जुग चनगेवि-अणुत्तरे शकिक्कपरिदाण॥३३॥ शब्दार्थः--जवनपति,व्यंतर,ज्योतिषी अने बीजाईशान देव. लोकनां अंत सुधीना देवोनांशरीरनी मुंचा सात हाथनी ले. त्यार पली बे, बे, बे, चार, नव ग्रैवेयक अने पांच अनुत्तर ए देवलो. कोमांअनुक्रमे एक एक हाथ शरीर प्रमाण उढं जाणवु.॥३३॥ हवे उ गाथावमे सर्वे जोवोनुं आयुष्य कहे . बावीसा पुढवीए, सत्तय आनस्स तिन्नि वानस्स ॥ वाससहसा दस तरु--गणाण तेउ त्तिरित्तान ॥३४॥ शब्दार्थः-पृथ्वीकाय-बावीस हजार वर्षनु, अप्कायनुसात हजार वर्षमुं, वायुकायनुंत्रण हजार वर्षमुं, प्रत्येक वनस्पतिकायतुं दश हजार वर्षतुं अने तेनकाय, त्रण अहोरात्रनुं उत्कृष्ट आयुष्य होय . ए सर्वे जीवोनुं जघन्यथी अंतर्मुहूर्त्तनुं श्रायुष्य होय .३४ वासाणि बारसाऊ, बेइंदियाणं तेइंदियाणं तु॥ अनणापन्नदिणाई, चनरिंदीणं तु उम्मासं ॥३५॥ शब्दार्थः प्रिय जीवोनुं आयुष्य बार वर्षमुं, तेरिंजिय जीवोनुं उगणपचास दिवसनुं अने चतुरिंजिय जीवोनुं उमासर्नु होय छे. श्रा सर्व उत्कृष्ट आयुष्य जाणवू अने ए सर्वे जीवोनुं जघन्यथी अंतर्मुहर्तनुं आयुष्य जाणवू. ॥ ३५ ॥ सुरनेरझ्याण विई, नक्कोसा सागराणि तित्तीसं ॥... चउपयतिरियमणुस्सा, तिन्नियपलियोवमा हुँति॥३६॥ शब्दार्थः-देवता अने नारकीयोनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तेत्रीस सागरोपमनी होय ने अने चार पगवाला तिथंच तथा मनु. योनी नत्कृष्ट श्रायुष्यस्थिति त्रण पस्योपमनी होय . ॥३६॥ जलयरनरजुयगाणं, परमाऊ होश पुरकोमी ॥ परकीणं पुण नणिन, असंखनागो थपलियस्स॥३॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शब्दार्थः-सुसुमार विगेरे जलचर, सर्प विगेरे नरपरिसर. बने नोलीया विगेरे जुजपरिसर्प ए सर्वेनुं उत्कृष्ट आयुष्य एक पूर्वकोमीनु होय. तेमज पदीयोर्नु उत्कृष्ट आयुष्य पक्ष्योपमना असंख्यातमा नाग जेटयूँ कहुं . ॥ ३ ॥ सवे सुहमा साहा-रणा य संमुचिमा मणुस्सा य ॥ उकोसजहन्नणं, अंतमुहुत्तं चिय जियंति ॥३॥ ___ शब्दार्थः-पृथ्वीकायादि पांचे सूक्ष्म तथा साधारण जीवो तेमज समूर्बिम मनुष्यो उत्कृष्ठ अने जघन्यथी एक अंतर्मुहूर्त निश्चे जीवे . ॥ ३० ॥ गाहणान माणं, एवं संखेवन समस्कायं ॥ जे पुण श्च विसेसा, विसेससुत्ताड ते नेया ॥३॥ शब्दार्थः-एवी रीते अवगाहना थने आयुष्यनुं मान संक्षेपथी कह्यु. वली एमां जे कांश विशेष जाणवानुं होय ते बीजां सूत्रथी जाणी लेवू. ॥ ३ए॥ हवे वे गाथाथी त्रीजु स्वकायस्थितिद्वार कहे . एगिदिया य सबे, असंखनस्सप्पिणी सकायंमि॥ उववति चयंति अ. अणंतकाया अणंता ॥४॥ शब्दार्थः-वली सर्वे एकेंजिय जीवो पोतानी कायामां असंख्य तत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल सुधी नत्पन्न थाय श्रने चके तेमज अनंतकाय जीवो पण नंती उत्सर्पिणी अवसपिणीसुधी पोतानी कायामां नत्पन्न थाय बे थने चवे ॥४॥ संस्किजसमा विगला, सत्तहनवा पणिदितिरिमणुया। नववर्जति सकाये, नारयदेवा अ नो चेव ॥४॥ शब्दार्थः--विगलेंजिय जीवो संख्याता वर्ष सुधी पोरवेश्यि, तेरिंझ्यि, चनरिप्रिय. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) तानी कायामां उत्पन्न याय. पंचेंद्रिय, तिर्यच अने मनुष्यो सात श्राव जव तेज गतिमां लागट उत्पन्न थाय छाने नारकी तथा देवता तेज गतिमां लागट बे वखत पण उत्पन्न थता नयी ॥ ४१दशदा जियाण पाणा, इंदि उसासान जोग बलरूवा ॥ एमिंदिएस चनरो, विगलेसु व सत्त ठेव ॥ ४२ ॥ शब्दार्थः जीवोने पांच इंडिय, श्वासोच्छ्वास, श्रायुष्य, मन, वचन छाने काया एत्रण जोग मर्जी दश प्राणो होय . तेमां एकेंद्रियने चार, तथा विगलेंद्रियने ब, सात छाने प्राण अनुक्रमे होय बे. ॥ ४२ ॥ प्रसन्निसन्निपंचिं-दिएसु नवदश कमेण बोधवा ॥ तेदि सह विप्पगो, जीवाणं जमए मरणं ॥ ४३ ॥ शब्दार्थः -- असंज्ञी पंचेंद्रिय ने संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोनें विषे अनुक्रमे नव ने दश प्राणो दोय बे. ते प्राणोनी साथे जे वियोग थवो ते जीवोनुं मरण कदेवाय बे. ॥ ४३ ॥ एवं प्रणोरपारे, संसारे सायरंमि श्रीमंमि ॥ पत्तो प्रतखुत्तो, जीवेहिं प्रपत्तधम्मेहिं ॥४४॥ शब्दार्थः- धर्म न हि पामेला जीवोए ए प्रमाणे अपार अने भयंकर एवा संसार समुद्रमां अनंतीवार जन्ममरण प्राप्त कर्तुं बे. तह चनरासी लका, संखा जोगीण दोइ जीवाणं ॥ पुढवाईण चनएहं, पत्तेयं सत्तसत्तेव ॥४॥ शब्दार्थः तेवीज रीते जीवोनी योनीनी संख्या चोरासी लाख बे. तेमां पृथ्वी आदि चार निकायना दरेक जीवोनी योनीनी संख्या सात सात लाखनी बे ॥ ४५ ॥ दस पत्तेयतरूणं, चनदसलका दवंति इयरेसु ॥ विगलिंदिएसु दोदो, चनरो पंचिदितिरियाणं ॥४६॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थः-प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवोनी दशलाख योनी अने साधारण वनस्पतिकायनी चौदलाख योनी होय . वली विगज्य जीवोनी बबे लाख योनी जाणवी. तेमज पंचेंजि. तिथंचनी चार लाख योनी जाणवी. ॥ ४६॥ चनरो चउरो नारय-सुरेसुमणुआण चनदस हवंति॥ संपिंमियाय सवे, चलसीवकाम जोणीणं ॥४॥ शब्दार्थः-नारको श्रने देवतानो चार चार लाख तथा मनुष्यनी चौद लाख योनी होय . ए सर्व एकटी करीये तो सर्वे मली योनीनी चोरास लाखनी संख्या थाय . ॥ ४ ॥ सिद्धाण ननि देदो, न आन कम्मं न पाणजोणी॥ साश्अणंता तेसिं, लिई जिणंदागमे नणिया ॥४॥ शब्दार्थः-सिकोने देह नथी, आयुष्य नथी, कर्म नथी, प्राण नथी अने योनी पण नथी. वली तेउनी सादि अनंत. स्थिति जिनेश्वरना आगममां कही . ॥ ४ ॥ काले अणानिदणे, जोणीगणंमि नीसणे श्च ॥ नमिया नमिदंत चिरं, जीवा जिणवयणमलदंता भए शब्दाथः-अनादि अनंत एवा था कालने विषे जिन वचनने नहि पामेला जीवो चोराशी लाख योनिये करोने गहन श्रने जयंकर एवा आ संसारने विषेबहुकाल नम्या ले.अनेबहुकाल जमशे॥ ता संपइ संपत्ते, मणुअत्ते उल्लहेवि सम्मते ॥ सिरिसंतिसूरिसिहे, करेह नो नङमं धम्मे ॥५॥ शब्दार्थः-ते कारण माटे हे जव्यजनो! हवणां उर्द्धन ए, मनुष्यपणुं प्राप्त थये ते अने सम्यक्त्व पण प्राप्त थये बते श्री शांतिसूरिये उपदेश करेला धर्मने विषे उद्यम करो. ॥५॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसो जवीवियारो, संखेवरुईणजाणणादेखें ॥ संखित्तो नरिन, रुदान सुयसमुद्दान ॥५१॥ ' शब्दार्थः-पाजीवविचार थोमी बुद्धिवाला जीवोने जाणवा माटे विस्तारवंत एवा श्रुतसमुजयकी संदेपे नद्धरयो बे. ॥५१॥ ॥ति जीव विचार प्रकरण पेहेर्यु समाप्त. ॥ . श्री . । नवतत्त्व प्रकरण बीजं ॥ (आर्यावृत्तम् ) प्रथम गाथामां नवतत्त्वनां नाम गणावे . जीवाऽजीवा पुस्मं, पावासवसंवरो य निकरणा॥ बंधो मुको य तहा, नवतत्ता हुंति नायवा ॥१॥ शब्दार्थः-जीव, श्रजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर अने निर्जरा वली बंध तेमज मोक्ष ए नवतत्त्वोजाणवा योग्य ॥ हवे नवतत्वना दनी संख्या कहे . चउदस चनदस बाया-लीसा बास अ हुँति बायाला॥ सत्तावन्नं बारस, चन नव नेया कमेणेसिं ॥३॥ शब्दार्थः-पहेला तत्त्वना चौद, बोजाना चौद, रोजाना बेंतासीश, चोथाना व्यास अने पांचमाना बेतालीस, बहाना सत्तावन, सातमाना बार, पाठमाना चार अने नवमाना नव. एवा अनुक्रमे करीने नेदो थाय . ॥ २॥ हवे जीवोनी उ जाति कहे . .. एकविद विदतिविदा, चनविदा पंचविदा जीवा ।। चेयण तस इयरेदि, वेय गई करण काएहिं ॥३॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) शब्दार्थः चेतना, त्रस ने स्थावर ए जेदोए करीने वली त्रण वेद, चार गति, पांच इंद्रिय थने व काये करीने जीवो एक प्रकारना, वे प्रकारना, ऋण प्रकारना, चार प्रकारना, पांच प्रकारना व प्रकारना छाने जाणवा. ॥ ३ ॥ वे बीजा प्रकारथी जीवतवना चौद नेद कहे बे. एगिंदिय सुहुमियरा, सन्नियरपिंदियाय य सबितिचकं॥ अपजत्ता पत्ता, कमेण चउदस जियठाणा ॥ ४ ॥ शब्दार्थः सूक्ष्म ने वादर एवा एकेंद्रिय, बादर बेइंद्रिय, तेरिंडियाने चरिंद्रिय, संझी ने श्रसंज्ञी पंचेंद्रिय एसात जेद पर्याप्ता अने पर्याप्ता. जेथी अनुक्रमे जीवना चौद जेद होय ॥ हवे जीवनुं लक्षण कहे बे. (अनुष्टुप् वृत्तम् ) नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तदा ॥ वीरियं वनगो अ, एअं जीवस्स लकणम् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः - ५ ज्ञान, ४ दर्शन, ७ चारित्र छाने २ तप तेमज २ वीर्य ने १२ उपयोग ए प्रकारे जीवनुं लक्षण बे. ॥ ५ ॥ हवे पर्याप्तिनुं स्वरूप कहे बे. ( श्रार्यावृत्तम् ) आदार शरीर इंदिय, पती आणपाणनासमणे ॥ चन पंच पंच बप्पा, इग विगलास न्नि सन्नियं ॥६॥ शब्दार्थः – आहारपर्याप्त), शरीरपर्याप्ती, इंद्रियपर्याप्तो, श्वासो पर्याप्ती, भाषापर्याप्ती, मनपर्याप्ती. तेमां चार पर्याप्ती एकेंडियनो, पांच पर्याप्ती विकलेंडियनी, पांच पर्याप्त असं झीमी ने पर्याप्त संज्ञी जीवोनी होय बे ॥ ६ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हवे पाणनुं स्वरूप कहे बे. पणिंदिअत्तिबलूसा-सान दश पाण चन सग अह॥ गडतिचनरिंदीणं, असन्निसन्नीण नव दस य ॥७॥ शब्दार्थः-पांच इंघिय, त्रण बल, श्वासोश्वास अने था. युष्य ए दश प्राण ले. तेमां एकेजियने चार प्राण . बेंजियने प्राण होय , तेरिंजियने सात प्राण होय डे चरिंजियने श्राउ प्राण होय जे अने असंज्ञो तथा संज्ञीने नव तथा दश एम अनुक्रमे प्राण होय . ॥ ७॥ इति जीवतत्त्व ॥ ___ हवे अजीवतत्वना चौद नेद कहे . धम्माधम्मागासा, तियतियनेया तदेव अद्धा य॥ - खंधादेसपयेसा, परमाणु अजीव चन्दसदा ॥७॥ शब्दार्थः-धर्मास्तिकाय, अधर्मा स्तिकाय अने श्राका. - शास्तिकाय ए ऋणना खंध, देश अने प्रदेश एवा त्रण त्ररा नेदो बे. एटले ते नव नेद थया तेवीज रीते वली काल, श्रने पुजलनां खंध, देश, प्रदेश तथा परमातु. ए प्रमाणे अजीब तत्त्व चौद प्रकारे . ॥ ७ ॥ . अजीवतस्वनां पांच मूलनेद अने तेनां लक्षण कहे जे. धम्माधम्मा पुग्गल, नद कालो पंच हुँति अजीवा ॥ चलणसदावो धम्मो, थिर संगणो अहम्मो अ॥॥ अवगादो आगासं, पुग्गलजीवाण पुग्गला चहा । 'खंधा देसपएसा, परमाणु चेव नायवा ॥१०॥ ... ..शब्दार्थः-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुनसास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल. ए पांच अजीव अव्य होय जे. मां चखन स्वन्नाव गुणवालो धर्मातकाय बे. श्रने स्थिर स्व. जाव गुणवालो अधा स्तिकाय . अवकाश प्रापवाना स्व. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) नाववालो प्राकाशास्तिकाय जाणवो. पुलो चार प्रकारना बे. खंध, देश, प्रदेश तथा परमाणुं निश्चयथों जावा. ॥ १० ॥ मनुं लक्षण कहे . ( अनुष्टुम् वृत्तम् ) सबंधयार नको, पना बाया तवेदिया ॥ वम गंध रसा फासा, पुग्गलाणं तु लकणं ॥ ११ ॥ शब्दार्थः - शब्द, अंधकार, रत्नादिकनो प्रकाश, चंद्र विगेरेनी कांति, छाया, तमको अथवा वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श ए वली पुलोनुं लक्षण बे. ॥ ११ ॥ हवे एक मुहूर्त्तनुं स्वरूप कहे . एगा कोमि सतसहि-- लरका सत्तदुत्तरी सदस्सा य ॥ दोयसया सोलहिया, आवलिया इंगमुहुत्तम्मि ॥ १२ ॥ शब्दार्थ : एकक्रोम, समसठलाख, सत्योतेरह जार भने बसे नपर सोल अधिक एटली आवलीयो एक मुहूर्त्तने विषे थाय ते. ॥ तेज वातने बोजी रीते कहे . तिन्निसदस्सा सत्त य-सयाणि तेदुत्तरं च नस्सासा ॥ एस मुहुत्तोजणी, सधेदिं णंतनाणीहें ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:- सर्व अनंत ज्ञानियोए त्रणहजार, सातसो अने तोंतेर एटला श्वासोश्वास थाय एटलो काल मुहूर्त्त को बे. ॥१३॥ वे कानुं स्वरूप कहे बे. समयावली मुहुत्ता, दीहा परका य मास वरिसा य ॥ पिपलिया सागर, नस्सप्पिणी सप्पिणी कालो ॥ . शब्दार्थ समय, धावली, मुहुर्त्त, दिवस, पक्ष, मास, वर्ष, पस्योपम, सागरोपम, नत्सर्पिणी अवसर्पिणी ए प्रमाणे काल को बे ॥ १४ ॥ इति जीवतत्व. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) हचे पुण्यतत्त्वना बेंतालीश नेद कहे ..... सा उच्चगोत्र मणुउग, सुरजुग पंचेंदिजाइपणदेहा॥ आइतितणूणुवंगा, आश्मसंघयणसंहाणा ॥ १५॥ शब्दार्थः-सातावेदनी कर्म, नंचगोत्र, मनुष्यधिक, सुरछिक, पंचेंडि जाति अने पांच देह. पहेला त्रण श. रीरका अंग अने नेपांग, अने पहेयु (वजूझषजनाराच ) सं. घयण तथा पहेलु ( समचतुरस्त्र ) संस्थान. ॥ १५ ॥ . वम चनक्कागुरुलहु, परघा ऊसास आय वुओअं॥ सुनखग निमिण तसदस, सुरनरतिरिआन तिबयरं। शब्दार्थः-वर्णचतुष्क नामकर्म, अगुरु लघु, पराघात, श्वासोश्वास, श्राताप, नद्योत, हंस वृषन्ननी पेठे सारी चाल ते शुन्न विहायोगति, सुघाट रूप निर्माण, सदसक, देव, मनुष्य अने तिर्यंचनुं आयुष्य श्रने तीर्थंकर नामकर्म. ॥ १६ ॥ . हवे त्रस दशकनुं स्वरूप कहे . तस बायर पजात्तं, पत्तेय थिरं सुन्नं च सुनगं च ॥ सुस्सर आइज जसं, तसाश्दसगं इमं हो ॥१७॥ शब्दार्थः-त्रस, बादर, पर्याप्ता, प्रत्येक, स्थिर, शुन, सौजाग्य, सुस्वर, आदेय अने जस. पुण्यना नेदमां आ त्रस विगेरे दश नाम कर्म होय , ॥ १७ ॥ इति पुण्यतत्व. हवे पापकर्मना बासी लेद कहे दे.. 'नाणंतरायदशगं, नव बीए नीअसायमित्तं॥.. थावरदस नरयतिगं, कसायपणवीस तिरियागं॥२॥ १ औदारिक, वैक्रिय, आहारक. ५ वे हाथ, बें पग, पीठ, मस्तक, नदर अने हृदय. ३ आंगलां विगेरे.४ आ त्रस दशर्नु स्वरूप आगली गाथामांकहेशे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) शब्दार्थः - ज्ञानावरणीनां पांच ( १ मति ज्ञानावरणिय, २ श्रुत ज्ञानावर लिय, ३ अवधि ज्ञानावरणिय, ४ मनःपर्यव ज्ञानावरणिय, ए केवल ज्ञानावरणिय ) ने अंतरायनां पांच १ दानांत राय, २ लाजांतराय, ३ नोगांतराय, ४ नपनोगांतराय, ५ वीर्यांतराय ) एम बने मलीने दश पापकर्मना जेद, बीजा दर्शनावरण कर्मना नवजेद, नीच गोत्र पापकर्म, अशातावेदनी पापकर्म, मिथ्यात्व मोहनीय पापकर्म, स्थावर दशक पा पकर्म, नरकत्रिक पापकर्म, पच्चीश कषाय रूप पापकर्म, तिथंच द्विक पापकर्म ॥ १८ ॥ इगबितिच जाईन, कुखगइ नवघाय हुंति पावस्स ॥ अपसचं वचन, पढम संघयणसंठाणा ॥१९॥ शब्दार्थः - एकेंद्रिय, बेंद्रिय, तेरिंद्रिय अने चौरेंद्रिय जातिरूप पापकर्म, नंट विगेरेन । पेठे अशुभ विहायोगति पापकर्म, उपघात नाम पापकर्म, माठा एवा रूप, रस गंध अने स्पर्श रूप पापकर्म, तेमज पहेला संघयण ने पहेला संस्थान विनाना बीजा पांच संघयण ने पांच संस्थान रूप पापकर्म. १० हवे स्थावर दशकनुं स्वरूप कहे . यावर सुदुम अप - साहारणमथिरमसुनडुनगाणि॥ इस्सरणाइजजसं, यावरदशगं विवचं 112011 शब्दार्थः स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म, साधारण नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म, दौर्भाग्य नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, श्रनादेय नामकर्म, स्थावर दशकनुं स्वरूप प्रागली गायामां कहेशे . २ नरकगति, नरकानुपूर्व छाने नरकायु. ३ तेनां नाम व्यागल कहेशे. ४ तेनां नाम व्यागल कहेशे. १ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) श्रजश नामकर्म. या स्थावर दशक त्रस दशकथी विपरीत अर्थवाला बे ॥ २० ॥ वे बीजा दर्शनावरणी कर्मना नव जेद कहे बे. चदिति चर, सेसिंदिन हि केवलेदिं च ॥ दंसणमिह सामन्नं, तस्सावरणं तयं चनहा 119211 शब्दार्थः - चक्कुदर्शन चक्रुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शन. या ठेकाणे दर्शन ते सामान्यज्ञान. ते ज्ञाननुं जे आवर्ण, ते तेनाज नामथ चार प्रकारनुं छे. ॥ २१ ॥ सुहवोहा निद्दा, निद्दानिदा य डुकपमित्रोहा ॥ पयला विविस्स, पयलपयला न चंकम ॥२३॥ शब्दार्थः - सुखे जगाय ते निद्रा, डुःखे जगाय ते निद्रा निद्रा, उजा उजा तथा बेना बेठा नंघे ते प्रचला अने हालता चालता उंघे ते प्रचला प्रचला कहेवाय. ॥ २३ ॥ दिचितिप्रकरणी, बोपदी व्यश्च क्विप्रधवला ॥ एवं जिणेहिं जणियं वित्तित्सनं दंसणावरणं ॥ २४॥ शब्दार्थः - दिवसे चिंतवेला कार्यने (रात्री ये धमां) करनारी श्रीदी नामनी निद्रा की वासुदेवथी बल वाली बे. श्राप्रमाणे जिनेश्वरोए उमीदार समान दर्शनावरण कह्युं बे. ॥२४॥ ca कषायनी स्थिति तथा फल कहे बे. जावजीववरिसचनमा - स परकग्गानिश्यतिरियनरमरा ॥ समाणु सब विरइ -- प्रदरकायचरित घायकरा ॥२५॥ शब्दार्थः - अनंतानुबंधी कषायनी स्थिति जोवीत सुधी, प्रत्याख्यानी कषायनी स्थिति एकवर्ष सुधी, प्रत्याख्यानी कषायनी स्थिति चारमास सुधी, संजलना कपापनी स्थिति Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) एक पखवामोया सुधी होय बे. तेमां अनंतानु बंधी कषाय न• • रक गतिरूप फल श्रापेले. अप्रत्याख्यानी कषाय तिथंच गतिरूप फल आपे बे, प्रत्याख्यानी कषाय मनुष्य गतिरूप फल अने संजलनो कषाय देवगतिरूप फल थापे . वली ते चारे कषायो अनुक्रमे समकीतने, अणुव्रतने, सर्व विरतिने अने यथाख्यात चारित्रने घात करनारा . ॥ २५ ॥ जलरेणु पुढवि पञ्चय--राईसरिसो चनविदो कोहो । तिणसलयाकहीअ-सेलरनोवमो माणो ॥२६॥ शब्दार्थः-जलमां, रजमां, पृथ्वी उपर अने पर्वतनपर करेली रेखा सरखो क्रोध चार प्रकारनो डे अने नेतरना, काष्टना, हामकाना अने पथ्थरना स्थंन सरखो मान ले. ॥२६॥ माया वलेहिंगोमुत्ति-मिंढसिंगघणवंसिमूलसमा ॥ . लोहो दलिद्द खंजण-कदमकिमिरागसारिनो ॥॥ शब्दार्थः-माया वासनो बगल, वृषनर्नु मूत्र, बोकमार्नु सिंगहुँथने नीविम एवा वांसना मूल सरखो . वखो लोन हलदर, गामानी मली, कादव अने करमजी रंग सरखो .२७ जस्सुदया दो जिए, हासरश्अरईसोगनयकुबा ॥ सनिमित्तमन्नदा वा, तं इह दासाईमोहणियं ॥श्न॥ शब्दार्थः-जोवने जेना उदयथ। निमित्त सहित अथवा निमित्त विना हास्य, रति, थरति, शोक, नय अने गंडा होय . तेने थहिं हास्यादिक मोहनीय जाग. ॥२०॥ पुरिसि बी तदुनयंप, अहिलासो जवसा हव सोउ। बीनरनपुंवेउदन, फुफुमतणनगरदाहसमो ॥ ७ ॥ र शब्दार्थः-जे कर्मना वशथी पुरुषनो, स्त्रोनोथने ते बन्नेनो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) पण अनिलाष होय . ते अनुक्रमे स्त्रीवेद पुरुषवेदअने नपुंसकवेद, बकरानी लीमी, घास अने नगरना दाह सरखो जावो. ॥३०॥ . हवे संघयणनां नाम तथा स्वरूप कहे . संघयणमहिनिचज, तं बद्धा वारिसहनारायं ॥ .. . तह रिसहनारायं, नारायं अधनारायं ॥ श्ए । __ शब्दार्थः-संघयण ते हामकानो समूह ते प्रकारनो बे. १ वशषननाराच तेमज श्ष ननाराव,३ नाराच, ४ अर्द्धनाराच. कीलिअबेवकं इद, रिसहो पहो अ कीलिया वज॥ उन मकमबंधो, जारायं इम मुरालंगे ॥३॥ शब्दार्थः-५ कालिका, ६ सेवार्त, अहिं बज ते पाटो अने वन ते खोल जाणवो. अने बन्ने बाजुए मर्कटबंध ते. नाराच जाणवं. ए उदारिक शरीरवालाने होय.॥३०॥ हवे संस्थाननां नाम तथा स्वरूप कहे . समचउरंस निग्गोह, साइ वामण खुज हुँमे अ॥ जीवाण उ संगणा, सबब सुलकणं पढमं ॥३॥ शब्दार्थः-समचतुरस्त्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज अने हुंमक जीवोने ए उ संस्थान होय . तेमां सर्व प्रकारे उत्तम खणवालु पहेढुं संस्थान . ॥ ३१ ॥ नाहिउवरि बोअं, तश्वे मुह पिहिनअरनरव ॥ .. सिरगिवपाणीपाए, सुलकणं तं चनवं तु ॥३॥ शब्दार्थः-नानीना उपरनो नाग सारा लक्षणवालो होय ते बोजु संस्थान जागवू. अने मुख, पोउ, पेट तथा बाती वर्जीने बाकी जे सुलक्षण अंग तेत्रोनुं संस्थान-बली माथु,कंग, हाथ तथा पगए सर्व सारा सक्षणवाडं होय ते चोथु संस्थान जाणवू ॥३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) विवरियं पंचमंगं, सबलकणं नवे बहं ॥ संप्राणविदा णिच्या, जिणंदवरवीयरागेहिं ॥३३॥ शब्दार्थः — पर कह्याथी जे विपरीत ते पांचमुं श्रने सर्व प्रकारे खोटां लक्ष्णवालुं ते बहुं होय. या प्रमाणे सामान्य केवलीनी मध्ये उत्तम एवा वीतराग पुरुषोए संस्थानना प्रकारो का बे. ॥ ३३ ॥ इति पाप तत्व. हवे व तना तालीश गेंद कहे बे. इंदिकसायच्चय-- जोगा पंच चन पंच तिन्नि कमा॥ किरिच्या पणवीस, इमा उतान कमसो ॥ ३४॥ शब्दार्थः - इंद्रिय, कषाय, व्रत अने जोग ते अनुक्रमे पांच, चार, पांच ने त्रण वे खने क्रिया पच्चत्रोश बे. ए सर्वे मलीने श्रावना ४२ द थथा. वली क्रिपा अनुक्रमे वे पकदेवाशे ते जाणवी ॥ ३४ ॥ हवे पच्चीस क्रिया कहे बे. काइ दिगरणीया, पाउसिया पारितावणी किरिया ॥ पाणा इवाया रंजिय-- परिग्गदिया मायवत्तीया ॥ ३८॥ शब्दार्थः – १ कायिकी, २ अधिकरणिकी, ३ प्राद्वेषिकी, ४ पारितापनिकी, ५ प्राणातिपातिको, ६ आरंभिकी, ७ परि दिकी ने माया प्रत्ययिकी. मिचादंसणवत्ती, अप्पच्चकाणाय दिठि पुठि ॥ पाडुच्चि सामंतो--वणी नेसत्य सादत्थ| ||३६|| शब्दार्थः - मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी, १० अप्रत्याख्यानिकी, ११ दृष्टिकी, १२ स्पृष्टिकी, १३ प्रातित्यको, १४ सामंतोपनिप्रातिकी, १५ नैशस्त्रिक) ने १६ स्वस्तिक). ॥ ३६ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) घ्याणवणि विचार णिच्या, अणनोगा- प्रणव कख पच्चइआ अन्ना पगसमुद्दा -- पिऊदोसेरियावदिच्या ॥ ३७ ॥ शब्दार्थः - १७ श्रानयनिकी, १८ विदारणिका, १५ अनाजोगिकी २० नवकांक्ष प्रत्ययिकी, ए बिना बोजी ते २१ प्रायोगिकी, २२ समुदानकी, २३ प्रेमिकी, २४ द्वेषिकी अने २५ र्यापथिकी ॥ ३७ ॥ हवे संवरना सत्तावन जेद कहे बे. समिइ गुत्ति परीसह, जइधम्मो जावण चरिताणि ॥ पण ति दुवीस दस बार - पंच जेएहिं सगवन्ना ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ :- समिति, गुप्ति, परीसद, यतिधर्म, जावना अने चारित्र ते अनुक्रमे पांच, त्रण, बावीश, दश, बार अने पांच एवा दोए करीने संवरना सत्तावन नेदो बे. ॥ ३८ ॥ वे पांच समिति नेत्रगुप्तिकहे (अनुष्टुप् वृत्तम् ) . ॥ ईरिया नासेसणादाणे - उच्चारे समिसु मणगुत्ति वयगुत्ति, कायगुत्ति तहेव य ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ:- १ र्यासमिति, २ जाषासमिति, ३ एषणासमिति, ४ आदान निक्षेपणासमिति, ५ परिष्टाप निकासमिति ए पांच समिति वली १ मनगुप्ति, २ वचनगुप्ति तेमज ३ कायगुप्ति ए त्रण गुप्ति जाणवी ॥ ३९ ॥ B ed बावीस परिसह कहे बे. खुहा पिवासासी नहं, दंसा चेला रईचि चि ॥ चरि निसिदिया सिजा, अक्कोस वद जायला ४० शब्दार्थः – १ कुधा, २ पिपासा, ३ सीत, ४ उष्ण, ५ दल, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) . ६ अचेल, अरति, स्त्री, ए चर्या, १० निप्रद्या, ११ सय्या, १५ आक्रोश, १३ वध अने १४ याचना. ॥ ४ ॥ अलानरोगतणफासा, मलसकार परीसदा ॥ पन्नान्नापासम्मत्तं, अ बावीस परीसहा ॥४१॥ ... शब्दार्थः-१५ अलान, १६ रोग, १७ तृणस्पर्श, १७ मला, १ए सत्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान अने २२ सम्यक्त्व ए प्रकारे बावीस परिसह जाणवा. ॥ १ ॥ हवे दस प्रकारे यतिधर्म कहे डे. खंती मद्दव अजव, मुत्ती तवसंजमे अबोधवे ॥ सञ्चं सोनं आर्कि--चणं च बंनं च जश्धम्मो ॥४॥ . शब्दार्थः--१ कमा, २ मार्दव, ३ आर्जव,४ मुक्ति,५ तप, ६ संयम, ७ सत्य, ७ शौच, ए अकिंचन अने १० ब्रह्मचर्य ए दश प्रकारे यतिधर्म जाणवो. ___ हवे बार जावनानुं स्वरूप कहे जे. पढममणिच मसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं ॥ असुश्त्तं आसव सं--वरो अ तह णिजरा नवमी ४३ " शब्दार्थ:-पहेली श्रनित्य, बाजा असरग, त्रीजी संसार, चोथो एकत्व, पांचमा अन्यत्व, बहो असुचित्व, सातमा प्राश्रय, थाउमी संवर, तेमज नवमी निर्जरा नावना जाणवी. ॥३३ ॥ लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिदा॥ एआन नावणा, नावेअवा पयत्तेणं ॥४४॥ शब्दार्थः-दशमी लोक स्वजाव, अग्यारमी बोधी, वारमी धर्मनी साधक अरिहंत नावना उझन . ए नावना प्रयत्ने करीने जाववी. ॥ ४॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) हवे पांच प्रकारनां चारित्रनुं वर्णन करे बे. सामाइ अब पढमं, बेजवहावणं नवे बी ॥ परिहारविसुद्धीच्यं, सुदुमं तद संपरायं च ॥४५॥ " शब्दार्थः - श्रहिं पहेतुं सामायक, बीजं बेदोपस्थापनीय, जुं परिहार विशुद्धि अने तेमज चोथुं सुक्ष्मसंपराय चारित्र. ४५. तत्तो अ अदकायं खायं सवंमि जीवलोगंमि ॥ जं चरिण सुविहिया, वश्चंति प्रयरामरं ठगणं ॥४६॥ शब्दार्थः --- वली त्यारपठी सर्व लोकमां प्रसिद्ध एवं पांमुं यथाख्यात चारित्र बे के, जे चारित्रने पाली सुविहित पुरूपो मोक्ष स्थानने पामे ठे. ॥ ४६ ॥ वे निर्जरा तत्वना बार जेद कहे बे. प्रणसणमुपोखरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चार्ड ॥ काय किलेसो संली - या य बो तवो होई ॥४७॥ शब्दार्थ :- १ अनशन, श्जनोदरिका ३वृत्तिसंक्षेप, ४ रसत्याग, एकायक्लेश, श्रने ६ संलीनता एब प्रकारे बाह्य तप होय बे. ॥ ४७ ॥ पायच्चितं विणर्ड, वेयावच्चं तदेव सद्यान ॥ काणं उस्सग्गोविअ, अतिरन तवो दोइ ॥४८॥ शब्दार्थ:-- १ प्रायश्चित, २ विनय, ३ वैयावृत्य, तेमज ४ स्वाध्याय, ए ध्यान अने ६ कायोत्सर्ग ए आज्यंतर तप होय . ॥४८॥ हवे आज्यंतर तपमांना प्रायश्चित तपनुं स्वरूप कहे बे. (अनुष्टुप् वृत्तम्) आलोयण पक्किमणो - जयविवेगमुसग्गो ॥ तवच्चेयमूल प्रणव-- घ्याय पारंचिय चेव ॥४५॥ शब्दार्थः प्रालोयण लेवी, पक्किमण करखं, झालोयण Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ने परिक्कम ए बन्ने करवां, विवेक राखवो, कायोत्सर्ग कर घो, वली तप, व्रत पर्यायच्छेद, सर्व व्रत पर्यायछेक क्षेत्रव्हार, तथा लींगव्हार रहेतुं ॥ ४५ ॥ हार वे विनयनुं स्वरूप कहे बे. ( आर्यावृत्तम् ) ती बहुमाणो व- सजणणं जासणमन्नवायस्स आसायण परिहाणो, विपन संखेवर्ड एसो 114011 शब्दार्थः - जक्ती करवी, हृदयमां प्रेम राखवो, गुरा गावा, श्रवर्णवादनुं गोपaj, आशांतनानो त्याग करवो. ए प्रमाणे संकेपथी विनय को बे. ॥ ५० ॥ हवे दश प्रकारे वैयावच्च कहे बे. आयरियनवद्याय - तव स्सिसे हे गिलाणसासु ॥ समणुन्नसंघ कुलगण -- वेयावच्चं हवई दसहा ॥ ५२ ॥ शब्दार्थः - आचार्यनी उपाध्यायनी, तपस्वीनी, शिष्यानी, रोगीनी, साधुनी, साधर्मीनी, संघनी, एक साधुनी ने गणनी एम वैयावच्च दश प्रकारे थाय छे. ॥ ५१ ॥ . हवे ध्यानना जेद कहे बे. घाणं च विदं खलु, अत्तं रूदं तदेव धम्मं च ॥ सुक्कं पुण पत्तेयं, चक्रविदं चैव नाय ॥ ५२ ॥ शब्दार्थः ध्यान निश्चय चार प्रकारनुं बे. आर्तध्यान, रौअध्यान तेमज धर्मध्यान थने शुक्लध्यान वली ते प्रत्येक चार प्रकारनुं निश्चय जावुं ॥ ५२ ॥ - हवे निर्जरा तत्त्वनो विचार कहे छे.. बारसविहं तवो नि-राय बंधो य चजविगप्पोय ॥ पयश्वी जागो-पयेसनेएहिं नायबो ॥५३॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ:--या उपर कहेबुं बार प्रकारनुं तप ते निर्जरा जाणवी. अने बंध ते चार प्रकारनो बे,ते प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुजागबंध अने प्रदेशबंध एवा लेदोये करीने जाणवो.॥.५३ ॥ ... पूर्वे कहेला बंधतत्त्वना चार दनुं वर्णन करे . (अनुष्टुप् वृत्तम् ) पय सदावो वुत्तो, वि.कालावदारणं ॥ .... अणु नागो रसो. दोन, पएसो दलसंचन ॥५४॥ शब्दार्थः---प्रकृतिबंध ते स्वन्नाव, स्थितिबंध ते कालनो निश्चय, अनुजागबंध ते रस जाणवो अने प्रदेशबंध ते दलसमूह जाणतो..॥.५४ ॥ हो आठे कर्मनी प्रत्येके नत्तर प्रकृतीनी संख्या कहे डे.... .... .. (आर्यावृत्तम्.). . ! इह नाणदंसणावरण-वेयमोहाऊनामगोत्राणि ॥ ... विग्धं च पणनवअ-वीसचन तीसयपणविहं ५५ शब्दार्थः-अदि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनी, मोहनी, श्रायु, नाम अने गोत्र वली अंतराय ए आठ कर्मनी पांच, नव, बे, अंगवीश, चार एकसो प्रण, बे अने पांच. एम अनुक्रमे प्रकृति जाणवी. सर्व मली १५७ थाय.॥ ५५ ॥ हवे आठे कर्मोनो नत्कृष्ट स्थितिबंध कहे जे. नाणे अदंसणावरणे-वेअणिए चेव अंतराए अ॥ तीसं कोमाकोमी, अयराणं विश अ नकोसा. ॥५६॥ शब्दार्थः-झानावरणी, दर्शनावरणी, वेदना, अंतराय, ए चारे घाती कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति त्रीश कोमाकोमी सा.. मयोषमाना जाणको ५६ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ....सत्तरी कोमाकोमो, मोदणीए वीस नामगोएसु॥ तित्तीसं अयराइं, आनहिश्बंध नकोसा ॥५॥ . शब्दार्थः-मोहनी कर्मनी सोत्तर कोमाकोमी सांगरो. पमनी स्थिति जाणवी. नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी वीश कोमा कोमी सागरोपमनी स्थिति जाणवी. वली श्रायुःकर्मनी स्थितिनो उत्कृष्ठ बंध तेत्रीश सागरोपमनो जाणवोः ॥ ५ ॥ हवे आठे कर्मोनो जघन्य स्थितिबंध कहे . बारस मुहुत्त जहन्ना, वेयणिए अ नामगोएसु ॥ .. सेसाणंतमुहृत्तं, एयं बंधहई माणं ॥५॥ . ___ शब्दार्थः वेदनीय कर्मनी स्थिति जघन्य बार मुहर्चनी डे अने नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी स्थिति आठ मुहूर्तनों जा. पवी. बाकोना कर्मनी अंतमुहर्तनी जाणवो. ए प्रमाणे बंध स्थितिनुं मान .॥ ५७ ॥ इति बंधतत्त्व. ॥ हवे मोदतत्त्वना नव जेद कहे . संतपयपरूवणया, दवपमाणं च खित्त कुसणा य ॥ कालो अ अंतरनाग-नावे अप्पाबहु चेव ॥५॥ शब्दार्थः- सत्पदप्ररूपणा, अव्यप्रमाण अने खेत्रमान. वली स्पर्शना, काल, आंतर, नाग, नाव श्रने अदाबहुत्व. ए प्रमाणे मोक्षप्तत्वना निश्चे नव हार बे.॥एए॥ हवे प्रयम सत्पदनरूपणा द्वार कहे . संतं सुष्पयत्ता, विद्युतं खकुसुमव न असंतं । मुकति पयं तस्सन, परूषणा मग्गणादिं ॥६॥ शब्दार्थ--मोद ए पद शुद्ध एटले एक पदपणाथो सत् (विद्यमान) जे. आकाशना फुलनी पेठे असत्य नथी. ते सत्पदरूप मोकनी प्ररूपणा गत्यादि मार्गणा झारे करवी. ॥१०॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) हवे सत्पद प्ररूपणा द्वारना पेटामा मार्गणा द्वार कहे बे. गइ इंदीए काए, जोए वेए कसाय नाणे य ॥ संजम दंसण लेसा, जव सम्मे सन्नि दारे ॥६२॥ शब्दार्थः--चार गति मार्गणा, पांच इंद्रिय मार्गणा, बकाय मार्गणा, त्रण जोग मार्गणा, त्रण वेद मार्गणा, चार कषाय मार्गणा, भाव ज्ञान मार्गणा, सात संयम मार्गणा, चार दर्शन मार्गणा, ब लेश्या मार्गा, बे जव्य मार्गणा, व सम्यक्त्व मार्गणा, बे संज्ञी मार्गाने बेदार मार्गणा. ए सर्व मलो बासठ मार्गला थाय. ed पद पारी मार्गणानां नाम कहे बे. नरगइ पििद तसजव, सन्निग्रह कायखइ असम्मत्ते॥ मुरकोण दारकेवल - दंसणनाणे न सेसेसु ॥ ६२ ॥ शब्दार्थः - मनुष्य गति, पंचेंद्रो जाति, त्रस, नव्यत्व, संज्ञी, यथाख्यात चारित्र, कायिक सम्यक्त्व, अणादारी, केव लदर्शन ने केवलज्ञान. एटली मार्गणावाला जोवो मोक पामे बे. बीजो मार्गपाउने विषे मोह नथी. ॥ ६२ ॥ ed व्यमाणादि वे द्वार कहे बे. दवमाणे सिणं जीवदद्वाणि हुंति ताणि ॥ लोगस्स प्रसंखिजे, नागे इक्को य सधेवि ॥६३॥ शब्दार्थः -- द्रव्य प्रमाण द्वार विचारे बते सिद्धना जीवद्रव्य अनंता बे. वली लोकाकाशना असंख्यात मे जागे एक सिद्ध वे. अथवा सर्व सिद्ध पण होय . ॥ ६३ ॥ ed स्पर्शनादि त्रण द्वार कहे बे. कुसणा अहिया कालो, इग सिद्ध पडुच्च साइन तो ॥ पमिवाया जावार्ज, सिद्धाणं अंतरं नचि ॥६४॥ शब्दार्थः सिद्धना जोवोनी स्पर्शना अधिक वे. एक सिद्धने ' Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) श्रीने काल सादिनं वे खते सर्वने श्री अनादि अनंत बे. वली सिद्धोने चबवानो अभाव छे, माटे सिद्धोने अंतर नघोना हवे जागद्वार ने जावद्वार कहे. बे.. सव जियाणमणंते, जागे ते तेसि दंसणं नाणं ॥ खइए नावे परिणा- मिए अ पुए दोइ जीवत्तं ॥ ६८ शब्दार्थः सर्वे संसारी जीवोना अनंतमे जागे ते सिद्ध ना जीवो बे. वली ते सिद्धू जीवोने क्षायिक जावने विषे के. लदर्शन अने केवलज्ञान होय बे. वली परिणामिक जावने विषे ए सिद्धना जीवोने जीवितपथुं पण होय ते ॥ ६५ ॥ हवे सिना पंदर नेद कहे बे. जिच्या जिए तिच तिचा, गिदिन्नसलिंगथी नरनपुंसा ॥ पत्तेयसयंबुदा, बुबो हिय सि-६ णिक्काय ॥६६॥ शब्दार्थ : - - १ (जन सिद्ध, २ जिनसिद्ध, ३ तीर्थ सिद्ध, अतीर्थसिक, ए गृहस्थलिंग सिद्ध, ६ अन्यलिंग सिद्ध, 9 सबिंगसिद्ध, स्त्रीसिद्ध, ए पुरुषसिद्ध, १० नपुंसक सिद्ध, ११ प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, १२ स्वयंबुद्ध सिद्ध, १३ बुद्धबोधित सिद्ध, १४ एक सिद्ध छाने १५ अनेक सिद्ध ए सिद्धना पंदर जेद जाणवा. ॥ ६६ ॥ हवे ए. पंदर जेदना उदाहरण कहे. बे.. जिए सिद्धा परिदंता, अजिए सिद्धाय पुंमरि आप मुदा ॥ गणदारि तिचसिद्धा, अतिसिद्धा य मरुदेवी ॥६७॥ शब्दार्थः - जिन सिद्ध ते अरिहंतो, अजिन सिद्ध ते पुंafte विगेरे गणधर जावा. तीर्थ सिद्ध ते गणधर ने प्रती. र्थ सिद्ध ते मरुदेवी जाणवा. ॥ ६७ ॥ : गिदिलिंग सि६ नरहो, क्ल्कलचीरीय अन्नलिंगम्मि साहु सबिंगसिन्हा, यो सिहा चंदपणापमुदा ॥६८॥ " Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) शब्दार्थः-गृहस्थटिंग सिम नरत, अन्यलिंग सिकव. कस चोरी, स्वलिंग सिद्ध साधु अने स्त्री सिद्ध चंदनवाला विगेरे जाणवा. पुंसिका गोयमाई, मांगेयपमुह नपुंसया सिखा ॥ पत्तेय सयंबुझा, नणिया करमुकविलाई ॥६णा __शब्दार्थः-पुरुष सिझते गौतम विगेरे, नपुंसक सिहते गांगेय विगेरे,प्रत्येकतिझ ते करकमु अने स्वयंबुद्धसिक ते कपोल जामवा. तह बुब्बोदि गुरुबो-हिया गसमय गसिधा य ॥ इगसमयेवि अणेगा, सिहा ते णेगसिधा य ॥७॥ शब्दार्थः-तेमज बुझ्बोधित सिक ते गुरुथी बोध पामेला, एक समयमा एक सिक थनारा एक सिझ, अने एक समयमां अनेक सिझ थाय ते अनेकसिक कहेवाय. ॥ ७० ॥ . . . हवे नवमुं अल्पबहुत्वद्वार कहे . थोवा नपुंससिका, थीनरसिका कमेण संखगुणा ॥ इंथ मुखतत्तमेयं, नवतत्ता लेसनणिया ॥७॥ " शब्दार्थः-नपुंसक लिछो थोमा ने. स्त्री पुरुष सिको अ. नुक्रमे संख्यात गुणा . ए प्रमाणे मोक्षतत्व कहूं. या नव तत्त्वों लेश मात्र कह्यां . ॥ १ ॥ .. हवे नव तत्त्वने जाणवानुं फल कहे बे.. जीवाइ नवपयडे, जो जाण तस्स होइ सम्मत्तं ॥ नावेण सहदंतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ... शा "शब्दार्थः-जे प्राणी जीवादि नव पदार्थने जाणे , तेने . सम्यक्त्व होय . वली नावे करीने सदहणा राखवाथो जी. बादि नव तस्वना अजाणने पण सम्यक्त्व होय ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... हबे सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे ... सवाइ जिणेसर ना-सिआइं वयणा नन्नदा हुँति ॥ बुद्धि जस्स मणे, सम्मत्तं निचलं तस्स ॥३॥ शब्दार्थः-" सर्व जिनेश्वरे कहेलां वचनो खोटां न होय.” एवो बुद्धिजे माणसना मनमा होय . तेने सम्यक्व निश्चल बे, एम जाणवु. ॥ ३ ॥ हवे सम्यक्त्व पाम्यानुं फल कहे . अंतोमुहुत्तमित्त-पि फासि हुआ जेहिं सम्मत्तं ॥ तेसिं अवठ्ठपुग्गल, परिअहो चेव संसारो ॥४॥ शब्दार्थः-जेए एक अंतर्मुदत मात्र पण सम्यक्त्व फरस्युं , तेमने संसार थर्डपुजन परावर्त निश्चे थाय बे. ॥४॥ . हवे आठ प्रकारे पुल परावर्त कहे . दवे स्कित्ते काले, नावे चनद दूह बायरो सुदमो ॥ दो अणंतुस्सप्पिणि, परिमाणो पुग्गलपरहो ॥७॥ शब्दार्थः-व्य, क्षेत्र, काल श्रने नाव ए चार जेद, ते चार नेदना सूक्ष्म अने बादर एवा बे नेदथी अनंत उत्सर्पिणी परिमाण एवो जे काल ते पुजन परावर्त होय . ॥ ५ ॥ उरलाइसत्तगेणं, एग जिउ मुअ फुसिय सवअणु॥ जित्तिकालि स थूलो, दवे सुहुमो सग्गनयरा॥६॥ - शब्दार्थः-एक जीव उदारादिक सातेनी वर्गणाने स्पर्श करीने सर्व प्रमाणु प्रत्ये जेटलो काल मूके, ते थूल अव्व पुजा परावर्त काल थाय. अव्यथी सूक्ष्म सात बीजी वर्गणा जाणवी. खोगपएसोसप्पिणि-समया अणुनागबंधहाणे य॥ तहतह कममरणेणं, पुछा खित्ता थुखियरा san Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P (३३) शब्दार्थः-लोकाकाशना प्रदेश, उत्सर्पिणीना समय अने अणुभाग बंधना सर्व स्थानक तेम तेम अनुक्रम मरणे करीने ते क्षेत्रादि स्पर्शेला होय ते क्षेत्रादि स्थूल सूक्ष्म पक्ष्योपम थायं. ___हवे पुल परावर्त्तनुं मान कहे . उस्सप्पिणी अणंता, पुग्गलपरिअड मुणेअवो ॥ ते पंतातीअघा, अणागयका अणंतगुणा ॥॥ शब्दार्थः-अनंती उत्सर्पिण अने अवसर्पिणी जाय ए पुल परावर्त काल जाणवो. अनंत एवा ते पुनपरावर्त काल गया अने अनंतगुणा जाशेः ॥ ७ ॥ हवे ब ऽव्य दश द्वारे कहे .. परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एक खित किरिाय॥ णिचं कारण कत्ता, सवगय श्यर अपवेसे ॥७॥ शब्दार्थः-१ जीव, २ पुमल, ३ धर्म, ४ अधर्म, ५ श्राकाश अने ६ काल. ए ब अव्यमां जीव अने पुनल परिणामी, जीव अन्य जीव, पुत्र अव्य मूर्तिमंतरूपी, काल विनाना पांच अव्य सप्रदेशी, धर्म श्रधर्म तथा आकाश ए त्रण एक, आकाश केत्र, जीव अने पुजल सक्रीय, धर्म अधर्म आकाश अने काल ए चार नित्य, जीव विना पांच कारण, जीव कती, आकाश सर्वगत, अने श्राकाश विना बाकोना पांच जव्य एक बीजामा मली शकता नथी माटे प्रवेशा रही . ॥ ए॥ ॥इति नवतत्व. ॥ Rec 2020 अथ चोवीश दंडक. मंगलाचरण पूर्वक कर्त्तव्य कहे . नमिलं चनवीसजिणे, तस्सुत्तवियारखेसदेसा॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) मग एहिं ते चिय, थोसामि सुणेह नोजवा ॥ १॥ . शब्दार्थः - चोवीश जिनेश्वरोने नमस्कार करीने तेमनां सूना विचारना लेश मात्रने कहेवाथी दमकना पदे करीने ते जि. नेश्वरोने निश्चे हुं स्तवन करूं तुं, माटे हे जव्यजनो ! तमे सांनलो. १ वे चोवीस रुक गावे बे. नेरइया सुराइ, पुढवाई बेंदियादन चैव ॥ गज्जयतिरियमणुस्सा, वंतरजोइ सियवेमाणी ॥ २ ॥ शब्दार्थः – १ सात नारकीनुं, १० असुरकुमारादिनां, ए पृथ्वी काया दिकनां, ३ विगलेंद्रियनां २ गर्जज तिथंच धने मनुव्यनां, ३ व्यंतर, ज्योतसि श्रने वैमानी कनां ॥ २ ॥ 0 द्वार कहे . 59 संखित्तयरी उ इमा, सरीर मोगादणा य संघयणा ॥ सन्ना संवाण कसाय - खेस इंदिय समुग्धाया ॥३॥ शब्दार्थः - श्र संघयणी संक्षेप मात्र बे. शरीर ए, अवगाना ३, संघयण ६, संज्ञा ४ - १०, संस्थान ६, कषाय ४, लेस्या ६, इंद्रिय ए, वे भेदे समुद्घात . ॥ ३ ॥ दिघीदंसणनाणे, जोगुवन गोववायचवण विश्॥ पतत्तिकिमादारे, सन्नी गइ आगइ वेय ॥ ४ ॥ शब्दार्थः दृष्टि ३, दर्शन ४, ज्ञान ५, अज्ञान ३, योग १५, उपयोग १२, उपपात १, चवन १ स्थिति ३, पर्याप्ति ६, किमाहार १, संज्ञा ३, गति १, आगति १, वेद ३. ॥ ४॥ ed a गाथाथी शरीरद्वार तथा अवगाहनाद्वार कहे बे. चल गन्न तिरियवाकसु, मणुप्राणं पंच सेस तिसरीरा ॥ यावरचडगे डुन, अंगुल असंखनागतणू ॥ ५ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) शब्दार्थः-गर्जजतिर्यंच श्रने वानकायने चार शरीर, मनुष्यने पांच शरीर, बाकीना एक विश दमकने विषेत्रण शरीर होय. (इति शरीर धार) थावर चतुष्कने विषे नत्कृष्ट तथा जघन्यथी अंगुलना असंख्य नाग जेटलुं शरीर जाणवू. ॥५॥ सवेसिपि जहन्ना, साहाविय अंगुलस्ससंखंसो॥ उकोस पणसयधणा, नेरश्या सत्तहब सुरा ॥६॥ शब्दार्थः-बाकीनावीश दमकने स्वानाविक जघन्यथी अं. गुलनो असंख्यातमो नाग शरीर होय डे, नारको जीवो उत्कृष्टा पांचसोधनुष्य उंचा होय . देवता नत्कृष्ट सात हाथ होय . ६ गन्नतिरिसदसजोयण,वणस्सई अदियजोयणसहस्स। नर तेइंदि तिगान, वेदिय जोयणे बार ॥७॥ शब्दार्थः-गज तिर्यंच एक हजार जोजन, वनस्पति एक हजार जोजनथी कांक अधिक, मनुष्य थने तेरिचित्रण गाउ अने बे इंडिय बार योजनना उत्कृष्ट शरीर प्रमाणवाला होय . जोयणमेगं चउरिं-दि देदमुच्चत्तणं सुए नणियं ॥ वेनवियदेदं पुण, अंगुलसंखं समारंने ॥ ७॥ शब्दार्थः-चरिंजिनुं शरीर उंचपणे एक जोजन सूत्रने विषे कडं . वल! उत्तर वैक्रिय देह हमेशां पारंजे अंगुलमो: असंख्यातमो नाग होय . ॥७॥ देवनरअदिअलकं, तिरियाणं जवयजोयणसया॥ उगुणं तु नारयाणं, जणियं वेनवियसरिरं तु ॥ ए॥ __ शब्दार्थः-देवतानुं वैक्रिय शरीर एक लाख जोजननुं भने मनुष्यनु लाख जोजनथी कांक अधिक होय . तियचोनुं . नवसो योजननुं श्रने नारकीर्नु पोतानां शरीर प्रमाणथो बमणं. कघु ॥ ए॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) अंतमुहुत्तं निरये, मुडुत्तचत्तारि मणुअतिरिएसु॥ . देवेसु अधमासो, उक्कोसविनवणा कालो ॥१०॥ ... शब्दार्थः-नरकमां एक अंतर मुहर्त, मनुष्य अने तिर्य: घमां चार मुहर्त अने देवताने विषेश्रो मास. ए उत्कृष्ट उत्तर वैक्रिय शरीरनो काल जाणवो. (इति अवगाहनाधार ) १० . हवे एक गाथाथी संघयण द्वार कहे बे. . थावरसुरनेरश्या, असंघयणा य विगलवहा ॥ संघयणबग्गं गप्नय-नरतिरिएसु मुणेअवं ॥१॥ शब्दार्थः-पांच थावर, देवता श्रने नारकी ए सर्व सं. घयण रहित बे. विगलेंजियने सेवा संघयश होय . गर्जेज मनुष्य अने तिर्यंचने विषे उ संघयण जाणवां. (शति संघय. पहार ) ॥ ११ ॥ . हवे बे गाथाथी संझा तथा संस्थानद्वार कहे . सबेसि चन दह वासणा सबे सुरा य चनरंसा ॥ नरतिरिबसंगणा, हुंमा विगलिदिनेरश्या ॥१॥ ___ शब्दार्थः-सर्वे दमकोने चार अथवा दश संज्ञा ले (इति संज्ञाहार) अने सर्वे देवता समचतुरस्त्र संस्थानवाला . म. नुष्य श्रने तिर्यंच ब संस्थानवाला होय जे तथा विगडिभने नारकी ढुंमक संस्थानवाला होय . नाणाविहधयसूई-बुब्बुयवणवानतेचअपकाया ॥ पुढवी मसूरचंदा-कारा संगण मणिया ॥१३॥ शब्दार्थः-वनस्पतिकाय जीवो नाना प्रकारना संस्थानवा ला. वाउँकाय जीवो धजा सरखा संस्थानवाला , अग्निकाय जीवो सुश्याना समूह सरखा संस्थानवाला अने अप्पकाय जीवो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) परपोटाना सरखा संस्थानवाला होय छे. पृथ्वीकाय जीवो म. सूरनी दाल छाने चंद्रना सरखा संस्थानवाला कह्या बे. ( इति संस्थानद्वार ) हवे चार गाथाथी कषाय, लेश्या, इंडिय ने समुद्घात द्वार कहे बे. सवेवि चनकसाया, लेसबग्गं गन तिरियम एसु ॥ नारयतेजवान -- विगलावेमा यि तिलेसा ॥१४॥ शब्दार्थः सर्वे एवा जीवो पंप चार कषायवाला होय ते. ( इति कषायद्वार ) गर्भज तिर्यंच ने मनुष्यमांब लेश्या होय बे. वली नारकी, अग्निकाय, वानकाय, विगलेंद्रो छाने वैमानिक देवता ए सर्वे त्रण लेश्यावाला होय बे. ॥ ४ ॥ जोइसियतेनुलेसा, सेसा सधेवि हुंति चनलेसा ॥ इंदियदारं सुगमं, मणुयाणं सत्त समुग्धाया ॥ १५॥ शब्दार्थः - ज्योतसि तेजोलेश्यावाला बे. बाकी ना सघा पण चार लेश्या वाला होयडे. ( इति लेश्याद्वार ) इंद्रियद्वार सुगम बे. (इति इंडियद्वार) मनुष्यने सात समुद्घात होय. ॥ १५ ॥ वेयकसायमरणे, वेडवियतेयएय आहारे ॥ केवलियसमुग्धाए, सत्त इमे हुंति सन्नी ॥१६॥ शब्दार्थः - १ वेदना, १ कषाय, ३ मरण, ४ वैक्रीय. ५ तेजस, ६ वदारक, छाने 9 केवली ए सात समुग्धात संज्ञी मनुष्यने होय . ॥ १६॥ एगिंदियाण केवलि -- तेऊयाहारगविणान चत्तारि ॥ तेवेवियवमा, विगला सन्नीण ते चेव ॥१७॥ -- शब्दार्थः - एकेंद्रियने, केवली तेजस अने आहारक व जिसे चार समुद्घात होय ते. ते पूर्वे कला त्रस ने बैकिय Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y (३७) ए चार विना बाकीना त्रण समुद्घात विकलेंजिने जाणवा अने संझोने ते सात समुद्घात निश्चे होय . ॥ १७ ॥ हवे बे गाथाथो दृष्टि अने दर्शनद्वार कहे .. पण गप्ततिरिसुरेसु, नारयवासु चनर तिय सेसे ॥ विगलदिछी थावर-मिबत्ति सेस तियदिह ॥१॥ शब्दार्थः-गर्जज तियच अने देवताने विषे पांच, नारकी अने वानकायने विषे चार अने बाकीनाने विषेत्रण समुद्घात होय. (इति समुद्घातबार) विकलेंडिबे दृष्टिवाला .थावर मिथ्यात्वी जे अने बाकीना त्रण दृष्टिवाला ॥१॥ (इति दृष्टिहार) थावरबितिसु अचरकु, चरिंदिसु तदुगं सुए जणिय॥ मणा चनदंसणिणो, सेसेसु तिगं तिगंजणियारणा शब्दार्थः-स्थावर, बेइंडिय अने तेरिंजियने विषे एक अचक्नु दर्शन होय. चौरिजिने विषे चकुदर्शन श्रने अचकु. दर्शन सूत्रमा कडं डे. मनुष्यो चार दर्शनवाला होयडे अने बा- . कीनाने विषेत्रण त्रण दर्शन होय. ॥१॥ (इति दर्शनधार) हवे एक गाथायी ज्ञान तथा अझानद्वार कहे . .. अन्नाणनाणतियतिय,सुरतिरिनिरये थिरे अन्नाणगं नाणानाण विगले, मणुए पणनाणतिअन्नाण ॥२०॥ शब्दार्थः-देवता, तिर्यंच अने नारकीने विषेत्रण अज्ञान अने त्रण ज्ञान होय . थावरमां बे अज्ञान होय. विकलेंजिय ने विषे वे ज्ञान अने वे अज्ञान होय. मनुष्यने विषे पांच ज्ञान अने त्रण थकान होय. ॥२०॥ (इति शानद्वार ) . हवे एक गाथाथो योगद्वार कहे . श्कारस सुरनिरये, तिरिएसु तेर पन्नर मणुएसु ॥ विगले चन पण वाए, जोगतिगं थावरे हो ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) शब्दार्थः-देवता अने नारकीने विषे श्रगीयार,तिर्यंचने विषे तेर, मनुष्यने विषे पंदर, विकलेंजियने विषे चार, वानकायने विषे पांच अने स्थावरने विषेत्रण योग होय ॥२१॥ (इति योगहार) . हवे एक गाथाथी योगनां नाम कहे बे. सच्चेअरमीसअसच्च--मोस मणवयवेनविदारे ॥ जरलंमिसा कम्मण, श्य जोगा देसिया समए ॥३॥ ___ शब्दार्थः-सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, सत्याभूषा मनोयोग, असत्यामृषा मनोयोग. ए प्रमाणे मन अने वचनना योग जाणवा. वैक्रिय योग, आहारक योग तेमज औदारिक योग: एत्रण मिश्र सहित.अने वली कार्मण योग, ते साते कायाना योग थागमने विषे कह्या बे, ॥ ॥ (इति योगहार ) , हवे बे गाथाथी उपयोग द्वार कहे जे. तिअन्नाण नाणपण, चउदसण बार जिअलकणुवउँगा। इस बारस नवनगा, नणि तिलुकदंसीहिं ॥३॥ ___ शब्दार्थः-त्रण अशान, पांच ज्ञान, चार दर्शन, ए बार जीवना लक्षणरूप उपयोग . ए बार उपयोग त्रीलोक दर्शी एवा श्री जिनेश्वरोए कह्या बे ॥२३॥ उवगंगा मणुएसु, बारस नव निरय तिरय देवेसु ॥ विगलागे पण बकं, चउरिंदिसु थावरे तिअगं ॥॥ शब्दार्थ-मनुष्यने विषे बार, नारकी तिर्वच अने देवताने विषे नव, बेइंडिय अने तेरिडिने विष पांच, चौरिजिने विषे उ थने थावरने विषेत्रण उपयोग होय ॥२॥ (इति उपयोगहार) * हवे दोढ गाथाथी उत्पत्ति अने चवनद्वार कहे बे. संखमसंखा समए, गनयतिरिविगलनारय सुरा य ॥ मणुआ नियमा संखा, वणणंता थावर असंखा॥श्या A Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) शब्दार्थः-एक समयने विषे गर्नजतिर्यंच, विकलेंडि, ' नारको थने देवता संख्याता अथवा असंख्याता नत्पन्न थाय . नियमथी मनुष्यो संख्याता उत्पन्न थाय बे. वनस्पतिकाय अनंता उत्पन्न थाय डे अने थावर असंख्याता नत्पन्न थाय डे ॥२५॥ असन्नीनर असंखा, जद उववान तहेव चवणेवि॥ हवे चार गाथाथी स्थितिद्वार कहे . बावीससगतिदसवास-सदस्स उक्कि पुढवाइ ॥२६॥ शब्दार्थः-असंही मनुष्यो असंख्याता नत्पन्न थाय जे. जे. वीरीते उत्पन्न यवानी वात कही तेवीज रीते चवन पण जाणवू. (इति उत्पत्ति चवनहार) पृथ्वोकाय, अप्काय, वान काय अने वनस्पतिकायतुं आयुष्य अनुक्रमे बावीस हजार, सात हजार, त्रण हजार श्रने दस हजार वर्षनुं उत्कृष्टुं होय . ॥६॥ तिदिगि तिपल्लान, नरतिरि सुरनिरय सागरतित्तीसा॥ वंतर पल्लं जोश्स, वरिसलकाहियं पलियं ॥२॥ ___ शब्दार्थः-त्रण दिवस, अग्निकाय, श्रायुष्य होय . मनुष्य अने तिर्यंच त्रण पस्योपम श्रायुष्यवाला होय . देवता श्रने नारको तेत्रीस सागरोपमनां आयुष्यवाला होय जे. व्यंतर देवता एक पक्ष्योपमनां आयुष्यवाला अने ज्योतसो देवता एक लाख वर्ष अधिक एवा एक पक्ष्योपमना श्रायुष्यवाला होय. असुराण अदियअयरं, देसूणउपल्लयं नवनिकाए ॥ बारसवासूणुपण दिण--उमास नकि विगलाक ॥श्न॥ शब्दार्थः-असुर कुमारोनुं एक सागरोपमथी कांइक श्र. धिक श्रायुष्य होय. नव निकाय- देसे उण बे पढ्योपमनु, वि. कलेंजिय [बेइंडि, तेरिडियने चौरिजिनुं] अनुक्रमे बारवर्ष, उंगगपञ्चास दिवस अने मासर्नु ए सर्व नत्कृष्ट आयुष्य जाणवू.श्व Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) पुढवाइ दसपयाणं, अंतमुहुत्तं जहन्न आनहि॥ .. दससहसवरसविश्ा, नवणादिवनिरयवंतरिया ए शब्दार्थः-पृथ्वी कायादि [पांच स्थावर, त्रण विकलेजिय, तिर्यंच अने मनुष्य] ए दशनी जघन्यथीथायुष्यनी स्थिति एक अंतर्मुहूर्त्तनी बे, नवनपति, नारकी अने व्यंतर देवता दश हजार वर्षनी जघन्य स्थातिवाला बे. ॥ श्ए वेमाणिय जोसिया, पल्लतयहंसाना हुँति॥ .. हवे त्रण गायाथी पर्याप्ति, किमाहार अने संझा ए त्रण द्वार कहे . सुरनरतिरिनिरएसु उपजती थावरे चनगं ॥३०॥ ___ शब्दार्थः--वैमानीक अने ज्योतसो देवता एक पढ्योपम अने तेनो श्राठमो जाग एम अनुक्रमे आयुष्यवाला होय. (इति स्थीति छार)देवता, मनुष्य, तिर्यंच अने नारकीने विषे व पर्याप्ती होय. तथा थावरने विषे चार पर्याप्ति होय॥३०॥ विगले पंच पजती, बद्दिसि आहार होइ सवेसिं॥ पणगाइपए नयणा, अह सन्नीतियं नणिस्सामि॥३१॥.. शब्दार्थः-विकलेंजियने विषे पांच पर्याप्ति होय. (इति पर्याप्ति छार) सर्वे जीवोने उ दिशाने विषे आहार होयबे पांच दिशा आदि पदने विषे नजना बे. (इति किमाहारहार) हवे त्रण संज्ञा नणीश.॥ चनविदसुरतिरिएसु, निरएसु य दीहकालगी समाः ॥ विगले हेनवएसा, सन्नारहिआ थिरा सवे ॥३॥ ... शब्दार्थः-चार प्रकारना देवता, तिर्यंच अने नारकोने विषे दीर्घकालिकी संज्ञा होय. विगलेंजियने. विषे हेतुपदेशि कीसंज्ञा होय अने सर्वे थावरो संज्ञा रहित होय ॥ ३२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२ ) मणुच्या दीहकालिख, दिठिवानवर सिच्या केवि ॥ हवे सामा व गाथाथी गति संज्ञा कहे . पपतिरि मणुच् चिय, च विहदेवेसु गवं ति ॥ ३३ शब्दार्थः-- मनुष्य ने दीर्घकालिकी संज्ञा होयबे ने केटलाक मनुष्यने दष्टिवादोपदेसिकी संज्ञा पण होय बे. (इति संज्ञाद्वार) पर्याप्ता पंचेंद्रिय एवा तिर्यंच ने मनुष्य निश्चे चार प्रकारना देवताने विषे जाय. ॥ ३३ ॥ संखान पत्त --दितिरियन रेसु तदेव पत्ते ॥ जूदगपत्तेयवणे, एएसुचि सुरागमणं ॥ ३४॥ शब्दार्थः – संख्याता श्रायुष्यवाला पर्याप्ता पंचेंडि तिर्यंच मनुष्य विषे, तेमज पर्याप्ता पृथ्वी काय, अप्काय ने प्रत्ये क वनस्पति काय ए पांचने विषे निश्चे देवतानुं नृत्पन्न यतुं यायडे. पत्तसंखगनय--तिरीयनरा निरयसत्तगे जंति ॥ निरवहा एए--सु उप्पति न सेसेसु ॥३५॥ शब्दार्थः - पर्याप्ता ने संख्याता श्रायुष्यवाला गर्भज तिर्यच भने मनुष्यो, सात नरकने विषे नृत्पत्र थायडे याने नरकमांथी निकलेला जीवो ए बेने विषे उत्पन्न याय बे. बाकीना ired विषे उत्पन्न न थाय. ॥ ३५ ॥ पुढवीच्या वणस्स -मने नारयविवजिया जीवा ॥ स ववति, नियनियकम्माणुमाणेणं ॥ ३६॥ शब्दार्थः - पृथ्वी काय, अप्काय अने वनस्पतिकायनी मध्ये मारकीने वर्जीने सर्वे जीवो पोत पोतानां कर्मना 'अनुमा नथ | उत्पन्न थाय बे. ॥ ३६ ॥ पुढवाइदसपएसु, पुढवाकवणस्सई जंति ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय कायना जीवा तेठकाय (५३) पुढवाश्दसपए दिय, तेकवासु नववा ॥३॥ शब्दार्थः-पृथ्वीकायादि दश पदमां पृथ्वीकाय अप्काय अने बनस्पतिकायना जीवो नत्पन्न थाय ने श्रने पृथ्वीकायादि दश पदयी निकलेला जीवो तेनकाय अने वायुकायने विषे उत्पन्न याय. तेऊवाऊगमणं, पुढवीपमुहंमि होइ पयनवगे॥ पुढवाश्गणदसगा, विगलाइं तियं तिहिं जति॥३॥ . शब्दार्थः-तेनकाय अने वायुकायर्नु जवू पृथ्वीकायादि नव पदने विषे होय. पृथ्वीकायादि दश स्थानकना जोवोत्रण विकजिय थायले अने ते त्रण विकलेंजिय ते पृथ्वीकायादि दश पदमां जाय . ॥३॥ गमणागमणं गनय, तिरियाणं सयलजीवगणेसु ॥ सबब जति मणुआ, तेकवाकसु नो जंति ॥३॥ . शब्दार्थः-गर्नज तिर्यंचोनुं सर्वे दंगकोने विषेजवू श्रावतुं थाय. मनुष्यो सर्वे दमकोने विषे जायजे. पण ते काय थने वा. नकायने विषयी मनुष्यो न थाय. (इति गतिहार)॥ ३५ ॥ .. हवे त्रण गाथाथी आगति द्वार कहे . अंतरदीवा जुअला, तेसिं गईन वंति इकारा ॥ दशनवणा इक्कवणे, आगई मणुअतिरिएसु॥४०॥ शब्दार्थ-अंतरछीपना युगलीयानु श्रावq दश नवनप ति अने एक व्यंतर एम अग्यारमा होय, अने ए अंतरछीपना जुगलीयामां नत्पन्न थर्बु मनुष्य अने तिर्यंचथी होय. ॥४०॥ असन्नितिरिए गईन, बावीसा जोइस विमाणविणा ॥ आगन थावरपंच, विगलपंचिदितिरियनरा ॥४१॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) शब्दार्थः-श्रसन्नि तिर्यंचनो गति ज्योतसी अने वैमानीक विना बावीश दमकमां होय श्रने असन्नि तिर्यंचमां उत्पन्न थर्बु ते पांच थावर, त्रण विकलेंजिय, पंचेंप्रियतिर्यंच अने मनु. ज्योमाथी होय . ॥ १ ॥ संमुहिम मणुाणं, दह गई। पंचथावरा विगला ॥ पंचिंदिय तिरियनरा, आगश्न तेजवान विणा ॥४२॥ शब्दार्थः-समुर्छिम मनुष्योनी गति पांच थावर, प्रण विकलेंजिय, पंचेंजिय तिर्यंच अने मनुष्य ए दशेमां थायडे श्रने समुर्बिम मनुष्यमां उत्पन्न थर्बु ते तेनकाय अने वाउ. काय विना ते आठमांथी थाय .॥४२॥ (इति श्रागतिहार) ___ हवे एक गाथाथी वेदद्वार कहे . वेयतिय तिरियनरेसु, ईचीपुरिसो चनविहसुरेसु ॥ थिरविगलनारएसु, नपुंसवेन दवइ एगो ॥४३॥ .. शब्दार्थः-तिर्यंच श्रने मनुष्यने विषेत्रण वेद होय चार प्र कारना देवताने विषे स्त्रीवेद अने पुरुषवेद होय. पांच थावर, त्रण विकलें जिय श्रने नारकीने विषे एक नपुंसकवेद होय . ३ हवे वे गायाथी अल्पबहुत्वद्वार कहे . पजमणुबायरग्गी, वेमाणीअनवणनिरयवंतरिया ॥ जोइसचनपणतिरित्रा, बेइंदितेइंदिनाऊ ॥४॥ शब्दार्थः-पर्याप्ता मनुष्य सर्व दंगकथी थोमा, तेथी असं. ख्यात गुणा बादर अग्निकाय, तेथी असंख्यात गुणा वैमानीक, तेथी असंख्यात गुणा नवनपति, तेथी असंख्यात गुणा नारकी, तेथी असंख्यात गृणा व्यंतर, तेथी असंख्यात गुणा ज्योतसी, तेथी संख्यात गुणा चनरिंजिय. तेथी अधिक पंचेंजिय तिर्यंच, तथी अधिक बेजिय, तेश्रो अधिक तेरिंछिय, ते या असंख्यात Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) गुणा पृथ्वीकाय, तेथी असंख्यात गुणा अप्काय ॥४४॥ वाळवणस्स चिय, अहिया अदित्रा कमेणेमे हुँति॥ सधेवि श्मे नावा, जिणा मये पंतसो पत्ता॥४५॥ - शब्दार्थः तेथी असंख्यात गुणा वानकाय अने तेथो अनंत गुणा वनस्पतिकाय . निश्चे ए सर्वे अनुक्रमे अधिक अधिक होय जे. हे जिनेश्वर! श्रा सर्वे पण जावो में अनंतीवार प्राप्त कस्या उ. हवे एक गाथाथी प्रार्थना करे . संप तुम्हनत्तस्स, दंगपयनमणनग्गदिययस्य । दंमतियविरयसुलह, खहु मम दिंतु मुकपयं ॥४६॥ शब्दार्थः-हवणां चोवीस दमकना स्थानने विषे नमवाथी जग्न थयुं मन जेनुं, एवा तमारा लक्त एवा मने, मन वचन अने कायाना त्रण दंगना विरामथी सुलन एवं मोक्षपद ऊट आपो. व हवे एक गाथाथी ग्रंथकर्ता पोतानुं नाम जणावे . सिरिजिणहंसमुणीसर, रजे सिरिधवलचंदसीसेण ॥ गजसारेण लिहिा , एसा विन्नत्ति अप्पदिआ॥४॥ ___ शब्दार्थः--श्री जिनहंस मुनिश्वरना राज्यने विषे श्रीध. वसचंना शिष्य एवा गजसार मुनिये था आत्महितकारी विनती सखी बे. ॥ ४ ॥ इति चोवीश दमक समाप्तः ॥ .: __ लघु संग्रहणी. एक गाथाथी मंगलाचरण पूर्वक कर्त्तव्य कहे जे. नमिय जिणं सवन्न, जगपूजं जगगुरूं महावीरं ॥ जंबूद्दीवपयन्जे, वुद्धं सुत्ता सपरदेचं ॥ १ ॥ शब्दार्थः-सर्वज्ञ, जगत्ने पूज्य, जगत्ना गुरु एवा श्री महावीर जिनेश्वरने नमस्कार करी सूत्रने अनुसारे जंबूझोपना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) शाश्वता पदार्थोने हुँ पोताना श्रने परना माटे कहुं हुं ॥१॥ .. एक गाथाथी दश द्वार कहे डे. खंमा जोयण वासा, पव्वय कूमा य तिब सेढो॥ विजय दह सलिलान, पिंमेसें दोई संघयणी ॥२॥ शब्दार्थः-१ खमवा, ५ जोजन,३ क्षेत्र,४ पर्वत.५ कूट,६ तीर्थ, श्रेणी, विजय, एजह थने १० नदीयो. ए दश घारना समूहथी संग्रहणी थाय . ॥शा हवे त्रण गाथाथी पहेलं द्वार कहे . ननअ सयं खंमाणं, नरदपमाणेण नाईए लरके ॥ अदवा नग्असयगुणं, नरहपमाणं दवइ लकं ॥३॥ . शब्दार्थः-एक लाख जोजनने नरतत्रना प्रमाणे [४५६ जोजन ६ कलाथी ]नागाकार करीये त्यारे एकसोने नेवू खांकवा थाय. अथवा जरतदेवना प्रमाणने एकसोने नेवं गुणा करे तो पण लाख जोजन थाय. ॥३॥ अहविगखमे नरहे, दो हिमवंते अ हेमवई चनरो॥ अहमदाहिमवंते, सोलसखंमाइ हरिवासे ॥४॥ ..... शब्दार्थः-अथवा एक खांमवानुं नरतक्षेत्र, बे खांमवानो हिमवंत पर्वत, चार खांमवानुं हेमवंत क्षेत्र, पाउ खांमबानो महा हिमवंत पर्वत श्रने साल खांमवानुं हरिवर्ष क्षेत्र .॥४॥ बत्तिसं पुण निसढे, मिलिया तेसहि बीयपासेवि॥ चनसहित विदेदे, तिरासि पिंमेइ ननअसयं ॥५॥ शब्दार्थः-वली बत्रीश खांमवानो निषध पर्वत ए सर्व मलीने सर खांझवा थाय. एवा बीजा पासाने विषे पण सठ लांना जाणवा. तेमज महाविदेहकेत्रने विषे चोसत.खांमता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) बे. एत्रणे एका करीये त्यारे एकसो नेवू खांमवा थाय. ॥५॥ हवे पांच गाथाथी बीजं द्वार कहे जे. जोयणपरिमाणाई, समचनरंसाइंश्च खंमाइं॥ वरकस्सयपरिहीए, तप्पाय गुणेणय हुंतेव ॥६॥ शब्दार्थः-समचतुरस्र जोजनना परिमाणे खांस्वा करवाः एकलाख जोजनना परिधीने तेना चोथे जागे पच्चिसहजारे गुणवाथी गणीत पद थाय . ॥६॥ विस्कंनवग्गदहगुण-करणी वहस्स परिर दो॥ विकंनपाय गुणिन, परिरत, तस्स गणियपयं ॥७॥ शब्दार्थः-विष्कन्न (पोहोला३)ना वर्गने दशगुणा करीने ते यांकनुं वर्गमूल काढवू, तेथी गोल परिधी थाय. पन विष्कनने तेना चोथे जागे गणीये तो तेनुं क्षेत्रफल थायः ॥ ७॥ परिही तिलकसोलस-सहस्स दोयसय सत्तवीस दिया। कासतिगं अहावीसं, धणुसय तेरंगुख हियं ॥ ७॥ शब्दार्थः-त्रणलाख, सोलहजार, बसो सत्तावीस जोजन, त्रण गान; एकसो अठावीस धनुष्य भने सामातेर श्रांगल एटलो जंबूझोपनी सर्वपरिधीथाय. ३१६जोगाण्ण्घ ०१॥ सत्तेवयकोमिसया, ना बप्पन्नसयसहस्साई॥ चनमयं च सदस्सा, सयंदिवढं च सादियं ॥ ए॥ गानअमेगं पन्नरस, धणुसया तद धणूणि पन्नरस ॥ सहिं च अंगुलाई, जंबुद्दीवस्स गणियपयं ॥१०॥ शब्दार्थः-सातसोने नेवूक्रोम, बप्पन्न लाख, चोराणुं हजार भने एकसो पच्चास जोजन,- एक गान; पंदरसो पंदर धनुष्य अने साठ यांगुल, एटदुं जंबूछीपनुं गणितपद जाणवु. ए.पणा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) हवे वे गाथाथी क्षेत्रद्वार ने पर्वत संख्याद्वार कहे डे. नरदाई सत्तवासा, वियह चनचनरतिस वडियरे ॥ सोलस वरकार गिरि, दो चित्तविचित्त दोजमगा ॥ ११ ॥ शब्दार्थः - भरत विगेरे सात क्षेत्र बे, (इति ३ क्षेत्रद्वार) वैताढ्य चार वाटला ने चोत्रीश लांबा, सोल वखारा पर्वत, बे चित्र विचित्र पर्वत ने बे जमग समग पर्वत बे ॥ ११ ॥ दो सय कणय गिरीणं, चन गयदंताय तद सुमेरू य ॥ बवासदरा पिंके, एगुणसत्तरि सयाऽन्नि ॥ १२ ॥ शब्दार्थः - बसो कंचन पर्वत, चार गजदंता पर्वत तेमज एक सुमेरु ने व क्षेत्र मर्यादा धारक पर्वत ए सर्व एकठा करतां बसोने नगपोतेर थाय बे. ॥१२॥ हवे पांच गाथाथी कुट (शिखर) द्वार कहे बे. सोलस वरकारेसु, चनचन कुमाय हुंति पत्तेयं ॥ सोमणस गंधमायण, सत्तव्य रूपमदा हिमवे ॥ १३ ॥ शब्दार्थः - सोल वरकारा पर्वतने विषे दरेक नपर चार चार शिखर बे. सोमनस छाने गंधमादन ए वे गजदंता पर्वत उपर सात सात शिखर बे, अने रुपी तथा मद्दा हिमवंत ए वे पर्वत पर आ व शिखरो बे. ||१३|| चतीस विसु, विद्युप्पद निसनिलवंतेसु ॥ तह मालवंतसुरगिरि, नव नव कुमाई पत्तेयं ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-- वैताढ्य पर्वत उपर चोत्रोस, विद्युत्प्रजगजदंतो, नैषध, नीलवंत, मालवंतगजदंतो ने मेरु ए दरेक पर्वतो पर नव नव शिखरो बे ॥ १४ ॥ दिम सिहरिसु इक्कारस, इय इगसठी गिरिसु कुमाणं ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) • एगत्ते संबधणं, सयचनरो सत्तसहीय ॥१५॥ शब्दार्थः--हिमवंत अने शिखर। ए प्रत्येक पर्वत उपर अगीयार अगीयार शिखरो जे. एम एकसठ पर्वत उपर सर्व मलीने चारसो समसठ शिखरो थाय जे. ॥१५॥ चन सत्त अनवगे-गारसकुमेहिं गुणह जहसंखं ॥ सोलस उठ गुणयालं, उवेय सगसह सयचउरो॥२६॥ ___शब्दार्थः-चार, सात, आठ, नव अने अगीयार एटला शिखरोनी संख्याये करीने अनुक्रमे सोल बे, बे, नगणचालोस भने बे ए पर्वतोने गुणतां सर्व मली चारसो समतठ शिखरो थायडे. चन्तीसं विजयेसु, उसुकुमा अह मेरूजंबूम्मि ॥ अध्य देवकुराई, हरीकुमहरिस्सदे सही ॥१७॥ शब्दार्थ-चोत्रोस विजयने विषे रुषनशिखर चोत्रीस बे. मेरु श्रने जंबूत पर पाठ आठ शिखरले. देवकुरुने विषे पाठ शिखर हरिशिखर श्रने हरिसशिखर सहित साउनूमी शिखर हवे एक गाथाथी तीर्थद्वार कहे . मागहवरदामपना-सं तिब विजयेसु ऐरवयनरहे॥ . चनतीसा तिहिंगुणिया, दुरुत्तरसयं तु तिवाणं ॥१॥ - शब्दार्थः-बत्रीस विजय, ऐरबत अने नरत ए चोत्रीलमां मागध, वरदाम अने प्रजास एवा एक नामनां चोत्रोस तीर्थडेते. थीते चोत्रीसने प्रण गुणा करतां सर्व मलीने एकसोने बे तीर्थ थाय जे. ॥१७॥ ___ हवे एक गाथाथी श्रेणीद्वार कहे जे. विजाहर अनिउंगी-य सेढी दुन्नि दुन्नि वेअढे ॥ श्य चळगण चढतीसा, बत्तीससयं तु सेढीणोरमा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ( २० ) शब्दार्थः- दरेक वैताढ्य पर्वत उपर विद्याधर अने या नियो गीकदेव तेमनी दरेकनी बबे बधे श्रेणीयो बे; तेथे ते चार श्रेणीयो ने चोत्रीस गुणी करतां एकसो बोस श्रेणीयो थायडे, ॥१॥ ea एक गाथाथी विजयद्वार ने इहद्वार कहे बे. चक्कीजेयवाई, विजयाई इच हुंति चनतीसा ॥ मह दद व पनमाई, कुरुसु दसगं ति सोलसगं ॥ २० ॥ शब्दार्थः श्रहिं चक्रवतीये जीतेल। विजयो चोत्रीस बे. तेमज दि पद्मादि म्होटा हो व बे ने कुरुक्षेत्रमां दश ह बे. सर्व मली सोल यह थाय बे, ॥ २० ॥ ed a गाथाथी नदीद्वार कहे बे. गंगा सिंधु रत्ता, रत्तवई चन नइन पत्तेयं ॥ चन्दसदि सदस्सेदिं समगं वच्चंति जल हिमिं ॥ २२ ॥ शब्दार्थः - गंगा, सिंधु, रक्ता अने रक्तवती ए चार नदीयो बे. ते दरेक नदी चौद हजार परिवार सहित समुद्रमां जाय बे. चारे नदीयोनो परिवार उपन्न हजार बे ॥ २१ ॥ एवं अनंतरिया, चनरो पुणविस सहस्सेदिं ॥ पुरवि बन्नेदि, सहस्सेहिं जंति चनसलिला ॥२२॥ शब्दार्थः-- वली एवीज रीते हिमवंतादिकनी अभ्यंतर चार नदीयो प्रत्येक ठावीस हजार नदीयोनो परिवार सहित जाय d. [ चार नदीयोनो परिवार ११२००० ] अने विर्ष क्षेत्रनी अने रम्यक क्षेत्रनी चार नदीयो प्रत्येक बपन्न हजार नदी योनो परि वार सहित जाय बे [ चार नदीयोनो परिवार - २२४००० ) ॥२२॥ कुरूमचे, चऊरासी, सहस्सा तहय विजय सोलसेसु ॥ बत्तीसाए नईणं, चउदस सहस्साइं पत्तेर्य ॥२३॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) शब्दार्थः-देवकुरू उत्तरकुरूमा उ नदीयोनों सर्व परिवार चोरास हजारनोबे अने सोल विजयमांबत्रीस नदीयो , तेमां दरेकने चौदहजार नदीयोनो परिवार . ॥२३॥ चउदससहस्स गुणिया, अमतीस ना विजयमधिला॥ सीयाए निवांत, तय सीयाइएमेव ॥४॥. शब्दार्थः-ए बत्रीश नदीयोने चौदहजारे गुणतां चारसाख. श्रमतालीश हजार थाय . तेमज विजयमांदेलो श्रामत्रीस नदीयोने पण चौदहजार गुणतां सर्व मली पांचलाख बत्रीस ह. जार थाय.एटली नदोयो सीतोदामां तेमज सीतामा मले . सीया सीयावि य, बत्तीस सहस्स पंचलकेहिं ।। सवे चनदस लरका, बप्पन्न सहस्स मेलविया ॥२॥ शब्दार्थः-सीता सीतोदा एबे नदीयो प्रत्येक पांचलाख बत्रीस हजारना परिवार वाली ले ते सर्वे एकठी करतां चौदला. ख बप्पन्नहजाराथय. (१४५६००० ) ॥२५॥ ब जोयण सकोसे, गंगासिधूण विचरो मूले ॥ दसगुणि पचंते, श्य उगुणणेण सेसाणं ॥२६॥ शब्दार्थः-गंगा श्रने सिंधु नदीनो मूलमा विस्तार सवाब जोजन ले तथा मे तेथी दशगुणो (६२॥ जोजन) विस्तार ए प्रमाणे बीजी नदीयोनो तेथो वमणो विस्तार जाणवो. ॥२६॥ जोयणसयमुच्चिता, कणयमया सिहरिचुल्लदिमवंता॥ रूप्पिमदाहिमवंता, उसु उच्चा रूप्पकणयमया ॥२॥ शब्दार्थः-सुवर्णमय शिखरी अने लघुहिमवंत ए वे पतो एक सो योजन उंचा. रूपानो रूपार्वत अने सुवर्णनो महा हिमवंत पर्वत ए के बसो जोजन वंचा ॥२७॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) चत्तारि जोयण सए, नचिको निसढनीलवंतो य ॥ . निसढो तवणियमन, वेरुलिन नीलवंतो य ॥२॥ __ शब्दार्थ-नैषध अने नीलवंत ए बे पर्वतो चारसो जोजन ऊंचा बे. तेमां नैषध तपावेला सुवर्ण सरखो श्रने नोलवंत ली. ला रत्नना वर्ण सरखो . ॥ ७ ॥ सधेवि पचयरा, समयखीत्तंमि मंदरविहुणा ॥ धरणीतले मुवगाढा, उस्सेय चनब नायंमि ॥श्या शब्दार्थः-फक्त अढीबोपना मेरु विना काल अथवा क्षेत्र ए बेयने विषे सर्वे साश्वतापर्वत उंचपणाना चोथा नागे पृथ्वीमां उमा होय . ॥ २ए ॥ खंमाई गादाहिं, दसहिं दारेहिं जंबूझीवस्स ॥ संघयणी सम्मत्ता, रश्या हरिनदसूरिहिं ॥३०॥ ___ शब्दार्थः-खांमवादिकनी गाथाए करीने दश छारथी ह. रिजमसूरिये रचेली जंबूछोपनो संग्रहणी समाप्त थ३. ॥३०॥ - चैत्यवंदन भाष्य ॥ वंदित्तु वंदणिो , सधे चिश्वंदणाइसुविचारं ॥ बहवित्तिनासचुमी-सुयाणुसारेण वुन्नामि ॥१॥ • शब्दार्थः-वंदन करवा योग्य एवा सर्वे (पांच) परमेष्टीने वांदीने चैत्यवंदन, गुरुवंदन अने पञ्चखाणना उत्तम विचारने बहु वृत्ति, नाष्य अने चूर्णिरूप सूत्रना अनुसार ढुं कहोश.॥१॥ . चार गाथाथी श्व द्वार कहे जे. दहतिगअहिगम पणगं,उदिसितिहुग्गहतिदानवंदणया पणिवायनमुक्कारा, वरमा सोलसयसीयाला ॥२॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) शब्दार्थः १ नैषधिक आदि दशत्रिक, २ पांच निगम, ३ स्त्री पुरुषने जा रहेवानी में दिशा, ४ जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट त्रण अवग्रड्, ए त्रण प्रकारनुं चैत्यवंदन, ६ पांच अंगे प्रणि: पात, ७ नमस्कार, ८ नवकार प्रमुख नव सूत्रना सोलसोने सुमतालीश अक्षर -- ॥ २ ॥ इगसीइसयं तु पया, सगननइसंपयान पणदंगा ॥ बारदिगार चवं - दणिऊसर चिन्ह जिला ॥३॥ शब्दार्थः – वली ए नवकार प्रमुख नव सूत्रना एकसोने एकासी पद, १० ए नवसूत्रनो सत्ताणु संपदा, ११ नमुचयादि पांच , १२ बार अधिकार, १३ वांदवायोग्य, १४ शरपा करवा योग्य, १५ नामस्थापनादिक चार प्रकारना जिन ॥३॥ चरो धुइ निमित्त -- बारह देना सोल आगारा ॥ गुणबी सदोसजस्स--ग्गमाणधुत्तं च सगवेला ॥ ४ ॥ शब्दार्थः - १६ चार प्रकारनी स्तुति, १७ पापकपणादिक आठ निमित्त, १० फल साधवाना बार हेतु छाने १९ अपवादथी सोल श्रागार २० काउस्सग्गमां जंगणीश दोष, २१ कान लग्गनुं प्रमाण, १२ वीतरागनी स्तुति अनेश्३दररोज सातवखत चैत्यवंदन दसवसायणचान, सबै चिश्वंदणाई गणाई ॥ चनवीसवारेहिं, सहस्सा हुंति चनसयरा ॥ ५ ॥ शब्दार्थः - २४ देहेरामां चैत्यवंदन वखते तांबुल प्रमुख दश श्राशातनानो त्याग. श्रा उपर चारे गाथामां कहेला चोवीस द्वारे करीने सर्वे मली चैत्यवंदननां स्थानको बे हजार प्रने चुमोतेरथाय d. ॥ ५ ॥ हवे दश त्रिकनां नाम कहे डे. तिन्नि निसिदि तिन्निर्ज, पय: हिया तिन्नि चेत्र यपण मा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) तिविहा पूया य तहा, अबत्तियनावणं व ॥६॥ शब्दार्थः-१त्रण निसिही,श्त्रण प्रदक्षिणा श्रने ३त्रणप्र पाम, पत्रण प्रकारी पूजा, वली तेमज ५त्रण अवस्थानुं नाव तिदिसिनिरकणविरई, पयनूमिपमऊणं च तिस्कुत्तो॥ वन्नारतियं मुद्दा-तियं च तिविहं च पणिहाणं ॥७॥ शब्दार्थः-६त्रण दिशामा जोवानुं विरमण अने छत्रणवार पग मूकवानी नूमिर्नु प्रमार्जन, ज्वर्णादिकनु थालंबन, एवलोत्र ण मुसा अने १० त्रण प्रकारनु प्रणिधान. ए दशत्रिकनां नाम जाणवा. ॥७॥ त्रण निसिही कये कये ठेकाणे कहेवी ते कहे जे. घरजिणहरजिणपूआ--वावारच्चायन निसिदितिगं॥ अग्गद्दारे मो, तश्या चिश्वंदणासमये ॥७॥ शब्दार्थः-घर, जिनदिर अने जिनपूजाना व्यापारना त्यागथी त्रण निसिहि थायडे. तेमा प्रथम जिनमंदीरना आ. गला बारणामां, गन्नरामां अने चैत्यवंदनने अवसरे एम त्रण निसिहि साचववी.॥७॥ . हवे प्रणाम त्रिक कहेले. अंजलिबद्धो अझो-ण अपंचंग अतिपणामा॥ सवन वा तिवारं, सिराश्नमणे पणामतियं ॥५॥ ... शब्दार्थः-१अंजलीबल प्रणाम, श्श्रावनत प्रणाम,३ पंचांग प्रणाम एत्रण प्रणाम जाणवा. अथवा सर्व प्रणाम करवाने वखते त्रणवार मस्तक नमावq ए पण त्रण प्रणाम जाणवा. ए. हवे पूजा त्रिक कहेडे. अंगग्गनावनेया, पुष्फाहारथुइहिं पूयतिगं॥ पंचोलयारा अहो-वयारसावयारा वा ॥१०॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थः-पुष्प केशरादिके करिने अंगपूजा, फलादिमू. कवाथी अग्रपूजा अने स्तुतिथी नावपूजा एमत्रण जातनी पूजा थाय. अथवा पंचोपचार पूजा, अष्टोपचार पूजा ने सर्वोपचार पूजा ए पूजात्रिक थायले. ॥ १० ॥ - हवे अवस्था त्रिक कहेडे. नाविज अवतियं, पिंमतपयनरूवरहियत्तं ॥ बनमबकेवलित्तं, सिइत्तं चेव तस्सबो ॥११॥ शब्दार्थः-हे नव्यजीव! तुं नगवंतनी पिंमस्थादित्रण शव स्था जाव्य तेमां पिमस्थावस्थाने बद्मस्थावस्थाये, पदस्थावस्था ने केवलज्ञानावस्थाये अने रूपरहितावस्थाने सिझावस्थाये नाववी, एज निश्चे ते पिंस्थावस्थानो अर्थ ॥११॥ एत्रण अवस्था क्या नाववी तेनां नाम कहेले. एहवणचगेहिं बनम-वन पमिदारगर्दि केवलियं ॥ पलियं कुस्सग्गेहि य, जिणस्स नाविऊ सितं ॥१॥ शब्दार्थ:-जिनराजनीन्हवण, पखाल अने पूजाये करीने बनस्थावस्था नाववी; पाठ प्रातिहार्ये करीने केवली अवस्था जावधी अने पलोंठीवालीने काउस्सग्गने श्राकारे करी सिकावस्था नाववी. ॥१५॥ हवे ब दिशामां जोवाथी निवर्तवानुं त्रिक कहेले. जहादोतिरियाणं, तिदिसाणनिरकणं चश्माहवा ॥ पहिमदाहिणवामण, जिदामुहनदिहिजुन ॥१३॥ शब्दार्थ:-उंचे,नीचेशनेबाहुंधवढुंए त्रण दिशाए जोर्बु त्यजीदे अथवा पोतानी पागल, जमणीबाजु श्रने माबीबाज़ जो त्यजी दफक्त जनेश्वरनां मुखने विषे दृष्टि राखवी. १३ । हवे आलंबन अने मुश त्रिक कहे ........ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) वन्नतियं वनबा-खंबणमालंबणं तु पमिमाई॥ जोगजिणमुत्तिसुत्ती-मुद्दानेएणं मुद्दतियं ॥ १४ ॥ . शब्दार्थः-वर्णालंबन,अर्थालंबन, अने प्रतिमालंबन एत्रण वर्ण त्रिक जाणवा. तेमा प्रतिमादिक शब्दथीनाव अरिहंतादिनुं तथा स्थापनादिकनुं ग्रहण करवं. वलो योगमुसा, जिनमुखा अने मुक्तासुक्तिमुजा एवा मुजाना नेदथी मुमात्रिक जाणवू. ॥१४॥ प्रथम योगमुशनुं स्वरूप कहे . अनमंतरिअंगुलि-कोसागारेदि दोहिं हहिं ॥ पिहोवरि कुप्परिसं-ठिएहिं तह जोगमुद्दति ॥१५॥ शब्दार्थः-परस्पर बन्नेहाथनी दस यांगुली अंतरित करेला कमलना मोजाना आकारवाला तेमज पेटनो उपर बने कोणोर्ड मूकेली एवा बे हाथ करीने रहे. ते जोगमुसा कहेवाय जे. १५ हवे जिनमुशनुं लदण कहे . चत्तारि अंगुलाई, पुर कणाइं जब पचिमन॥ पायाणं उस्सग्गो, एसा पुण दोश जिणमुदा ॥१६॥ शब्दार्थः--वली जेमां पगना श्रागला पहेंचाने परस्पर चार श्रांगलनो श्रांतरो राखीने अने पाठली पानीनी वाजुनो कांश उडो श्रांतरो राखीने जे कानस्सग्ग करवो ए जिनमुखा होय. शांगलातरो राखीने जता शुक्ति मुशा का नआ दबा मुत्तासुत्तीमुद्दा, जब सुमा दोवि गन्निा दबा ॥ ते पुण निलामदेसे, लग्गा अन्ने अलग्गति ॥१७॥ शब्दार्थः-जेमा बन्ने पण दाथ सरखी रीते गर्जित राखीथ ने ते बन्ने हाथ ललाटना मध्ये लगाड्या होय (अहिं को याचा यने मते) न लगाउया होय तोपण मुक्ताशुक्तिमुना कहेवाय . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( एस ) ed as मुड़ाये कई क्रिया करवी ते कहे बे. पंचगो पणिवान, थयपाठो होइ जोगमुद्दाए ॥ वंदण जिणमुद्दाए, पणिहाणं मुत्तिमुद्दाए ॥१८॥ शब्दार्थः -- जोगमुद्राये करीने पंचांग प्रणिपात अने स्तवपाठ थायडे; जिन मुद्राये वंदन ने मुक्ताशुक्तिमुद्राये प्रणिधान यायले. वे धात्रक स्वरूप कहे बे. पणिहाणतिगं चेश्य -- मुणिवंदण पचणासरूवं वा ॥ मयवयकाएगत्तं, सेसतियन्तो न पयडुत्ति ॥ १९ ॥ शब्दार्थः - चैत्यवंदन, मुनिबंदन अने प्रार्थनास्वरूप ए त्रण प्रणिधानत्रिक जाणवुं श्रथवा मन, वचन अनें कायानुं एकाप करते पण प्रणिधानत्रिक कहेवाय. बाकी बीजा अने सातमा त्रिनार्थ तो प्रगटज बे. ॥१८॥ हवे बीजुं पांच प्रकारनं निगमद्वार कहे . सचित्तदवमुकण - मचित्त मणुजणं मणेगत्तं ॥ एगसामिउत्तरासं - ग अंजलि सिरसि जिदिट्ठे २० शब्दार्थः – १ सचित्त द्रव्यनो त्याग, २ अचित्त वस्तुने न तजवानी अनुज्ञा, ३ मननुं एकाग्रपएं, ४ एकसामी उत्तरासंग छाने जिनेश्वरनां दर्शन थये माथा नपर अंजलि जोगवी. ए पांच निगम जाणवा. ॥ २० ॥ इय पंचविदा निगमों, हवा मुच्चंति रायचिन्दाई ॥ खग्गं बत्तोवाणद, मजरं चमरे अ पंचमए ॥ २२ ॥ शब्दार्थः – ए पूर्वे कला पांच प्रकारना अभिगम देवगुरु पासे यावता साचावा. अथवा राजचिन्ह त्यजी देवां. ते राजचि.. न्ह श्राप्रमाणे. १खङ्ग, श्वत्र, इमोजी, प्रमुकुट, अने एचामर. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) हवे वे दिसितुं त्री ने त्रण अवग्रहनुं चोयुं द्वार कहे बे. वंदंति जिणे दाहिए - दिसि हि पुरिस वामदिसि नारी नवकरजदन्नु सठि -- कर जिह मजग्गदो सेसो ॥२२॥ शब्दार्थः - जिनेश्वरनी दक्षिण दिशा एटले जमली बाजुये खजा रही ने पुरुषो वंदना करे अने वामदिशा एटले माबी वाजुए जा रही ने स्त्रीयो वंदना करे. प्रजुथी नवद्दाथ दूर रहेवाथी ज धन्य, साठ हाथ रहेवाथी उत्कृष्ट अनें नव तथा साउनी अंदर नजा रहेवाची मध्यम श्रवग्रह याय बे. ॥ २२ ॥ हवे चैत्यवंदन करवानुं पांच द्वार कहे . नमुक्कारेण जहन्ना, चिश्वंदण मद्य दंमथुइजुला ॥ पणदंरु थुइचक्कग--थय पणिदाणेदिं उक्कासा ॥२३॥ • शब्दार्थ:-- नवकार बोली नमस्कार करवाथी जघन्य, अरि इंत चेइयां युगल तथा चार स्तुति बोली नमस्कार करवाथी मध्यमाने पांच नमुनुरूप दंग तथा श्राव स्तुतिनां स्तवन नेत्रप्रणिधाने करने उत्कृष्ट चैत्यवंदना जाणवी ॥२३॥ न्ने बिंति गेणं, सन्चएणं जदन्नवंदणया ॥ तुगतिगेण मना, नकोसा चनहिं पंचदिं वा ॥२४॥ शब्दार्थः--केटलाक श्राचार्यों एम कहेबे के, एकवार नमुचुणं बो लवाथी जघन्य, बे अथवा त्रणवार नमुचुशं बोलवाथी मध्यम धने चार अथवा पांचवार नमुहु बोलवाथी नत्कृष्ट चैत्यवंदन थापडे. वे बहुं प्रणिपात तथा सातमुं नमस्कार द्वार कहे बे. पंचगो पणिवान, दोजाणू करडुगुत्तमंगं च ॥ सुमदनमुकारा, इग डुग तिग जाव असयं ॥ २७५॥ शब्दार्थ:- ढीच वे हाथ छाने मस्तक ए पांच अंग पृ ने काम नमस्कार करवा ते पंचांग प्रणिपात कड़ेवाय. ते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) मज एक, बे, प्रणथी मांझी एकसो बाउ नवकार कहेवा ते नमः स्कार कहेवायः॥ २५ ॥ हवे अदर, पद अने संपदानी संख्याना त्रणद्वार एकग कहे . अमसहि अध्वीसा, नवनज्यसयं च दुसयसगनलया। दोगुणतिस दुसघा, दुसोलअमनग्यसयदुवन्नसय २६ शब्दार्थः१ नवकारनां अडसर,श्यामि खमासमणनां म कावीश, ३रिया वहियानां एकसोने नवाएं, धनमुखुणना बसोने सत्ताएं,५अरिहंत चेश्याणंनां बसो नगणत्रीस,६खोगस्तनांव. सोने साठ, पुस्करवरदीनां बसोने सोल, सिकाणं बुझाएंना एफसो अगएं, ए जावंति चेश्याई, जावंति के विसाहु अने जयवि यराय ए पानां एकसो बावन अक्षर .सर्व मनी १६४७ थायजे. श्त्र नवकारखमासण-शरियसकाआश्दंमेसु॥ पणिहाणेसु अ अदुस-तवन्नसोलसयसीयाला २७ __ शब्दार्थ:-ए प्रमाणे नवकार, खमामसण, इरियावहि, शक स्तवादि दंगमां ने प्रणिधानमां एम सर्व ममी फक्त एकवार नुच्चार करेला थकरो सोलसोने सुमताली थाय ॥२७॥ नवबत्तीसतित्तीसा, तिचतअमवीससोलवीसपया ॥ मंगलरियासक-याश्सु गसीइसयं तु पदा॥श्न॥ शब्दार्थः--नवकार, इरियावहि अने नमुबुणादि सात पदमां नव, वत्रीश, तेत्रीश, तेंतालीश, अहावीश, सोख अने वीश एट सां पदो होय जे. सर्वे मलीने एकसो एकाशी पद थाय ॥२०॥ अ नव हय अ-वीस सोलस य वीस वीसामा॥ कमसो मंगलरिया--सक्कबयाईसु सगनकई ॥३॥ शब्दार्थः-नवकार, इरियावहि अने नमुछुपादिक सात सूत्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) मां अनुक्रमे थाउ, आठ, नव, श्राउ,अहावीस, सोल थने वीश . एटला विसामा एटले संपदा होय जे. सर्वमलोने सत्ताणुं थाय. ; तेज वातने फरीथी कहे . वामसहि नवपय, नवकारे अहसंपया तब ॥ . सयसंपय पयतुल्ला, सत्तरकरअहमी दुपया ॥३०॥ . शब्दार्थः-नवकारमां अमस अक्षर, नव पद तथा श्राप संपदा होय जे. तेमां सात संपदा तो सात पदनी ले. अने सत्तर अकरनी थामी संपदा हा बे पदनी बे.॥३०॥ . पणिवायअकराई, अहावीसं तहा य शरियाए ॥ नवनयमकरसयं, दुतीसपय संपया अठ ॥ ३१ ॥ शब्दार्थः-इछामिखमासमणनां श्रदर असावीश तेमज रियावहिनां एकसोनवाणुं श्रदर, बत्रीशपद अने पाठ संपदा डे. दुगदुगगनगपण-गारगरियसंपयादिपया॥ श्वाशरिगमपाणा-जेमेएगिदिअनितस्त ॥ ३२ ॥ शब्दार्थः-इरियावहिनी श्राव संपदाना अनुक्रमे बे, बे, एक चार. एक, पांच, अगीयार अने एटलां पदो जागवां अने था. दि पद तो चामि, शरियाव दियाए, गमणागमणे, पाणकमणे, जे में जीवा. एगिदिया, अनिहया अने तस्सनतरी ए बाउ जाणवा. हवे इरियावहिनां आठ संपदानां नाम कहे बे. अप्नुवगमो, निमित्तं, उदेअरहेतुसंगहे पंच ॥ ४ जीवविराहणपमि-कमणनेयन तिनि चूलाए ३३ शब्दार्थः-अन्युपगम, निमित्त, उघ, इतरहेतु अने पांचमी संग्रह वली जीव, विराधना श्रने प्रतिक्रमण एवा जेदथी इरियावहिनी पाठ संपदा डे तेमा प्रथमन। पाच मूलसंपदा अने पाबलनत्रण चूलिकासंपदा जाणवी. ॥ ३३ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे नमुत्थुणंना प्रत्येक संपदाना पदनी संख्या तथा आदिपद कहे डे. दुतिचनपणपणपणदुच-उतिपदसकलयसंपयाश्पया॥ नमुआगपुरिसोलो-गअनयधम्मप्पजिणसवं ॥३४॥ शब्दार्थः--नमुबुणंनी नवसंपदामां अनुक्रमे बेत्रण चार, पांच, पांच पांच, बे, चार अने त्रण एटला पदनी संख्या होय. वे. तेमां दरेकनुं श्रादि पद, नमुबुणं, वागराणं, पुरिसुत्तमाएं, लोगुत्तमाएं, अन्नयदयाणं, धम्मदयाणं, अप्पमिहयवरनाण. जि. पाणं, सम्वनूणं, सव्वदरिलिणं ए जाणवां. ॥ ३४ ॥ हवे नमुत्थुणनी नव संपदाना नाम कहे जे. थोअवसंपया उद-इयरहेळवगतछेऊ ॥ सविसेसुवउगसरूव-हेक नियसमफल मुखे ॥३५॥ शब्दार्थः-स्तोतव्य संपदा, सामान्य हेतु संपदा, विशेष हेतु संपदा, उपयोग संपदा, तदहेतु संपदा, सविशेषनपयोगहेतु संपदा, स्वरूपहेतुसंपदा, निजसमफलदसंपदा अने मोक्षसंपदा, ए नमुत्थुणंनी नव संपदानां नाम कह्यां. ॥ ३५ ॥ . हवे नमुत्थुणनां अदर, संपदा अने पदनी सर्व संख्या कहे . दोसगनका वरमा, नवसंपय पयतित्तीस सक्कथए । चेश्यययसंपय, तिचत्तपय वामदुसयगुणतीसा ३६ शब्दार्थः-नमुत्थुणमां सर्व मली बसोने सत्ताणुं अकर, नव संपदा अने तेत्रीस पद जाणवा-वली अरिहंतचेश्याणंमां सर्व मली आउ संपदा, तालीश पद श्रने बसोने उंगणत्रीसकर जाणवा. चैत्यस्तव (अरिहंत चेश्याणंनी) संपदाना पदनी संख्या तथा आदि पद कहे जे. दुसगनवतियबचन-उप्पयचिश्संपयापया पढमा ॥ . अरिवंदणसिघा-अन्नसुहुमएवजाताव ॥ ३७॥ .... .. शब्दार्थः-श्राव संपदामा अनुक्रमे पहेलेथो वे उ सात, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) नव; त्रण, उ चार धने व एटलां पदो होय . तेमज तेनां अरिहंत वेश्याएं, वंदण बत्तियाए, सद्धाए, अन्नत्थ उसलिएणं, सुमेहिं अंग संचालेहिं, एवमाइएहिं जाव अरिहंताणं अने तावकार्य. ए नत्र आदि पदो जावां ॥ ३७ ॥ ed चैत्यस्वनी संपदानां नाम कहे . अवगमो निमित्तं, देनइगबहुवयंत प्रागारा || आगंतुमयागारा, नस्सग्गावहिसरूव ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ:-- धन्युपगम संपदा, निमित्त संपदा, हेतु संपदा, एक वचनांत आगार संपदा, बहु वचनांत आगार संपदा, श्रागंतुक प्रोगार संपदा, कायोत्सर्गावधि संपदा ने रूप संपदा ए अरिहंत चेश्यानी आठ संपदान जाणवी ॥ ३८ ॥ ed araaranai पद विगेरेनी संख्या कहे बे. नामथया इस संपय--पयसम मवीस सोलवीस कम प्रदुरुत्तवस दोस- दुसय सोलह न सयं ॥ ३९॥ शब्दार्थः - नामस्तवां दिकने विषे पद समान अठावीस, सोल छाने वीस अनुक्रमे संपदा जाणवी. तेमज बीजीवार नहि उचरेला रो बसो साठ, बसो सोल ने एकसो श्राएं छा नुक्रमे जावा. ॥ ३९ ॥ परिणदाण दुवन्नसयं, कमेण सगति चडवीस तित्तीसा॥ गुणतीस वीसा, चडती सिगतीस बार गुरुवमा ४० शब्दार्थ:-- प्रणिधान सूत्रमां एकसो बावन अक्षरो जाणवा. दवे नवकारमां सात. खमासमणमां त्रण, इरियावद्दिमां चोवीस, नमुमां त्रीस, अरिहंत चेश्यामां जंगलरात्रीस, लोगस्स मां १ लोगस्स, पुरकरवरदी ने साबुदाणं. जावंति आई, जावंत के विसाहु ने व्याजनमखका संधी जय बीयराय. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहावीश, पुस्करवरमां चोत्रीस, सिद्धार्थमा एकत्रीस अने प्रशि धान त्रणमां बार गुरु अक्षर जाणवा. ॥४०॥ हवे पांच दमनुं अने तेने विषे देव वांदवाना बार अधिकारनुं ११-१२ मुं द्वार कहे जे. पणदंमा सकबय, चेश्य नामसुअ सिष्यश्च ॥ दो ग दोदो पंच य, अदिगारा बारस कमेण ॥४१॥ शब्दार्थः-शक्रस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्रुतस्तव अने सिद्धस्तव ए पांच दंग . तेमांबे, एक, बे, बे अने पांच एम श्र. नुक्रमे सर्व मलीने बार अधिकार .॥४१॥ हवे ए बार अधिकारनां प्रथम पद कहे . नमु जेश्थ अरिहं, लोग सब पुरक तम सिह जोदेवा। धिं चत्ता वैआ, वच्चग अहिगार पढमपया ॥४॥ शब्दार्थः-नमुत्थुणं, जे अश्या, अरिहंतचेश्याएं, लोगस्स, सव्वलोए, पुस्करवर, तमतिमिर,सिक्षाएं बुजाणं, जो देवा नचिंत. चत्तारि थर,वेयावच्चगराणं, ए बारश्रधिकारनांप्रथमपद जाणवा. हवे कया अधिकारे कोने वांदवा ते कहे बे. पढम अदिगारे वंदे, नावजिणे बीयएन दवजिणे ॥ गचश्य ठवणजिणे, तश्य चमि नामजिणे ४३ शब्दार्थ:-प्रथम पदना अधिकारमा नाव जिनने, बीजाश्र धिकारमा व्यजिनने, त्रीजा अधिकारमा एक चैत्य स्थापना जिनने अने चोथा अधिकारमा नाम जिनने वांमु.॥४३॥ तिहुअणध्वणजिणे पुण, पंचमए विहरमान जिण। सत्तमए सुयनाणं, अहमए सब सिह थुई ॥४४॥ शब्दार्थः-वली पांचमा अधिकारमांत्रण जुवनना स्थापना (जनने, म प्रधिकारमा विचरता जिनने, सातमा अधिकारमा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) श्रुतज्ञानने प्रामाधिकारमां सर्व सिद्धनी स्तुति जापवी. तिचादिव वीर, नवमे दसमे य उद्ययंत थुई || हवाइ इगदिसि, सुदिठि सुरसमा चरिमे ॥४८॥ शब्दार्थः - नवमा अधिकारमां तीर्थपति श्री वीर प्रजुनी स्तुति ने दशमा अधिकारमां रेवताचलनी स्तुति जाणवी. तथा गीयारमा अधिकारमां अष्टापदादिकनो अने बेला अधि कारमा सुदृष्टि देवताना स्मरणरूप स्तुति जाणवी. ॥४५॥ नव दिगारा इह ललि विश्वरा वित्तियइ अणुसारा तिमि सुयपरंपरया, बायन दसमो इगारसमो ॥४६॥ शब्दार्थ - ए बार अधिकारमां १-३-४-५-६-७-८-७-१२- ए नव अधिकार ललित विस्तार नामना जाप्यनी वृत्ति श्रादिना अनु सारे जाणवा ने २-१०-११. ए त्रण श्रुतनी परंपराथी जाणवा. आवस्य चुलीए, जं नणियं सेसया जहिचाए ॥ ते जयंता वि, हिगारा सुयमया चैव ॥ ४ ॥ शब्दार्थः – जेम श्रावश्यक सूत्रनी चूर्णने विषे कयुं बे तेवितादि रोष अधिकार इच्छा प्रमाणे जाणवा. ते कारण माटे नचित सेल इत्यादिक गाथाथी पण ते सर्व अधिकार निश्वेश्रुत - मय जाणवा• ॥ ४७ ॥ बी सुयचयाइ, अन्न वन्न तहिं चेव ॥ सकते पढिन, दवारिदवसरि पयमचो ॥ ४८ ॥ शब्दार्थः - बीजो श्रुतस्तवादि अधिकार अर्थथ श्रुतस्तवमां वर्णव्यो बे. वली शक्रस्तवना ते जे कहेलो बे ते द्रव्य अरिहंतमे वांदवाना अक्सरे प्रगट अर्थपणे जाणवो ॥ ४८ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) असढाइन्नणवडी, गीअब अवारिति मजाबा ॥ आयरणावि हु आण, ति वयण सु बहु मन्नंतिए शब्दार्थः-“पापरहित अने गोतार्थोए नहि वापरेला एका मध्यस्थ पंमित गीतार्थ पुरुषोए करेली श्राचरणा पण निश्चे न गवंतनी श्राज्ञा जाणवी.” एवां वचनथी जला पुरुषो ते आच. रणने बहु माने जे. ॥४ए ॥ हवे चार वांदवा योग्य- १३-२४-२५ मुं झार कहे . चन वंदणिक जिणमुणि,सुयसिक्षा इह सुरा सरणिका चनह जिणा नाम उवण, दवनावजिण नेएणं ५० शब्दार्थः-जिन, मुनि श्रुत अने सिक चार वांदवा योग्य बे अने ए जिनशासनना अधिष्टायक सम्यक् दृष्टि देवता स्मरण करवा योग्य . वली नाम, स्थापना, जय श्रने नाव एवा जि. नना लेदे करीने जिनेश्वरना चार नेद . ॥ ७ ॥ हवे ए चार प्रकारना जिननुं स्वरूप चार निदेपाथी कहे . नामजिणा जिणनामा,ठवणजिणा पुण जिणंदपमिमान दवजिणा जिणजीवा, नावजिणा समवसरणबा ५१ शब्दार्थः -जिनेश्वरनां नाम ते नामजिन, जिनेश्वरनीप्रति मा ते स्थापनाजिन, जिन नामकर्म बांधनारा जीवो जव्यजीन अने समवसरणमां विराजित थयेला नावजिन जाणवा. ५१ हवे चार स्तुतितुं १६ मुं द्वार कहे . अदिगयजिण पढमथुई, बीया सवाणतश्य नाणस्स। बेयावश्च गराण उ, नवनगडं चनबथुई॥॥ . शब्दार्थः-रूपन्नादि मुख्य श्रादरेला जिनेश्वरनी प्रथम स्तुति, सर्व जिनेश्चरोनी बोजी स्तुति, ज्ञाननी त्रीजी स्तुति अने शासननी यावच्च करनारा सम्यक् दृष्टि देवोनी उपयोग Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थे चोथी स्तुति जाणवी. ॥ ५ ॥ हवे आठ निमित्तनुं १७ द्वार कहे . पावखवणब रियार, वंदणवत्तिा निमित्ता॥ पघयणसुरसरणबं, उसग्गो श्अ निमित्त ॥ ५३॥ शब्दार्थः-पाप खपाववाने अर्थे शरियावहिया पमिकमवीए प्रथम निमित्त, वंदणवत्तियादि निमित्त अने प्रवचनना देवता ना स्मरणने अर्थे कायोत्सर्ग ए सर्व मलीने आठ निमित्त थया. हवे बार हेतुनुं १० मुं द्वार कहे ले. चन तस्स उत्तरीकरण--पमुह सहाश्ा य पण हेन॥ वेयावच्चगरतार, तिन्नि श्अ देन बारसग्गं ॥५४॥ शब्दार्थः-ते पापनो नाश करवा माटे उतरीकरण विगेरे चार जे अने श्रमादिक हेतु पांच . वली वैयावच्चगराणं इत्यादि त्रण हेतु . ए सर्व मली बार हेतु चैत्यवंदनमां थाय बे.॥५॥ हवे सोल आगार- १ए मुं द्वार कहे जे. अन्नत्या बारस, आगरा एवमाश्या चनरो॥ अगणिपणिदि बिंदण, बोदी खोनाइ मकोय ॥५॥ शब्दार्थः-अन्नवादि बार आगार अने एवमादिक चार आगार ते चारमा १ *अग्निनो, २पंचेंजिलेदन, ३ बोधि दोनादिक अने ४ सर्पखंम विगेरे जाणवा. ॥ ५५ ॥ हवे कानसग्गमा त्यजी देवा योग्य १ए दोषनां नामर्नु २० मुं द्वार कहे . घोमगलय खंजाई, मालुचीनिअल सबरिखलिणवहू॥ खंबुत्तर थणसंजय, नमुहंगुलि वायस कवि ॥५॥ शब्दार्थ-अश्व, लता, स्तंज, माल, उधि नियल, शवरि, ...* अमिना जयथी, पंचेंड्रियना बेदनना जयथी, धर्मनी हेलनाथी अने सर्पशना जयथी भूमीने पूंजतो आयो खसे तो कायात्सर्ग लागे नहि... Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) खलिण, वधूः लंबूत्तर, स्तन, संयति, जमुहंगुली, वायस अने को दोष. ॥ ५६ ॥ सिरकंप मूअ वारुणि, पेहत्ति चइज दोस उस्सग्गे ॥ दंबूत्तर थण संज, नदोस समणीण सवहुसढीणं शब्दार्थः-शिरकंप, मूक, मदीरा ने प्रेष्य ए नगणीस दोष कायोत्सर्गमां त्यजी देवा; पण लंबूत्तर, स्तन अने संयति एत्रण दोष साध्वीने न होय. वली वधु दोष सहित नपर कहेला त्रय दोष अर्थात् चारे दोष श्राविकाने न होय, ॥ ॥ - हवे कानस्सग्गना प्रमाण- २१ मु तथा स्तवन- २२ मुं द्वार कहे बे. शरिउस्सग्गपमाणं, पणवीसुस्सास अ6 सेसेसु ॥ गंजीर महरसइं, महबजुत्तं दवइ थुत्तं ॥॥ ____ शब्दार्थः-इरियाव हिना काउस्लग्गनुं प्रमाण पच्चीश श्चा सोश्वासनुं जाणवू, बाकीना कानस्सग्गनुं श्राठ श्वासोश्वासनुं प्रमाण जाणवू. वली मेघनी पेठे गनीर, मधुर शब्दवासा तेम ज महा अर्थवाला प्रजुनां स्तवनो होय . ॥ ५ ॥ ___ हवे एक दिवसमां चैत्यवंदन करवानुं ५३ मुं द्वार कहे . पमिकमणेचेश्यजिमण, चरिमपमिकमणसुअणपमिबोदे चिश्वंदण श्अ जश्णो, सत्तजवेला अहोरत्ते ॥५॥ शब्दार्थः-प्रन्नातना पमिकमण वखते, देहरे जोजन वखते, जोजन करया पडी, सांजना पमिकमण वखते सूति वखते, पा उसी रात्रीये जाग्या पडी. एम रात्री दिवस मली साधुने सात वखते चैत्यवंदन करवू. ॥ एए ॥ . पमिकमिन गिदिणोवि हु, सग्गवेला पंचवेवश्अरस्त। पूआसु तिसंकासु अ, होश तिवेला जहन्नणं ॥६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ--पमिकमण करता एवा गृहस्थने पण सात वखत . अने न करनाराने पांच वखत चैत्यवंदन कर. वली जघन्यथी तोत्रणे संध्याये पूजाना अवसरे त्रण वखत चैत्यवंदन करवू. हवे आशातनानां नाम, २४ मुं द्वार कहे जे. तंबोल पाण जोयण, वाहण मेडम सुअणनिष्ठ्वणं॥ मुत्तुचारं जुधे, वजे जिणनाद ऊगईए ॥ ६ ॥ शब्दार्थः--तंबोल खावं, पाणी पावं, जोजन करवू, जोमा पहेरवा, कामचेष्टा करवी, शयन करवं, थुकवू लघुनीति करवी, वमीनीति करवी अने जूवटुं रमवू, ए दश आशातना जिनमें दिरमां त्यजवी. ॥ ६१ ॥ हवे देव वांदवानो विधि कहे . इरि नमुक्कार नमुत्रुण, अरिहंत थुई लोग सच थुई पुरक थुइ सिहा वेा थुइ, नमुन जावंति थय जयवी६२ ... शब्दार्थः-इरियावहि, नवकार,नमुत्थुणं, अरिहंत चेश्याणं, कही एक स्तुति कहेवी. पबी लोगस्त, सवलोए कहो स्तुति कहेवी. पनी पुरकरवर अने स्तुति कदेवी. पर सिसाणं बुझाणं, वेयावच्चगराणं श्रने स्तुति कहेवी. पो नमुत्थुरा, जावंतिचेश्या इंधने स्तुति कहीने जेवट जयवीयराय पूर्ण कदेवा. ॥ ६॥ . हवे समाप्त करता बता फल कहे . .. सबोवादिविसुई, एवं जो वंदए सया देवे॥ देविंदविंदमहिअं, परमपयं पाव लहुसो ॥ ६३ ॥ :... शब्दार्थः–पा प्रमाणे सर्व नपाधिया रहित एवो जे माणस निरंतर रिहंत देवनी वंदना करे ले ते सोना समूहे पूजेलां परमपदने तुरत पामे . ॥३॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) गुरुवंदन भाष्य. हृबे वे गाथाथी त्रण प्रकारना गुरुवंदननां नाम अन मा प्रका रनां वंदननुं स्वरूप कहे . गुरुवंदण मद तिविदं, तं फिट्टा थोज बारसावत्तं ॥ सिर नमणाइसु पढमं, पुमं खमासमण दुगि बी ॥ १ ॥ शब्दार्थः - हवे गुरुवंदन त्रण त्रकारे बे. ते फेटा वंदन, यो वंदन ने द्वादशावर्त्त वंदन. तेमां मस्तकने नमाववादिकथी पहेलुं ने बेखमासमण देवाथो बोनुं वंदन थाय दे ॥१॥ जद दूर्ज रायाणं, नमिनं करूं निवेशनं पचा ॥ वीस जिन वि वंद, गइ एमेव इदुगं ॥२॥ शब्दार्थ:-- जेम दूत प्रथम राजाने नमस्कार करीने पी कार्य निवेदन करे बे घने राजाए रजा आपवाथी ते दूत फरीने नमस्कार करी जायढे तेम था देववंदनमां पण बेवार वंदना जाणवी. हवे वंदन करवानुं कारण कहे बे. आयरस्सन मूलं, विपणन सो गुणवन अ पविती ॥ साय विविंदान, विही इमो बारसावत्ते ॥ ३ ॥ शब्दार्थः - श्राचारनुं मूल विनय बे ने ते विनय गुणवंती सेवा रूप जाणवो. वली ते सेवा विधिवंदनाथी थाय छे. ते विधि | आगल द्वादशावर्त्त वंदनने विषे कड़ेशे ॥ ३ ॥ वे बीजं द्वादशावर्त्त वंदन कड़े छे. . तयं तु सण दुगे, तचमिदो आइमं सयलसंघे ॥ बीयं तु दंसणीण य, पर्यायां च तज्ञ्यं तु ॥४॥ शब्दार्थः — त्रीजुं द्वादशावर्त्त वंदन तो बे वांदथां देवाथी माय े. ते पूर्वे कला त्रण वंदनमां पहेलुं फेटावंदन चतुर्विध Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) संधे परस्पर तेवा तेवा अवसरे करी शकाय छाने बीजं योजवदन गुणवंत मुनिने कराय अने श्रीजुं द्वादशावर्त्त वंदन तो आचार्य पदने विषे रहेला मुनिने कराय. ॥ ४ ॥ वे एवंदानां पांच नाम कहे डे.. वंदन (चइ किइकम्मं, पूञ्प्राकम्मं च विणय कम्मं च ॥ कायां कस्स व के- वावि काहेव कइकुत्तो ॥ ५॥ शब्दार्थः वंदन कर्म, चित्तिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म विनयकर्म. ए पांच प्रकारे वंदन करवुं ते कोने ? अने कोणे करवुं ? वली क्यारे ने केटलीवार ? ॥ ५ ॥ कइनणयं कइसिरं, कइहि व च्यवस्सएहिं परिसुद्धं ॥ कइदोस विप्पमुक्कं, किइकम्मं कीस कीरईवा ॥ ६ ॥ शब्दार्थः - केटली वार नमनुं ? केटलीवार मस्तक नमावयुं ? वली केटला घ्यावश्यके करी शुद्ध यतुं ? केटला दोषथी मुक्त य ? छाने कृतिकर्म शा माटे कर ? ॥ ६ ॥ हवे त्रण गाथाथी वंदाना बावीस द्वार कहे बे. पणनाम पणादरणा, खजुग्गपण जुग्गपण चनप्रदाया • चउदाय पण निसेहा, चनप्रणिसेह व कारणया ॥७॥ शब्दार्थः-१ वंदणाना पांच नाम, २ पांच उदाहरण, ३ पासवादि पांच अयोग्य, ४ श्राचार्यादि पांच योग्य, ए चार वांदणा देवराववाने योग्य, ६ चार देवराववाने योग्य, ७ पांच स्नान के वांदणानो निषेध, ८ चार स्थानके वांदणानो निषेध, ए वांदणानां आठ कारण ॥ ७ ॥ च्यवस्सय मुद्रांतय, तणुपेद पणिस दोस बत्तीसा ॥ गुणगुरुवण डुग्गह, उबवी सरकर गुरुपणीसा॥ ८ ॥ शब्दार्थ:-- १० आवश्यक, ११ मुड्पत्तिनी मिलेगा, १२ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १) शरीरनी पमिलेदणा, एत्रण पञ्चीश पच्चीश करवा. १३ वत्रीस दोषनो निषेध, १५ ब गुणर्नु उपज, १५ गुरु स्थापना, १६ बे अवग्रह अने १७ बसो बबीस अक्षरमां पच्चीस गुरु वर्ण-III पय अमवन्न ठाणा, गुरुवयणा आसायणतित्तीसं उविदि वीसदारेदिं, चनसया बाणनशहाणा ॥॥ शब्दार्थः-१० अगवन पद, १ए उ स्थानक, २० गुरुवचन, २१ तेत्रीस याशातना अने २२ बे प्रकारनो विधि. ए सर्व मलीने चारसो बाणुं स्थानक .॥ ए॥ ___ हवे पांच नाम, १ द्वार कहे . वंदणयं चिश्कम्म, किश्कम्मं विणयकम्मपूअकम्म। गुरुवंदणपणनामा, दवे नावे उदोहेणं ॥१०॥ ... शब्दार्थः-१ वंदनकर्म, चितिकर्म, ३कृतिकर्म, ४ पूजा कर्म अने ५ विनयकर्म. गुरुवंदननांथा पांच नाम, अव्य अनेना ब एम बे प्रकारना सामान्यथी जाणवा. ॥ १० ॥छा.१ हवे पांच दृष्टांतनुं । जुं द्वार कहे बे. सीयलय कुडुए वी-र कन्द सेवगड पालए संबे॥ पंचे ए दिता, किश्कम्मे दवन्नावहिं॥११॥ . शब्दार्थः-वंदनकर्म उपर शोतलाचार्यनो, चितिकर्म उपर कुलकाचार्यनो, कृतिकर्म उपर वीरा शालवीनो श्रने कुष्णनो, पूजाकर्म नपर राजाना बे सेवकनोश्रने विनयकर्म उपर पालक तथा शांबनो दृष्टांत जाणवो. या पांच दृष्टांत कृतिकर्म उपर अव्य अने नावथी जगवा.॥११ ॥छा. __ हवे पांच न वांदवा योग्यतुं ३ जुं द्वार कहे . पासबो उसन्नो, कुसील संसत अदाबंदो॥ उग गतिजगणेगविदा, अवंदणिजा जिणमयंमिर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) शब्दार्थ:- पासो, नसन्नो, कुसीलीयो, संसक्तो धने यथा बंदो ए पांचना अनुक्रमे बे, बे, त्रण, वे छाने अनेक ने दो बे. जिन मतमां ते पांच वंदनीय जाणवा. ॥१२ ॥ द्वा. ३ वे पांच वांदवाने योग्यनुं ४ थुं द्वार कहे बे. आयरिय नवनाए, पवत्तियेरे तहेव रायलिऐ ॥ किश्कम्मनिजरठा, काय मिमेसि पंचन्दं ॥ १३ ॥ शब्दार्थः- आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर अने तेमज रत्नाधिप. निर्जराने अर्थे ए पांचेने कृतिकर्म वंदन कर. हवे चार पासे वंदा न कराववी ने चार पासे कराववी तेनुं ५-६ द्वार कहे . माय पिचा जिनाया, अनमावि तदेव सब राय लिए । किइक़म्म न कारिका, चनसमलाई कुणंति पुष्णो १४ शब्दार्थः - माता, पिता, म्होटो नाइ तेमज वयथी न्हाना पण ज्ञानादिकथ मोटा. ए चार पासे वादणां देवराववानुं न क खुं वल चार श्रमण वांदा आपे ॥ १४ ॥ द्वा. ५-६ हवे पांच स्थाने वांदणा न देवानुं 9 मुं द्वार कहे . विकित परादुत्ते, पत्ते मा कयाइ वंदिता ॥ दारं नीहारं, कुणमाणे कान कामे ॥ १५॥ शब्दार्थ :- गुरु व्यग्र चित्तवाला, बीजी बाजु मुख करी बेठे ला, क्रोधवासा अथवा सूतेला, तेमज श्राहार अने नीहार करता होय अथवा करवानी इछा करता होय तो न वांदवा ॥ १५ ॥ हवे चार स्थानके वांदणा देवानुं मुं द्वार शहे बे. (अनुष्टुप् वृत्तम् ) पसंते यासाचे अ, नवसंते नवठिए । १ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) प्रणुन्नवि तु मेहावी, किकम्मं पाइ ॥ १६ ॥ शब्दार्थः - शांत चित्तवाला, आसन नपर बेठेला, क्रोधादि दित ने बंदे इत्यादि कहेवा तैयार होय एवा गुरुने बुद्धिमान पुरुषो यज्ञा मागवा पूर्वक बंदला करवी ॥ १६ ॥ ८०० कारणे वांदणा देवानुं ए मुं द्वार कहे . • पक्किम्म सकाए, काउस्सग्गे वराद पाहुणए ॥ आलोयण संवरणे, उत्तमठे य वंदणयं ॥ १७ ॥ शब्दार्थः - प्रतिक्रमणमां, स्वाध्यायमां, कायोत्सर्गमां ने अपराध खमाववामां वांदणा देवा. वली नवा यावेला साधुने, आलोचनामां ने मासखमणादि तपरूप संवरमां तथा यंत संलेखना करतां एम आठ कारणे वांदणा देवा ॥ १७ ॥ वे पच्चीस आवश्यकनुं १० मुं द्वार कहे बे. दोवयं मदाजाय, यावत्ता बार चनसिर ति गुत्तं ॥ दुपवेसिग निकम, पणवीसावसय किइकम्मे ॥ १ ॥ शब्दार्थः-- वेपार व्यवनत, एकवार यथाजात, बारवार श्राव र्त्त, चारवार शिरनुं अवनत, त्रण गुप्ति, बेवार श्रवग्रदमा प्रवेश करवो ने एकवार निकलवु. ए पच्चीस श्रावश्यक वांदणामां होय . ॥ १८ ॥ द्वा. किइकम्मंपि कुतो न दोइ किइकम्मनिजरा नागी ॥ पणवी सामन्नयरं, साहुठाणं विरातो ॥ १९ ॥ शब्दार्थ:--ए पच्चीस आवश्यकमांना एकनी पण विराधना करतो एवो साधु, कृतिकर्म करतो बतो पण ते कृतिकर्मनी निर्झरानो जागी थतो नथी. ॥ १९ ॥ द्वा. १० ॥ हवे मुत्तिनी पच्चीस पबेिहानुं ११ मुं द्वार कहे बे. दिपि मिलेहण एगा, व उपप्फोम तिगतिगंत रिया ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) अकोम पमऊणया, नव नव मुहपत्ति पणवीसा॥३०॥ . शब्दार्थः-एक दृष्टि पमिलेहन, उ ऊंचा पखोमा, त्रय अखोमा, त्रण प्रमार्जना. ए बेला बे त्रणने त्रणवार अंतरित करतां एक एकना नव नव नेद थाय. सर्व मली मुहपत्तिनी पच्चीस पमिलेहणा थः ॥२०॥छा. ११ हवे शरीरनी पच्चीस पमिलेहणानुं १२ मुं द्वार कहे . पायादिणेण तिअतिअ,वामेअर बाहुसीसमुद हियए अंसुहादो पिढे, चन बप्पय देह पणवीसा ॥१॥ शब्दार्थः प्रदक्षिणाये करीने माबी अने जमणी बाहुये, मस्तके, मुखे अने हृदये. ए पांच ठेकाणे त्रण त्रणवार, बे खजानी उपर अने नीचे, तेमज बे पीठ नपर अने ब बन्ने पग उ. पर एम सर्व मली शरीरनी पच्चीस पमिलेदणा थाय. ॥२१॥ आवस्सएसु जहजह, कुणय पयत्तं अहीण मरित्तं॥ तिविहकरणो व उत्तो, तह तह से निकरा दोशाश्शा शब्दार्थः-श्रावश्यक पमिलेदणामां जेम जेम प्रयत्नथी. बोथधिक न थयो बतो मन. वचन अने कायाये नपयोग राखी करे तेम तेम ते करनारने निर्जरा थाय ले. ॥॥ प्रा. २५ हवे चार गाथाथी बत्रीस दोष त्यजवानुं १३ द्वार कहे ले. दोस अणाद्विअथढिअ-पविध परिपिंमिश्र च ढोलगइ अंकुस कवन रिंगिअ, मबुबत्तं मणपउहं ॥३॥ - शब्दार्थः-१ श्रादर रहित वांदे, २ मद सहित वांदे, ३ आयो पालो फरतो वांदे, ४ सर्वने नेगा वांदे, ५ कुदतो वांदे, ६ रजो हरणने बे हाथे कालीने वांदे, ७ काचवानी पेठे रिंगतो वांदे, एकने वांदतो बीजाने वांदे, ए मनमा खेद पामतो वांदे ॥१३॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (gu). ases जयंतं, जय गारव मित्त कारणा तिन्नं ॥ पमिणीयरुव तजि, सवदी लिय विपलिय चितं२४ शब्दार्थः - १० वे पगमां बे हाथ राखोने वांदे, १९ कां लालचथे। वांदे, १२ जयथी वांदे, १३ गारवथी वांद्रे, १४ मित्र जाणीवांदे, १५ वस्त्रादि मलवानी इहाना कारणथी वांदे १६ चोरनी पेठे वांदे, १७ श्रदारादि करतो वांदे, १८ क्रोधथी वांदे, १ तर्जना करतो वांदे, २० कपटथी वांदे, ११ अपमान करतो वांदे, २२ विकथा करतो वांदे ॥ २४ ॥ दिनमदिहं सिंगं, कर तंमोण प्रणिधणालि ॥ ऊणं उत्तर चूलि, मूयं ढहर चूमलियं च ॥ २८५ ॥ शब्दार्थः - २३ दितुं प्रणदितुं वांदे, २४ मस्तकने एक देशे वांदे, २५ राजवेनी पेठे वांदे, २६ वांद्या विना बुटको नथी एम जाणीवांदे, २७ मस्तके हाथ लगामतो न लगामतो वांदे, १७ अक्षरादि जेबा कदे तो वांदे, १० पाढलना शब्दो उतावला बोले, ३० मूंगानी पेठे वांदे, ३१ नंचास्वरे वांदे, ३२ रजोहरण मागतो वांदे ॥ २५॥ बत्तीस दोस परिसुद्धं, किइकम्मं जो पजइ गुरुणं ॥ सो पावर निवाणं, अचिरेण विमानवासं वा ॥ २६ ॥ शब्दार्थ:-- जे माणस ए उपर कहेला बत्रोस दोष रहित गुरुने वांदणां करे बे ते थोमा कालमां मोने व्यथवा तो देवपदने पामे बे. ॥ २६ ॥ द्वा. १३ हवे गुण उपजवानुं १४ मुं द्वार कहे बे. इह च गुणा वि - वयारमाणाइजंग गुरुपूआ ॥ तिचयराण य आणा, सुप्रधम्माराहुणा किरिया श्‍ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) दार्थ:- वांदामां ब गुणो उपजे बे. तेमां १ विनयनो " उपचार, २ मानादिकनो नाश, ३ गुरुपूजा, ४ तीर्थंकरनी आज्ञा, ५ श्रुतधर्मनी आराधना अने ६ मोक्ष. ए व गुल उपजे. २७ हवे गुरु थापनानुं १५ मं द्वार कहे बे. गुरुगुणजुत्तं तु गुरुं, वाविजा हव तब अस्काइ ॥ दवा नाणाइतियं, वविक सकं गुरुप्रजावे ॥२॥ शब्दार्थ - म्होटा गुणे करीने युक्त एवा गुरुने स्थापन करवा. अथवा साक्षात् गुरुनो अभाव होय तो तेमने ठेकाणे श्राप - नाचार्य स्थापन करवा. कदापि स्थापनाचार्य पणन होय तो ज्ञान, दर्शन ठाने चारित्रनां पुस्तकादि उपकरण स्थापवा. २० आरके वरामए वा, कठे पुछे चित्तम्मे || सज्नावमसज्जावं, गुरुग्वणा इत्तरावकदा ॥ २९ ॥ शब्दार्थः - . ( स्थापनाचार्य ) कोमा, मांगा, पुस्तक अथवा गुरुमूर्तिनी स्थापना करवी. स्थापना बे प्रकारनी बे. एक सद्भावाने बीजी सद्भाव. गुरुस्थापना पण बे भेदे बे. मां एक इत्वर एटले पुस्तक आदि थोमा कालनी ने बीजी यावत्कथिका एटले मूर्ति विगेरे बहुकालनी ॥ १‍ ॥ गुरुविर मिठवणा गुरुवरसोव दंसणचं च ॥ जिए विरहमि जिए बिं-- ब सेवामंतणं सदलं ॥ ३० ॥ शब्दार्थ :- गुरुनो श्राव होय त्यारे गुरुनो उपदेश देखानवा माटे स्थापना बे. जेम दवणां जिनेश्वरनो विरह तां जिनबिंबनी सेवना कर आमंत्रण करवुं ते सफल बे. ॥ ३० ॥ हवे वे प्रकारना अवग्रहनुं १६ मुं द्वार कहे बे. चदिसि गुरुग्गदो इद, अहु तेरस करे सपरपरके॥ अणपुन्नायस्स सया, न कप्पए तब पविसेन ॥ ३१ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) शब्दार्थः-श्रा जिनशासनमा गुरुथी अवग्रह चारे दिशामां पुरुष पुरुषने अने पुरुष स्त्रीने सामा त्रण हाथ अने तेर हाथ जा. णवो. तेश्रवग्रहमा प्रवेश करवाने आझाविना क्यारे पण न कहपे. हवे अदर संख्यानुं १७ मुं द्वार तथा पद संख्यानुं १७ मुं द्वार कहे डे. पण तिग बारस दुगतिग, चनरो व्हाण पय गुणतोसं॥ गुणतोससेस आव--स्सया सवपय अम्वन्ना ॥३॥ शब्दार्थः-(प्रथम वंदनक सूत्रना अक्षर २५६ ले तेमां लघु अकर बसो एक अने गुरु श्रदर पच्चीस .) पांच, त्रण, बार, बे, त्रण अनेचार. एम स्थानकमां गणत्रीस पद .बाकीनागण त्रीस पदावस्तियाएथी जाणवा. सर्व मली प्रहावन पद थाय . हवे वांदणा आपनारना उ स्थाननुं १ए मुं द्वार कहे . बायअणुन्नवरमा, अबाबाहं च जत्त जवणाय ॥ अवरादखामणाविय, वंदणदायस्स हाणा ॥३३॥ शब्दार्थः हामि आदिमां पांच, अणुजाणहादिमां त्रण, अव्याबाध पूढवा माटे निसीहिया दिमां बार, जताने एमां बे, जवणिजंचने एमां त्रण, अपराध खमाववा माटे खामेमि एमां चार. ए वांदणा करनारना उ स्थानक जाणवा. ३३ ॥ हवे ब गुरु वचन- २० मुं द्वार कहे . बदेणणुजाणामि, तहत्ति तुम्नंपि वट्ठए एवं ॥ अहमवि खामेमि तुमं, वयणाई वंदणरिहस्स ॥३४॥ शब्दार्थः देण, अणुजाणामि, तहत्ति तुप्रंपिवट्टए, एवं,प्र. हमवि खामे मि तुम. ए ल वचन वांदणादेवा योग्य गुरुनां जाणवां. __ हवे तेत्रीस आशातनानुं १ मुं द्वार कहे जे. '१ साधु साधुने सामा त्रण हाथ, साधु श्रावकने सामा त्रण हाय, साधु साध्वीने तेर हाथ, साधु श्राविकाने पण तेर हाथ. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) पुरत पकासन्ने, गंता चित्रण निसिअणाय मणे ॥ आलोयण पमिसुणणे, पुवालवणे अ आलाए॥३॥ ____ शब्दार्थः-१ गुरुनी श्रागल चाले, परखे चाले, ३पळवामे श्रमकतोचाले, वली एवीत्रण श्राशतना गुरुनी, तेटलो नमिजागे नजारदेवाथी थाय अने बेसवाथी पण थाय एम ए श्राशतना जाणवी, १० मिले प्रथम पाणी ले, ११गमणागमण पहेंदुं आलो. वे, १५ बोलाव्या बता न बोले, १३ कोश्ने गुरुनी पहेला बोलावे, १४ गुरु बता बीजा पासे निदादि श्राहार आलोवे. ॥ ३५ ॥ तद उवदंस निमित्तण, खाययणे तहा अपमिसुणणे खइत्ति य तबगए, किं तुम तजाय नो सुमणे॥३६॥ शब्दार्थः-१५ थाहारादि बीजाने देखामे, १६ वीजा साधुने प्रथम बोलावीने पनी गुरुने वोलावे, १७ गुरु विना बीजाने मिष्ट खवरावे, १७ पोते मिष्ट खाय, तेमज १ए गुरु बोलावे बतां न सांजले, २० गुरुने कठण वचन बोले, १ पोताने संथारे वेगे नुत्तर आपे, २५ शुं कहो हो ? एम कहे, २३ तमे करो, एम कहे, २४ तिरस्कार करे, २५ गुरुनो धर्मोपदेश सांजली हर्षित मनवालो न थाय. ॥ ३६ ॥ नो सरसि कहं बिता, परिसंनिता अणुहियाइ कदे॥ संथार पाय घट्टण, चिडुच्च समासणे आवि॥ ३० ॥ शब्दार्थः-२६ तमने नथो सनरतुं ? एम कहे, २७ कथानो छेद करे,श्रु सन्नानो नंग करे, २ए गुरुये कहेली वात फरी पोते कहे, ३० गुरुना संथारे पग लगामे, ३१ गुरुनी शय्या संथारा के श्रासन उपर बेसे, ३२ गुरुथी नंचा आसने बेसे, ३३ गुरुना समान आसने बेसे. ॥ ३ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (JU) हवे विधिनुं १२ मुं द्वार कहे बे. इरिया कुसुमिस्सग्गो, चिश्वंदण पुत्ति वंदा लोयं ॥ वंद खामण वंदण, संवर चन बोन दु सा ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ:--? इरियावदि, २ कुसुमिण डुसुमिएनो काउसग्ग, ३ चैत्यवंदन, ४ मुहपत्ति पमिलेय, एबे वांदा, ६ राज्य आलोवे, 9 बे वांदा, ८ खमासमण, ए वांदा, १० पञ्चरकाण, ११ चार खमासमण ने वे सझाय. एम अनुक्रमे करे ते प्रभात वंदन विधि जावो. ॥ ३८ ॥ इरिया चिइ वंदपु - ति वंदणं चरिमवंदणालोयं ॥ वंदणखामणचउच्चो --न दिवसुस्सग्गो दुसनान ॥३॥ शब्दार्थ:-- १ इरियावदि, २ चैत्यवंदन, ३ मुहपत्ति पहिलेहण ४ बे वांदा, ५ दिवस चरिम पच्चरकाण, ६ बे वांदला, देवसिलो, बे वांदला, ए देवसि खमावे, १० चार खमास दइ जगवानादि चारने वांदे, ११ देवसिय प्रायश्चित माटे बे लोगस्सनो का सग्ग अने १२ बे सवाय. ए संध्यावंदन विधि. ३० एयं किकम्मविहिं, जुंजंता चरण करण मानत्ता ॥ साहू खवंति कम्मं, अगनवसंचियमणंतं ॥४०॥ शब्दार्थः--ए प्रमाणे वांदणानी विधिने करता तेमज चरण सित्तने करण सित्तरी सहित एवा साधु अनेक नवमां मेलवेलां अनंतां कर्मने खपावें बे. ॥ ४० ॥ अप्पमइनवबोहवं, जासियं विवरियं च जमिह मए ॥ तं सोदंतु गीयच्चा, अनिनिवेसि मन्चरि ॥ ४२ ॥ शब्दार्थः - अल्पमति एवा जव्य जीवोना बोधने का Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) में हिं जें कां विपरीतपणे कहेलुं होय तेने कदाग्रह रहित मत्सर रहित एवा गीतार्थ पुरुषोए सुधारीने लेवुं ॥ ४१ ॥ ॥ इति गुरुवंदन जाप्य ॥ ॥ अथ पञ्चरकाण भाष्य. ॥ पच्चरकानां द्वार कहे . दस पञ्चस्काण चनविदि, आहार दुवीसगार प्रदुरुत्ता दस विग तीस विगई, गयदुदजंग व सुद्धि फलं २ शब्दार्थः -- १ दश पच्चरका द्वार, २ चार विधि द्वार, ३ आहार द्वार, ४ बीजीवार न कहेला बावीस आगार द्वार, ए दश विगयद्वार, ६ त्रीस निवीयाद्वार, 9 मूल गुण उत्तरनुं जेदद्वार, ८ बजे शुद्विनुं द्वार, ए पञ्चरका फल द्वार• ॥ १ ॥ हवे उत्तरगुण पच्चरकाणना दश नेद कहे बे. अणाय मइक्कतं, कोमीसहियं नियंटि अणगारं ॥ सागार निरवसेसं, परिमाणकमं सके अद्धा ॥ २ ॥ शब्दार्थः ०१ कारणे प्रागलथी तप कर, २ पाबलथी करवुं, ३ एकनी जोमे बीजुं कर, ४ धारी राखेला दिवसे कर, ५ श्रा गार रहित कर, ६ श्रगार सहित करवुं. ७ चार श्राहारादिकनुं कर, वस्तु विगेरेनुं परिमाण करयुं, ए संकेते कर छाने १० काल पच्चरकाण करवुं ॥ २ ॥ हवे बेला काल पच्चरकाना जेद कहे बे. नवकारसदिय पोरिसि, पुरिमद्वेगासणेगठाणे च ॥ आयंबिल प्रनत्त, चरिमे निगदे विगइ ॥ ३ ॥ शब्दार्थः-- १ नवकारसीनुं, श्पोरसीनुं, ३ पुरीमनुं, ५ एका सानुं, ए एकल गानुं, ६ भांबीलनुं, ७ उपवासनुं दिवस च Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिमर्नु, एअजिग्रहर्नु अने १० विगर्नु एदश काल पञ्चकारी जे. हवे पचरकाण करवानी विधि चार दे कहे . . एसरे नमो, पोरिसि पच्चरक जग्गएसूरे ॥ जग्गए पुरिम, अनत्तहं पच्चरका इति ॥४॥ शब्दार्थः-नवकारसीना पञ्चरकाणमां “जग्गए सूरे नमो. कार सहियं” एवो पाठ, पोरसिना पञ्चखाणमां " उग्गए सूरे पोरिसियं" एवो पाठ, पुरिमट्ठना पञ्चरकाणमां सूरे नग्गए पुरिमदूं" एवो पाठ. उपवासना पञ्चरकाणमां " अजत्तरं पञ्चरकार" एवो पाठ नणवो. ॥४॥ हवे वीजा चार विधि कहे जे. जण गुरु सीसो पुण, पञ्चकामिति एव वोसिर। नवउँगित पमाणं, न पमाणं वंजणबलणा ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-प्रथम पञ्चकाण करावनार गुरु : पञ्चखा" एम कहे, वलो पञ्चरकाण करनार शिष्य “पञ्चकामि एम कहे, पली गुरु " वो सिर" एम कहे एटले शिष्य "वोसिरामि" ए. म कहे, अहिं धारेलो नपयोगज प्रमाण के; परंतु अकरनी स्व. खना प्रमाण नथी. ॥५॥ तेज वात विशेषे कहे . पढमे गणे तेरस, बीए तिन्निनतिगाइ तमि . पाणस्स चबंमि, देसावगाइ पंचमए ॥६॥ शब्दार्थः--पहेला स्थानकमां नवकारादि तेर, बोजा स्थानकमां विगइ विगेरे त्रण, त्रीजा स्थानकमा एकासणादि त्रण, चोथा स्थानकमां पाणस्स लेवेणवादि उ अने पांचमा स्थानक'मां देशावकाशादि नेद जाणवा. ॥६॥ हवे पहेला, बीजा अने जीजा स्थानकना जूदा जूदा नेद कहे जे. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) नमु पोरिसि सदा, पुरिम वढ़ अंगुठमाइ अमतेर ॥ . निवि विगअंबियतिय, तिय उइगासण एगगणारा शब्दार्थः-नमुकारसी, पोरसी, साढ़पोरसी, पुरिमह, अ. व थने अगुष्टसी विगेरे बोजा श्राउ. ए सर्व मला प्रथम स्था. मकना तेर नेद थाय, बीजा स्थानकना निवि, विग अने यांबील ए त्रण नेद जाणवा. त्रीजा स्थानकना बेस', एकासणुं अने एकलगणुं ए त्रण नेद जाणवा. ॥ ७॥ - हवे उपवासने दिवसे पांच स्थानक करवान कहे जे. पढमंमि चनबाई, तेरस बीयंमि तश्य पाणस्त ॥ देसवगासं तुरिए, चरिमे जह संनवं नेयं ॥ ७॥ शब्दार्थः-पहेले स्थानके चोथ विगेरे, बीजे स्थानके नवका. रसो विगेरे तेर, त्रीजा स्थानके पाणोना, चोथे स्थानके देसावगासि अने पांचमे दिवस चरिमादि जेम घटे तेम जाणवू. ७ तह पद्यपञ्चखाणे--सु न पिटु सुरग्गयाइ वोसिर॥ करणविहीन न जन्नश्, जदावसीया बियबंदे ॥६॥ शब्दार्थ-तेमज मध्य पञ्चरकाणमा “ सूरे नग्गे विगत" इत्यादि पाठ वारंवार न कहेवो तेमज वोसिरे' ए पाठ पण वारंवारन कदेवो, एटला माटे करवानी विधि आचार्योए कही नथी. जेम आवस्सियाए' ए पाठ बोजा वांदणामां कहेता नथी तेम. तहतिविद पञ्चकाणे, नन्नति अपाणग आगारा॥ ऽविदादारे अचित्त--नोयणे तदय फासुजले ॥१०॥ - शब्दार्थः-तेमज तिनिहारना पञ्चरकापमा पाणीना न आगार कहे . वली विहार पञ्चरकाणमां अचित्त नोजन अने मासुक पाणीना श्रागार कहे . ॥ १० ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तच्चिय खवणंबिल, मिवियाश्सु फासुयं चिय जल तु॥ सहावि पियंति तहा, पच्चकंति य तिहाहारं ॥११॥ शब्दार्थः-एटलाज माटे उपवास, प्रांबिल अने निविप्रा. दिकमा श्रावकोए पण साधुनी पेठे निश्चे प्रासुक पाणी पी, भने तिविहार- पच्चरकाण करवू. ॥ ११ ॥ चउदाहारं तु नमो, रतिपि मुणिण सेसतिदचउदा निसि पोरिसि पुरिमे-गासणा सढाण ऽति चनहार शब्दार्थः-नोकारसोनुं अने रात्रीतुं पञ्चरकाण मुनिने चनविहारुंज होय. तथा बाकोनां पोरली श्रादि तिवदारां तथा चठविहारांहोय. वली श्रावकने रात्रीनु, पोरसीनु, पुरिमर्नु भने एकासणादिकनुं पच्चरकाण दुविहार,ती विहार अने चनविहार होय. हवे चार प्रकारना आहार- ३ जु द्वार कहे डे. खुदपसमखमेगागी, आहारिव एइ देश वा सायं ।। खुदिवि खिव कुठे, जं पंकुवमंतमाहारो ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-नूखने समाववाने समर्थ एवो एकज थाहार, थाहारमा आवता एवा लवणाद अथवा स्वाद थापनारा हिंग विगेरे, वलो जे नूख्यो बतो पण पेटमां नाखे एवो कादवना सरखो ते थाहार. ॥ १३ ॥ हवे ए आहारना मूल चार नेद कहे . असणे मुग्गोयणस--तु मंग पय रकज रब्ब कंदा॥ पाणे के जिय जब कयर, ककोमोदग सुराजलं॥१४॥ . शब्दार्थः-शनमां मग, नात, सत्रु, मामा, उध, खाजु, राब अने कंद विगेरे जाणवा. तेमज पानमां कांजी, जवर्नु, केर. तुं भने काकझीनुं धोवण तथा मदिरादि जल जाण ॥१४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( Ra ) खाइमे प्रत्तोस फलाइ साइमे सुठि जीर जमाज्ञा महु गुरु तंबोलाइ, प्रणाहारे मोय निवाई ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:- खादिममां शेकेलां धान्य तथा फलादि जापवां पने स्वादिममां सुंठ, जीरं, प्रजमो विगेरे, वली मध, गोल अने नागरवेलना पानादि जारावं. तेमज अनादारने विषे मात्रुं तथा तथा बींबा प्रमुख जाणवुं ॥ १५ ॥ Faraarरसी विगेरेना आगारनी संख्यानुं ४ थुं द्वार कहे ते. दो नवकार पोरिसि, सग पुरिमढ गाणे || सत्तेगठाण अंबिल ठ पण चचि बप्पाणे ॥ १६ ॥ शब्दार्थः - नवकारसीमां बे, पोरसीमां ब, पुरिमदुमां सात, एकासामांया, एकलठाणानां सात, आंबीलमां आठ, चोथ जक्तां पांच ने पाणस्सना पञ्चरकाय मां व आगार जाणवा. चन चरिमे चनिग्गहि, पण पावरणे नव निबीए ॥ प्रागारुकित विवेग, मुतु दवविगइ नियमिह ॥ १७ ॥ ए शब्दार्थ:-- दिवस चरिममां चार, अजिग्रहमां चार, वस्त्र मूकधामां पांच, निवीमां पांच अथवा घाट यागार जाणवा. वी द्रव्य विगइनुं नियम करनारने 'नरिकत विवेगं ' आगारने मूकीने बाकीना घाउ आगार जाणवा. ॥ १७ ॥ हवे दरेक पञ्चरकाना आगारनां नाम कहे बे. अन्नसदनमुकारे, अन्न सद पत्र दिसय साहु सब ॥ पोरिसिब सद्पोरिसि, पुरिनट्टे सत्त समहत्तरा ॥ १८॥ शब्दार्थः -नमुक्कारसीमां श्रन्नाजोगेणं, सहस्लागारें ए बे, तथा पोरसी मां अन्नपानोगेणं, सहस्सागारेणं, पञ्चन्नकाले, दिसामोदेणं, साहुवय येणं, अने सव्वसमा हिवत्तियागारे एउ खागार जाणवा. साढ पारसी मां पण एज बने पुरिमद्दमां उपरना " Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसहित एक महत्तरागारेणं ए वधारवो. जेथी तेमां सात बाप.. हवे एकासणाना तथा एकलगणाना आगार कहे . . अन्न सहसागारिय, आगंटण गुरुज पारिमहसव ॥ एगबियासणि अर्ज, सग गगणे आउटविणार . शब्दार्थः-अन्नवणानोगेणं, सहस्सागारेणं, सागारि श्रागारे णं आवंटण पसारेण, गुरु अनुगणेणं, पारिजावणियागारेणं, म हत्तरागारेणं, सवसमा हिवत्तियागारेणं. ए आठ प्रागार एकासवामां अने बियासणामां जाणवा. अने तेमांथो एक आनंटण विना सात श्रागार एकल गणामां जाणवा. ॥१५॥ हवे विगय, नीवी अने आंबीलना आगार कहे जे. अन्नसहलेवागिह, जस्कित पडुच पारिमहसवे ॥ विग निविगए नव, पडुच्च विणु अंबिले अह॥२०॥ शब्दार्थ:--अन्नन, सहस्सा, लेवालेवेणं, गोहब संसरणं, नस्कित्त विविगेणं, पमुच्चमस्किएणं, पारिका, महत्तरा, सबसमाहि. ए नव विगइ तथा निविगश्ने विषे जाणवा अने तेमांथो एक पञ्चमस्किएणं विना श्राव आंबीलना श्रागार जाणवा. ॥२०॥ हवे उपवासना आगार कहे जे. अन्न सह पारि मह सब, पंच खवणे उ पाणिलेवाई। चन चरिमं गुहार, जग्गदि अन्न सहमह सवे ॥२॥ शब्दार्थः अन्नबणा, सहस्सा, पारिहावणिया, महत्तरा, सब समाहि. ए पांच धागार नपवासमां; तेमज लेवेणवा विगेरे न श्रागार पाणस्सना जाणवा. वलो थनवगा, सहस्सा महत्ता, सबसमाहि. ए चार आगार दिवस चरिमना पञ्चरकाणमां अने अंगुह सहियादि अनिग्रहना पञ्चरकाणमां जाणवा.॥२१ । 5 महु मऊ तिलं, चनरो दवविगचचर पिंगडा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) घय गुल दहियं पिसियं, मरकण पक्कन्न दो पिमा॥श्शा शब्दार्थः-उध, मध, मद्य अने तेल ए चार अव (ढीली) वि. गले. वलीधी, गोल, दहिं श्रने मांसपेसो ए चार पिंक तथा जव विगश्ले. वसी मांखण श्रने पक्वान्न एबे तो पिंकज विगश् . हवे सरखा पच्चरकाण गणावे ले. पोरिसि सढमवढं, दुनत्त निविगई पोरिसाइ समा ॥ अंगुठ मुहि गंठी, सचित्त दबाइ जिग्गहियं ॥२३॥ शब्दार्थः- पोरसी अने साढ पोरसो, अबढ अने पुरिमह, ए. कासणुं अने बीयासणुं तथा धागार. विग अने नीवि तथा थागार, तेमज अंगुठसहियं, मुहिसहियं, गहिसहियं अने सचित अव्यादिक ए सर्व अनिग्रह पञ्चरकाण मांदो माहे सरखां . २३ हवे ए सर्व आगारोना अर्थ कहे जे. विस्सरण मणानोगो, सहस्सागारो सयं मुहपवेसो ॥ पबन्नकाल मेदाइ, दिसिविवजासु दिसिमोदो ॥२४॥ शब्दार्थः-श्रागारनो अर्थ विसरवाथ। कांश मुखमां घाले ते अनानोग, सहसात्कारे. पोतानी मेले मुखमा पेसो जाय ते सहसागार, पचनकाल ते मेघ विगेरेथो दिवसनी खबर न पमबाथी जमे ते, तेमज दिशाना विपर्यासपणाथी दिशामोह ए आगारोमां पण पच्चरकाण न नागे. ॥ २४ ॥ साहुवयण नग्घामा, पोरिसि तणु सुन्या समाहित्तिा. संघाश्कज महत्तर, गिदव वंदाइ सागारी ॥२५॥ शब्दार्थ-उग्याम पोरस एवं साधुनुं वचन सांजलीने प. शरकाण पारीने जमे, तेमज शरीरनी स्वस्यतानी असमाधिने बीतेस करे, व. संघादिकना कार्य निमित्त म्होटानी था. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाथी पञ्चरकाण पारे, तेमज गृहस्थ वांदवा श्राववाथी पारे ते सर्व सागारी श्रागार जाणवा. ॥ २५ ॥ आउंटणमंगाणं, गुरुपाहुणसाहुगुरुअनुहाणं ॥ परिठावण विहिगहि ए, जण पावरण कमिपट्टो॥२६॥ शब्दार्थः--हाथ पग विगेरे अंगनुं संकोचवु तथा पसारवु गुरु तथा प्राहुणा साधु श्रावे उना थवं, परठववा योग्य विधियी लाधेला अने वधेला श्राहारने खावा पके वली साधुने प्रावरणना पञ्चरकाणमां चोलपट्ट लेवा उठवू पमे तोपण पञ्चरकाण न नागे. खरमिय खूदिये मोवा-३ लेव संसह डुच्चममा॥ उकित पिंमविगइ--णं मस्कियं अंगुलीहिं मण॥२॥ शदाथः न लेवा योग्य वस्तुथी खरमायली कमली प्रमुख. ने लूहीने ते वो श्रापे तेथी, तेमज गृहस्थना हाथथी विगय. वमे स्पर्शित थयेलां शाक मांमादि आपे तेथो, नपर रहेला पिकविगयने लश्ने श्रापे तेथी, तेमज लगार घोनी आंगलोथो चो. पमेला मांमादि आपे तेथी पण पच्चरकाण नन्नागे ॥२७॥ हवे पाणीना ब आगार कहे जे. सेवामं आयमा, इअर सोवीरमन मुसिणजनं ॥ धोयण बहुल ससिद्धं, उस्से श्म श्अर सिनविणाशन शब्दार्थः-१ लेपकृत ते उसामण श्रादितुं पाणी, भले.. पकृत ते धोवण विगेरेनुं पाणी, निर्मल ते उतुं पाणी, ४ बहुखेप ते चोखा विगेरेना धोवणनुं पाणी,एसीथ सहित ते बाटायो खर मायला हाथ, दाणा सहित पाण। श्रने ६ ते यी बीजु ते तेनेज गली लीधेनुं पाणी, ए श्रागार पाणीना जावा. ॥श्ना हवे दश विगश्नां स्वरूपनुं ५ मुं द्वार कहे . . पण चल चल चन अविद, नरक उचाइ-विगगवी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) तिदुति च विद नका, चन महुमाई विगई बार ‍ शब्दार्थ - दुधनां पांच, दहिना चार, घीना चार, तेलना चार, गोलना वे, पक्कान्नना . एम ए ध विगेरे जक्ष्य (खावा योग्य) विना सर्व मली एकवीस जेद थाय बे. तेमज मधना त्रण, मदिराना बे, मांसना त्रण, मांखणना चार. एम ए चार अज द बिगइना सर्व मली बार जेद बे. ||२| प्रथमन विना २१ जेद कहे बे. खीर घय ददितिनं, गुरु पक्कन्नं व जरक विगइन । गो महिसी डंटि प्रय ए-लगाए पण डु६ ग्रह चनरो ३० शब्दार्थ:- दुध, घी, दहिं, तेल, गोल अने पक्कान. एब जक्ष्य बिग बे. तेमां गायनुं, जेसनुं, उंटमीनुं, बकरीनुं छाने घेटीनुं ए पांच जातनुं दुध विगइ बे. वे चार जातनुं घी विगेरे कहे बे. घयदहियानडिविणा, तिलसरिसवप्रय सिलह तिलचन 'दवगुरु पिंम गुमादो, पक्कन्नं तिल्ल घय तलियं ॥३१॥ शब्दार्थः--घी अने दर्दि जंटमी बिना बाकीना चारनुं वि. गइमां जाणवुं. तलनुं, सरसवनुं, अलसीनुं श्रने *लाटनुं ए चार जातनुं तेल विग बे. ढीलो अने कठीण ए वे जातनो गोल, छाने पक्कान्न ते उपर कहेला चार जातनां तेलमां तलेलुं अथवा चार जातनां घीमां तलेलुं ए सर्व विगइमां जावं. ॥३१॥ r हवे दूधनां पांच निवीयतां कहे . पयसामि खीर पेया, वलेदि दुधट्टि कुछ विगइगया || दस्क बहु अप्प तंदुल, तच्चुन्नं बिलसदिच्य डुबे ॥ ३.२ ॥ शब्दार्थः - प्राख नाखीने रांधेनुं दुध पयसाडि, बहु चोखा ** ए धान्य खसखस जेवुं थाय बे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) नोखीने रांधेदुं ऽध खीर, थोमा चोखा नांखीने रांधेदुं पेया, श्रा. टो नाखीने रांधेवू अवलेहि अने खटास नाखीने रांधेदुं उध पुहि. ए पांच उधना निवीश्राता जाणवा. ॥ ३५ ॥ . हवे घी बिग तथा दहि विगश्ना पांच पांच निवीयातां कहे . निनंजणवीसंदण, पक्कोसहितरिय किट्टि पक्कघयं ॥ दहिए करंब सदरिणि, सलवणददि घोल घोलवमा३३ .... शब्दार्थः-दाकेद्यं, उधनी तरीमा आटो नाखीने बनावेद्यं, औषधि नाखीने पकावेलु, कीटुं, अने श्रांबलादि नाखीने पकावे खं ते पांच जातनुं घी तेमज लात सहित दहि, शिखंम्, खवण नाखेडं गड्या विनानु दहि, गलेचु दहि अने घोलवमा ए पांच जातनुं दहि निवीयातामां जाणवू. ॥ ३३ ॥ हवे तेल तथा गोलनां पांच पांच निवीयातां कहे जे. तिखकुहि निमंजण, पक्कतिल पकुसदितरिय तिल्लमली। सकर गुलवायण पाय, खंम अधकढिय इस्कुरसो ३४ . ... शब्दार्थः-गोल सहित खामेला तल, दाफेलु तेल, लाख विगेरेथी पकावेलुं तेल, औषधि पकाम्या पो तेल नपर थयेखो तरी अने तेलनी मलो, ए पांच तेलना. तेमज साकर, गोल. वाणी, गुलपाय, खांझ श्रने अर्को नकालेलो शेरमीनो रस ए पांच निवीयातामां जाणवा. ॥ ३४ ॥ हवे कमा विगश्ना पांच निवीयातां कहे . पूरियतवपूआ बीय, पूत्र तन्नेह तुरिय घाणाई ॥ गुखहाणी जललप्पसि, य पंचमो पूत्तिकयपूजे. ..३५ .. शब्दार्थः-एक तावमी पूराय एवमा पूमला उपर बीजों तलवो ते, त्रण घाण तस्या पली चोथो घाण तलको ते, गोल १ गलमाणुं. ५ गोलपाक-गोलनी चासणी.. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 0) धाणी, जसलापसी अने पोतुं दश्ने करेलो पुमलो. ए पांच नि. वीयातां जाणवा. ॥ ३५ ॥ दुदही चनरंगुल, दवगुम धयतिल्ल एगलतुवरिं॥ पिंगुल मकणाणं, अद्दामलयं य संसह ॥ ३६॥ शब्दार्थः-फुध अने दहि नात नपर चार थांगुख होय तथा ढीलो गोल, घी अने तेल ए त्रण नात उपर एक मांगब होय तेमज कठिण गोलथी मसलेला चूरमादिकमा पीना म्होर सरखा गोलना ककमा होय तो ते संसृष्ट कहेवाय ते निवायातामां करपे जे. ॥३६ ॥ हवे कांक विशेष कहे . दवहयविगई विगइ-गयं पुणो तेण ते दयं दवं ॥ उहरिए तत्तंमिय, कि दवं श्मं चन्ने ॥ ३७॥ शब्दार्थः-शालना चोखा विगेरेथो निर्विर्य करेली किरादि. कविग तथा वर्णिकादिके करोने दणी एवो जे घृतादि विगइ ते विकृती गत कहेवाय. वक्षी नात विगेरेथी हएयुं एवं जे विकृ. 'तिगत ते इतव्य कहेवाय. तथा तावमामांथी सुखमी काढो सीधापडी वधेलु टाढुं थयेवं जे घो तेमां नाखेला खोटने हवा! वीने करीये ते नत्कृष्ट अव्य कहेवाय एम केटलाक आचार्य कहे. हवे केटलांक उत्तम इव्य गणावे . तिख संकुलि वरसोलाई, रायणंबा दकवाणाई ॥ मोलिय तिल्लाईया, सरसुत्तम दब खेवकमा ॥ ३॥ - शब्दार्थः-तलसांकली, वरसोला विगेरे, सयण, केरी, जा. सवाणि विगेरे, मोलीया विगेरेनां तेल. ए सर्वने सरस असम अव्य कहेवाय अथवा लेपकृत अव्य पण कहेवाय. ॥३८॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए१) ते सर्वे कारणे कल्पे ते कहे . विगगयासंसहा, उत्तम दवा निविगश्यंमि ॥ कारणजायं मुंत्तुं, कप्पंति न जुत्तुं जं वुत्तं ॥३ए॥ शब्दार्थः-विगश्थी उत्पन्न थयेला, संसृष्ट अने उत्तम जव्यादिक नोवीना पञ्चरकाणमां कारणने मूकीने खातुं न करूपे अर्थात् कारणे खवाय. कारण कयु डे के॥३॥ विगई विगश्नी, विगगयं जो अनुंजए साहू ॥ विगविगई सदावा, विगई विगई बलाने॥४०॥ शब्दार्थः-विगश्ने अने विगश्मा रहेला होरादिकने न. रकादि विरुष गतिथ जय पामतो जे साधु नकण करे ने, तो विकार पनामनाना स्वनाववाल विग ते साधुने माग गति प्रत्ये पहोचामे के.॥४०॥ हवे चार अनय विगश्ना नसरजेद कहे जे. कुत्तिय मडिय नामर, महुतिहा कह पिठ मधदुदा॥ जल थल खगमंस तिहा, घवय मकण चन अनकार .. शब्दार्थः-कुतीयुं, मांखोनुं श्रने नमरीनुं एम त्रण जा. तनुं मध, काष्टयो थने पिष्टथो बनावेली मदिरा; वली जलचर, थलचर थने खेवर जीवो- एमत्रण जातनुं मांस ने धोनी पेठे. चार जातनुं माखण ए सा अनदय , ॥४१॥ हबे पच्चरकाणना भए नांगा कहे . मयवयणकायमणवय, मणतणुवयतणुतिजोगिसत्तसत्त॥ करकारणुम दुतिजुय, तिकालि सीयाल नंगसयं ४२ शब्दार्थः-मन, वचन अने काया, वली मनवचन, मन.. काया भने वचनकाया; तेमज मन, वचन श्रने काया ए प्रय Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . योग, ए सात नांगाने करवा, कराववा अने अनुमोदवा. एवा . नेदथी एकवीस नेद थाय. वली तेने छोक त्रीक योग सहित करी नूत, नविष्य अने वर्तमान काले करी गुणता एकसो सुमतालोस नांगा थाय. ॥४२॥ हवे ए पच्चरकाणर्नु स्वरूप कहे . एयं च उत्तकाले, सयं च मण वयण तणुहिं पालणिय।। जाणगजाणगपासि, तिनंग चनगे तिसु अणुस्मा ४३ . शब्दार्थः वली ए पञ्चरकाण कहेला काले लेनार धोये पोते मन, वचन श्रने कायाए करीने पालवा. वली ते पञ्चरकाण करनार जाण अथवा अजास तेमज करावनार जाण अथवा अजाण एम चार नांगां थाय जे. तेमांप्रथम त्रणने आज्ञा . हवे पच्चरकाणनी न विशुनि - मुंद्वार कहे जे. फासियपालियसोहिय, तिरियकिटियारादियबसुद्धं ॥ पञ्चरकाणं फासिय, विहिणोचिय कालि जंपत्तं ॥४॥ शब्दार्थः-फरस्युं, पादयु, सोध्यु, तयु, कोत्यु अने श्रा. राध्यु, एक प्रकारे शुक एवं पञ्चरकाण फल प्रापनाकं थाय . तेमां प्रथम विधि प्रमाणे योग्य काले जे पच्चरकाण लीधुं ते फरस्युं कहेवाय. ॥ ४ ॥ पालिय पुणपुणसरियं, सोहिय गुरुदत्त सेस नोयणना तिरिय समहिय कालो, किहिय नोयण समय सरणे४५ शब्दार्थः- करेला पञ्चरकाराने वारंवार संन्नार ते पाट्युं कहेवाय, गुरुने आप्या पली बाको, पोते जमवु ते शोध्यु कहेवायः धारेला कालथी कांक अधिक काल गया पली पञ्चकाण पूर्ण करे ते तयु कहेवाय अने नोजनना अवसरे करेला प. शरकाणने संजार, ते कीत्यु कहेवाय. ॥ ४ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) श्य पमिचरिअं आरा-हियं तु अहवाब सुछिसहदणा॥ जाणण विणयणु नावण-अनुपालण नाव सुइतिथ६ शब्दार्थः उपर कहेला सर्व प्रकारे श्राचरयुं तेने श्राराध्यु कहेवाय अथवा पञ्चरकाणनी वि शुहिने ते लीधा प्रमाणे करवू, जाणनी पासे करवू, गुरुनो विनय करवो, गुरु बोले तेम मनमां बोलवं, कष्ट पसे तो पण नागवं नहि, शंकादिदोष र. हित रहे, ए ब विशुद्धि जाणवी. ॥ ४६॥ , देवे पञ्चरकाणवे प्रकारे फल थाय ले ते कहे . ... पञ्चरकाणस्स फलं, इह परलाए य होइ दुवितु ॥ इहलोए धम्मिल्लाइ, दामनगमा परलोए ॥४॥ शब्दार्थ-पच्चरकाण- फल आ लोकमां धम्मिलकुमारादिनां अने परलोकमां दामनकादिकनां दृष्टांतथी बे प्रकारे जाणवू. ॥ ४ ॥ हवे समाप्ति करता कहे जे. पच्चरकाणमिणं से-विऊण नावेण जिणवरुदि॥ पत्ता अणंत जीवा, सासयसुखं अणाबाहं ॥४॥ * शब्दार्थः-श्री जनेश्वरे उपदेशेलामा पञ्चरकाणने नावथी सेवीने अनंता जीवो निराबाध एवा साश्वता सुखने पाम्या . ॥ इति पञ्चरकाण नाष्य समाप्त. श्री इंख्यि पराजय शतक. (श्रावृत्तम् ) सुच्चिय सूरो सो चे-व पंमिन तं पसंसिमो निच्चं ... इंदियचोरेहि सया, न बुटियं जस्स चरणधणं ॥३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए४) · शब्दार्थः -- तेज शूरवीर ने तेज पंक्ति वली तेनी-ज श्रमे निरंतर प्रशंसा करीये बीये के, जेनुं चारित्ररूप धन निरंतर इंद्रियरूप चोरोए बुंटी लीधुं नथी. ॥ १ ॥ इंदिय चवसतुरंगे, दुग्गइ मग्गाणु धाविरे निश्वं ॥ जाविच्य जवस्सरुवो, रूंज जिणत्रयण रस्सीदिं श्‍ शब्दार्थ : - इंद्रियरूप चपल घोमान निरंतर दुर्गतिरूप मार्गमां दोमी रह्या बे, तेमने संसार स्वरूपनी जावना करनारो पुरुष श्री जिनराजनों वचनरूप रासयी रोके बे. ॥ २ ॥ इंदियधुत्ताणमहो, तिलतुस मित्तंपि देसु मा पसरं ॥ जद दिन्नो तो नीच, जब खणो वरिसको मिसमं ॥३॥ शब्दार्थ :- हे प्राणिन् ! तुं इंद्रियरूप चोरोने तलनां फोतरा मात्र पण प्रसरवा दश नहि. कारण जो प्रसरवा दिधा तो एक कण क्रोको वर्ष समान थाय तेवां दुःखो पामीश. ॥३॥ . अजिईदिएहिं चरणं, कछंव घुणेहि किरइ असारं ॥ तो धम्मचिहि दहं, जश्यवं इंदियजयंमि ॥ ४ ॥ शब्दार्थ :- इंडियने न जीतनारा प्राणीनुं चारित्र घुणे (लाकांना जीवोए) करमेलां लाककांनी पेठे सार रहित बे, माटे धर्मनार्थये इंद्रियोने जीतवामां दृढ उद्यम करवो. ॥४॥ जद कागिणी देजं, कोम रयणाण हारए कोई ॥ तद तु विसय गिधा, जीवा हारंति सिद्धिसुहं ॥५॥ शब्दार्थ:-जेम कोई मूर्ख एक कोमीने माटे कोमी रत्नने द्वारे तेम तु एवा विषयमां श्रासक्त थयेश्वा जीवो मोक्ष सुख ने हारी जाय के ॥ ५ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) "तिलमित्तं विसयसुई, उहं च गिरिरायसिंगतुंगयरं ॥ जवकोमिहिं न निछ, जं जाणसु तं करिजासु ॥६॥ शब्दार्थः-तल मात्र विषय सुख .अने फुःख मेरुपर्वना उंचा शिखर जेवू ले. वली ते पुःख क्रोमो नव सुधी खुटे सेम नथी, माटे जीव ! जेम जाण तेम कर. ॥ ६॥ (शार्दूलविक्रीमितवृत्तम्.) झुंजंता महरा विवागविरसा किंपागतुल्ला मे, कबुकंडुअणंव दुकजणया दाविति बुद्धिं सुहे॥ । मचन्हे मयतिन्हियव सययं मिहानिसंधिप्पया, जुत्ता दिति कुजम्म जोणिगदणं नोगा महा वैरिणो - शब्दार्थः-किंपाक फलनी पेठे नोगवतां मधुर, पण परिणामे प्राणनो नाश करनारा, खसना फोदाने खणवानी पेठे कु ख श्रापनारा, मध्यान्ह वखते मृग तृष्णानी पेठे निरंतर खोटा अजिप्राय थापनारा अने महा वैर सरखा जोगो जोगवना. राने कुजन्मरूप गहन योनी थापे . ॥॥ . (अनुष्टुप्वृत्तम् ) सका अग्गि निवारे, वारिणो जलिनवि हु॥ ...... सबोदहिजलेणावि, कामग्गि दुन्निवारचं ॥७॥ शब्दार्थ:-ऊस हलता अग्निने पाणीवमे निवारी शकाय, प. पसर्व समुसोनां पाणोथी कामरूप अग्नि निवारी शकातो नथी. (थार्यावृत्तम् ) विसमिव मुहंमि महुरा, परिणाम निकाम दारुणा विसयमा काखमणंतं जुत्ता, अावि मुत्तं न किं जुत्तामा .. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Bru) शव्दार्थ :- हे जीव ! तें आरंने भीग, पण परिणामे .. स्यंत दारुण एवा विषयाने अनंत काल सुधी जोगव्या, तोपख तेमें हजी त्यज देतो नथी ते शुं तने योग्य बे ? 'विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न यााई जीवो ॥ झरइ कलु पचा, पत्तो नरयं महाघोरं ॥ १० ॥ शब्दार्थः - विषयरसरूप मदिरामां मदोन्मत्त थयेलो जीव योग्य तथा योग्य जाणतो नयी, परंतु ज्यारे महा घोर नरक पामे त्या पालथी दीन थर कुरे बे. ॥१॥ जह निंबदुम्मपत्तो, कीमो कपि मन्नएं मदुरं ॥ तद सिद्धिसुहपरुका, संसारदुदं सुदं विति ॥ ११ ॥ शब्दार्थ:-- जेम लींबमानां पदमामां रहेलो कीमो, ते पां. दमाने कम बतां मीटुं माने बे तेम मोक्षसुखथी नपरांठा जी"वो संसारना दुःखने सुख कहे . ॥११॥ · थिरा चंचला य, खण मित्त सुदंकराण पावाएं।। दुग्गइ निबंधणाणं, विरमसु प्राण जोगाणं ॥ १२ ॥ +1 शब्दार्थ:-- दे जीव ! अस्थिर, चंचल, क्षणमात्र सुखने था - पनारा, मदा पापरूपाने दुर्गतिना बंधननुं कारण; एवा श्र भोगोथी तुं विराम पाम ॥ १२ ॥ पत्ताय कामनोगा, सुरेसु असुरेसु तदय मसु ॥ नय जीव तुद्य तित्ती, जलणस्सव कठनियरेण ॥ १३ ॥ शब्दार्थ : हे जीव ! देवने विषे, असुर कुमारने विषे, तेमज ममुष्यनै विषे तुं काम जोगोने पाम्यो, तो पण काष्ट नांखवाथी जेम मि तृप्त यतो नथी तेम तुं पण कामजोगथी तृप्त यतो नथी. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((US) ( काव्यम्. ) जदा य किंपागफला मणोरमा रसेण वन्नेण य जुंजमाणा ते खुट्टए जीवि पञ्च्चमाणा, एनवमा कामगुणा विवागे १४ शब्दार्थः — जेम किंपाक फलो, रसथी, वर्णथी ने खावाश्री मनोहर लागे बे; परंतु पचता एवा ते फलो जीवितने खुटामे म काम गुणो परिणामे तेवाज जाणवा ॥ १४ ॥ (अनुष्टुप् वृत्तम् ) सवं वीलविप्रं गीयं, सवं नहं विमंबणा ॥ सबे मरणा नारा, सधे कामा दुदावहा ॥१८५॥ शब्दार्थ:-- सर्व प्रकारनां गीत विलाप तुल्य बे, सर्व प्रका रनां नाटक विटंबना तुल्य बे, सर्व प्रकारनां श्राजरणो-घराणां जर तुल्य बे, तेमज सर्व प्रकारना कामनोगो दुःखदायक बे. ( श्रार्यावृत्तम् ) देविंद चक्कवहि-- तपाइ राइ उत्तमा जोगा ॥ पत्ता प्रांतखुत्तो, न य दं तत्तिं गर्नु तेहिं ॥१६॥ शब्दार्थः-- अहो ! देवेंद्र ने चक्रवर्तिनां राज्यो तथा उत्तम जोगोने हुं वनंतीवार पाम्यो, तोपण तेथी तृप्ति पाम्यो नदि. संसारचक्कवाले, सधेवि य पुग्गला मए बहुसो || आदारिया य परिणा - मिया य नय तेसु तित्तोऽहं १७ शब्दार्थः - संसाररूप चक्रवालमां सर्व प्रकारना पुलोने मेंघपीवार खाधा ने परिलमाव्या; तथापि तेथी हुं तृप्ति पाम्यो नहि. (अनुष्टुप्वृत्तम् ) लेवो दो जोगे, जोगी नोवलिप्पई ॥ जोगी जमइ संसारे, अजोगी विप्पमुच्चई ॥ १८ ॥ . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्दार्थः-जोगी पुरुषो जोगमा लपटाय बे अने अजोगी. पुरुषो लपटाता नथी; एटलाज माटे लोगो संसारमा नमे जे अने बनोगी संसारथी मूकाय . ॥ १८ ॥ अल्लो सुको य दो छूढा, गोलया महियामया ॥ दोवि व मिश्रा कूमे, जो अल्लो तब लग्गरमा एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा ॥ विरत्तान न लग्गंति, जहा सुक्के य गोलए ॥२०॥ शब्दार्थः-लीलो अने सूको एवा बे माटीना गोला नीत तरफ फेंक्या, ते बे गोलानींते अफलाया, परंतु तेमांथी जेली लो गोलो हतो, तेन्जीते चोटी रह्यो अने सूको गोलो न चोटी रह्यो ए प्रकारे कामनोगमां लंपटी अने पुर्बुझि पुरुषो संसार रूप जीतमा चोटी र अने जे कामनोगथी विराम पाम्याने, ते सूका गोलानी पेठे (संसाररूप जीतमा) चोटी रहेता नथी. . (श्रावृत्तम्.) तणकठेहिव अग्गी, लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं ॥ न इमो जीवो सक्को, तिप्पे कामलोगेहिं ॥२॥ शब्दार्थः-जेम घास तथा काष्टथी अग्नि, श्रने हजारो नदीयोथी लवणसमुष तृप्त थतो नथी, तेम आ जीव पण काम. जोगथी तृप्त थवाने शक्तिवान थतो नथी. ॥१॥ जुत्तूण वि नोगसुई, सुरनरखयरेसु पुण पमाएणं ॥ पिजा नरएसुनेरव, कलकलतन तंबपाणाइं ॥श्शा शब्दार्थः-था जोव, देव मनुष्य अने विद्याधरनी गतिमा प्रमादना वशथीनोगसुख जोगवीने नरकमां नयंकर कलकखता अग्निये तपावेला त्रांबाना रसने पीये . ॥२॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) को लोनेण न निदन, कस्स न रमणीदिनोलिअंदिययं को मच्चुणा न गदिन, को गिघो नेव विसएहिं ॥२३॥ शब्दार्थः-श्रा संसारमा कोण सोनथी नथो दणाणो ? कोनां हृदयने स्त्रीये नथी नोलव्युं ? कोने मृत्युए नथी पकड्यो ? अने कोण विषयमां गृद्ध नथी. ? ॥ ३ ॥ (काव्यम्.) खणमित्त सुरका बहुकाल दुका, पगाम दुका अनिकाम सुरका ॥ संसार मोरकस्स विपरकन्नूआ, खाणी अणबाणन कामनोगा ॥ २४ ॥ शब्दार्थः-हे जीव ! कणमात्र सुखने थापनारा, बहु काल कुःखने थापनारा,अत्यंत फुःखने आपनारा, तुब सुखने आपना रा, संसारथी मुक्त थवामां शत्रुतूत, अर्थात् संसारने वधारना रा अने अनर्थनी खाण एवा आ कामनोगो . ॥ २४ ॥ (श्रावृत्तम्.) सबगहाणं पनवो, महागहो सबदोस पायहि ॥ कामगहो उरप्पा, जेणनिनुअं जगं सवं ॥२५॥ शब्दार्थः सर्व ग्रह (नन्माद)नु उत्पत्ति स्थान, म्होटोग्रह, सर्व प्रकारना दोष प्रवर्त्तावनारो अने पुरात्मा एवो कामदेवरूप ग्रह डे के, जेणे या सर्व जगत्ने वश करी ली, ले. ॥२५॥ जह कबुल्लो कछु, कंडुअमाणो ऽहं मुण मुकं ॥ मोहनरा मणुस्सा, तद कामऽहं सुहं बिंति ॥२६॥ शब्दार्थःजेम खसवालो माणस खसने खणतो उतो तेथी थतां पुःखने सुख माने ले तेम मोहयो थातुर थयेला माणसो कामदेवना फुःखने सुख माने . ॥ २६ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) . (अनुष्टुब्वम्.) सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ॥ कामे य पछेमाणा, अकामा जति पुग्गइं॥२७॥ ... शब्दार्थ-कामजोग शव्य बे, कामनोग विष ले अने काम जोग आशीविष फेर (सर्पनी दाढमा रहेला फेर) जेवा .ते कामनोग नोगव्या नथी; परंतु तेनी प्रार्थना करवाथी एटखे तेनी श्छा राखवाथी पण जीवो ऽर्गतिमा जाय जे. ॥ २७ ।। . . ... (थार्यावृत्तम्.) विसए अवश्वंता, पति संसारसायरे घोरे ॥ विसएसु निराविरका, तरंति संसारकंतारे ॥श्न॥ शब्दार्थः-विषयनी अपेक्षा (वांउना) करनारा जीवो वी. हामणा संसार समुसमा पो थने विषयथी निरपेक (अवंबक) थयेला जोवो संसार रूप श्रटवाने तरे जे. ॥२७॥ लिया अवश्कता, निरावश्का गया अविग्घेणं ॥ तमा पवयण सारे, निरावश्का दोअवं ॥२५॥ ___शब्दार्थः-विषयनी अपेक्षा-वांडना करनारा जीवो साणा एटले संसारमा रह्या अने विषयथी निरपेद-श्रवंटक श्रयेसाजी. वो, अविघ्नपणे मोदमां गया. ते कारण माटे प्रवचन एटले सिछातमा एज सार ले के, विषयथी निरपेक्ष थq. ॥ श्ए ॥ विसयाविरको निवमर, निरविरको तर दुत्तरनवोघं ॥ देवीदीवसमागय, नानअजुअलेण दितो ॥३०॥ __शब्दार्थः-रत्नादेवीना रत्नछोपमां गयेला (जिनरक्षित अने जिनपालित ए) बेनाना दृष्टांते विषयनी अपेक्षा करनारा जीवो (जनरक्षितनी पेठे) संसार समुअमां पझे दे अने. विषय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) थी निरपेक्ष थयेला जीवो ( जिनपासितनी पेठे )ऽस्तर एवा जवना उघने-संसार समुज्ने तरे . ॥३०॥ जं अतिकं दुकं, जं च सुहं उत्तमं तिलोअंमि ॥ तं जाणसु विसयाणं, वुढि कय हेनअं सवं ॥३१॥ शब्दार्थ:-हे जीव! त्रण लोकमांजे अतितिक्षण पुःख थने जेन त्तम मुखडे ते सर्व विषयोनी वृद्धि भने कयनुं हेतुबे,एम तुं जाण. इंदियविसयपसत्ता, पर्मति संसारसायरे जीवा ॥ परिकव गिन्नपंखा, सुसीलगुण पेडणविहूणा ३२ शब्दार्थः--पंचेजियना विषयमांश्रासक्त थएला जीवो नत्त. म याचार श्रने शीलगुणरूप पांखो विना, बेदाणी पांखो जेनी एवा पक्षीनी पेठे संसार समुजमा पमे . ॥३५ ॥ ज खहश् जहा लिदंतो, मुदल्लियं अहिअंजदा सुण सोस तालुअ रसिअं, विलिदंतो मन्नए सुरकं॥३३॥ मदिवाण कायसेवी, न सह किंचिवि सुहं तदा पुरिसो॥ सो मन्नए वरान, सयकायपरिस्समं सुरकं॥३४॥युग्मम्, शब्दार्थः-जेम कूतरो म्होटा हाटकाने चाटतो तो एम नयी जाणतो के, हुं म्हारा पोतानाज तालुथानी रसोने सोस, डं! तेथीज ते दामकाने विशेषे चाटतो तो जेम मुख माने ले तेम स्त्रीनी कायानो सेवनार, एटले विषय सेवनारो पुरुष तेथी जरा पण सुख नथी पामतो; तथापि ते रांक पुरुष पोतानी का. याना परिश्रमने सुख माने ले !!!॥ ३३ ॥३४॥ सुवि मग्गिांतो, कबवि कयलो नजि जद सारो॥ इंदियविसएसुतहा, नकि सुहं सुधवि गविहं ॥३५॥ ... शब्दार्थः-सारी रीते तपासतां जेम केलमां कां पण सार नथी, तेल इंजियोना विषयमां पण सारी रीते तपासतां सुख मथी. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) सिंगारतरंगाए, विलासवेलाइ जुवणजलाए || के के जयंमि पुरिसा, नारीनइए न बुडंति ॥३६॥ शब्दार्थ - मां शृंगार रूप कल्लोलो बे, विलास रूप वेलो बे ने जोबन रूप जल बे एवी स्त्री रूप नदीमां नथी बूडया एवा जगत्मा कोण कोण पुरुषो बे ? ॥ ३६ ॥ सोस दुरिच्प्रद, कवमकुमीमदिलिया किलेसकर] ॥ वर विशेयणरणी, दुखखाणी सुरूपमिवका ॥३७॥ शब्दार्थ:-शोकनी नदी, पापनी गुफा, कपटनी कुंमी, क्लेशनी करना ने वैररूप श्रग्निने प्रगट करवा माटे श्ररण नाकाष्ट समान एवी स्त्री दुःखनी खाद्य बे श्रने सुखनी प्रतिपक्षी (शत्रु) बे. प्रमुमिण परिकम्मो, सम्मं को नाम नासिनं तरई ॥ वम्मदसर पसरोदे, दिठिचोदे मयबीणं ॥ ३८ ॥ शब्दार्थः--नथी करी मननी सारी शुद्धि जेणे एवो कयो पुरुष मृगाक्षी स्त्रीना कामबाण वरसावनार नजरना सपाटामांथी. बरोबर रीते बच शके ? ॥ ३८ ॥ परिदरसु तन तासिं, दिठि दिहिविसस्सव यहिस्स || जं रमणि नयणबाणा, चरित्तपाणे विणासंति ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:--ते कारण माटे दे जीव ! दृष्टिविष सर्पना जेवी बे दृष्टि जेनी एवी ने जे स्त्रीनां नयन रूपी बाणो चारित्र रूप प्राणनो विनाश करे बे तेत्री स्त्रीनो तुं त्याग कर. ||३|| सिद्धंत जलहि पारं-- गवि विजिइंदिजवि सूरोवि ॥ दढचित्तो वि बलिकर, जुवइ पिसाई दि खुड्डादिं ॥४०॥ शब्दार्थ:-- सिद्धांत रूप समुद्रने पार पामेलो, विशेषे करी जीतो बे इंद्रियो जेणे, शूरो अने दृढ चित्तवालो एवो पुरुष पण युवति रूप कुद्र पिसाचणीथी बलाय . ॥ ४० ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) मणयनवणीयविलन, जद जाय जलणसंनिहाणंमि।। तद रमणिसंनिदाणे, विदवश मणो मुणीमि ॥४॥ शब्दार्थ:-जेम अग्निनी पासे रहेढुं मीण अने माखण उंगली जाय , तेम स्त्रोनी पासे रहेला मुनिनु मन पण उंगली जाय डे अर्थात् विकारवंत थाय जे. ॥४१॥ नीअंगमाहि सुपउँ-दराहि नप्पिड मंथरगदि ॥ महिला हि निमग्गा श्व, गिरिवर गुरुमावि नितिश शब्दार्थः--नीच साथे गमन करती, सारा पयोधर (स्तन) वाली अने देखवा लायक मंद गतिवाली स्त्री के,जे जाणे नदी समा न तेमां बूमेला (पुरुषो) पर्वत जेवाम्होटा होय तो पण जेदाय. विसयजलं मोदकलं, विलासविछोअ जलयरान्नं ॥ मय मयरं उत्तिन्ना, तारुम महन्नवं धीरा ॥४३॥ शब्दार्थः-विषय रूप जलवाला,मोह रूप कादववाला, वि. लास अने हावनावरूप जल जंतुथी नरेला अने मद रूप म. गर वाला जोवन रूप महासमुउने धीर पुरुषो तरेला . ॥३॥ जश्व परिचत्तसंगो, तव तणुअंगो तहावि परिवम। महिला संसग्गीए, कोसा जवणूस य मुणिव ॥४॥ . शहार्थः--जो के,कुटुंबादिकनो संग जेणे त्याग कस्यो होय श्रने तपथी शरीर दूबलु करयुं होय;तोपण ते,स्त्रीना संसर्गथी को. श्यावेश्यानेघेररहेला(सिंहगुफावासा)मुनिनीपेठे चारित्रथी पमे. सवगंथविमुक्को, सीईजून पसंतचित्तो अ॥ जं पाव मुत्तिसुहं, न चक्कवट्टीवि तं लदई॥४॥ . दावार्थ:-सर्व परिग्रहथी मूकायेलो,शांत थयेलो अने शांत चित्त वांसो माणस जे सुख पामे ते सुख चक्रवर्ति पण पामतो नथी. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) खेलमि पमिअमप्पं, जद न तर महिपावि मोएऊ॥ . तद विसयखेलपमिश्र, न तर अप्पंपि कामंधो ४६ शब्दार्थ:-जेम बलखामां मेली माखी तेमां पोताने मूकावा समर्थ थती नथी, तेम विषय रूप खेलमा पमेलो कामांध जीव पण तेमांथी नीकलवा समर्थ थतो नथी.॥४६॥ जं लद वीयरान, सुकंतं मुण सुच्चिअ न अन्नो॥ . नवि गत्ता सूअरन, जाण सुरलोश्रं सुकं ॥४॥ शहार्थ:-जेम खामामा रहेलो सूअर देवलोकनां सुखने न जाणे, तेम जे सुखने वीतराग पामे, ते सुखने वीतराग ज जाणे; पण बीजा कोश ( संसारी जीव ) न जाणे. ॥ ४ ॥ जं अजवि जीवाणं, विसएसु दुहावदेसु पमिबंधो॥ तं नाश् गुरुआणवि, अखंघणिजो मदामोहो ॥४॥ . शब्दार्थ:-जे कारण माटे हजी सूधी पण जीवोने पुःखने उत्पन्न करनारा विषयोमा प्रतिबंध ले. ते माटे एम जणाय ने के, म्होटाने पण महामोह अलंघनीय . ॥४॥ जे कामंधा जीवा, रमंति विरएसु ते विगयसंका ॥ जे पुण जिणवयणरया, ते नीरु तेसु विरमंति ॥४णा शब्दार्थः-जे कामनोगथी बांधला ययेला जीवो , ते शं का रहित थश्ने विषय सुखमां रमे अने जे जिनवचनमां रक्त जे, ते संसारथी बीक पामीने विषयथी विराम पामे बे. ॥धणा (काव्यम्.) असुश्मुत्तमलपवाहरूवयं, वंतपित्तवसमऊफोफसं ॥ मेअमंसबहुहड्ड करंमयं, चम्ममित्तपत्राश्यजुवश्अंगर्य५० शब्दार्थः-अशूची. मूत्र, विष्टाना प्रवाह रुप, वमन पित्त, वसा, नसो, चरबी मजा हामकामांनो नुको, फेफसां, मेद, मां Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) स तथा घणा हामकांनो करमीयारुप अने मात्र चाममाथी ज ढांकेबुं, एवं स्त्रोनुं शरीर . ॥ ५० ॥ मंसं इमं मुत्तपुरोसमीसं, सिंघाणखेलाइअनियरंतं ॥ एयं अणिच्चं कि मिआणवासं, पास नराणं मश्वाहिराणं५१ शब्दार्थः-मांस, मूत्र अने विष्टाथी मिश्रित, सिंधाण -सीट अने बलखाथी करतुं, अनित्य तेमज कृमीयाउनु घर एवं श्रा स्त्रीनु शरीर, ते अल्प बुद्धिवाला पुरुषोने पास समान जे. ५१ (थार्यावृत्तम्.) पासेण पंजरेण य, बचंति चनप्पया य पकोई॥ . श्य जुवश्पंजरेणं, बघा पुरिसा किल्लिस्संति ॥५॥ शब्दार्थः-जेम पासे श्रने पांजरे करीने बंधायेखा जनाव रो तथा पक्षीयो क्लेश पामे , तेम था स्त्रीरूपी पांजरे करीने बंधायेला पुरुषो पण क्लेश पामे . ॥ ५ ॥ (अनुष्टुप्वृत्तम्.) अदो मोदो महामलो, जेण अम्मारिसावि हु॥ जाणंतावि अणिञ्चत्तं, विरमंति न खणंत हु॥५३॥ ___शब्दार्थः-अहो ! मोह रूप मा बहुज म्होटो जे.जेणे करी ने श्रमारा सरखा जीवो पण ( कामनोगने) अनित्य जाणतां उतां तेथी क्षण मात्र पण विराम पामता नथो ! ॥५३॥ (थार्यावृत्तम्.) जुवहिं सद कुणंतो, संसग्गि कुणइ सयलउकेहिं॥ नदि मुसगाणं संगो, दोश् सुदो सह बिलाहिं ॥४॥ . शब्दार्थः--जेम बिलामोनी साथे संसर्ग करतो तो दर सुखी यतो नथी, तेम स्त्रीनी साथे संसर्ग करतो तो पुरुष पण Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) सर्व दुःखना संसर्गने करे .अर्थात् अनेक दुःखने पामे ... हरिहरचनराणण चं, दसूरखंदाइणोवि जे देवा ॥ नारीण किंकरतं, कुणंति धिची विसयतिन्हा ॥५॥ शब्दार्थः--विश्नु, ईश्वर, ब्रह्मा, चंड, सूर्य, अने कार्तिकस्वा मी विगरे जे कोइ देवो, ते सर्वे (मात्र विषयने माटे) स्त्रीनें किकरपणुं करे ! माटे धिक्कार ले धिक्कार के विषयनी तृष्णाने !!! (काव्यम्.) सीअंच उन्दं च सहति मूढा, इविसु सत्ता अविवेअवंता इवाइपुत्व चयंति जाई,जीअंच नासंति अरावणुव ५६ शब्दार्थः-विवेक विनाना अने स्त्रीमा श्रासक्त थयेला मूर्ख पुरुषो, इसाची पुत्रनी पेठे पोतानी उत्तम जातिनो त्याग करीने ताढ श्रने तापने सहन करे . तेमज रावणनी पेठे जीवीतव्यने पण नाश पमामे ॥५६॥ (आर्यावृत्तम्.) वुत्तुणवि जीवाणं, सुक्कराई ति पावचरियाई॥ जयवं जा सा सा सा, पन्चाएसो हु णमो ते ॥५॥ शब्दार्थ:-जीवोनां अतिशे पापचरित्र एटले मागं आचरण कडेवाने पण अतिशे पुष्करले.अर्थात् मुखे कह्यांन जाय एवां वे. यहां दृष्टांत कहे हे नगवन!जे स्त्रीने में धारण करीने, ते स्त्री म्हा. री बहेननगवंते कडुं. तेस्त्री, तेत्हारी बहेनज बे. गुरु महाराज कहे के,हे शिष्य ! त्हारी बागल या दृष्टांत कह्यु.॥५॥ जलखवतरखं जोयं, अथिरा लन्जीवि नंगुरो देहो । तुला य कामनोगा, निबंधणं पुस्कलकाणं ॥ ५ ॥ शब्दार्थ--जीवीतव्य जलना परपोटा जेतुंबे, लक्ष्मी था Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (१७) स्थिर , देह क्षणनंगुर ले तेमज कामनोग सुब अले खाखो-गो उःखनां कारण . ॥५॥ नागो जहा पंकजलावसन्नो, दंथलं नानिसमे तीरं । एवं जिया कामगुणेसु गिझा, सुधम्ममग्गे न रया दवंति शब्दार्थः-जेम हाथी कादववाला जलमां बूमयो तो जो के स्थलने देखे बे. तथापि त्यांथो कांठे श्रावी शकतो नथी. तेम-कामगुणमा गृक थयेला जोयो, पण सुधर्मनां मार्गमा रक्त थता नथी. ॥ एए॥ जह विपुंजखुत्तो, कीमि सुहं मन्नए सयाकाखं ॥ तह बिसयासुश्रत्तो, जीवोवि मुण सुहं मूढो ॥६॥ शब्दार्थ-जेम विष्टाना ढगलामां खूचेलो करमोयो (जो के तेमा सदाकाल दुःख , तथापि) तेमां सदाकाल सुख माने, तेम विषय रूप अशुचोमां रक्त ययेलो मूढ जोव पण (विषयमा) सुख माने . ॥ ६॥ मयरहरोव जलेहि, तहवि हु दुप्पुर श्मे आया। विसयामिसं मि गिो, नवे नवे वचन तत्तिं ॥६॥ शब्दार्थः-जेम पाणीये करी समुफ पूरावो पुष्कर , तेम विषयरूर श्रामिष (मांस) मां गृह थयेलो था प्रात्मा पण विष यथो पूरावो पुष्कर ने अने तेने लोधेज ते जव जपमा तृप्ति पामतो नथी. ॥ ६॥ विसय विसहा जीवा, उनमरूबाइरसु विविहेसु॥ नवसयसहस्सउलई, न मुणंति गयंपि निअजम्मदशा शब्दार्थः-विषयरूप विषथी पीमायेला जो उनटरूप आदि देश विविध प्रकारनां रूपश्री पोतानों नगमावे , परंतु Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) तेढ लाख नवे पण उर्सन एवो पोतानो मनुष्य जन्म व्यर्थ जा . य एम नथी जाणता. ॥ ६ ॥ चिति विसयविवसा, मुत्तं खापि केवि गयसंका ॥ न गणंति केवि मरणं, विसयंकुससल्लिया जीवा ॥३॥ . शब्दार्थः-विषयरूप अंकूशे साल्या एवा जीवो विषयने व श्य थका रहे . तथा मूकी लाज जेमणे अने गयेलो ने शंका जेमने एवा केटलाएक जीवो (वषयने माटे) मरणने पण नथी गणता. ॥ ६३॥ विसयविसेणं जीवा, जिणधम्म हारिऊण दा नरयं ॥ वचंति जहा चित्त य, निवारि बंनदत्तनिवो ॥६४॥ शब्दार्थः-खेद थाय ने के, विषयरूप विषथी जोवो जि. नधर्मने हारी नरके जाय जे. एज कारणधी चित्र मुनिये ब्रह्मदत्त राजाने विषयथा निवारयो हतो.॥ ६ ॥ धिधी ताण नराणं, जे जिणवयणामयंपि मुत्तणं ॥ चनगशविबण करं, पियंति विसयासवं घोरं ॥६॥ ... शब्दार्थः-धिकार थान ! धिक्कार था! तेग पुरुषाने के,जे जिन वचनरूप अमृतने मूकीने चारे गतिनी विटंबना करावनार विषयरूप घोर मदिराने पीए डे !!! ॥ ६५ ॥ मरणेवि दीपवयणं, माणधरा ज नरा न जपंति ॥ तेवि ह कुणंति लल्लिं, बालाणं नेहगहगदिला ॥६६॥ शब्दार्थः-मानने धारण करनारा जे पुरुषो मरण पावे बते पण दीन वचन नहोता बोलता, तेज पुरुषो स्त्रोयोना स्ने. हरूप ग्रहथी घेला थश्ने दीन वचनो बोले बे. ॥ ६६ ॥ सकोवि नेव खंमइ, मादप्प ममुप्फुरं जए जेसिं ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) तेवि नरा नारीहिं, करावि निय य दासत्तं ॥६॥ शब्दार्थः-श्रा जगत्मांजे पुरुषोनां महात्म्य अने महिमाने शक्रं पण न खंमन करी शके, तेवा पुरुषोनी पासे पण स्त्रीयोए पोतार्नु दासपणुं कराव्युं .॥ ६७ ॥ जजनंदणो महप्पा, जिणनाया वयधरो चरमदेहो। रहनेमी राश्मर, रायम कासि हो विसया ॥६॥ .. ..... शब्दार्थः-धिकार थान विषयोने ! के, यादवना पुत्र, म्होटो बेत्रात्मा जेनो,नेमिनाथ जिनराजना नाइचारमहाव्रत धारक अने चरम शरीरी एवा रथनेमीये पण राजीमती साथे रागमति करी! मयणपवणण जइता-रिसावि सुरसेलनिच्चला चलिया। ता पक्कपत्तसत्ता--ण श्यरसत्ताण का वत्ता ॥ ६॥ शब्दार्थः--जो के मदन रूप पवनथो मेरुपर्वत सरखा निश्चय मुनियो चलि गया,तो पाका पान जेवा सत्ववाला बोजा जी. वोनी शी वात ? ॥६॥ जिप्पंति सुदेणं चिय, हरिकरिसप्पाश्णो मदाकूरा ॥: इक्कुच्चिय उङोयो, कामो कयसिवसुदविरामो ॥ ७० ॥ ... शब्दार्थः-सिंह, हाथी अने सादिक महा कर जोवोने सुखेथी जीताय, परंतु करयो डे मोकना सुखथा विराम जेणे एवो एक काम जीतवो पुर्जय . ॥ ७० ॥ विसमा विसयपिवासा, अणाइनवनावणा जीवाणं ॥ अश्याणी इं-दियाणि तह चंचलं चित्तं ॥ ७ ॥ । शब्दार्थः--जीवोने विषम एवा विषयन तृग अनादिनो संसा रनी नावना . इंजियो अति दुर्जय ने तेम चित्त पण चंचल जे. कलिमल अर अजुरकी, वाही दाहा विविद असुहाई Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) मरणांपि य विरदाइसु, संपजाइ कामतविया ॥१२॥ शब्दार्थः- कामथी तपेला जोवोने क्लेश, अरति, नूख, दादा दिक व्याधि, विविध प्रकारनां दुःख, प्रियजननो त्रियोग धने मरण प थाय बे ॥ ७२ ॥ ( काव्यम् ) पंचिदिय विसयपसंगरे सि, मणवयणकायन विसंवरे सि तंवादिसि कत्तिय गलपएसि, जं अठकम्मं नवि निरेसि शब्दार्थः - जे प्राणी पंचेंद्रियना विषय प्रसंगने माटे मन, वचन कायाने नथी संवरतो, तथा ज्ञानावरणादि या कर्मोंने नथी निर्जरतो; ते प्राणी पोताना गलानी जग्याए कातरवादे बे. ||१३|| किं तुमंधोसि किंवासि धत्तूरिन, अदव किं सन्निवारण आऊरिन । मयसमधम्म जं विसव प्रवमन्न से, विसयविसविसम मियंव बहु मन्नसे ॥७४|| शब्दार्थः--दे जीव ! शुं तुं धांधलो बे? शुं तें धंतूरो खाधो बे ? अथवा शुं शुं सन्निपात रोगे वींटा एलो बे ? के, जे कारण माटे मृत समान जिनधर्मने विषनी पेठे अवगणे बे ? अने विषम एवा विषय रूप विपने अमृतनी पेठे बहु माने बे ॥१४॥ तु तुद नाविन्नाणगुणमंत्र, जल जालासु निवमंतु जि निनरो ॥ पयइ वामेसु कामेसु जं रसे, जेहि पुण पुरावि निरयानले पच्चसे ॥ ७५ ॥ शब्दार्थ :- हे जीव ! त्हारुं ज्ञान, विज्ञान अने गुणनो था. कंबर, ते सर्वे निरंतर अग्निनी ज्वालामां पको, जे कारण माटे तुं प्रकृतिये वांका एवा कामनोगमां राचे बे, जेथी तुं फरी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) फरीने नरकमां रहेली अग्निनी ज्वालामां पमीश. ॥ ७५ ॥ दद गोसीस सिरिखंम बारक्कए, बगल गढ़ा मेरावणं विक्कए || कप्पतरु तोडि एरंग सो वावए, जु बिसहिं मपुच्प्रत्तणं दारए ॥ ७६ ॥ शब्दार्थः-- जे प्राणी अल्प एवा विषयसुखने माटे मनुष्य पणाने दारे बे; ते प्राणी राखने माटे गोशी चंदन ने सूखम ने बाले बे, बोकको ग्रहण करवा माटे ऐरावत हाथीने वेचे बे कल्पवृक्षने नखेमी नांखी एरंमाने वावे बे ॥ ७६ ॥ (अनुष्टुप् वृत्तम् ) प्रधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया ॥ विणिअट्टिक जोगेसु, च्याउ परिमित्र मप्पणो ॥ ॥ शब्दार्थ:-- जीवितव्यने अशाश्वत जाणीने, मोक्ष मार्गना सुखने शाश्वत जाणी ने ने श्राखुं अपरिमित (प्रमाण विनानुं) जाणीने जोगथी विशेष निवर्त्तनुं ॥ 99 ॥ ( आर्यावृत्तम् ) सिवमग्गसंविप्राणवि, जह या जियाण पण विसया तह अन्नं किं पिजए, उजेयं नचि सयलेवि ॥७८॥ शब्दार्थ : जेम मोक मार्गमां रहेला जीवोने पण पांच वि. यो दुर्जय बे, तेम सर्व जगत्मां बीजुं कोइ पण दुर्जय नथी. सविमंकुनमरूवा, दिठा मोदेइ जा मणं इव ॥ आयहियं चिंतंता, दूरयरेणं परिहरति ॥ ७९ ॥ शब्दार्थ:--विकार सहित मनोहर रूपवाली एवी जे स्त्री, ते बीवी बती मनने मोहित करे. ते कारण माटे पोताना चा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dहित चितवनार पुरुष तेवी स्त्रीने द्रथाज त्याग करे ३ ॥ सचं सुअंपि सील, विन्नाणं तह तवंपि वेरग्गं॥ बच्चखणेण सवं, विसयविसेणं जईणंपि ॥७॥ शब्दार्थः-सत्य, श्रुत, शील, विज्ञान, तप तेमज वैराग्य, ए सर्वे मुनिनां पण विषयरूप विषथो करामात्रमा जतां रहे. रे जीव सम विगप्पिय, निमेससुदलालसो कहं मूढ सासयसुहमसमतम, दारिसि ससिसोअरंच जसं ॥१॥ शब्दार्थ:-रे जीव ! पोतानी मतिये कल्पेला श्रने निमेष मात्र-आंख मींचीने उघामीये एटली वार सुखने आपनारा एवा विषय सुखनी लालचमा पमोने हे मूढ ! चंजमा समान उज्वल जशवाला अने जेनां समान जगत्मां बीजुं सुख नथो एवां शा श्वत सुखने तुं केम दारी जायठे ? ॥१॥ पऊखिन विसयअग्गी, चरित्त सारं महिला कसिणंपि॥ सम्मत्तंपि विराहिय, अणंतसंसारियं कुजा॥ न॥ शब्दार्थः--विषयरूप अग्नि प्रजल्यो बतो समस्त चारित्रना सार ने बाले अने समकितने विराधिने अनंतसंसारी पणाने करे . जीसणनवकंतारे, विसमा जीवाण विसय तिन्हा॥ जाए नमिया चजद-रसपुविवि रुखंति हुं निगोए॥३॥ शब्दार्थः-बिहामणी नव अटवीमां जीवोने विषयनी तृष्णा विषम जे.जे तृष्णाए नमायला चौद पूर्वियो पण निगोदमां रुले! दा विसमा हा विसमा, विसया जीवाण जेहि पनिबंधा॥ हिंमंति नवसमुद्दे, अपंतपुरका पावंता ॥ ४ ॥ शब्दार्थः-हा! हा! विषम एवा विषयोथी जे जीवो बंधाय ला, ते अनंत फुःखने पामता थका नव समुसमां हीमे . ४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) मा इंदजाल चवला, विसया जीवाण विज्जुतेअसमा॥ खणदिहा खणनहा, ता तेसिं को हु पमिबंधो ॥५॥ शब्दार्थः--मायावी इंग्रजाल जेवा, चपल अने वीजलीना जबकारा समान एवा विषयो जोवोने दणमां देखाय ने अनेकएमां नाश पामे, तो तेवा विषयोमां शो प्रतिबंध करवो ? ज्य सत्तु विसं पीसान, वेआलो हुअवदोवि पजालिन ॥ तं न कुण जे कुविया, कुणंति रागाश्णो देदो ॥६॥ . शब्दार्थ-शत्रु, विष, पिसाच, वेताल अने प्रज्वलित थयेलो अग्नि, ते सर्वे कोप्या थका पण जे दुख नथी करता; ते उःख देहने विषे रागादिक करे . ॥ ६ ॥ . जो रागाइण वसे, वसंमि सो सयलऽकलकाणं ॥ जस्स वसे रागाइ, तस्स वसे सयलसुकाइं ॥ ७ ॥ शब्दार्थः- जे जीवो रागादिकने वश्य बे, ते सर्व प्रकारनां लाखो पुःखने वंश्य अने जेना वश्यमां रागादिक ने अर्थात् जेणे रागादिकने पोताने वश्य करया बे, तेना वश्यमां सर्व प्रकारनां सुख .॥७॥ केवल दुहनिम्मविए, पमियो संसारसायरे जीवो ॥ . जं अणुहवइ किलेसो, तं आसव देनअं सत्वं ॥॥ शब्दार्थ:-श्रा जीव केवल फुःखे निपजावेला संसार स मुखमा पमीने जे क्लेशने (कुःखने) अनुजवे , ते सर्व श्रा. . श्रवनां कारण .॥ ७ ॥ दी संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंमिश्र जालं ॥ बचंति जब मूढा, मणु तिरिया सुरा असुराना शब्दार्थः हा इति खेदे पा संसारमा स्त्रोना रूपे करी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) विधाताए जाल मांझो जे. जे जालमा मूढ एवा मनुष्यो, तिर्यचो, सुरो थने असुरो बंधाय डे ! नए विसमा विसय नुअंगा, जेहिं मसि जिआ नवणंमि कीसंती दुहग्गीहिं, चुलसीई जोणि लकेसु ॥ ए॥ शब्दार्थः-नव रूपी वनमा अर्थात् संसार रूपी वनमा र खमता एवा जे जीवाने विषम एवा विषय रूप सर्पो मश्या, ते जीवो फुःख रूप अग्निये फुःख पामता थका चोराशीलाख जी वा योनिमां क्लेश पामे . ॥ ए॥ संसारचारगिम्दे, विसयकुवाएण बुकिया जीवा ॥ हियम दियं अमुणता, अणुहव अपंतजुकाइं॥५॥ शब्दार्थः-संसारना मार्ग रूप ग्रिष्मकालमां विषय रूप न गरा वायरेथी खुकायेला जीवो दित अहितने न जाणता थका अनंत कुःखोने अनुनवे . ॥ १ ॥ हा हा पुरंत दुछा, विषय तुरंगा कुसिस्किया लोए । नीसण नवामवीए, पामंति जिआण मु-हाणं ॥ए॥ __शब्दार्थः-हा! हा!'श्रा संसाररूप लोकमां दुःखे करी अं. तडे जेनो,उष्ट अने विपरीत शीखवेला एवा विषयरूप घोमा मुग्ध जोवोने नयंकर एवी नवरूप अटवीमां पामे ॥ ए॥ विसयपिवासातत्ता, रत्ता नारीसु पंकिलसरंमि ॥ उदिया दीणा खीणा, रुलंति जीवा नववर्णमि ॥ए३॥ शब्दार्थः- विषयरूप तृषाथी तपेला अने स्त्रीमा रक्त थये ला जीवोनवरूपी वनमां स्त्रीरूप कादववाला सरोवरमां फुःखीया, दीन श्रने कीण थया बता लोटे . ॥ ए३॥ गुणकारिया धणियं, धिरज्जुनिअंतिा तुह जीव Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ नियया इंदिया, वल्लिनिअत्ता तुरंगुव ॥ ए४॥ __ शब्दार्थः-हे जीव! अत्यंत धिरजरूप दोरमाथी वश्य राखेलो पोतानी इंडियो, लगाममां वश्य राखेला घोमानी पेठे अतिशे फायदाकारक , ॥ ए॥ मणवयणकायजोगा, सुनिअत्ता तेवि गुणकरा हुँति ॥ अनिअत्ता पुणनंजति, मतकरिणुव्व सीलवणं ॥ एय॥ शब्दार्थ---मन वचन श्रने कायाना योग वश्य करया बतां ते पण गुणकारी थाय बेथने नदि वश्य करया उतां मदोन्मत्त हस्तिनी पेठे शी वरूप वनने नागे . ॥ ए॥ जद जद दोसा विरमइ, जद जद विसएदि होश् वेरग्गं॥ तह तह विनायवं, आसन्नं से य परमपयं ॥ ए६ ॥ शब्दार्थः-जेम जेम दोषो विराम पामे श्रने जेम जेम वि. षयथी वैराग्य थाय डे, तेम तेम जाणवू के, तेने परमपद मोक्ष दुक हुंथाय , ॥ ए६ ॥ उक्कर मेएदि कयं, जेहिं समबेदि जुवणबेदि । जग्गं इंदिय सिन्नं, धिपायारं विलग्गेदिं॥ ए॥ शब्दार्थ:-जे पुरुष पोताना सामर्थ्यपणाथी जोवन श्रवस्था मां इंजियरूप सैन्यने नागीने धिरजरूप प्राकार (गढ)ने वलग्या, ते पुरुषे पुष्कर काम कघु एम जाणवू. ॥ ए ॥ ते धन्ना ताण नमो, दासोऽहं ताण संजमधराणं॥ अखि पचिराउ, जाण न दियए खमति ॥ एG॥ ___शब्दार्थः-तेज पुरुषोने धन्यडे, तेमनेज अमे नमस्कार करी एबीए अने तेज संयमधारीना श्रमेदास बीए के,जे पुरुषोंना हृदयमां अर्फि अांखे जोनारी अर्थात् कटाक्ष नेत्रे जोनारी स्त्रो खटकतो नथी.॥ए॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) किं बहुणा जइ वंसि, जीव तुम सासयं सुहं अरुदं ॥ ता पियसु विसयविमुदो, संवेगरसायणं निच्चं ॥ एए॥ शब्दार्थः-वधारे कहेवाथी शुं ? हे जीव ! जो तुं निरोग एवा शाश्वत सुखने वांडतो होय, तो विषयथी विमुख था अने निरंतर संवेग रसायणने पी. ॥ एए॥ ॥ इति श्री इंजियपराजयशतक समाप्तम्.॥ ॥श्री वैराग्य शतकम् ॥ संसारंमि असारे, नबि सुहं वाहिवेअणापनरे॥ जाणंतो इद जीवो, न कुण जिणदेसियं धम्मं ॥२॥ शब्दार्थः-असार तेमज व्याधि अने वेदैनाथी भरपूर एवा था संसारमा सुख नथी, एम जाणतो तो जीव जिनराजे कहेला धर्मने श्राचरतो नथी. ॥१॥ अचं कलं परं परारि, पुरिसा चिंतंति अबसंपत्तिं ॥ अंजलिगयंव तोयं, गवंतमाऽऽउं न पिछति ॥२॥ शब्दार्थः- पुरुषो "बाज, काल, पहोर अथवा परार मने धन संपत्ति मलशे." एम विचार करे डे; परंतु अंजलीमा रहेला पाणीनी पेठे गली जतां आयुष्यने नथी जोता.॥२॥ जं कल्ले कायचं, तं अऊ चिय करेद तुरमाणा ॥ बहुविग्चो हु मुहुत्तो, मा अवरएहं पमिकेद ॥ ३ ॥ . शब्दार्थः-हे प्राणीयो! जे काले करवा योग्य होय तेने जट आजेज करो. कारणके, एक मुहर्तमां पण बहु विघ्नो श्रावो प. में, माटे पावता दिवसनी वाट न जून ॥३॥ १ शरीर संबधि.ख, २ मन संबंधि ख. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५ ॥ (१७) ही संसाररसदावं, चरियं नेदाणुरायरत्तावि ॥ जे पुवाहे दिका, ते अवरसहे न दीसंति ॥४॥ शब्दार्थः-श्रा संसारना स्वन्नावना आचरणने जोइने थ. मने खेद थाय ले के, स्नेहना अनुरागमा श्रासक्त एवा स्वजनो सवारे देखाता हता ते सांजे देखाता नथो ॥ ४॥ मा सुबह जग्गिअवे, पलाअवमि कीस वीसमहे ॥ तिन्निं जणा अणलग्गा, रोगो अ जरा अ मच्चू अ५ शब्दार्थः-हे लोको ! जागवाने अवसरे अर्थात् धर्मकृत्य क रवाने वखते केम सूझ रहो हो ? अर्थात् आलस करोडो ? वली नासी जवानां स्थानके केम विसामो करो हो ? कारणके, रोग, जरा अने मृत्यु ए तमारी पुंठे लागेला . ।। ५ ॥ दिवसनिसाघमिमालं, आउसलिलं जीआण धित्तूणं चंदाश्चबश्ल्ला, कालरदटुं नमामंति ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-चंड सूर्यरूप बलदो रात्रि दिवसरूप घमानी पं क्ति वझे जीवोनां आयुष्यरूप पाणीने खेंची काढता उता काल रूप रेंने फेरवे ॥६॥ । सा नलि कला तं ननि, उसहं तं नस्थि किंपि विनाणं । जेण धरिजा काया, खांतो कालसप्पेणं ॥७॥ शब्दार्थः-हे नव्य जीवो! कालरूप सर्पथी जहण कराता देहने जेनाथी रक्षण करीये एवी को कला नथी, तेवु को औ. षध नथी थने तेवू को विज्ञान पण नथो. ॥७॥ दोहरफर्णिंदनाले, महिअरकेसर दिसामहदखिल्ले ॥ पीअइ कालनमरो, जणमयरंदं पुरविपउमे ॥॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) शब्दार्थः-आ घणी खेदनी वात ले के, कालरूपन्नमरो हो टा शेषनागरूप नालवालां, पर्वतोरूप केशरावाला, दिशारूप पत्रवालां, पृथ्वीरूप कमलने विषे मनुष्योरूप भकरंदनु पानकरे. गयामिसेण कालो, सयलजीणं बलं गवसंतो ॥ . पासं कहवि न मुंचइ, ता धम्मे नद्यम कुणद ॥ ए॥ शब्दार्थः-बलनी शोध करतो काल गयानां मिषथो सर्व प्राणीयोनां पमत्रांने नथी मूकतो, माटे हे नव्य जीवो ! तमे धर्मने विषे नद्यम करो.॥ ए॥ कालंसि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं ॥ तं नत्थि संविदाणं, संसारे जं न संभव ॥१०॥ ___ शब्दार्थः-अनादि काल चक्रमां जमता अने नाना प्रकारलां कर्मने वश रहेलाजीवोने संसारमा कोइपण एकेडियादि नेद नथी प्राप्त थयो, एम नथी. अर्थातू एकेडियादि सर्वे नेदोमां नमेलो बे. (अनुष्टुप्बृत्तम् ) बंधवा सुदिणो सवे, पिअमाया पुत्तनारिया ॥ पेवणान निअत्तंति, दाऊणं सलिलंजलिं ॥ ११॥ शब्दार्थः-बांधवो, सुहृदो, माता, पिता, पुत्र श्रने स्त्री, एसर्वे मरी गयेला मनुष्यने पाणीनी अंजली श्रापोने पर श्मशानथी पाग श्रावे .॥ ११॥ (श्रावृत्तम्.) विदति सुआ विहमं-ति बंधव वल्लदा य विहमति॥ को कहवि न विदम, धम्मो रे जीव जिणनणि १२ शब्दार्थः--अरे जीव! पुत्रो, बांधवो अने स्त्रीयो ए सर्वेनो वियोग थाय बे; परंतु श्री जिनराजे कहेला एक धर्मनो वियोग क्यारे पण थतो नथी. ॥ १२ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमकम्मपासबद्दो, जीवो संसारचारए गई॥ अमकम्मपासमुक्को, आया सिवमंदिरे ग॥१३॥ शब्दार्थः-श्राउ कर्मरूप पासायो बंधायलो जीव संसाररूप बंधीखानामां रहे अने था कर्मपासथी छुटेलो आत्मा मोक मंदीरमां बसे ॥ १३॥ विदवो सजणसंगो, विसयसुहाई विलासललिआइं॥ नलिणोदलग्गघोलिर, जललवपरिचंचलं सवं ॥१४॥ शब्दार्थः--लक्ष्मी, स्वजन संयोग अने विलासे करीने सुंद र एवां विषय सुख ए सर्वे कमलनां पत्र उपर कंपता रहेला पा of ना विंदु समान अत्यंत चपल ले.॥ १४॥ तकब बलं तं क- जुवणं अंगचंगिमा कब ॥ र अवमणिचं पिबह, दिन कयंतेण ॥ १५॥ शब्दार्थ:--हे प्राणीयो ! ते बल, ते यौवन अने अंगनुं संद रपणुं क्यां गयुं ? ते कारण माटे काले करीने दीग न दीग जेवं भा सर्व अनित्य जाणो. ॥ १५॥ घणकम्मपासब-छो, अवनयरचनप्पसु विविहान॥ पाव विमंबणाज, जीवो को श्ब सरणं से॥१६॥ शब्दार्थः-गाढ कर्मरूप पासाथी बंधायलो जीव संसार रूप नगरना चौटामा विविध प्रकारनी विटंबना पामे , माटे आ संसारमा ते जीवनू कोण रक्षण करनार डे ? ॥ १६ ॥ घोरंमि गनवास, कलमलजंबालअसुश्बीनने ॥ बसि अणंतखुत्तो, जीवो कम्माणुनावण ॥ १७॥ शब्दार्थः-जीव, घोर अने दरमा रहेला पदार्थोथी अच Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) चि तेमज जयंकर एवा गर्नवासमां पोतानां कर्मना प्रजावधी अनंतीवार वश्यो . ॥ १७ ॥ चुलसी किर लोए, जोणीणं पमुहसयसहस्साइं॥ इकिकम्मि अ जीवो, अणंत खुत्तो समुप्पनो ॥२॥ शब्दार्थः-शास्त्रमा चोराशी लाख योनी कही डे अने ते द. रेक योनीमां जीव अनंतीवार उत्पन्न थयो बे. ॥१७॥ मायापियबंधुहिं, संसारहिं पूरिन लो॥ बहजोणिनिवासीहि, नय ते ताणं च सरणं च ॥रणा शब्दार्थः-संसारमा रहेला अने घणी योनीमां निवास करनारां माता, पिता अने बंधुर्जए करीने श्रा लोक नरपुर थयो डे; परंतु ते माता पिता विगेरे हारुं रक्षण करनार नथी, तेम ते त्हारे शरण करवा योग्य नथी ।। १५ ॥ जीवो वादिविलुत्तो, सफरो श्व निकाले तमप्फम ।। सयलोविजणो पिचर, को सक्को वेअगाविगमे ॥३॥ __ शब्दार्थः-पीमाथी व्याप्त थयेलो जीव जल रहित स्थानमा मांबलानी पेठे तरफ बे.सर्व लोक ते जीवने जूए बे, पण तेनी वेदना द्र करवा कोण समर्थ होय ? अर्थात् कोइ नथी. २० मा जाणसु जीव तुमं, पुत्त कलत्ताइ मद्य सुदहेक । निनणं बंधणमेअं, संसारे संसरंताणं ॥ १ ॥ शब्दार्थः हे जीव ! तुं “था पुत्र कलत्रादि म्हारां सुखनां कारण थशे.” एम न जाणीश. कारणके, संसारमा लमतां जीवोने ते पुत्रादि नखटा बंधनरूप थाय ॥१॥ जणणी जाय जाया, जाया माया पिआ य पुत्तो य॥ अणवबा संसारे, कम्मवसा सवजीवाणं ॥ २२ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) शब्दार्थ - संसारमां कर्मनां वश्यथी सर्व जीवोने एक जात नी अवस्था रहेली नथी. कारण के, पूर्वना जवमां माता होय ते बीजा नवमां स्त्री यर जाय, स्त्री होय ते माता थाय, पिता होय ते पुत्राने पुत्र होय ते पिता थाय ॥ २२ ॥ (अनुष्टुपूवृत्तम् ) नसा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं ॥ न जाया न मुच्या जब, सवे जीवा प्रांतसो ॥ २३ ॥ शब्दार्थः--जेमां सर्वे जीवो अनंतीवार उत्पन्न थया नथी अ ने मृत्यु पाम्या नथी एवी कोइ जाति, योनी, स्थान के कुल नथी. ( श्रार्यावृत्तम् ) तं किंपिणं, लोए वालग्गको निमित्तंति ॥ जव न जीवा बहुसो, सुददुकपरंपरं पत्ता ॥ २४ ॥ शब्दार्थः जेमां जीवो बहुवार सुख दुःखनी परंपराने नथी पाम्या; एवं लोकमां वालना अग्रभाग जेटबुं कोइपण स्थान नथी. सवान र दीर्ड, पत्ता सवेवि सय संबंधा ॥ संसारे तो विरमसु, तत्तो जइ मुसि प्रमाणं ॥ २५॥ शब्दार्थ :- हे जीव तने श्रा संसारमां सर्वे समृद्धि ने सर्वे स्वजनादि संबंध प्राप्त थाय बे, माटे जो पोताने सुखो जातो दोय तो तेथी विराम पाम ||२५|| एगो बंधइ कम्मं, एगो वहबंध मरणवण साई ॥ विसदर नवंमि ममइ, एगुच्चि कम्मवेलविन २६ शब्दार्थः-- जीव पोते एकलोज कर्मने बांधे बे, एकलो व ध, बंधन छाने मरणनी आपत्तिने सहन करे बे; वली एकलोज कर्म थी गायो तो संसारमां जमे बे. ॥२६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अन्नो न कुणअदिअं, हियपि अप्पा केरश्न हु अन्नो अप्पकयं सुददुरकं, मुंजसि ता कीस दीणमुहो ॥२॥ __ हे प्राणिन् ! त्हाळं बीजु कोइ अहित करतुं नथी. तेमज हा पोतानुं दित पण तुं पोतेज करे बे, बोजु को करतुं न. थी, माटे तुं पोतानुं करेलुं सुख दुःख जोगवे , तो पड़ी शा कारण माटे दीन मुखवालो थाय ? ॥२७॥ बहुआरंनविदत्तं वित्तं विलसंति जीव सयणगणा ॥ ताणियपावकम्मं, अणुदवसि पुणो तुमं चेव ॥श्न॥ शहार्थः हे जीव ! तें पोते बहु आरंजयी मेळटुं जे धन ले तेणे करीने दारा स्वजनो विलास करे ने अने वली ते आरंनथो नत्पन्न थयेला पापने तुं पोते एकलोज नरकमां अनुजव करीश. अह दुस्किाइतह नु-रिकाश्जद चिंतियाश मिना तह थोपि न अप्पा, विचिंति जीव किं नणिमो शए शब्दार्थ:-अरे मूर्ख जीव ! तें जेवी रीते त्दारा खी थता नूख्या एवा बालकोनो विचार करयोडे तेवी रीते त्हारो पोतानो विचार करयो नश्री, तो हवे तने शुं कहुं ? ॥ ५ ॥ खणनंगुरं सरीरं, जीवो अन्नो अ सासयसरूवो॥ कम्मवसा संबंधो, निब्बंधो इत्थ को तुध ॥३०॥ शब्दार्थः--शरीर कणनंगुर अने तेथी जूदो एवो जीव शा श्वत रूपवालो जे. वली ए बेनो कर्मना वश्यथी संबंध थयो तो पली हे जीव! त्हारे ए शरीरने विषे मूळ शामाटे राखवी जोश्ये? कद आयं कह चलिअं, तुमंपिकद आग कहं गमिहो। अन्नुन्नपि न याणह, जीव कुमुबं कर्ज तुध ॥ ३१॥ शब्दार्थ-हे जीव था कुटुंब क्याथी श्राव्यु अने क्यांगयुं? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) तुं पक्यांथी श्राव्यो छाने क्यां जइश? वली तमें परस्पर एक बीजाने जाणता नथी तो पढी ते कुटुंब व्हारुं क्यांथी ? ३१ खणचंगुरे सरोरे, मणुनवे पलसारित्थे ॥ सारं इत्तिमित्तं, जं कीरइ सोहणो धम्मो ॥ ३२ ॥ शब्दार्थः--शरीर क्षणभंगुर अने मनुष्यजव मेघना समूह जेवो बे, जेथी उत्तम धर्म याचरवो एज मात्र सार बे. ३१ (अनुष्टुप् वृत्तम् ) जम्म डुकं जरा दुकं, रोगा य मरणाणि य ॥ अहो डुको हुं संसारे, जत्य की संति जंतुणो ॥ ३३ ॥ शब्दार्थ:-- जन्म संबंधी दुःख, जरावस्था संबंधी दुःख, रो गो ने मरण ए पण दुःखमय बे; माटे या संसारज दुःखरूप बे, जेमां प्राणीयो क्लेश पामे बे. ॥ ३३ ॥ ( श्रार्यावृत्तम् . ) जाव न इंदियहाणी, जाव न जररस्कसी परिफुरइ ॥ जाव न रोगविच्यारा, जाव न मच्चू समुल्लिखई ॥ ३४ ॥ शार्थ:- ज्यां सुधीमां इंद्रियो को थर नथी, ज्यां सुधोमां जरावस्थारूपी राक्षसी प्रगट थर नयो, ज्यां सुधीमां रोगविका रोत्पन्न थया नयी अने ज्यां सुधी मां मृत्यु नदय श्रव्यं नथी, त्यां सुघीमां धर्म साधन करी लेद ॥ ३४ ॥ जद गेदमि पलित्ते, कूवं खणीनं न सक्कए कोइ ॥ तद संपत्ते मरणे, धमो कह कीरए जीव ॥ ३५ ॥ · शब्दार्थः--जेम घर सलगवा लाग्या पढी कोइ माणस कूंवो खोंदवाने समर्थ थतो नथी, तेम मरण नजीक श्राव्या पक्षी हे जी ब! तुं धर्म शोर करी सकीश ? ॥ ३५ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) 'रूवम सासयमेच्यं, विज्जुलयाचंचलं जए जी ॥ संघाणुरागसरिसं, खणरमणीयं च तारुन्नं ॥ ३६ ॥ शब्दार्थः-- या रूप अशाश्वतुं बे, जगत्मां जीवित विजली नी पेठे चपल बे ने तारुण्यप पण संध्याना रंग जेवुं कृण रमणीक बे. ॥ ३६ गयकन्न चंचलान, लच्च न तिप्रसचावसारित्यं ॥ विसयसुदं जीवाणं, बुधसु रे जीव मा मुद्य ॥ ३७ ॥ शब्दार्थः - जीवोने लक्ष्मीयो हाथीना कान जेवी चंचल थाने विषय सुख इंद्रनां धनुष्य सरखुं चपल बे, माटे अरे जीव ! लुं बोध पाम, पण मोह न पाम. ॥ ३७ ॥ जद संघाए सणा-संगमो जद पढे पहिचाणं ॥ सयणाणं संजोगो, तदेव खणभंगुरो जीव ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ:-- हे जीव ! जेवी रीते संध्या समये पक्षीयोनो ने रस्तामां मुसाफर लोकोनो समागम थायडे, तेवीज रीते या स्त्र जनोनो समागम पण क्षणभंगुर ठे. ॥ ३८ ॥ ( उपजाति वृत्तम् ) निसाविरामे परिभावयामि, गेहे पलित्ते किमहं सुखामि मद्यंतमप्पाणमुवक यामि, जं धम्मरदिन दिहा गमामि शब्दार्थ - हे जीव ! तने श्रावो विचार केम तेथी धावतो के, हुं पाउली चार घमी रात रहे एटले यावा विचार करूं के जे ढुं धर्म रहित दिवसो केम गमावुं हुं ? घर बलवा मांड्ये ते केम सुइ रहुं हुं ? ने बलता एवा आत्मानी केम उपेक्षा करूं हैं ? ( अनुष्टुपवृत्तम् . ) जाजा वच्च रयणी, न सा परिनित्तइ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अदम्मं कुणमाणस्स, पहला जंति राइन ॥४०॥ शब्दार्थ - जे जे रात्री दिवसो जाय बे ते ते पाठा यावता नथी. कारणके, धर्म, करनार माणसोना रात्री दिवस निष्फल जाय बे. जस्स मिच्चुणास कं, जस्स विवि पलायणं ॥ जो जाणे न मरिस्सामि, सोहु कंखे सुए सिया ॥ ४२ ॥ शब्दार्थ - जेने मृत्युनी साथे मित्रता बे, जेने मृत्युथी नासी जवं बेवली जे पुरुष एम जाऐ बे के, हुं मरीश नहि, ते पुरुकदापि यवती काले धर्म करवानी इछा करे बे ॥४१॥ ( श्रार्यावृत्तम् . ) दंगकवि करित्ता, वच्चंति हु रा प्र दिवसा य ॥ उस संविता, गयावि न पुणो नितंति ॥४२॥ शब्दार्थः--फालका उपरथी देरुत्रमे सूत्रने नकेलवानी पेठे आयुष्य नकेलता एवा रात्री दिवसो चाल्या जाय बे ने ते गयेला रात्री दिवस पाा आवता नथी. ॥ ४२ ॥ ( उपजातिवृत्तम् ) जद सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले न तस्स माया व पियाव जाया, कालंमि तंमिसहरा जवंति शब्दार्थः--जेम या लोकमां सिंह मृगने पकमीने मारी नांखे बेम मृत्यु माणसने निश्वे विनाश पमाने बे; पण ते वखत ते माणसने माता, पिता ने जाइ रक्षण करवा समर्थ यता नयी. ( आर्यावृत्तम् . ) जिखं जलविंदुसमं, संपत्तीन तरंगलोलान ॥ सुमियसमं च पिम्मं, जं जाणसु तं करितासु ॥ ४४ ॥ शब्दार्थः-- जीवीत दर्जना अग्रभाग उपर रहेला जलबिंडु Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) समान, संपत्तियो जलना तरंगो समान घने प्रेम स्वप्न समान बे, माटे जो तुं ते जाणतो होय तो धर्म श्राचरः ॥ ४४ ॥ ( रथोद्धतावृत्तम् ) संकराग जल बुब्बुवमे, जीविए प्र जलबिंदुचंचले ॥ जुवणे य नश्वेगसन्निने, पावजीव कि मियं न बुन से ४५ शब्दार्थः-- संध्या समयनो रंग, पाणीना परपोटा ने दर्ज ना नाग नपर रहे लुं पाणी नुं बिंडु तेना समान जोवित बते वल नदीना वेग समान युवावस्था बते हे पाप जीव ! तुं बोघ नथ पामतो ए शुं ? ॥ ४६ ॥ ( श्रार्यावृत्तम् ) अन्नच सुख अन्न व रोहिणी परिशोवि अन्नन्तु ॥ प्रबलिव, कुरूंचं, परिकत्तं दयकयते ॥ ४६ ॥ शब्दार्थ:--ारे निंदा करवा योग्य काले जतने वलिदान - पत्रानी पेठे पुत्रोने जूदो गतिमां, स्त्रीने जूदो गतिमां छाने परिवारने जूदी गतिमां; एम सर्व कुटुंबाने जूडुं जूडुं करी नाख्युं बे. जीवेण नवेनवे मि लिया, देदाइ जाइ संसारे ॥ ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा प्रणतेदिं ॥ ४७ ॥ शब्दार्थः -- हे श्रात्मन्! या संसारमां जी वे, नवे नवमां जे देदो मे बाबे, तेनुनी अनंता सागरोपमथी पण संख्या थइश के तेम नयी. नयोदयं पितासिं, सागरसलिलान बहुयरं दोइ ॥ गलियं रुयमाणी माऊणं अन्नमन्नाणं ॥ ४८ ॥ शब्दार्थः - हे श्रात्मन्! ते अपर अपर जन्मनी रुदन करती मातार्जुनां यांसुनां जलनुं प्रमाण समुद्रनां जलथी पण वधारे बे. जं नरए नेरइया, दुहाइ पार्वति घोरणंताई ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) तत्तो अणंतगुणिशं, निगोअमद्ये दुदं हो ॥ ४ ॥ शब्दार्थ:-नरकमा नारकी जीवो जे घोर अनंत कुःख पा मे , तेनाथी अनंतगणुं पुःख निगोदमां ने, ॥ ४ ॥ तंमिवि निगोअमद्ये, वसिन रेजीव विविहकम्मवसा ॥ विसहंतो तिकदुहं, अणंतपुग्गलपरावते ॥ ५० ॥ शब्दार्थः- अरे जीव! विविध कर्मना वश्यथी ते निगोदनी मध्ये पण तुं तिक्षण पुःखने सहन करतो तो अनंत पुद्गलप रावत काल सुधी वश्यो . ॥ ५० ॥ नीदरिअ कहवि तत्तो, पत्तो मणुअत्तणंपि रेजीव ॥ तत्थवि जिणवरधम्मो, पत्तो चिंतामणिसरित्यो ॥५॥ शब्दार्थः-अरे जीव ! महा कष्ट करीने ते निगोदेथी नीकली तुं मनुष्य पणाने पाम्यो जे अने तेमां पण चिंतामणि रत्न सरखा जिनेश्वरना धर्मने पाम्यो . ॥१॥ पत्तेवि तंमि रेजीव, कुणसि पमायं तमं तुमं चेव ॥ जेणं नवंधकवे, पुणोवि पमिन दुई लहसि ॥५॥ शब्दार्थ:-अरे जीव! ते जिनेश्वर धर्म प्राप्त थया बता प ण तुं जेनाथी फरीने पण संसाररूप कूवामां पमीने फुःख पमाय एवा प्रमादने करे . ॥५२॥ अवलो जिणधम्मो, न य अणुविन्नो पमायदोसेणं॥ हा जीव अप्पवेरि अ, सुबहुं पर विसूरहिसि ॥५३॥ शब्दार्थः हे जीव तने जिनेश्वरनो धर्म प्राप्त थयो, पण ते प्रमादना दोषथा तेने सेव्यो नहि; जेथी हे पात्मवैरी! तुं आगल बहुज खेद करीश. ॥ ५३॥ सोअंति ते वराया, पत्था समुवठिअंमि मरणंमि॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पावपमायवसेणं, न संचिन जेहिं जिणधम्मो ॥५४॥ शब्दार्थः-जेमणे पापरूप प्रमादना वश्यथा जिनधर्म नथी सेव्यो ते रांक पुरुषो मरण प्राप्त थये ते शोक करे जे. ५४ धीधी धी संसारं, देवो मरिकण जं तिरो होइ॥ मरिऊण रायराया, परिपञ्च निरयजालाए ॥ ५५॥ शब्दार्थः-श्रा संसारनेज धिक्कार ! धिक्कार ले !! धिक्कार डे !!! कारणके, देवता मरीने तिर्यच थाय ने अने चक्रवर्ती मरी ने नरकनी ज्वालामां पचाय बे. ॥ ५५ ॥ जाइ अणादो जीवो, दुमस्स पुप्फंव कम्मवायद ॥ धनधन्नादरणाई, घरसयणकुमुब मिल्देवि ॥ ५६ ॥ शब्दार्थः-अनाथ जीव धन, धान्य, थानरण, घर, स्वजन अने कुटुंबने त्यजीने कर्मरूप वायुथी दणायो उतो वृक्षनां पुष्पनी पेठे नीचे पसे जे. (नीची गति पामे . ) ॥ ५६ ॥ वसिअं गिरीसु वसिअं, दरीसु वसि समुद्दमछमि ॥ रुकग्गेसु अवसिअं, संसारे संसरंताणं ॥ ४ ॥ शब्दार्थ-दे श्रात्मन्! संसारने विषे जमता एवातें पर्वतो उपर, गुफामां, समुरुमां अने वृदोनांअग्रनागने विषे निवास कस्यो . देवो नेरइन त्ति य, कीम पयंगु त्ति माणसो एसो॥ रूवस्सी य विरूवो, सुहानागी दुकन्नागी य ॥ ७ ॥ शब्दार्थः हे जीव! तुं केटलीक वखत देवता, नारकी, कीमो पतंग अने मनुष्य थयो . वली तेनो तेज तुं केटलीक. वखत रू पवंत, कुरूपवंत, सुखी अने फुःखी थयो जे. ॥५८॥ राउत्ति अ दुमगुत्ति अ, एस सपागुत्ति एस वेअविक ॥ सामी दासो पुजो, खलुत्ति अधणो धणव इत्ति ॥याणा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) शब्दार्थः-एज तुं केटली वखत राजा, नी खारी, चंमाल, ब्राह्मण, स्वामी, दास, पूज्य, खल, निर्धन अने धनवंत थयो . नवियत्यिकोनियमो,सकम्मविणिविसरिसकय चिहो अन्नुन्नरूववेसो, नडुव्व परिअत्तए जोवो ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-ए पूर्वे कहेलामां को जातनो नियम नथी. कारणके, पोते पोतानां कर्मनी रचना प्रमाणे चेष्टा करनारो जीव नटनी पेठे जूदां जूदां रूप लश्ने फरया जे.॥ ६० ॥ नरएसु वेयणान, अणोवमा असायबहुला॥ रे जीव तए पत्ता, अणंतखुत्तो बहुविहान ॥६॥ शब्दार्थः-श्ररे जीव !ते नरकमां नपमा रहित श्रने अशाता वेदनावाली बहु प्रकारनी वेदना अनंतीवार प्राप्त कर ले. देवत्ते मणुअत्ते, पराजिउंगत्तणं नवगएणं ॥ नीसणदुई बहुविहं अणंतखुत्तो समणुनूअं॥६२॥ शब्दार्थः हे जीव ! तें देवपणामां, मनुष्यपणामां परतंत्र प. पाने पामवावमे बहु प्रकारनुं जयंकर मुख अनंतीवार श्रनुजव्युने. तिरिअगइंअणुपत्तो, जीममहावेणा अणेगविदा॥ जम्मणमरणरदहे, अणंतखुतो परिग्नमि ॥६३ ॥ शब्दार्थः हे जोव! तीर्यच गतिने पामेलो तुं अनेक प्रकारनी जयंकर वेदनावाला जन्म मरण रूप रेटमां अनंतोवार नम्योडं. जावंति केवि दुका, सारीरा माणसा व संसारे॥ पत्तो अणंतखुत्तो, जीवो संसारकंतारे ॥६४॥ शब्दार्थः-संसारमां शरीरसंबंधी अने मनसंबंधी जेटली कोई पुखोडे ते सपा संसाररूप. अरण्यमां जमता एवा जीवे अनेतीवार पाम्यो । ६३ ।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) तण्डा अयंतखुत्तो, संसारे तारिसी तुमं आसी॥ जं पसमेनं सबो-दहोणमुदयं न तीरिजा ॥६५॥ शब्दार्थः-हे जीव! तने तेवाप्रकारनी (तृष्णा) तृष्णा संसा. रने विषे अनंतीवार थडे के, जे तृष्णाने शमाववा माटे सर्वे समुखानु पाणी पण समर्थ न थाय. ॥६५॥ आसी अणंतखुत्तो, संसारे ते बुहावि तारिसीया ॥ जं पसमेनं सबो, पुग्गलकानविन तरिजा ॥६६॥ शब्दार्थः हे जीव ! वली तने संसारमा तेवी कुधा अनंतीवार उत्पन्न थ डे के, जे कुधाने शमाववाने घृतादि पुजल समूहो पण समर्थ न थाय ॥ ६६ ॥ काऊण मणेगाई, जम्मणमरणपरिअणसया॥ मुस्केण माणुसत्तं, जइ लहर जहिछि जीवो॥६॥ शब्दार्थः-ज्यारे जीव अनेक एवा जन्म मरणना शेंकमो परावतने करीने पुःखथी मनुष्यन्नव पामे त्यारे ते शचित सुख पामे . तं तह उल्लदखनं, विल्लियाचंचलं च मणुअत्तं ॥ धम्ममि जो विसीअक्ष, सो काउरिसो न सप्पुरिसोर्च शब्दार्थः-जे पुरुष दश दृष्टांतथी उर्द्धन अने विजलीनी पेठे चंचल एवा ते मनुष्य नवने पामोने धर्मने विषे खेद पामेडे, ते कायर पुरुष जाणवो पण सत्पुरुष न जाणवो. ॥ ६॥.. a (नपजाति वृत्तम्) माणुस्सजंम्मे तमि वक्ष्यमि, जिणंदधम्मोन कअजेणं तुढे गुणे जह धाणुक्कएणं, दबा मलेवाय अवस्स तेणं शब्दार्थः--जेणे मनुष्यजन्मरूप संसारसमुनो कांगे प्राप्त . थया बता जिनेऊ धर्म नथो करयो तेने जेम धनुष्यनी दोरी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) त्रुटी जवाथी धनुष्यधारी पुरुषने हाथ घसवा प बे तेम - श्य हाथ घसवा पमे बे. ॥ ६९ ॥ रेजीव निसुणि चंचलसदाव, मिल्देविष्णु सयलवि बद्यजाव नवनेच्अपरिग्गदविलिहजाल, संसारि अनि सहुइंदयाल शब्दार्थः - अरे जीव ! सांजल. तुं चंचल स्वभाववाला था सर्व बाह्य जावोने ने नव नेदवाला परिग्रहना विविध समूह ने मूकीने परलोकमां जश्श, माटे संसारमां शरीरादि जे कांइ देखाय ते सर्व इंद्रजाल समान बे ॥ ७० ॥ पियपुत्तमित्तघरघर णिजाय, इदलाइ सब नियसुहसुहावे ॥ नविन कोइ तु सरणि मुख, इकलु सदसि तिरिनिरयदुक ॥ ७१ ॥ शब्दार्थ:-- हे मूर्ख! प्रा लोक संबंधी सर्व पिता, माता, पुत्र, मित्र, घर भने स्त्री विगेरेनो समूह पोतपोताने सुख करवाना स्वजावत्रालो बे; परंतु तिथंच अने नरकनां दुःखने तो तुं एकलोज सहन करीश. ते वखते तेमांनुं कोइ व्हारे शरण करवा योग्य नयो. ७१. ( मागधिकावृत्तम् ) कुसग्गे जद उसबिंदुए, योवं चिन्इ संबमाणए ॥ एवं महुआ जीवित्र्यं, समयं गोम मा पमायए७२ शब्दार्थः - जेम दर्जना श्रनाग उपर रहेलुं पाणी नुं बिंडु थोमो वखत रदेबे, तेम मनुष्यनुं जोवोत पण थोमा वखतनुं बे, माटे हे गौतम! एक समय पण प्रमाद। थइश नदि ॥ १२ ॥ संबुद किं न बुधद, संबोही खलु पिश्च उल्लहा ॥ नो दृ वणमंति राईन, नो सुखदं पुणरवि जीवियं७ ३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) शब्दार्थ :- हे व्यजीवो ! बोध पामो. शा माटे बोध पा मता नथी ? मृत्यु पाम्या पठी परजवमां बोधि दुर्व्वन बे. गये खां रात्री दिवस पाठा यावतां नथी. तेमज जीवित पण फरी मल सुलन नथी. ॥ ७३ ॥ पासद, गनचावि चयंति माणवा ॥ कहरा वुढा से जह वट्टयं हरे, एवं प्रानखयंमि तु ॥७४॥ शब्दार्थः -- बालक, वृद्ध ने गर्जमां रहेला माणसो मृत्यु पामे बे, तेने तुं जो. वल्ली जेम सिंचाणो तेतरने मारे बे तेम श्रायुष्यनो कय ये जीवित त्रुटी जाय बे. ॥ ७४ ॥ ( श्रार्यावृत्तम् . ) तिहुजणं मतं, दण नयंति जे न अप्पाणं ॥ विरमंति न पावानं, धिधि धित्तणं ताणं ॥ ७५ ॥ शब्दार्थः- जे पुरुषो मृत्यु पामता एवात्र जुवनना माणसोने जोता बता पोताना श्रात्माने धर्मने विषे स्थापन करता नथी ने प्रापथी निवर्त्तता नथी, तेज॑नां धरणाने धिक्कार बे ! धिकार बे !! मा मा पद बहुअं, जे बडा चिक्कदिकम्मेदिं ॥ सवेसि ते सिजाय, हियोवएसो मदादोसो ॥ ७६ ॥ शब्दार्थः -- ( अयोग्य शिष्योने उपदेश करता गुरुने जोइ योग्य शिष्य गुरुने कड़े बे के ) " हे गुरो ! जे पुरुषो पोतानां चिकणां कर्मी बंघायलां बे, तेमने बहु उपदेश न करो, कारण के ते योग्य शिष्योने हितोपदेश महा दोषवालो थाय बे. ॥१६॥ कुसि ममत्तं धणसय-ण विवपमुहेसु तदुकेसु ॥ सिढिलेसि प्रायरं पुण, प्रांतसुखंमि मुखंमि ॥७७॥ शब्दार्थः श्रात्मन् ! तुं अनंत दुःखनां कारण एवा धन Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) ॥ स्वजन ने लक्ष्मी विगरेमां ममता करे वे छाने वली अनंत सुखवाला मोक्षने विषे यदरने शिथिल करे वे. ॥ 99 ॥ संसारो दुहहेऊ, दुकफलो दुस्स ददुकरूवो न चयति तंपि जीवा, इबा नेदनिखलेदिं ॥७८॥ शब्दार्थ:-- दे जीव ! या संसार दुःखनुं कारण, दुःख बे फल जेनुं एवो ने दुःसह दुःखरूपज बे. स्नेहरूप बेमीथी बंधायला जीवो ते संसारने पण त्यजी देता नथी. ॥ ७८ ॥ निष्प्रकम्मपवणचलिन, जीवो संसारकाणणे घोरे ॥ का का विसंबणा, न पावए दुसद्दुरकान ॥ ७९ ॥ शब्दार्थः श्रा घोर संसाररूप अरण्यमां पोतानां कर्मरूप पवनश्री चंचल एवो जीव ! जेनाथी दुःसह दुःख नृत्पन्न थाय बे एवी क इक वध बंधनादि विटंबना नथी पाम्यो ? अर्थात् सर्व पाम्यो बे. सिसिरंमि सीला निल-लद रिसहस्सेदिं निन्नघणदेदो तिरिच्यत्तणंमिऽरन्ने, प्रांतसो निणमणुपत्तो ॥ ८०॥ शब्दार्थ :- हे जीव ! तुं तिर्यंच जवमां श्ररएयने विषे शियालामां शितल पवननी हजारो लेहेरोथी नेदायेला दृढ देहवालो थरने अनंतीवार मृत्यु पाम्यो बे ॥ ८० ॥ गिम्हायवसंतत्तों, रन्ने छुहिनं पिवासिनं बहुसो ॥ संपत्तो तिरिनवे, मरणदुहं बहु विसूरंतो ॥८२॥ शब्दार्थः - दे जीव ! तुं तिथंच जत्रमां अरण्यने विषे ननालाना तापथ तप्त थयो बतो बहुवार भूख्यो तथा तरश्यो थेइने बहु खेद पामतो मृत्यु पाम्पो बे ॥ ८१ ॥ वासासुरन्नमद्ये, गिरिनिवरणोदगेदिं बघं तो ॥ सोच्या निलय वि, मसि तिरित्त ये बहुसो ॥८॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) शब्दार्थः - दे जीव ! तुं तिर्यंच नवमां चोमासाने विषे वनमां पर्वतोनां ऊरणानां पालीथ चाइने शितल पवनथ दग्ध थयो तो बहुवार मृत्यु पाम्यो बे. ॥ २ ॥ एवं तिरिजवेसु, की संतो दुकसय सदस्सेहिं ॥ वसितखुतो, जीवो जो सण नवान्ने ॥ ८३ ॥ शब्दार्थ --ए प्रमाणे तिथंच जवमां शेकको दुःखोथ क्लेश पामतो जीव जयंकर संसाररूप अरण्यमांनंतीवार वश्यो बे. दुकम्मपलया - निलपेरिनुं जीणंम नवरन्ने || हिंमतो नरपसुवि, प्रांतसो जीव पत्तोसि ॥ ८४ ॥ शब्दार्थः-- हे जीव ! दुष्ट एवां प्राठ कर्मरूप प्रलयकालना पवनथी प्रेरायेलो तुं जयंकर संसाररूप अरण्यमां चालतो बतो नरकने विषेपण नंतीवार दुःख पाम्यो बे ॥ ८४ सत्तसु नरयमदीसु, वानलदादसी प्रविणासु ॥ वसितखुत्तो, विलवंतो करुणसदेहिं ॥ ८५ ॥ ४ शब्दार्थः--हे जीव! वज्राग्निनो दाद बे जेमां तथा अत्यंत शीत वेदना बे जेमां एवी सात नरक पृथ्वीमां तुं करुण शब्दथी विलाप करतो तो अनंतीवार वश्यो बे, ॥ ८५ ॥ पियमायसयारहिन, डुंरंतवाहिर्दि पीमित बहुसो ॥ मणुवे निस्सारे, विलाविन किं न तं सरसि ८६ शब्दार्थः- अरे जीव ! या सार रहित मनुष्यनवमां पिता मातादि स्वजनथी रहित श्रने महा व्याधिथी बहुवार पीका पा मो तथा विलाप करतो तुं ते मनुष्य जवने शुं नथी संनारतो? पवणुव गयणमग्गे, अलकिन नमइ जववणे जीवो ॥ वाणामि समु- चिकण, धणसयणसंघाए ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) शब्दार्थः जीव या संसाररूप वनमां ठेकाणे ठेका ध न स्वजनना समूहने त्यजी दइ श्राकाशमां पवननो पेठे श्रहश्य थयो तो मे बे. ॥ ८७ ॥ विधिजंता सयं, जम्मजरामरणतिककुंतेहिं ॥ हमणुहवंति घोरं संसारे संसरत जीच्या ॥८८॥ तहवि खपि कयावि हु, अन्नानुयंगमं किच्या जीवा संसारचारगार्ड, नयनं, विऊंति मूढमणा ॥ ८ ॥ शब्दार्थ:-- संसारमां जमता एवा जीवो जन्म, जरा खने म रणरूप तीक्ष्ण जालार्थी निरंतर विधाया बता घोर दुःखने - वे बे तो पण मूढ मनवाला छाने अज्ञानरूप जुजंगथ । मसायलाजी वो क्यारे पण निश्चे संसाररूप बंधीखानामांथी क्षणमात्र उद्वेग पामता नथी. ॥ ८८-८९ ॥ कील सि कितवेलं, सरीरवावीइ जब पइसमयं ॥ कालरदद्दघमीदिं, सोसिजर जीविनोदं ॥ ९० ॥ शब्दार्थ :- हे जीव ! तुं शरीररूपी वाव्यने विषे केटलो वखत सुधी कीमा करीश ? के, जे वाव्यमां समये समये कालरूप रहेंटनी घमीयोथी जी वितरूप पाणीनो प्रवाह सूकाइ जाय बे. रे जीव बुन मा मुन, मां पमायं करेसि रे पाव ॥ किं परलोए गुरुक जायां दोहिसि प्रयाण ॥ए॥ शब्दार्थः- खरे जीव ! तुं बोध पाम. मोह न पाम- घरे पाप ! तुं धर्ममां प्रमाद न कर अरे अज्ञान ! तुं परलोकमां मदा दुःखनो पात्र केम याय डे ? ॥ १ ॥ बुनसु रे जीव तुमं, मा मुत्रसु जिएमयंमि नाऊणं ॥ जह्मा पुणरवि एसा, सामग्गी उल्लहा जीव ॥ ९२ ॥ . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६) शब्दार्थ:- अरे जीव! तुं बोध पाम ने धर्मस्वरूप जापीने जिनमतमां मोह न पाम. अरे जोव! कारणके, फरीथी या सामग्री मलवी दुर्व्वन बे. ॥ ५२ ॥ दुलो पुण जिधम्मो, तुमं पमायायरो सुदेसी य ॥ सदं च नरयडुखं, कद दोहिसि तं न याणामो ९३ शब्दार्थ:-- जिनधर्म फरोथी मलवो डुल्न बे. तेम तुं प्रमादनी खाण ने सुखनी इच्छा करनारो बे. वल । नरक दुःख दुःसद बे, माटे हुंनथी जाणतो के, परलोकमां तुं केम यश, अर्थात् हारी शी गति थशे ? ॥ ५३ ॥ प्रथिरे थिरो समले - ण, निम्मलो परवसेण साहीणो ॥ देहेण जइ विढप्पs, धम्मो ता किं न पात्तं ॥ए४॥ शब्दार्थः- जो स्थिर, मलिन छाने परस्वाधिन एवा देहथी स्थिर, निर्मल ने स्वाधिन एवो धर्म मेलवी शकाय तो पढ़ी शुं प्राप्त करयुं न कदेवाय ? ॥ ए४ ॥ जद चिंतामणिरयणं, सुलहं न हु दोइ विहवाणं ॥ गुणविदववािणं, जिप्राण तद धम्मरयपि ए५ शब्दार्थः प्ररूप पुण्यवालाने जेम चितिमणि रत्न सुलन न ज होय तेंम गुण विनव रहित जीवोने धर्मरत्न पण सुलन न होय. जह दिघीसंजोगो, न होइ जम्मंधयाण जीवाणं ॥ तह जिमयसंजोगो, न होइ मिधजीवाणं ॥६॥ शब्दार्थः जेम जन्मांध जीवोने यांखोथी देखतुं धतुं नयी तेम मिथ्यात्वथी श्रांधला जीवोंने जिनमतनो संयोग थतो नथी. पञ्चकमणंतगुणे जिणंदधम्मे न दोसलेसोवि ॥ तहवि दु अन्नाांधा, न रमंति कयावि तंमि जिखाए Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) ___ शब्दार्थः--प्रत्यक्ष एवा अनंतगुणवाला जिनराजना धर्मने विषे दोषनो लेश मात्र नथी. तो पण अज्ञानथी आंधला जीवो निश्चे ते धर्मने विषे क्यारे पण रमता नथी. ॥ एy ॥ मिले अणंतदोसा, पयमा दीसंति नवि य गुणलेसो ॥ तहवि य तं चेव जिया, हा मोहंधा नसेवंति ॥ एG ॥ , शब्दार्थ-मिथ्यात्वथा प्रगट अनंत दोषो देखायडे अने गुणलेश देखातो नथी. तोपण मोहथो श्रांधला जीवो ते मिथ्या त्वनेज सेवे . ए घणुं आश्चर्य जे. ।। ए॥ धि ही ताण नराणं, विन्नाणे तद गुणेसु कुसलतं ॥ सुदसञ्चधम्मरयणे, सुपरिकं जे न जाणंति ॥ एए॥ शब्दार्थः-सुखरूप अने सत्यरूप धर्मरत्नने विषे जे पुरुषो नत्तम परीक्षा नथी जाणता. ते पुरुषोना विज्ञानने विषे अने गु राने विषे कुशलपणाने धिक्कार थान ! धिक्कार थान ! ॥ एए॥ (अनुष्टुप्वृत्तम् ) जिणधम्मोऽयं जीवाणं, अप्पुवो फप्पपायवो ॥ सग्गापवग्गसुकाणं, फलाणं दायगो इमो ॥ १० ॥ ___ शब्दार्थ:-श्रा जिनधर्म जीवोने अपूर्व कल्पवृक्ष , तेथोए कल्पवृक्ष स्वर्ग अने मोदनां सुखरूप फलोनो आपनार . १०० धम्मो बंधु सुमित्तो अ, धम्मो अ परमो गुरु ॥ . मुकमग्ग पयदाणं, धम्मो परमसंदणो॥१०१ शब्दार्थः-धर्म एज बंधु अने नत्तम मित्र . वली धर्म उत्तम गुरु तेमज धर्म मोद मार्गमा प्रवृत्तेलाने उत्कृष्ट रथ समान .॥१०॥ (आर्यावृत्तम्.) चगणंतदानख-पखितनवकाणणे महानीमे ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) सेविसु रे जीव तुमं, जिणवयणं अमियकुंमसम॥१०॥ शब्दार्थः--अरे जीव ! महा नयंकर अने चार गतिना अनंत फुःखरूप अग्निथी सलगता संसाररूप वनमां अमृतनां कुंभ समान जिनराजनां वचनने सेवन करय. ॥१२॥ विसमे नवमरुदेसे, अणंत दुद गिम्हतावसंतत्ते॥ जिणधम्मकप्परुकं, सरसु तुमं जीव सिवसुहदं ॥१३॥ शब्दार्थः हे जीव ! तुं विषम अने अनंतां फुःखरूप उनाला ना ताफ्थी तप्त एवा मरुदेशमां मोदतुल्य आपनारा जिनधर्म रूप कल्पवृक्षy सेवन कर. ॥ १०३ ॥ किं बहुणा जिण धम्मे, जश्वं जह नवोदहिं घोरं॥ बहुतरियमणंतसुदं, लदा जि सासयं गणं १०४ शब्दार्थ-हे श्रात्मन् ! बहु कडेवाथी शुं ? परंतु त्हारे जिन धर्मने विषे ते प्रकारे यत्न करवो के, जेथी जीव नयानक एवा सं. साररूप समुपने ऊट तरोने अनंत सुखवाला मोक्षस्थानने पामे, ॥ इति वैराग्यशतक समाप्तम् ॥ ॥ अथ अजव्य कुलकम् ॥ जह अन्नविय जीवेहि, नफासिया एवमाश्या नावा॥ इंदत्तमणुत्तरसुर, सिलायनर नारयत्तं च ॥१॥ . . शहार्थः-अजव्य जीवो ए था हवे पठी कहेवामां श्रावशे ते जावो स्पा नथी. ते इंजपणुं, अनुत्तरवासी देवपणुं, त्रेस शलाका पुरुषपणुं श्रने नव नारदपणुं ॥१॥ केवलिगणदरदडे, पवजा तिबवचरं दाणं ॥ पवयणसुरी सुरत्तं, लोगंतिय देवसामित्तं ॥२॥ शब्दार्थः-वली केवली तथा गणधरना हाथे दीक्षा, ती. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) र्थकरनुं वार्षिक दान, प्रवचननी अधिष्टायक देवी तथा देवपपुं, लोकांतिक देवपणुं अने देवपतिपणुं न पामे ॥२॥ तायत्तीससुरत्तं, परमाहम्मिय जुयलमणअत्तं ॥ संजिन्नसोयं तद, पुवघरादारयपुलायत्तं ॥ ३ ॥ शब्दार्थः त्रायत्रिंशकदेवपणुं, पंदर जातिना परमाधामिपणुं, युगलिया मनुष्यपणुं, वलो सन्निन्न श्रोत लब्धि, पूर्वधरलब्धि, थाहारकलब्धि अने पुलाकल ब्धिपणुं पण न पामे ॥३॥ मणनाणाई सुलह, सुपत्तदाणं समाहिमरणत्तं ॥ चारणदुगमसिप्पय, खीरासव खोरगणतं ॥४॥ शब्दार्थः--मतिज्ञान तथा श्रुतझाननी लब्धि, सुपात्रदान, समाधि मरण; विद्याचारण अने जंघाचारणनी लब्धि, मधुसर्पि लब्धि, किराश्रव लब्धि फिर स्थानकी लब्धि पण न पामे ॥४॥ तिब्यर तिवपमिमा, तणुपरिनोगाइ कारणेवि पुणो॥ पुढवाश्य नामि वि, अनवजीवहिं नो पत्तं ॥५॥ शब्दार्थः-तीर्थकर तथा तीर्थकरनी प्रतिमा, वली शरीरना परिमोगादि कारणमां न पामे. तेमज अन्नव्य जोवो पृथ्वोकाय ना नावाने विषे पण न प्राप्त थाय ॥५॥ चन्दसरयणतंपि, पत्तं न पुणो विमाणसामित्तं ॥ सम्मत्तनाणसंयम, तवाश्नावा न लावदुगे ॥६॥ __ शब्दार्थः--चौद रत्नपणुं अने वली विमानन स्वामीपणुं न पामे. वली सम्यक्त, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने तपादि बाह्याज्यंतर ए बे नाव पण न पामे ॥६॥ अणुनवजुत्ता जत्ती, जिणाणसादम्मियाण वडलं॥ न य सादे अनबो, संविगत्तं न सुप्परकं ॥ ७॥ . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) शब्दार्थः - श्रव्य जीव अनुभव युक्त नक्ति, जिनेश्वरनी श्राज्ञा प्रमाणे साधर्मिनी सेवा जति, संसारथी वैराग्यपणुं तेमज उत्तम पक्ष न पामे. ॥ ७ ॥ जिजायजणणिजाया, जिराज काजरकणी जुगपहाणा पायरियपयाइदसगं, परमगुणहमप्पत्तं ॥ ८ ॥ शब्दार्थ - जिनेश्वरना माता, पिता, स्त्री, जरू, जक्षणी अ न युगप्रधान पण न थाय. वली आचार्यादि दश पदनो विनय तेमज परमार्थथी अधिकपणुं न पामे. ॥ ८ ॥ प्रबंधन सरुवा, तच हिंसा तिहा जिणुदिट्ठा ॥ वे यभावेण य, दूहावि तेसिं न संपत्ता ॥ ए॥ शदार्थ - वली अजव्य जीव अनुबंध, हेतु अने स्वरूप एवी त्रण प्रकारे श्री जिनेश्वरे कहेलो हिंसा द्रव्य छाने नाव एवा बे जेदथी न पामे ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रव्यकुलम् ॥ ॥ अथ पुण्यकूलकम् ॥ संपुन्नइंदियत्तं, माणुसत्तं च यरियखित्तं ॥ जाइकुल जिधम्मो, लग्नंति पञ्जुयपुन्नेहिं ॥ १॥ शब्दार्थः - घणां पुण्यना नदयथी पांचे इंडियनुं श्रखं तपएं, मनुष्यपणं, श्रार्यक्षेत्र, जाति, कुल छाने जिनधर्म प्राप्त थाय बे. जिए चलण कमल सेवा, सुगुरुपायपज्जुपासणं चेव ॥ सजाय वायवमंतं, लग्नति पनुयपुन्नहिं ॥ २ ॥ शब्दार्थः--घणां पुण्यना नदयथ। जिनराजनां चरणकमल न सेवा, सुगुरुनां चरणन सेवा, वांचनादि पांच प्रकारनी स Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) काय अने माठा वादने जीतवापणुं प्राप्त थाय बे. ॥ २ ॥ सुधो बुहो सुगुरुदिं, संगमो नवसमं दयालुतं ॥ दाखिन्नं करणंजो, लग्नंति पनूयपुन्नेहिं ॥ ३ ॥ शब्दार्थ--घणां पुण्यना उदयथी शुद्ध बोधी बीजनुं पामवु, सुगुरुन साथै समागम, शांतपणुं, दाक्षिण्यप ने करुणा प्राप्त थाय. समत्तं निच्चलंतं, वणाय परिपालणं प्रमायत्तं ॥ पढणं गुणणं विणन, सप्रति पनूयपुन्नेदिं ॥ ४ ॥ शब्दार्थ--घणां पुण्यना उदयथी निश्चल समकीत, वचननुं पाल, कपट रहितपएं, जणवुं, गणवं श्रने गुरु विगेरेनो विनय करवो विगेरे प्राप्त थाय बे. ॥ ४ ॥ उसगो जववाय, निवह विवदारंमि निजणत्तं ॥ मणवयणकायसुद्धी, लग्नंति पनूयपुन्नेहिं ॥ ५ ॥ शब्दार्थः घणां पुष्यना नदयथो उत्सर्ग, अपवाद, निश्चय ने व्यवहारमां निपुणपणुं वली मन, वचन अने कायानो शु. द्धि प्राप्त थाय बे. ॥ ५ ॥ प्रवियारं तारुन्नं, जिणाणं रान परोवियारत्तं ॥ निक्कंपयायनाणे, लग्नंति पनूयपुन्नेहिं ॥ ६ ॥ शब्दार्थ - घणां पुण्यना उदयथी अविकारी युवावस्था, जिन था ज्ञामां राग, परोपकारपणुं धर्मध्यानमां निश्चलपणुं प्राप्त थाय बे, परनिंदापरिहारो, अप्पसंसा यत्तणो गुणाणं च ॥ संवेगो निवेगो, लग्नंति पनूयपुन्नोहें ॥ ७ ॥ शब्दार्थः घणां पुण्यना उदयथी परनिंदानो त्याग, पोतानी प्रसंसा ने पोताना गुणना श्रवखाण, संसारथी वैराग्य ने Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारथ्रो निकलवानो श्वा प्राप्त थाय बे॥७॥ निम्मलसोलाप्नसो, दाणुल्हासो विवेग संवासो ॥ चनगदसत्तासो, खप्नंति पनूयपुन्नेहिं ॥७॥ शब्दार्थः-घणां पुएयना उदयथ। निर्मल शीलनुं पालवू, दान श्रापवामा उल्लास, हिताहितना विवेकनुं समीपपणुं श्रने चार गतिनां फुःखना त्रासनुं जाणपणुं होय . ॥ ७॥ दुक्कमगरिदा सुकमा-गुमोयणं पायचित तवचरणं ॥ सुहवाण नमुक्कारो, खप्नंति पत्नूयपुन्नेहिं ॥ ५ ॥ ___शब्दार्थः-घणां पुण्यना उदयथो मागं कृत्यनी निंदा, सा रां कृत्यनी अनुमोदना, खोटा कृत्य, प्रायश्चित्त लेवू, तप करवू, शुन ध्यान करवू श्रने नमस्कार करवो. ए सर्व प्राप्त थाय बे. श्यगुणमणिनंमारो, सामग्गी पावोउण जेण कन॥ विखनमोहपासा, लहंति ते सासयंसुकं ॥ १० ॥ ___शब्दार्थः--आ उपर रहेला गुणरूप मणिना नंमाररूप सा मग्री पामीने जेणे ते प्रमाणे आचरण करयु ले ते, मोहना पासने तोमी नाखी साश्वतां सुखने पामे॥१॥ शत पुण्यकुलकम् ॥ ॥ अथ पुण्यपाप कुलकम् ॥ बत्तीसदिनसदस्सा. वाससये होइ आजपरिमाणं॥ जिष्नंतं पईसमयं, पिच धम्ममि जश्वं ॥१॥ शद्दार्थः--सो वर्षना उत्रीस हजार दिवस, श्रायुष्यनुं एटढुं परिमाण होय . ते समये समये उडं थतुं जाय बे, एम जा णीने धर्ममां यत्न करवो. ॥१॥ जइ पोसदसहीजे, तवनियमगुणेहिं गमइ एकदिणं ॥ ता बंधश् देवान, शत्तियमित्ताई पलियाई॥२॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) शब्दार्थः-जो कोइ जीव पोषद सहित तप नियमना गुणो थी एक दिवस गमावे तो ते श्रागल कदेशे तेटला पल्योपमनुं देवतानुं श्रायुष्य बांधे . ॥२॥ सगवीसं कोमीसया, सतहत्तरी कोमीलक सहस्सा य॥ सत्तसया सतहुतरि, नवनागा सतपलियस्स ॥३॥ शब्दार्थः--सत्तावीस सो क्रोम, सीत्योतेर क्रोम, सीत्योतेर लाख सीत्योतेर हजार, सातसोने सीत्योतेर एटला पक्ष्योपम अने वली एक पढ्योपमनो नवमो नाग. ॥३॥ अहासीई सहस्सा, वाससये दुन्नि लरक पदराणं ॥ एगावि अ जइ पहरो, धम्मजुन ता श्मो लाहो ॥४॥ शब्दार्थः-एकसो वर्षना बे लाख अने हासी हजार पहोर दे. तेमांथी जो कोइ जीव एक पण पहोर धर्म युक्त (पोसह व्रत युक्त.) थाय तो तेने पागल कहेशे एटलो लान थाय।। तिसयसगंचत्तकोनि, लरका बावीस सहस बावीसा ॥ दुसय दुवीस दुनागा, सुराउबंधो य गपहरे॥५॥ शब्दार्थः त्रसो समताली क्रोम, बावीस लाख, बावीत हजार, बसो अने बावीस, पल्योपम अने वली उपर एक प. व्यापमना बे नाग. वर्षमा एक पहोर पोषह करनारने देवतानां थायुष्यनो एटलो बंध थायडे ॥ ५॥ दस लरक असीय सहसा, महुत्त संखाय हो वाससए॥ जश सामाश्असहिजे, एगोविअत्ता इमो लाहो ॥६॥ . शब्दार्थः-सो वर्षनांमुहूर्त (बेघमीयो) दस लाख अने ऐसी हजार थाय थायजे. जे जीव ए एक मुहूर्त सामायिक लदे तो तेने श्रागली गाथामां कदेशे तेटलो लान थाय ॥ ६ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) बांणवयकोमीन, लरका गुणसहि सदस्स पणवीसं॥ नवसयपणवीस जूआ, सतिदा अमनाग पलियस्स शब्दार्थः--बाणु क्रोम,उंगणसाठ लाख,पच्चीस हजार नवसोपचीस पट्योपम श्रने नपर एक पट्योपमना श्राठीया सात नाग; ए टबुं देवगतिनुं आयुष्य बेघमी सामायक करनार जीव बांधे . वाससये घमिआणं, लरिकगवीसं सदस्स तद सही॥ एगावि अधम्मजूआ, जश्ता लादो इमो हो॥॥ शब्दार्थः-एक वर्षनी घमीयो एकवीश लाख अने साउद जार थाय, तेमांथ। एक घमी पण जो जीव धर्म युक्त होय तो तेने आगली गाथामां कहेशे तेटला लान थाय ॥ ७॥ गयालकोमी गुणती-स लक गसही सहस्स सयनवगं ते सही किंच्चूणा, सुराउ बंधोइ गघमिए ॥ ए॥ शब्दार्थः-एक घमी धर्म करनार जीव बेतालीश क्रोम, न गणत्रीस लाख, बासठ हजार, नवसो अने कांश्क उठग एवा सठ एटला पस्योपमनुं आयुष्य बांधे। ए॥ सही अहोरत्तेणं; घमीआ जस्स जति पुरिसस्स ।। नियमेणवि रहीआडे, सो दिप्रद निष्फलो तस्स १० शब्दार्थः एक दिवसनी साउना प्रमाणे जे पुरुषनी घमी. यो जाय , तेमां व्रत नियमथी पण रहित जाय ते दिवस तेनो निष्फल जाणवो० ॥ १० ॥ चत्तारीअ कोमिसया, कोमी सत्तलख्ख अमयाला॥ चाबीसं च सहस्सा, वाससय हुँत्ती ऊसासा ॥ ११ ॥ शब्दार्थ:-एक सो वर्षना चारसो ने सात क्रोम श्रमताली. स खाख, चालीस हजार एटला श्वासोश्वास थाय ॥ ११ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) इक्कोविं ऊसासो, न य रहि दोइ पुण्यपावहिं ॥ जइ पुणेणं सदिन एगोविच् ता इमो लाहो ॥ १२ ॥ शब्दार्थः-- तेमांथी एक पण श्वासोश्वास पुण्य पाप रहित दोय नहि; परंतु कोइ जीव जो एक श्वासोश्वास पुण्य सहित होय तो तेने वागली गाथामां कहेशे तेटलो लान याय बे. १२ लक डुंग सहस पणचत्तं, चनसया आठ चेव पलियाई किंचूणा चजागा, सुरान बंधो इगुसासे ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-- लाख, पीस्तालीस हजार, चारसो धने घा पोपम वली कांइक उठा चार जाग. एटलुं देवतानुं श्रायुor एक श्वासोश्वास धर्म करनारो पामे ॥ १३ ॥ गुणवीसं लका, तेसठी सहस्स सय सत्तठी ॥ पलियाई देवानं, बंधई नवकार नस्सगो ॥ १४ ॥ शब्दार्थः--नुगणीस लाख, त्रेसठ हजार बसो ने अमस. एटला पस्योपमनुं देवायु नवकार गणनारो अथवा आठ श्वा. सोश्वास धर्म सेवनारो पामे. ॥ १४ ॥ लकिगसठी पणती --स सहस दुसय दसपलिय, देवानं बंधई हियं जीवो, पणवीसुसास उस्सगो ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-- एकसठ लाख, पांत्रीस हजार, बसो ने दश पल्योपमनुं देवतानुं श्रायुष्य पच्चीस श्वासे|श्वास अथवा एक लो गस्सनो कान सग्ग करनार जीव वांधे ॥ १५ ॥ पावई पारायाणं, हवेज निरयान अस्स बंधोवि ॥ इ नान सिरि जिए कि त्ति-मि धम्मंमि उद्यमं कुणह शब्दार्थ :- हे जव्य जीवो ! पाप करनाराने ए प्रमाणे नर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) कनो बंध पण होय . एम जालीने श्री जिनेश्वरे कहेला ध मने विषे उद्यम करो. ॥ १६ ॥ ॥ इति पुण्य पाप कुलकम् ॥ 000 ॥ अथ गौतमकुलकम् ॥ बुधा नरा चपरा हवंति मूढा नरा कामपरा हवंति || बुरा खंतिपरा हवंति, मिस्सा नरा तिन्निविप्रायरंति शब्दार्थः--लोजीया पुरुषो धन मेलववाने तत्पर होय बे, मूर्ख पुरुषो कामने विषे तत्पर होय बे, पंकित पुरुषो कमामां तत्पर दो बे ने मिश्र पुरुषो पूर्वेकहेला त्रणने पण श्राचरे बे. ते पंकिया जे विरया विरोदे, ते साहुणो जे समयं चरंति॥ ते सत्तिणो जे न चयंति धम्मं, ते बंधवा जे वसणे दवंति २ शब्दार्थः -- जे विरोधथी निवर्त्या ते पंक्ति, जे श्रगम प्र माणे चाले ते साधु, जे धर्मने न त्यजे ते शक्तिवंत ने जे दुःखमां सहाय करे ते बांधवो जालवा. ॥ २॥ कोदानिनूया न सुखं लदंति, माणंसीणो सोयपरा दवंति मायाविणो हुंति परस्स पेसा, बुधा मदित्वा नरयंजविंति शब्दार्थः-- क्रोधथी परानव पामेला माणसा सुख न पामे, - अजिमानी माणसो शोकवंत थाय, मायावी माणसो बीजाना चाकर याय ने लोजी तथा म्होटी श्बा करनारा नरक पामे ||३|| कोदो विसंकिं मयं हिंसा, माणो अरी किंदियमप्यमान माया जयं किंसरणं तुसच्चं, लोहो हो किं सुदमाद तुट्ठी शब्दार्थः प्र० विष शुं ? न क्रोध; प्र० अमृत शुं ? न० अहिंसा; प्र० शत्रु कोण ? न० मान; प्र० हित शुं ? उ० श्रप्रमाद; . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) प्र० जय शुं ? उ माया; प्र शरण करवा योग्य शुं ? उस. त्य; प्र० फुःख शुं ? न० लोन; प्र० सुख शुं ? नु संतोष. बुझिअचमनयए विणीयं, कुछ कुशीलं नयए अकित्ति॥ संनिन्नचित्तं नयए अतबी, सबेहोयं संनयर सिरिय ५ शब्दार्थः--बुद्धि सरल अने विनयवंतने सेवे डे क्रोध तथा कृ. शीलने अकोर्ति सेवे डे, नग्न चित्तवालाने अलक्ष्मी (निर्धनपणुं) सेवे ने श्रने सत्यमा रहेलाने सर्व प्रकारे लक्ष्मो सेवे ॥५॥ चयंति मित्ताणि नरं कयध्धं, चयंति पावाइ मुणिं जयंतं॥ चयंति सुक्काणि सराणि हंसा, चएइ बुद्धि कुवियं मणुस्सं शब्दार्थः-कृतघ्न माणसने मित्रो त्यजी दे ले जितेंज्यि मुनिने पापो त्यजो दे , सूका गयेखा तलावने इंसो त्यजो दे डे श्रने क्रोधवाला माणसने बुद्धि त्यजी दे ॥६॥ असंपदारे कहिए विलावो, अश्यले कहिए विलावो विरिकतचित्ते कहिए विलावो,बहुकुसोसे कहिए विलावो शब्दार्थः-प्रसावधानने धर्मादि कहे ते विलाप , गइ वातनुं कहे ते विलाप डे, खेदचित्तवालाने हित वचन कहेवू ते विलाप डे अने कुशिष्यने बहु कहेवु ए पण विलाप . ॥७॥ उष्टाहीवा दंपरा हवंति, विजाहरा मंतपरा हवंति ॥ मुरका नरा कोवपरा दवंति, सुसाहुणो तत्तपरा दवंति G __ शब्दार्थः-इष्ट राजाले दंग करवामां तत्पर होय बे, विद्यावंत पुरुषो मंत्र साधनमां तत्पर होय , मूर्ख पुरुषो क्रोध क. रवामां तत्पर होय छे अने उत्तम साधुन तत्व ग्रहण करवामां तत्पर होय . ॥ ७॥ सोहानवे जग्गतवस्स खंतो, समादिजोगोपसमस्यसोहा। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) नाणं सुकाणं चरणस्स सोदा,सिसस्ससोहा विणए पविति शब्दार्थः--नग्र तपवालानी क्षमा शोनाडे, उपशमवालानी समाधिजोग शोजा , चारित्रनी ज्ञान अने नत्तम ध्यान ए बे शोन्ना अने शिष्यनी विनयमां प्रवृत्ति ए शोजा जे. ए॥ अनुसणोसोहबंजयारी, अकिंचणो सोदश दिकधारी बुझिजुङ सोदरायमंती, लजाजुन सोदइ एगपत्ति १० शब्दार्थः-श्रान्नूषण विना ब्रह्मचारी शोच्ने बे, परिग्रह र. हित दीदाधारी शोजे जे; बुद्धिवंत राजमंत्री शोने ने भने खजावंत पुरुष एक स्त्रीथी शोने ॥१०॥ अप्पाअरीहोत्रणवज्यिस्य,अप्पाजसोसीलमननरस्स अप्पाउरप्पाअणवध्यिस्य, अप्पाज अप्पासरणंगईय॥ शब्दार्थः-अशांत माणसने पोतानो श्रात्मा वैरी डे शोल. वंत माणसनो श्रात्मा जस पामे , अशांत माणसनो आत्मा पुरा. स्मा ने अने श्रात्माज श्रात्माने शरण करवा योग्य अने गतिरूपले. न धम्मकजं परमनिक, नपाणिहिंसा परमं अकजं॥ नपेमरागा परमनिबंधो, न बोहिलानापरमबि लालोर शब्दार्थः-धर्म कार्य विना बीजं उत्तम कार्य नथी,प्राणी हिंसा विना बीजुं अकार्य नथी, प्रेमराग विना बीजो बंध नथी अने बोधिलान विना बीजो लान्न नथी. ॥ १५ ॥ नसेवियवा पमया परका, न सेवियवा पुरिसा अविद्या॥ नसेवियवाअहिमानिहिणा, नसेवियवापिसुणामणुस्सा।। शब्दार्थः-पारकी स्त्री सेववी नहि, मूर्ख पुरुषोने सेववा न हि, अनिमानी हिन माणसोने सेववा नहि अने चामिया माएसोने पण सेववा नहि. ॥ १३॥............ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८५ ) जे धम्मिया ते खलु सेवियवा, जे पंकिया ते खलु पुच्चियवा जे साहुणो ते अनिवंदियवा, जे निम्ममा ते परिखानियवा शब्दार्थ:-- जे धर्मी माणसो बे ते सेववा योग्य बे, जे पंकि त पुरुषो बे ते पूजवा योग्य बे, जे साधु बे ते वांदवा योग्य बे धने जे ममतारहित बे ते पमिलानवा योग्य बे. ॥ १४ ॥ पुत्ताय सीसाय समं विजत्ता, रिसीय देवाय समं विजत्ता॥ मुखा तिरिका यसमं विजत्ता, मुख दरिहाय समविजत्ता शब्दार्थ:--पुत्र ने शिष्यो सरखा जालवा, मुनि ने देव ता सरखा जाणवा, मूर्ख घने तिर्यंच सरखा जाएणवा ने मूवेला तथा दरिद्री सरखा जाणवा ॥ १५ ॥ सवाकला धम्मकला जिलाइ सबाकहाधम्म कदा जिणा || सबंबलं धम्मबलं जिणाइ, सवं सुदं धम्मसुहं जिलाइ १६. शब्दार्थ:-- सर्व कलाने धर्मकला जीते, सर्व कथाने धर्मकथा जीते, सर्व बलने धर्मबल जीते ने सर्व सुखने धर्म सुख जीते. जूए पसत्तस्य धस्स नासो, मंसं पसत्तस्य दयाइनासो ॥ मर्जां पसत्तस्य जसस्सनासो, वेसापसतस्य कुलस्स नासो शब्दार्थ:-- जुवटामां श्रासक्त थयेलाना घननो नाश थायडे, मांसमां श्रासक्त थयेलानी दयादिनो नाश थाय बे मद्यमांसक्त थयेलाना जसनो नाश थाय बे ने वेश्यामां श्रासक्त थयेलाना कुलनो नाश थाय वे ॥ १७ ॥ हिंसापसत्तस्य, सुधम्मनासो, चोरीपसत्तस्य सरीरनासो॥ तापरत्रिसुपसत्तयस्स, सबरसनासो ग्रहमा गई य १८ शब्दार्थः- हिंसामां आसक्त थपेलाने सारा धर्मनो नाश थाय ब्रे, चोरीमां यासक्त थयेलाना शरीरनो नाश थाय बे. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) मज परस्त्री मां आसक्त थयेला धन शरीरादि सर्वनो नाश ने म गति थाय बे ॥ १८ ॥ दादरिद्दस्सस्स खंती, इच्छा निरोदोइ सुहोइ यस्स॥ तारुणए इंद्रियनिग्गदो य, चत्तारि एयाणि सुक्कराणि १९ शब्दार्थः दरिद्रीने दान खापवु, श्रीमंतना क्षमा राखवी, Sara रोकी अने युवास्थामां इंद्रियोने वश्य राखवो. ए चार बहु पुष्कर बे. ॥ १९ ॥ सासयं जीवियमाहु लोए, धम्मं चरे साहु जिणोवइ ं धम्मीयताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवितुं सुदं बहंति ॥ शब्दार्थः- लोकमां जीवीत अशाश्वतुं कथं बे माटे जिनेश्वरे कला उत्तम धर्मनुं श्राचरण करो. धर्म रक्षण कर्ता, शरण करवा योग्य ने सारी गति आपनारो बे. ए धर्मने सेवीने सावतुं सुख पमाय बे ॥ २० ॥ ॥ इति श्री गौतम कुलक ॥ ॥ अथ दान कुलकम् ॥ परिहरिय रजसारो, नृप्पमिय संजमिक्क गुरुनारो ॥ खंधान देवसं, विपरंतो जयन वोरजिणो ॥ १ ॥ शब्दार्थः- राज्यना सारने त्यो देनारा, चारित्ररूप एक बहु जारने नृपामनारा बने खजा उपरथी देवदृष्य वस्त्र विप्रनेपी देनारा श्री महावीर प्रभु जयवंता वत्तों. ॥ १ ॥ धम्म कामया, तिविहं दाणं जयंमि विकायं ॥ तहवि य जिणंदमुणियो धम्मियदा पसंसंति ॥२॥ शब्दार्थः धर्मदान अर्थदान अने कामदान एवा नेदथ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) त्रण प्रकारचें दान जगत्मां विख्यात . तो पण जिनेश्वरना मुनियो थाहारादिक धार्मिक दानने वखाणे ने ॥३॥ दाणं सोदग्गकरं, दाणं आरुग्गकारणं परमं ॥ दाणं नोगनिहाणं, दाणं गणं गुणगणाणं ॥ ३॥ ___शब्दार्थः दान सौन्नाग्य करनार ले दान श्रेष्ट थारोग्यनुं का रण , दान नोगनुं निधान अने दान गुणसमूह- स्थानक डे. दाणेण फुरइ कीत्ती, दाणेण य होइ निम्मला कंती॥ दाणावजिय दियन, वयरीवि हु पाणियं वद॥४॥ शब्दार्थः-दानथो कीर्ति विस्तार पामेडे, दानथी निर्मल कांति थायडे, दानयुक्त हृदयवालाना शत्रुठे पण तेने घेर पाणी भरे ले. धणसववादजम्मे, जं घयदाणं कयं सुसाहूणं ॥ तकारणमुसनजिणो, तेलुकपियामहो जा ॥ ५॥ शब्दार्थः--धन सार्थवाहना नवमां उत्तम साधुऊने जे घीनुं दान करयुं हतुं ते पुएयना कारणथी रुपनदेव प्रजुत्रण लोकना पितामह (दादा) थया. ॥ ५ ॥ करुणा दिन्नदाणं, जम्मंतरं गहियपुन्नकिरियाणं ॥ तिबयरचकरिविं, संपत्तो संतिनादोवि ॥६॥ शहार्थः-कृपाथी पारेवाने अजयदान प्रापी पाडला नव माटे पुण्यरूप करीयाणांने खरीद करनारा शोलमा श्री शांति नाथ तीर्थंकर अने चक्रवर्तीनी समृद्धीने पाम्या ॥६॥ पंचसयसाहुलोयण-दाणावङियसुपुन्नपनारो॥ अबरियचरियनरि नरहो जरहाहिवो जान ॥७॥ शब्दार्थः--पांचसो साधुने नोजननां दानथी पुण्यनो स मूद मेलवनार अने श्राश्चर्यकारी चरिषथी जरपूर एवो जरत • चक्रवर्ती जरतत्रनो स्वामो थयो.॥७॥.... Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) मुलं विणविदा, गिलाण पमिअरणजोग सिद्धो अ रयणकंबल--चंदण विणिनवि तंमिन्नवे ॥॥ शब्दार्थ-ग्लान मुनिने वापरवा योग्य वस्तु रत्न कंबल अनेबावना चंदन विना मूख्ये श्रापीने श्रावक पण तेजनवमां सिजिपद पाम्यो दाऊण खीरदाणं, तवेण सुसिअंगसाहुणो धणिअं॥ जणजणियमकारो, सजाउं सालिनदोवि ॥५॥ ... शब्दार्थः-तपथी सूकवी नाख्युं के शरीर जेमणे एवा सा धुने धन्यकारी खीरनुं दान आपी शालिनशेठ पण माणसोने आश्चर्य उत्पन्न करनारो थयो. ॥ ए॥ जम्मंतरदाणा, जलसिया पुवकुसलधाणा॥ कववन्नो कयपुन्नो, नोगाणं नायणं जा ॥१०॥ शब्दार्थः-पूर्व जन्मने विषे करेला सुपात्रदानना प्रजावने सीधे नवास पामेला श्रपूर्व शुज ध्यानथी कृतपुण्य एवो कयव नो शेठ लोगोनुं पात्र ययो. ॥१०॥ घयपूसवन्त्रपूसा, महरिसिणो दोसलेसपरिहीणा ॥ लक्षीई सयलगच्छो--वग्गहगा सग्गइं पत्ता ॥ ११॥ .. शब्दार्थः-घृतपुष्प तथा वस्त्रपुष्प ए बे साधु दोषना लेशरहित बता पोताना तपनी लब्धियो सर्व गबनी घृत तथा वस्थी नक्ति करी नत्तम गति पाम्या. ॥ ११ ॥ जीवंतसामिपमिमा-इंसासणं वियरिऊण नत्तिन॥ पवईकण सिशे, उदाणो चरमरायरिसी ॥१२॥ शब्दार्थः-श्री जीवतस्वामीनी प्रतिमाने श्री वीरप्रजुना शासनमा जतिथी विचरीने पळी चारित्र लश् नदायन नाम Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) नो बेलो राजर्षि सिद्धि पद पायो । १२ ॥ जिणदरमं मियवसुदा, दाणं अनुकंपजत्तिदाणाई ॥ तिचपनावगरेहिं, संपत्तो संपइराया ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-- जिनमंदिरथी पृथ्वीने शोभावनारो संप्रति रा. जा अनुकंपादान ने नक्तिदान श्रापीने तीर्थ प्रजावक पुरु षोमां रेखाने पाम्यो. ॥ १३ ॥ दानं सासु सु कुम्मासए महामुलि ॥ सिरिमूलदेवकुमारो, र सिरिं पाविजे गुरु ॥ १४ ॥ शब्दार्थः श्री मुलदेव कुमार शुद्ध श्रद्धा महामुनिने शुद्ध एवा अमदना बाकला ग्रापीने म्होटी राज्य लक्ष्मी पाम्यो० ॥ १४ ॥ अइदाणमुदरकविप्रण- विरइप्रसय संख का विश्वरि ॥ विक्कमनरिदचरित्र्यं, अवि लोए परिष्फुर३ ॥ १५ ॥ . शब्दार्थ :- अतिदानथी वाचाल एवा कत्रिलोकोए रवेलां कमो काव्यथ विस्तार पामेनुं विक्रमराजानुं चरित्र आज सुधी पण लोकनां विस्तार पामे बे ॥ १५ ॥ तिलोप्रबंधवेदि, तज्ञ्नवचरिमेहिं जिएबरिंदोहिं ॥ कय किच्चे दिवि दिन्नं, संवचिरियं महादाणं ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-त्रण लोकना बंधु, तेज जवमां सिद्धि पामनारा अने कृतार्थ एवाय श्री जिनेश्वर सांवत्सरिक महादान प्राप्युं ॥ १६ ॥ सिरिसेयंसकुमारो, निस्सेयससामिन कह न होइ ॥ फासूप्रदापवाहो पयासिन जेण नरदंमि ॥ १७ ॥ शब्दार्थः श्री श्रेयांसकुमार मोनो स्वामी केम न होय ? कारके, जेणे था जर क्षेत्रमा प्रासुकदाननो प्रवाह प्रकाश करयो कह सा न पसंसिर, चंदणबाला जिणंददाणेणं ॥ बम्मा सियतवतविन निवविन जेहिं वीरजिंणो ॥ १८ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) शब्दार्थः ते चंदनबाला श्री जिनेश्ववरने दान आपवाथी केम न प्रशंसा पामी? अर्थात् पामी. कारण के, जे चंदनबालाये उमासना तपथी तप्त थयेला श्री महावीरप्रजुने संतोष पाड्या. पढमाई पारणाई, करिंसु करंति तह करिस्संति ॥ अरिहंता जगवंतो, जस्स घरे तेसिं धुव सिद्धि ॥१॥ शब्दार्थः-- श्री अरिहंत जगवाने जेना घरने विषे पहेलुं पार करयुं दशे, करे वे अथवा दवे पढ़ी करशे; तेर्ज निश्चे सिद्धिपद पामशे ॥ १७ ॥ जिणनवणबिंबपुच्चय- संघसरुवेसु सत्तखित्तेसु ॥ ववियं धपि जायई, सिवफलयमदो अतगुणं २० श०दार्थ:-- जिनजवन, बिंब, पुस्तक थने चतुर्विध संघरूप सातक्षेत्रमां वावेलुं एवं पण धन मोफलरूपे आश्चर्यकारी - लागणं याबे ॥ २० ॥ इति दान कुलकम् ॥ ॥ अथ शीलकुलक ॥ सोदग्ग मदा निदिणो, पाए पणमामि नेमिजिए वदणो बालेण जुअबलेण, जणाद्दणो जेण निकिनि ॥ १॥ शब्दार्थः – जेमणे बाल्यावस्थामां भुजबलथी कृष्णवासुदेव त्या ते सोजाग्यना समुद्र एवा श्री नेमि जिनेश्वरना पगमां हुं प्रणाम करूं बुं. ॥ १ ॥ सीलं उत्तम वित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परमं ॥ सीखं दोहग्गहरं, सीलं सुरकाण कुलनवणं ॥ २ ॥ शब्दार्थ:-- जीवोने शील एज उत्तम धन, शोल एज उत्कृष्ट मंगल, शील एज दुर्भाग्यने नाश करनारुं अने शील एज सुखोनुं कुलघर बे, ॥ २ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) सीवं धम्मनिहाणं, सीनं पावाण खंमणं नणियं ॥ सील जंतूणजए, अकित्तिमं मंमणं पवरं ॥ ३ ॥ शब्दार्थः-शील धर्मनो नंमार तेमज सील पापोने नाश करनारं कयुं . वली जगत्मां शील एज माणसोने अकत्रिम (साचुं) घराणुं . ॥३॥ नरयदुवारनिरंभण-कवामसंपुमसदोअरवायं ॥ . सुरखोअधवलमंदिर-आरुहणे पवरनिस्तेणिं ॥४॥ शब्दार्थः-शील नरकना रस्ताने रोकत्राने कपामनी जोक सरखं अने देवलोकरूप उज्वल मंदिरमा चमत्राने श्रेष्ठ निस रणी रूप ले ॥४॥ सिरि उग्गसेणधूा, रायमई लहउ सोलवइरेदां ॥ गिरि विवरग जीए, रदनेमा गविन मग्गे ॥ ५॥ शब्दार्थ:--श्री नग्रसेन राजानी पुत्री राजीमति शीलवंती स्त्रीयोमा रेखा पामजे. कारण के, जेणे पर्वतनी गुफामा रहे ला रथनेमिने धर्ममार्गने विषे रोको राख्या . ॥५॥ पक्रालिगवि हु जलणो, सीलपनावेण पाणियं हव॥ सा जयन जए सीआ, जीसे पयमा जसपमाया ॥६॥ ___ शब्दार्थः जेना शील प्रनावथो ज्याजव्यमान एवो पण अग्नि पाणीरूप थयो. ते सीता जगत्मां जयवंतो वर्ते डे के जेनी यशपताका प्रगट . ॥ ६ ॥ चालणिजलेण चंपा-ए जी जग्वामियं वारतियं ॥ कस्स न हरेश चित्तं, तीयं चरियं सुनहाए ॥ ७॥ शब्दार्थ:-जेणे चालणीनां जले करीने चंपा नगरीना त्रण दर वाजा उघाड्या ते सुनसानु चरित्र कोना चिचने हरनारून थाय ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) नंदन नमयासुंदरि, सा सुचिरं जी पालियं सीलं ॥ गहिलत्तणंपिकानं, सदिया य विमंबणा विविदा ॥७॥ . शब्दार्थः-ते नर्मदा सुंदरी श्रानंद पामो के, जेणे गांमापणुं करीने पण विविध प्रकारनी विटंबना सहन करीने शील पाट्युं. न कलावईए, नीसणरन्नंमि रायचत्ताए॥ जंसा सीलगुणेणं, बिन्नंगं पुण नवा जाया ॥५॥ शब्दार्थः-नयंकर अरण्यमा राजाए त्यजो दीधेलो कला वतीनुं कल्याण थान के, जेना शीलगुणथी दायेला अंगो पण फरी नवा थया. ॥ ए॥ सीलवईर सीतं, सकइ सकोवि पनि नेव ॥ रायनिनत्ता सचिवा, चउरोवि पवंचिआ जीए ॥१०॥ शब्दार्थः-शीलवतीना शीलने इंछ पण वर्णववाने समर्थ नथी. कारणके, जे शीलवंती ये राजाना मोकलावेला चार प्र. धानोने पण ती . ॥ १० ॥ सिरिवघमाणपहुणा, सुधम्मलानुत्ति जीई पगविन॥ सा जयन जए सुलसा, सारयससि विमलशीलगुणा ११ शब्दार्थः-श्री वर्षमान स्वामीये जेने धर्मलाल मोकल्यो हतो, ते शरद रूतुना चंसमान निर्मल गुणवाली सुलसा जगत्मां जयवंती वा. ॥ ११ ॥ हरिदरखनपुरदर-मयनंजण पंचबाण बलदप्पो॥ खोला जेण दलिन, स थूलनहो दिसन नहं ॥१२॥ शब्दार्थः-हरि, हर, ब्रह्मा, अने इंजना भदने नागनार तथा बलथी गर्ववंत एवा कामदेवने जेणे लीलामात्रयो दली नाख्यो डे ते स्थूलना कल्याण आपो. ॥ १२ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) मणहरतारुमनरे, पबिऊतोवि तरुणि नियरेणं ॥ . सुरगिरिनिचलचित्तो, सो वयरमहारिसी जय ॥१३॥ शब्दार्थः-जे मनोहर तारुण्यना नारवाली स्त्रीरूप जबसमूहे प्रार्थना कर्या उतां पण मेरुपर्वतनी पेठे निश्चन चिनवाला रहेला बे, ते श्री वज्रस्वामी जयवंता वों ॥१३॥ थुणियं तस्स न सका, सहस्स सुदंसणस्स गुणनिवदं। जो विसमसंकमेसुवि, पमिवि अखंमशीलधणो १४ शब्दार्थ:-ते सुदर्शन श्रावकनो गुणसमूह स्तुति करवो शक्य नथी. अर्थात् स्तुति करी शकाय तेवो नयी. कारण के, जे विषम शंकटमां पड्या उतां पण अखंम शीलरूपधन वालो रह्यो. सुंदरि सुनंद चिल्लणा, मणोरमा अंजणा मिगाव अ जिणसासणसु पसिहा, महासन सुहं दिंतु॥१५॥ शद्वार्थः-सुंदरी, सुनंदा, चित्रणा, मनोरमा, अंजना अने मृगा. वती.जिनशाशनमा प्रसिद्ध एवी ए महासतीयो(तमने)पुख थापो अच्चकारिय चरिश्र, सुणिकणं को न धुणई किर सोसं जा अखंमियसीला, निल्लवश्कयनिमावि दढ ॥१६॥ शब्दार्थः-अचंकारी नटार्नु चरित्र सांजलीने कोण पोतानु मस्तक निश्चे न धुणावे ? के, जे जिबपतिये कष्ट प्राप्या बतां दृढ अखंमित शीलवाल रही ॥ १६ ॥ नियमित्तं नियन्नाया,नियजण नियपियामहो वावि ॥ नियपुत्तोवि कुसीलो, न वल्लहो दो लोआणं ॥१७॥ शब्दार्थ-पोतानो मित्र, पोतानो नाइ, पोतानो बाप अथवा पोताना बापनो बाप पण, वली पोतानो पुत्र पण जो कुशोल होय तो ते लोकोने वहालो थतो नथी. ॥ १७ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) सवेसिपि वयाणं, जग्गाणं आदि कोइ पमिआरो॥ पकघमस्सव कन्ना,न दोइ सोलं पुणो नग्गं ॥१७॥ शब्दार्थः-सर्वे एवाय पण नागेला व्रतनो कोइ पण बालोयणादि उपाय डे, पण जेम पाका घमाने कांग चोमवानो कोश उपाय नथी तेम जागेला शीलनो फरी को उपाय नथी.॥१॥ वेयालनुअरस्कस-केसरिचित्तयगइंदसष्पाणं ॥ खोलाइ दल दप्पं, पालंतो निम्मलं सीवं ॥१॥ शब्दार्थ-निर्मल शील पालनारो पुरुष वैताल, जूत, राक्षस, के शरीरसिंह,चित्रा,हाथोश्रनेसपना गर्वने सोवामात्रमा दक्ष नांखेडे जे केइ कम्ममुक्का, सिहा सिद्यति सिधिहिंति तदा ॥ सवेसि तेसिं बलं, विसाल सीलस्स मादप्पं ॥२०॥ शब्दार्थ- को कर्म मुक्त जीवो सिफथया,सिक थायडे तेमज सिक थशे; ते सर्वेने विशाख शीखना महात्म्यज बल ने अर्थात् शीलना बलथी सिफिपद पामे .॥॥२०॥ ॥ इति शीत्र कुलक॥ ॥ अथ तपकुलक॥ सो जयन जुगाजिणो, जस्संसे सोदए जमामनमो ॥ तवाणग्गिपलिविय, कम्भिधणधूमपंत्तिव ॥१॥ शब्दार्थ-तप ध्यानरूप अग्निथो बलता एवा कमरूप इंध पांना धूमामानी पेठे जेमना खजाने विषे जटारूप मुकुट शोनतो हतो ते श्री युगादि जिनेश्वर जयवंता वर्तो.॥१॥ संवरियतवेणं कासगंमि जो पिन नयवं ॥ पूरियनिययपश्नो, हरउ दुरिआई बाहुबली ॥२॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) शब्दार्थ--जे जगवाने संवत्सरोनां तपथी कानसग्गमां उन्नार ही पोतानी प्रतिज्ञा पूर्ण करी ते श्री बाहुबली पापोने दूर करो. अथिरंपिथिरं वंक-पि उजुअं दुल्लहपि तद सुखदं ॥ दुस्सद्यपि सुसचं, तवेण संपङाए कऊं ॥३॥ शब्दार्थ-तपथी अस्थिर कार्य होय ते स्थिर, वक्र होय ते सरल, उर्द्धन होय ते सुलन अने पुःसाध्य होय ते सुसाध्य थायडे ठं बहेण तवं, कुणमाणे पढमगणदरो जयवं॥ अकीणमदाणसीन, सिरि गोअम सामि जय ॥४॥ शब्दार्थः- उपना तपने करता,प्रथम गणधर अने अक्षीण महा सब्धीवाला थयेला एवा नगवान् श्री गौत्तमस्वामी जयवंता वा. बजाइ सणंकुमारो, तवबलखेलाइलसिंपन्नो ॥ निछुअखवलिअंगुलि-सुबन्नकंतिपयासंतो ॥५॥ शब्दार्थ--तपना बलथी खेलादि लब्धीने पामेलो अने पो. तानां थुकथा लिप्त करेली आंगलीनी सुवर्णना सरखी कांतिने प्रकाश करतो सनत् कुमार चक्रवर्ती शोने जे. ॥५॥ गोबंजगन गनिणि-- बंजणिघता गुरुअपावाइं॥ कानणविकणयंपिव, तवेण सुघो दढपदा॥६॥ शब्दार्थः-गाय, ब्राह्मण, गर्न अने गर्नवती ब्राह्मणी ए चार हत्यानां म्होटां पापने करीने पण सुवर्णनी पेठे तप करी दृढ प्रहारी शुरू थयो जे. ॥६॥ पुवनवे तिवतवो, तविर्ड जं नंदिसेणमहरिसिणा ॥ वसुदेवो तेण पिज, जाउँ खयरी सहस्साणं ॥७॥ शब्दार्थः--पूर्वनवमां नंदिषेण महामुनिये जे तीन तप क स्यो,तेथी हजारो विद्याधरीयोने प्रियकारी वासुदेवथयो.!! ७॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) देवावि किंकरतं, कुणंति कुलजाइविरदिआणंपि ॥ तवमंतपनावणं, हरिकेसबलस्स वरिसिस्स ॥ ७ ॥ शब्दार्थः-देवता पण कुलजाति रहितनुं पण दासपणुं करे जे. जुन देवताए चंमालना कुलमा जन्मेला हरिकेशी महा मु. निनु तपरूप मंत्रना प्रत्नावथी दासपणुं करयुं . ॥ ७॥ पमसयमेगपमेणं, एकेण घमेण घमसहस्साई॥ जं किर कुणंति मुणिणो, तवकप्पतरुस्स तं स्कू फलं ए शब्दार्थः-मुनियो जे एक वस्त्रवमे हजारो वस्त्र अने एक घमावमे हजारो घमाउंना निश्चे करे , ते खरेखर तपरूप कहा वृक्षनुं फल . ॥ ए॥ अनिआणस्स विदिए, तवस्त तवियस्स किं पसंसामो॥ किार जेण विणासो, निकाश्याणंपिकम्माणं ॥१०॥ शब्दार्थः-नीयाणा रहित विधिवमे करेलांतरने शुं वखाणीये? कारण के, जे तपथी निकाचित एवां पण कर्मनो विनाश कराय. अश्दुकरतवकारी, जगगुरुणा कन्हपुछिएण तया ॥ वाहरित समदप्पा, समरिजान ढंढणकुमारो॥२१॥ शब्दार्थः-श्री कृष्णना पूबवा उपरथी ते श्री जगत् गुरु ने. मिनाथे “जेने अतिपुष्कर तप करनार बे." एम कडं इतुं, ते महात्मा श्री ढंढणकुमारने स्मरण करो. ॥ ११ ॥ पदिवसं सत्तजणे, वहिऊणं गहियवीर जिणदिका।। दुग्गानिग्गहनिरजे, अडण मालि सिघो॥१२॥ शब्दार्थ-दररोज (उ पुरुष अने एक स्त्री) एम सात मा. पसनो वध कराने पी श्री वीरप्रनु पासे दादा लर पुष्कर ए. वा अन्नग्रहमा श्रासक्त थयेलो अर्जुनमाली सिझ थयो. ॥१२॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) नंदीसररुचगेसुवि, सुरगिरिसिहरेसु एगफालाए ॥ जंघाचारणमणिणो, गच्छंति तवप्पन्नावण ॥ १३॥ शब्दार्थः-जंघाचारण मुनियो तपना प्रनावथी एक फाखे करीने आठमा नंदीश्वरहीपमां, बारमा रुचकछीपमां श्रने मे. रुपर्वतना शिखर उपर जाय . ॥१३॥ सेणियपुर जेसिं, पसंसिअंसामिणा तवोरूवं ॥ ते धन्ना धन्नमणि, उन्नवि पंचुत्तरे पत्ता ॥ १४ ॥ शब्दार्थः- श्रेणिक राजानी आगल श्री महावीरप्रजुए जेनुं तपस्वरूप वर्णव्यु बे, ते धनकुमार श्रने धनाकाकंदो ए बन्ने मु. नि पण पांचमां अनुत्तर विमानने विषे प्राप्त थया.॥ १५ ॥ सुणिकण तव सुंदरी-कुमरीए अंबिलाणि अणवरयं ॥ सहिवाससहस्सा, नण कस्स न कंपए दिययं ॥१५॥ शब्दार्थ-हे ना! सुंदरी कुमारीनुं साठ हजार वर्षसुधी निरंतर आंबील तप सानली कोनुं हृदय न कंपे ? कदे !! १५ जं विदिअमंबिलतवं, बारसवरिसाइं सिवकुमारेण ॥ तं दछ जंबुरूवं, विम्हश्न कोणि राया ॥१६॥ शब्दार्थः--शिवकुमारे (जंबूस्वामीने पाळले नवे) बारवर्ष पर्यंत जे श्रांबिल तप कस्यो, तेथी बीजा नवमां जंबूस्वामीना रूपने जो कोणिक राजा विस्मय पाम्यो. ॥१६॥ जिणकप्पिय परिदारिय, पमिमापनिवन्न लंदयाईणं ॥ सोनण तवसरूवं, को अन्नो वदन तवगचं ॥ १७॥ शब्दार्थः-जिनकल्पी, परिहारविशुद्धि चारित्रवाला. पमि माना धारणहार एवा लंदी साधुनां तपस्वरूपने सांजलीने बी. जो कयो पुरुष तपना गर्वने धारण करे? ॥ १७॥ ..... Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) मासमासखवन, बलभद्दो रुवपि ह विरतो ॥ सो जयान रन्नवासी, पमिवो हिसावयसदस्सो १८ शब्दार्थः - मासखमण अथवा पक्षखमण करनारा, रूपवंत बतां परा निश्चे विरक्त थयेला, अरण्यमां वसनारा श्रने सिंहादि इ जारो हिंसक पशुने बोध करनारा ते बलन मुनि जयवंता वर्त्तो थरहरियधरं ऊलदलिय सायरं चलिय यलकुलसेवा जमकासि जयं विद्णु, संघकए तं तवस्स फलं ॥ १ ॥ शब्दार्थः - पृथ्वी कंपी, समुद्रो खलजव्या, सर्वे हिमचंता दि कुलपर्वतो कंप्या. ए प्रमाणे जयवंता विष्णुकुमारे । संघने माटे जे कां करयुं, ते सर्व तपनुं फल बे ॥ १९ ॥ किंबहुणा णिएणं, जंकरसवि कहवि कवि सुहाई दिसंति जवणमधे, तच तवो कारणं चैव ॥ २० ॥ शब्दार्थ:--बहु कदेवाथी शुं ? कारण के. जुवननी मध्ये जे sis कोइने पण क्या सुखादि देखाय बे, त्यां तपनुं कारण निश्चे जाणवुं. अर्थात् तपथी सर्व प्रकारनुं सुख मजे बे. ॥ २० ॥ ॥ इति तप कुलक ॥ ॥ अथ भावकुलक ॥ कमवासुरे रइयं मिजीत पजयतुल्ल जलवो जे ॥ जावे केवल विवाहि जयनं पालजियो ॥ २ ॥ > शब्दार्थः कमठासुरे रचेला जयंकर प्रलयकाल समान जमां जावे करीने व काय जीवनुं हित चिंतत्रवायी केवलज्ञानरूप लक्ष्मीने पामेला श्री पार्श्वनाथ प्रभु जयवंता वर्तो• ॥१॥ निशुन्नो तंबोलो, पासेस विद्या न होइ जद रंगो || Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) तद दाण सीलतवना - वान हवाई भावविणा ॥२॥ शद्दार्थः--जेम चूना बिना तांबुल अपने पास विना वस्त्र रंग न पामे, तेम जाव विना दान, शीव, तप ने जावना अफल जाणवी. मणिमंतन सहीणं, जंतयतंताण देवयापि ॥ जावे विणा सिद्धि, न हु कस्सइ दोसई लोए ॥ ३ ॥ शब्दार्थः - लोकमां नगि, मंत्र औषधी, जंत्र, तंत्र छाने देवतानी उपासनानी पण नाव बिना सिद्धि कोइने देखाती नथीज. सुहजावणावसेणं, पसंद चंदो मुहुत्तमित्ते ॥ खविण कम्मगंठिं, संपत्तो केवलं नाणं ॥ ४॥ शब्दार्थः--शुन जावनाना वश्यथी प्रसत्र चंद्रराजा मुहूर्त्त मात्रमा कर्मनी गांठ खपावी केवलज्ञान पाम्यो० ॥ ४ ॥ सुस्ती पाए, गुरुणां गरहिऊण नियदोसे ॥ उप्पन्न दिखनाणा, मिगाव जय सुदजावा ||८|| ने पोतानां दो थयेला केवल • शब्दार्थ - गुरुजीना पगनी सेवा करती पनी निंदा करवाथी शुभ जावने लीधे उत्पन्न ज्ञानवाली मृगावती जयवंती वर्त्तो ॥ ५ ॥ जयवं ईलाई पुत्तो, गुरु वंसंमि जो समारुढो ॥ द मुनिवरिंदे, सुदनावा केवल जाओ ॥ ६ ॥ शब्दार्थः- म्होटा वांस उपर चमेला पूज्य श्लाचि पुत्र गोरी करता मुनश्वरने जोइ शुन जावथ केवली थथा. कविलोच्य बंभणमुण, सोगवािई मद्ययारंमि ॥ लादालोहत्तिपयं, काणंतो जायजाईसरो ॥ ७ ॥ शब्दार्थः -- कपिल नामना ब्राह्मण मुनि अशोकवामी मां पोतानां मनथी ( जहा लादो तहा लोहो, बादा लोहो प्रवहु ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) . दो मासा कणयकां, कोमीए न नी॥१॥) ए श्लोकन ध्यान करता जातिस्मरण ज्ञान पाम्या ॥७॥ खवगनिमंतणपुवं, वासियत्नत्तेण शुभ भावेण ॥ जुजंतो वरनाणं, संपत्तो कूरगडओ ॥ ७ ॥ शब्दार्थ-शुधनाववझे वासित जातथी तपस्वीयोनी निमंत्र णापूर्वक नोजन करता कूरगम् मुनि केवळज्ञान पाम्या. ॥७॥ पुवनवसूरीविरश्य-नाणासायणपन्नावउम्मेहो ॥ नियनाम कायंतो, मासतुसो केवली जाओ ॥ ए॥ शब्दार्थःपूवनवमां श्राचार्यपद रह्या बता करेली ज्ञाननी अशातनाना प्रनावथ। मुर्ख रहेला मासतुष मुनि पोतानां ना. मनुं ध्यान करता उता केवली थया. ॥ ए॥ हत्यिमि समारुढा, रिहिं दखूण उसनसामिस्स ॥ त्तकण सहकाणेणं, मरुदेवी सामिणी सिद्धा ॥२०॥ शब्दार्थः--हाथी नपर बेठेला श्रीमरुदेवी माता श्री रुषत्न स्वामीनी समृाछ जो तुरत शुल ध्यानथ तिछिपद पाम्या. पमिजागरमाणीए, जंघाबलखीणमन्निापुत्तं ॥ संपत्तकेवलाए, नमो नमो पुप्फचूलाए ॥११॥ शब्दार्थः-जांघना बलथी वीण थयेला अनिकापुत्र मुनिनी सेवा करवाथी केवल ज्ञान पामेली पूष्पचूला साध्वीने नमस्कार था ! नमस्कार था !! ११ ॥ पनरसयतावसाणं, गोयमनामेण दिनदिरकाणं ॥ उपन्नकेवलाणं, सुहनावाणं नमो ताणं ॥१२॥ शब्दार्थः-श्री गौतम स्वामाये दीक्षा पारेला अने शुन जाववाला होवाने खीधे उत्पन्न थयेला केवल ज्ञानवाला ते पंदरसो तापसोने नमस्कार था. ॥ १२ ॥ ......... Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५ ) जीवस्स सरीराओ, नेअंना समाहिपत्ताणं ॥ नप्पामिअनाणाणं, खंदगसीसाण तेसि नमो ॥१३॥ . . शब्दार्थः-शरीरथी जीवनुं जूदापणुं जाणी समाधि पामेला अने उपजावेला केवल ज्ञानवाला ते स्कंदकसूरीना शिष्योने नमस्कार था. ॥ १३ ॥ सिरिवद्धमाणपाए, पूअस्थि सिंऽवारकुसुमेहिं ॥ जावेण सुरलोए, उग्गई नारी सुहं पत्ता ॥ १४ ॥ शब्दार्थः नगोमनां फुलथी श्री वर्षमान प्रजुनां चरणने जा. वथीपूजवानी छावालीउगंता नामनीस्त्री देवलोकमां सुख पामी. जावेण नूवणनाहं, वंदेलं उद्दरोवि संचलिओ ॥ . मरिकण अंतराले, नियनामंको सूरो जाओ॥१५॥ - शब्दार्थः-देमको पण नावथी श्री वीरप्रजुने वांदवा माटे वाव्यमांथी निकलीने चाल्यो; परंतु रस्तामा मृत्यु पामीने पो. ताना नाम वालो (दर्डर नामवालो) देवता थयो. ॥१५॥ विरयाविरयसदोअर.उदगस्सनरेण नरिअसरिआए॥ जणि साविआए, दिन्नो मग्गुत्ति नाववसा ॥१६॥ - शब्दार्थः-विरक्त तथा अविरक्त (मुनि तथा राजा) एवा बे सगा जाश्योए कहेवाथी पाणीना समूहथी नरेती नदीये जावथी श्राविकाने मार्ग आप्यो. ॥ १६॥ सिरिचमरुद्दगुरुणा, तामिजंतोवि दंघाएहिं ॥ तकालं तस्सीसो, सुहलेसो केवल जाओ ॥२७॥ शब्दार्थः श्री चमरूपाचार्ये दंडना प्रहारथी तामन करेलो एवोय पण तेमनो शुजलेश्यावालो शिष्य तुरत केवली थयो. १७ जं न तु नणिो बंछो, जोवस्स वदेवि समिश्गुत्ताणं जावो तत्थ पमाणं, न पमाणं कायवावारो ॥२॥... Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) शब्दार्थः -- जीवना वधने विषे पण समिती तथा गुप्तीवंतने जे निश्चे बंध नथी को; तेमां जाव प्रमाण बे; परंतु काय व्या पार प्रमाण नथी. ॥ १८ ॥ नाव चिय परमत्यो, जावो धम्मस्स साहयो नपि ॥ समत्तस्सवि बीच्यं, जाव चिय बिंति जगगुरुणो ॥ १९५॥ शब्दार्थः - नाव एज निश्चे परमार्थ के अने जाव एज धर्म नो साधक को बे. तीर्थंकरो सम्यक्त्वनुं बीज जावज कहे डे. किंबहुणा णिएणं तत्तं निसुणेह जो महासत्ता ॥ मुस्कसुदबीयनू, जीवाण सूहावदो जावो ॥ २० ॥ " शब्दार्थः - बहुदेवाय शुं ? दे महासत्यवंतो ! तत्वनो बात सांजलो. जूवाने मोक्षनां सुखनुं बोजनूत सुखकार जावज बे. ईयदासीन तव जावया तो कुण ३ सत्ति जतिजरो देविंदविंदमदियं, ईरा सो लहई सिद्धिसुहं ॥ २२ ॥ शब्दार्थः -- जे शक्ति धने जतिना समूहवालो पुरुष आ नपर कहेला दान, शील, तप श्रने भावनाने आचरे बे, ते देवताना इंद्रोना समूहे अथवा देवेंद्रसूरिये पूजेलां मोक्ष सुखने थोका वखतमां पामे बे. ॥ २१ ॥ ॥ इति जावकुलक ॥ ॥ अथ उपदेशरत्न कोश ॥ उवएसरयणको सं, नासिनी से सलोग दोगच्चं ॥ उवएसरयणमालं, वुत्रं नमिऊण वीरजिणं ॥ १ ॥ शब्दार्थ:--श्री वीरप्रजुने नमस्कार करने हुं नाश करयां बे सर्व लोकना दारिद्र जेणे एवा श्रने उपदेशरूप रत्ननी मानारूप उपदेश रत्नकोश ने कहुं बुं. ॥ १ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) जीवदयाइं रमिजार, इंदियवग्गो दमिजाइ सयावि ॥ सच्चं चेव चविजार, धम्मस्स रहस्समिणमेव ॥२॥ शब्दार्थः-जीव दयामा रमवू, इंजियोना समूहने नित्य द. मवो अने सत्यज बोलवू. एज धर्मर्नु रहस्य .॥॥ सीखं न हु खंमिजार, न संवसिजा समं कुसीलोहिं॥ गुरुवयणं न खलिजाइ, जश्नाश्धम्मपरमबो॥३॥ शब्दार्थ:--निश्चे शीलने न खंगवं. कुशीलिथानी साथेन वस, गुरुर्नु वचन न उलंघQ. एज श्री जिनेश्वरना धर्मनो उत्कृष्ट अर्थ डे ॥३॥ चवलं न चंकमिआइ, विरजा नेव उनमो वेसो ॥ वंकं न पलोइार, रुहाविनति किं पिसुणा ॥४॥ शब्दार्थ:--चपलपणाथी (अयतनाथी) न चालवू, उनट वेष न पहेरवो, वांकी दृष्टिथी न जोवू के, जेथी रीसायला एवा पण चामीया शुं बोले ? ॥४॥ नियमिजाइनीअजीद, अविआरिअ नेव किए कां न कुलकमोअ लुप्पक्ष, कुविन किं कुणकलिकालो ५ शब्दार्थः--पोतानी जीनने वश करवी, अविचारयुं काम न करवु अने पोताना सारा कुलाचारने न लोपवो; तो पड़ी कोप पामेलो कलिकाल पण शुं करे ? अर्थात् कांइ न करे. ॥५॥ . मम्मं नन विजाइ, कस्सवि आलं न दिजा कयावि॥ कोवि न नकोसिजाइ, सजणमग्गो श्मो ऽग्गो॥६॥ शब्दार्थ:--कोनु मर्म वचन न बोलवू, कोइने क्यारे पण थाल न दे, तेमज कोश्ने तिरस्कार पण न करवो था प्रमाणे सजाननो मार्ग उर्ख न ॥६॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) सव्वस्स जवयरिजाइ, न पम्हसिकाइ परस्स जवयारो ॥ विदलं अवलंबित, नवएसो एस विसायं ॥ ॥ शब्दार्थ- सर्वने उपकार करवो, पारको उपकार न विसारखो, दुःखीने आधार आपको ए माह्या पुरुषोनो उपदेश जाणवो कोविन, किनइ कस्सवि न पचण जंगो ॥ दीपं न य जंपिज्जइ, जी विज्जइ जाव जिलोए ॥८॥ शब्दार्थः - ज्यां सुधी जीवलोकमां जीविये त्यां सुधा कोइ नी पासे याचना न करवी, तेमज कोइन । याचनानो नंग न करवो ने दीन वचन न बोलवुं ॥ ८ ॥ अप्पान पसंसिर, निंदिकर आणोवि न कयावि ॥ बहु बहुसो न दसिआइ, लग्न गुरुतते ॥ ॥ शब्दार्थ:--पोतानां वखाय न करवां, दुर्जनने क्यारे पण न निंदवो, बहु बहु न इस के, तेथी म्होटाइपएं पामीये. ए रिउणो न वीस सिकाइ, कयावि वंचिजए न वीसच्चो ॥ न कयग्घेहिं दविजर, एसो नायस्स नीसंदो ॥१०॥ शब्दार्थ - शत्रुनो विश्वास न करवो, विश्वासवालाने क्यारे पण न उगवो, कर्या गुणना लोपक ( कृतघ्न्न ) न थ. ए. न्या. यनो रस्तो जावो. ॥ १० ॥ रच्चिइ सुगुणेसु, बचद राज न नेहबन्नेसु ॥ किज्जइ पत्तपरिका, दखाए इमो कसवट्टो ॥ ११ ॥ शब्दार्थः- सारा गुणवालाने विषे राचीये, साचा स्नेह रतिनी साथे राग न बांधीये अने पात्रनी परीक्षा करीये. माझा पुरुषनी एज कसोटी बे. ॥ ११ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) नाकज्जमायरिज्जइ, अप्पा पामिज्जए न वयपिज्जे || तेण जगहच्चो ॥ १३२ ॥ नय सादसं चइज्जइ, उनि शब्दार्थ:-- कार्य न खादरयुं, पोते निंदनी कमां न परुवुं ने साइसने न त्यजी देवं के, तेथी जगत्मां हाथ जो रहे. १२ वसणेवि न मुनिज्जइ, मुच्चइ माणो न नाम मरणेवि ॥ विश्वकए वि दिज्जइ, वयमसिधारं खु धीराणं ॥ १३ ॥ शब्दार्थ - दुखमां पण न मुंकावुं, मरण थाय तो पण मा ननुं नाम न मूक, लक्ष्मीनो नाश थाय तो पण दान श्रापवु. ए वीरपुरुषानुं असिधारा ( तरवारनी धार सरखुं) व्रत बे. १३ नेदो न वदिज्ज, रू सिज्जइ न य पिएवि पयदिहं ॥ वारिज्जइ न कली, जलंजली दिज्जइ दुहाणं ॥ १४ ॥ शब्दार्थ- कोइनी साथे बहु स्नेह न करवो, स्नेही उपर निरंतर न रीसायुं, क्लेश न वधारवो तेमज दुःखोने जलांजली पत्री, अर्थात् दुःखने त्यजी देवं ॥ १४ ॥ न कुसंगेण वसिज्जइ, बालस्सवि धिप्पर हियं वयणं नयान निवहिज्जइ, न होइ वयज्जिया एवं ॥ १५॥ शब्दार्थ - कुसंगीनी साथे न वसवुं, बालकनुं पण हित व चन ग्रहण कर, अन्यायथी पाठा फर के, जेथी श्राप को इ. माटुं न बोले. ॥ १५ ॥ . विहवेवि न मञ्चिज्जइ, न विसीइज्जइ वहिज्जइ समजावे, न होइ रणरण संपयाएवि ॥ संतावो ॥१६॥' शब्दार्थ - धनवंतपणामां अभिमान न करवुं तेमज निर्ध नपणामां खेद न करवो, शत्रु मित्रने विषे समजावू राखवो के जेथी सारे खोटे संताप न होय ॥ १६ ॥ . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) वन्निज्जर निञ्चगुणो, न परुकं न य सुप्रस्स पञ्चखं ॥ महिला नो जयाविद्दु, न नस्सए जेण मादपं ॥ १७ ॥ शब्दार्थ - - सेवकना गुण पाबल न वर्णववा, तेमज पुत्रना गुण समक्ष न वर्णववा, स्त्रीना गुण पाउल अने समझ न afaar के, जेथी थापणी म्होटाइ नाश न पामे ॥ १७ ॥ जंपिज्जर पिप्रवणं, किज्जइ विषय दिज्जए दाणं परगुणगणं किज्जर, मूलमंतं वसीकरणं ॥ १८ ॥ शब्दार्थः - प्रीय वचन बोलवु विनय करवो, दान श्रापवुं पारका गुण ग्रहण करवा. ए मूल विनानो वशीकरण मंत्र. पहावे जंपिकइ, सम्माणि खलोवि बहुमद्ये ॥ नइ सपरविसेसो, सयलच्चा तस्स सिद्यति ॥ १९ ॥ शब्दार्थः- उचित अवसर बोलवु बहु माणसोनी मध्ये खलने पण सन्मान प्रापबुं. स्वपरनुं विशेषपएं न त्यजवुं. ए प्रमाणे चालनाराना सर्वे छार्थो सिद्ध थाय बे ॥ १५ ॥ मंतताण न पासे, गम्मइ नइ परग्गहे अबी एहिं ॥ परिवन्नं पालिकाइ, सुकुलीत्तं दवइ एवं ॥ २० ॥ शब्दार्थ:- मंत्र तंत्रने न जोवां, एकला पारका घरमां न जनुं ने पोतानुं कलुं पालकुं. ए प्रमाणे चालवाथी सारं कु· लीनपणुं होय . ॥ २० ॥ मुंज मुंजा विजाइ, पुचि दिजाइ लिइ उचियं, इचि मणोगयं कदिन सयं ॥ ज‍ थिरं पिम्मं २१ शब्दार्थ:-- जो मित्रनी साथे स्थिर प्रेम इन्डिये तो तेने घेर जमी ये छाने तेने जमामीये, आपणां मननो विचार तेने पूर्वी एकनेते पूढे तेनो उत्तरापी ए; वली योग्य वस्तु श्रापी ए अने लइए. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ . (१७१) कोवि न अवमन्निनाश, न य गविक गुणेहिं निअएहि न य विम्दन वहिजार, बहुरयणा जेणिमा पुदवी ॥श्शा शब्दार्थः-कोश्ने पण अपमान न श्रापवं, तेम पोताना गुणथी गर्व पण न करवो. वली मनमां आश्चर्य पण न पाम. कारण के, था पृथ्वी बहु रत्मवाली . ॥ २२ ॥ आरंजिज्ज लहुअं, किज्ज कज्ज महंत मविपन्हा।। न य जकरिसो किज्जइ, लग्न गुरुअत्तणं जेण ॥२३॥ शब्दार्थ-प्रथम श्रारंज थोमो करवो अने पालथी म्होर्ट कार्य पण करवं. वली पोतार्नु नत्कृष्टपणुं न करवू के, जेथी म्होटाश्पणुं पामीये, ॥ २३ ॥ काज्जा परमप्पा, अप्पसमाणो गणिज्ज परो॥॥ किज्जन रागदोसो, बिन्निज्ज तेण संसारो ॥३॥ शब्दार्थ- परमात्मानुं ध्यान करवू, बीजाने पोतानां समान गणवा, राग द्वेष पण न करवो, तेथी संसार बेदाइ जाय . श्व नवएसरयणमालं, जो एवं ग्व सुनिअकंठे॥ सो नर सिवसुहलबा, वनयले रम सहाई॥२५॥ शब्दार्थः-जे पुरुष या प्रमाणे उपदेशरत्नमालाने पोता. ना कंठने विषे स्थापन करे; तेनां वक्षस्थलमा मोद सुखनों लक्ष्मी पोतानी का प्रमाणे कोमा करे ॥ २५ ॥ ॥इति उपदेश रत्न कोष.॥ ॥ अथ शाश्वताजिन नामादि संख्या स्तवन॥ सिरि जसहा वक्ष्माणं चंदाणण वारिसेण जिणचंदं । नमिदं सासय जिण नव-ण संख परिकित्तणं काई । शब्दार्थ-सामान्य केवलीनी मध्ये चंप समान श्री रुपन Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) देव, श्री वर्द्धमान स्वामी, श्री चंद्रानन ने श्री वारिषेणने नमः स्कार करीने शाश्वता जिनजुवननी संख्यानुं कीर्तन करूँ बुं. १ जोइ वसु प्रसंखा, सग कोमि बिसयरि लक जवणेसु चुलसी लरका सगनवर, सदस तेवीसुवरी खोए ॥२॥ शब्दार्थः- ज्योतसी ने व्यंतरने विषे असंख्याता, भुवन पतिमां सात क्रोम ने बोतेर लाख, तथा उर्ध्व लोकमां चोरा सी लाख सत्ताएं हजार अने त्रेवीस जिन भुवन बे. ॥ ॥ २ ॥ बावन्ना नंदीसर - वरंमि च चन कुंमले रूखगे ॥ इसठी चउबारा, तिदुवारा सेसजिण जवणा ॥३॥ शब्दार्थ - आठमा नंदीश्वर द्वोपमां बावन तथा कुंमल द - पाने रुचकद्वीपमा चार चार एम साठ जिनजुवन चार बारणा वाला बे ने बाकीना जिनजुवनो त्रण बारणावाला बे ३. पत्तेच्यं बारेसु, मुहमंरुव रंगमं तत्तो ॥ मणिमयपीठं तडुवरि, यूजे चदिसिसु चन पकिमा ४ शब्दार्थ - प्रत्येक बारणामां मुखमंरुप अने रंगमंरुप डे. त्यार पछी मणिमयपीठ डे. ते पीठ पर स्थून अने ते स्थूज उपर चार दिशामां चार प्रतिमा बे ॥ ४ ॥ तत्तो मण पीठजुगे, सोग धम्मा पुकरण पश्ञवणं परिमाणं, मद्ये अत्तर सयं च ॥ ५ ॥ शब्दार्थः--त्यार पढी मणिपीठनुं जो लुं, अशोक वृक्ष, धर्म ध्वज छाने पुष्करिणी वाव्य बे. प्रत्येक जुवननी मध्ये ( गजारा मां) एकसो घाव प्रतिमा बे ॥ ५ ॥ पमा पुण गुरुच्या, पण धणुसय लहु ा सत्तहान मणिपीठे देवचं--दयंमि सीदास निसन्ना ॥ ६ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) शब्दार्थः-- वली म्होटी प्रतिमान पांचसो धनुष्यनी छाने क मणिपीठ नपर न्हानी प्रतिमा सात हाथनी बे. ते प्रतिमा देवदामां सिंहासन उपर बेठेली बे. ॥ ६ ॥ जिण पिठे बत्तधरा, पमिमा जिनिमुद पुन्नि चमरधरा नागा नूच्या जका, कुंमधरा जिएमुहा दो दो ॥ ७ ॥ शब्दार्थः- जिनप्रतिमानी प्राबल एक बत्रधर प्रतिमा अने सन्मुख बे चामरधारक प्रतिमा ठे वली जिनेश्वरना सम्मुख नागदेवनी, जूतदेवनी, जहदेवनी ने कुंरुधारीनी वे वे प्रतिमा बे. (त्रधरादिकनी सर्व मली श्रगीयार प्रतिमा थाय बे.) उ सिविच नानि चुच्चु, पयकर केस महि जीद तालुरुणा अंकमया नह अच्छी, तो रत्ता तदा नासा ॥ ८ ॥ शब्दार्थः - श्री जिनेश्वरना श्रीवत्स, नाजी, चुंचुक, हाथेली, पगनां तलीयां, मस्तक, जीन ने तालबुं एटलां राता वर्णवा लांबे. नखांख करत्नमय बे तेमज बेने रातां वर्ण वाली नासिका बे ॥ ८ ॥ ताराइ रोमराइ, अच्छिदला नमुदि केस रिमया ॥ फलिद मय दसण वयरमय सीस विदममया हा शब्दार्थः- यांखनी की की, संवामानी पंक्ति, श्रांखनी पांप , ने ने केश एटला श्यामरत्नमय बे, दांत स्फटिक रत्न मय बे, मस्तक वज्ररत्नमय वे खने होठ परवालां सरखा डे. ए कणगमय जाणु जंघा, तगुजही नास सवण भालोरू ॥ पलायक निसन्नाणं, इ परिमाणं जवे वन्नो ॥ १० ॥ शब्दार्थः-- ढींचण, जांघ, शरीरनी यष्टी, नासिका, कान, कपाल अने साथल ए सर्व सुवर्णमय बे, वली पद्मासने बेठेली Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) एप्रतिमाना था उपर कहेवा प्रमाणे वर्ष जे. ॥ १० ॥ नवणवण कप्पजोश्स, उववाय जिसेअ तह अलंकारा ववसाय सुदम्म सना, मुहमंमव माश्बकजुभा ॥१॥ - शब्दार्थः-लूवनपति, व्यंतर, ज्योतसी थने बार देव लोकए सर्वेमा मली पांच सला. तेनां नाम उत्पात,अनिषेक, अलंकार, व्यवसाय अने सुधर्मा. एसजान मुखमंगप विगेरे उ सहित . तिदुवारा पत्तेअं, तोपुण सनथून सहि बिंबेहिं॥ चेश्य बिबेहि समं, पश्नवणं बिंब असीइसयं ॥१२॥ शब्दार्थः-त्रण हारना जिननूवनमा प्रत्येके चोमुखनी बार प्रतिमा डे. त्यारपती दरेक वारणानी पांच पांच सजाना स्थूनमां साठ जिनप्रतिबिंब . ते चैत्य (मूल) प्रतिबिंबनी साथे गणतां दरेक नूवन प्रत्ये एकसो एंसी जिनबिंब थाय ॥१॥ ६०-१०७-११५॥ जोयण सयंच पन्ना, विसयरि दीहत्तं पिहल उच्चत्तं ॥ वेमाणि नंदीसर, कुंमल रुअगे नवणमाणं ॥१३॥ __ शब्दार्थः-वैमानीकनां, नंदीश्वर छीपनां, कुंमलछोपनां थने रुचकहीपनां वैमानो अनुक्रमे सो योजन, पचास योजन अने बोतेर योजन खांबपणे पहोलपणे अने चपणे जाणवा. ॥ १३ ॥ तीसकुलगिरिसुदस कुरु, मेरुवणिअसोश्वीसगयदंते॥ वकारेसु असीई,चन चन इसुआर मणुष नगे॥१४॥ शब्दार्थः हिमवंतादि त्रीस कुलगिरि पर्वत उपर त्रीस, देवकुरु उत्तर कुरुमां दश, मेरु पर्वतना वनमां एंती, गजदंता पर्वत उपर वीश, वस्कारा पर्वत उपर एंसी श्रने हुकार तथा मानुपोजर पर्वत पर चार चार जिन वन बे. ॥ १५ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) एआई असुर जवण-ठिाई पुव्वुत्त माण अधाई। दल मित्तो नागाई-नवसु वणेसु इन अई ॥१५॥ शब्दार्थः-ए विगैरे असुर कुमारमा रहेला. जिनन्नूवननुं (सांवां, पहोला अने चामुं) प्रमाण पूर्वे कहेलाथी अर्धं जापवं. नागकुमारादि नव निकायमा तेथो अधुं जागवू श्रने व्यंतर जूवनमा तेनाथी श्रधु जाणवू. (असुर कुमारमा लांबा ५० पहोला २५-मुंचा ३६ नागकुमारमां--२५..१२॥-१८ व्यंतरमा १शा-६।----योजन अनुक्रमे जाणवा. ॥ १५ ॥ दिग्गयगिरिसु चत्ता, दहे असी कंचणेसु गसदसो॥ सत्तरि महानईसु, सतरिसयं दीद वेअढे ॥१६॥ शब्दार्थः-दिग्गज पर्वत पर चालीश, अहमां एंसी, कंचन गिरिने विषे एक हजार, महा नदीयोमां सीतेर अने लांबा वै. ताढय उपर एकसो सीत्तेर जिन जुवन . ॥ १६ ॥ कुंमेसु तिसय असोआ, वीसं जमगेसुपंचचूलासु ॥ श्कारस सय सत्तरि, जंबूपमुदे दसतरूसु ॥१७॥ __ शब्दार्थः-कुंमने विषेत्रणसो एंसी, यमक पर्वत उपर वीस, मेरुपर्वतनी चूलिका नपर पांच अने जंबू प्रमुख दश वृक्ष ज. पर अगीयार सो सीत्तेर जिनजुवन . ॥ १७ ॥ वटवेअद्वे वीसा, कोस तय इंच दीदविबारा॥ चउदस धणुसय चालीस अहिअ उच्चत्तणे सवे १७ शब्दार्थ-वृत वैताढय नपर वीश जिननुवन . ए सर्वे दि. ग्गजादि दश स्थानना एएएए जिन वन एक गाउ लांबां अने प्र| गान पहोलो तेमज चौदसोचालीस धनुष्य उंचां . अमदीविविदिसिसोलस, सोहम्मीसाणग्गदेविनयरीसु॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७६) एवं बत्तीससया, गुणसहि जुआ तिरिअलोए ॥ १५॥ शब्दार्थ-श्रापमाहीपनी विदिशाए सौधर्म अने ईशान ए बेइंनी सोल देवीनी सोल नगरीयोमा सोल जिनन्नुवन के. ए. म ति लोकमां सर्व मली बत्रीससो ने उंगणसाठ जिननुवनडे एवं तिहुअणमख्ने, अम कोमी सत्तवन्न लकाई॥ दोसया बासीया, सासय जिणनवण वंदामि ॥२०॥ शब्दार्थः-ए प्रमाणे पूर्वे कदेला , अधो भने तिळ ए त्रणे लोकमां पाठ क्रोम, सत्तावन लाख, बसोने ब्यासो शाश्व. ता जिननुवनने हुं वाउंडं. ॥ २० ॥ सही लरका गुणनवर कोमि, तेरकोमि सय बिंबवणेसु तिअसय वीसा गनवइ, सहस लक तिगं तिरिअं १ __ शब्दार्थः-तेरसो क्रोम, नव्यास। क्रोम श्रने साठ लाख एटलां जिनबिंब जुवनपतिमा डे, तेमज त्रणलाख एकाएं हजार त्रणसो वीस जिनबिंब तिर्बीलोकमां बे. ॥२१॥ एग कोमि सयखलु, बावन्ना कोमि चनणव खरका ॥ चन चत्त सदस सगसय, सहा वेमाणि बिंबाणि ॥श्शा शब्दार्थ-एकसो क्रोम, बावन क्रोम,चारोएं लाख, चुमालीश हजार सातसो साठ एटलां जिनबिंब वैमानिक देव लोकमां बे. पनरस कोमि सया, दुचत्त कोमि अम्वन्न लकाई॥ उत्तीससहस असीआ, तिहण बिंबाणि पणमामि २३ शब्दार्थः--पंदर सो क्रोम, बेंतालीसक्रोम, अहावन लाख ग्त्रीस हजार अने एसी एटला त्रण जुवनमां सर्व जिनबिंबने हुं प्रणाम करुं बु.॥३॥ सिरि नरद निव पमुहे-हिंजाइं अन्नाइंश्च विहिआई. देविंद मुणिंदथुआई, दिंतु नवीयाण सिद्धिसुदं ॥४॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) शब्दार्थ-श्री जरतचक्रवर्ती विगेरे राजाए था अढीवीप मां जे प्रतिबिंबो निपजाव्यां ने अने देवें सूरीश्वरे स्तव्यां , ते जिनबिंब जव्यजनोने सिद्धि सुख श्रापोः ॥ २४ ॥ उस्सेद मंगुलेणं, अह जहमसेस सत्त रयणी॥ तिरिलोए पण धणु सय, सासय पमिमा पणिवयामिश्५ शब्दार्थः-उत्सेझांगुलनां प्रमाणे करी अधोलोकमां श्रने न ध्वलोकमां सर्वे सात हाथनी अने तिमीलोकमां पांचसो धनुष्य नी शाश्वति प्रतिमाने हुं प्रणमुं बु.॥ १५॥ .. ॥ इति शाश्वत जिननामादि संख्यास्तवन समाप्तम् ॥ ॥ अथ त्रिलोक चैत्य बिंब संख्या ॥ ॥ अधोलोकमां जिननुवनबिंब संख्या ॥ स्थान स्थाननां नाम जुवन संख्या जिनबिंब संख्या संख्या असुरकुमारमां॥ ६४00000 ११५२०००००० नागकुमारमा॥ | ८४00000 १५१२०००००० सुवर्णकुमारमां॥ २ लाख १२ए६०००००० विद्यतकुमारमा ६ लाख १३६0000000 अग्निकुमारमा ॥ | ७६ लाख १३६८००0000 बीपकुमारमा ॥ | ७६ लाख १३६0000000 उदधिकुमारमा॥ ७६ लाख १३६न000000 दिगकुमारमा ॥ ७६ लाख १३६न000000 वायुकुमारमा ।। ए६ लाख १७२७000000 स्तनितकुमारमां॥ ७६ लाख १३६0000000 कुल प्रत्येकाचैत्ये प्रतिमा २७० | 79200000 | १३नए६००0000 RE orror w sun - PB - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान संख्या १ 2 ३. ย ա ६ 6 २/ १० १ १२ ३ ( १३८ ) ॥ उर्ध्वलोकमा जिनवन बिंबसंख्या ॥ स्थाननां नांम सौधर्मदेवलोके ॥ ईशानदेवलोके ॥ सनत्कुमारमां ॥ माहें देवलोके ॥ ब्रह्मदेवलोके ॥ लांतकदेवलोके ॥ महाशुकदेवलोके ॥ सहस्रारदेवलोके ॥ यादवलोके ॥ प्राणतदेवलोके ॥ देवलोके ॥ अच्युतदेवलोके ॥ प्रथमत्री के बीजेत्री के त्रीनेत्री के अनुत्तरपांचे नवग्रैवेयकना ॥ भुवन संख्या जिनबिंब संख्या ३२ लाख २० लाख १२ लाख ८ लाख ४ लाख ५०००० Yoooo ६००० २०० २०० १५० १५० १११ १०७ १०० ա कुल ८४१०२३ ५७६०००००० २०४०००००० २१६०००००० १४४०००००० १२०००००० ०००००० २००००० १०८०००० ३६००० ३६००० २५००० १७००० १३३२० १२८४० १२००० ६०० कुल १५२९४४४७६० प्रथमदेवले की १२ मा सुधी प्रत्येक चैत्ये १०० प्रतीमा बे ॥ पांच सजानी ६० प्रतीमात्र बारणाना चोमुखनी १२ प्रती मा। मध्य वैश्यनी १०८ प्रतीमा । सर्व मली १८० जाणवी ॥ मै बेक अनुत्तरे १२० कल्पातीत बे, माटे सन्ना नथी. ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ de care a Go २४०० Go ॥ति लोकमां चैत्य बिवसंख्या ॥ स्थान स्थाननां नाम | जिनचैत्य | जिननि संख्या संख्या संख्या १ व्यंतर असंख्यनगरे॥ | असंख्यजुवन| असंख्यबिंब जोतषीचरथरमां ॥ असंख्यजुवन | असंख्यबिंब नंदीश्वरहीपमांप्र०१० ६४४ कुंमलद्वीपमां ॥ धए६ रुचकछोपमां ॥ पए६ कुंमल गिरिमां प्र० १२० ३६०० देव नत्तरकुरुमा। १२०० मेरुवनने विषे॥ ए६०० गजदंता पर्वते ॥ वखार पर्वते. ए६०० इकुकार पर्वते ॥ मानुषोत्तर पर्वते ॥ दिग्गजे ॥ មថ០០ ច0 ए६०० कंचनगिरिये ॥ २००० १५०००० महानदीयोये ॥ ४०० दिर्घ वैताढ्य गिरिये॥ ११० २०४०० ३०० ४५६०० यमकगिरिये २४०० मेरुपर्वतनी चूलीकाये ६०० जंबुप्रमुख वृहे ॥ १९७० १४०४०० वृतवैताढ्य गिरिये ॥ नगरी वीजयादिके।। । १६ । १९२० कुल HGo maaamana anse tun १० Jo २० २४०० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) एहमा ६० प्रासाद तेमां प्रत्येके १२४ पातिमा बाकी ३१एए प्रासाद त्रीवारा । तेमां प्रत्येके १२० प्रतिमा ॥ ॥त्रिजगसंख्या। अधोलोके ॥ 999០០០០០ १३नए६०००००० नईलोके ॥ नभए०३३ १५श्ए६० ति लोके ॥ ३२५ ३१३२० ॥ एम त्रणलोकमां ॥ साश्वता प्रासाद ॥ साश्वता जिनबिंब ॥ - ७५७००२०२ १५४२५३६०० ॥इति सास्वतां जिन नुवन तथा जिनबिंब संख्यायंत्र समाप्तम् ॥ MA॥अथ शत्रुजय लघुकल्प ॥ अश्मुत्तयकेवलिणा, कहिअं सेसुंक्रतिमाहप्पं ॥ नारयरिसिस्स पुरजे, तं निसुणह नावन नविया ॥२॥ शब्दार्थः हे जव्यजनो!श्रति मुक्त मुनिये नारदरूपिनी था. गल शत्रुजयतीर्थनुं महात्म्य कह्यु , तेने तमे नावथी सांजलो. सेत्तुंजे पुंमरीन, सिघो मुणिकोमीपंचसंजुत्तो ॥ चित्तस्स पुमिमाए, सो जन्नर तेणं घुमरिन ॥२॥ शब्दार्थः-शत्रुजय नपर पुमरिक गणधर पांच क्रोम साधु सहित चैत्रमासनी पुनमे सिझ या , तेथो ते पर्वतर्नु नाम घुमरिक कहेवाय बे ॥२॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) नमि विनमि रायाणो, सिक्षा कोमिहिं दोहीं साहुणं ॥ तद दविम वाली खिल्ला, निव्वुआ दसय कोडिन ॥३॥ ___ शब्दार्थः-नमि अने विनमि राजा बे क्रोम साधुसहित सिक थया. तेमज जाविम अने वाली खिल बे बंधु मुनियो दशकोम साधु साथे सिझ थया . ॥३॥ पज्जन्नसंबपमुहा, अडु हा कुमारकोडिन ॥ तह पमवावि पंचय, सिगिया नारयरिसि य ॥४॥ ___शब्दार्थः-प्रद्युम्न सांब विगेरे सामा आठ क्रोम कुमारो पांच पांमवो भने नारदरूषि सिद्धि पद पाम्या.॥४॥ थावच्चा सुय सेलं-गाय मुणिणोवि तह राममणि ॥ जरहो दसरदपुत्तो, सिक्षा वंदामि सेत्तुंजे ॥५॥ - शब्दार्थः-थावच्चा पुत्र मुनि, शुकमुनि, शेखकमुनि तेमज दशरथना पुत्र राममुनि श्रने नरतमुनि शटुंजय उपर सिझ थया , तेमने हुं वांछ बु.॥५॥ अन्नेवि खवियमोहा, जसनाइविसालवंससंभूआ॥ जे सिहा सेत्तुंजे, तं नमद मुणि असंखिज्जा ॥६॥ शब्दार्थः--वीजा पण मोहने खपावनारा अने ऋषनादिकना विशाल वंशमां नत्पन्न थयेला जे मुनियो शत्रुजय नपर सिक थया ने ते असंख्याता मुनियोने हुँ वांउं बु.॥६॥ पंनास जोयणाई, आसी सेत्तुंजविडमो मूले ॥ दसजोयण सिहरतले, उच्चत्तं जोयणा अ6 ॥७॥ ... शब्दार्थ:- मूलमांशत्रुजयनो विस्तार पचास जोजन हतो, शिखर पर दश जोजन श्रने उंचपणे श्राप जोजन हतो. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) जं वह अन्नतिजे, उग्गेण तवेण बंचचेरेण ॥ तं वह पयत्तेणं, सेत्तुंजगिरिम्मी निवसंते ॥॥ शब्दार्थः श्रन्यतीर्थमां उग्रतपथी अथवा ब्रह्मचर्यथी जे फल प्राप्त थाय ते फल प्रयत्ने शत्रुजय नपर वसवाथी थाय . . जं कोमिए पुन्नं, कामियादारजोत्रा जेन ॥ जं बदइंतब पुन्नं, एगो वासेण सेत्तुंजे॥ए॥ शब्दार्थः इच्छित नोजन वमे क्रोम माणसने जमामवाथी जे पुण्य थाय, ते पुण्य शत्रुजय उपर एक उपवास करवाथी थाय . जं किंची नामती, सगे पायाले माणुसे लोए । तं सबमेव दिलं, पुमरिए वंदिए संते ॥१०॥ शब्दार्थः--स्वर्ग, पाताल अथवा मनुष्य लोकमां जे को पण नाम मात्र तीर्थ होय, ते सर्व फक्त शत्रुजयने वांदवाथी दीगं जाणवां. ॥ १० ॥ पमिलानंते संघ, दिहमदिव्य साहसेत्तुंजे ॥ कोमिगुणं च अदिळे, दिअ अणंतये दोई ॥११॥ शब्दार्थः शत्रुजय पर्वतने दोग अणदीग पण तेना सन्मु. ख चालवाथी चतुर्विध संघनी नक्ति करवा जेटलुं पुण्य थाय बे, न देखवाथी क्रोम गणुं श्रने देखवाथी अनंतगणुं थाय ने. केवलनाणुप्पत्ती निवाणं आसि जब साढणं ॥ घुमरिए वंदित्ता, सत्वे ते वंदिया तब ॥१२॥ शब्दार्थ-ज्यां साधु ने ज्ञाननी नत्पत्ति अने मोक्षप्राप्ति होय जे; त्यां ते पुमरीकगिरिने वंदन करवाथी ते सर्वे मुनियोने वाया जाणवाः ॥ १॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) अहावयं समेए, पावा चंपाई उजत नगे य॥ वंदिता पुन्न फलं, सयगुणं तंपि पुंमरीए ॥ १३ ॥ शब्दार्थः--ऋषन्न देवनुं मोक्ष देत्र अष्टापद, जिन सिद्धके त्रसमेतशिखर, वीरप्रजुनुं मोक्षस्थान पावापुरी वासुपूज्यनुं सिक क्षेत्र चंपानगरी अने नेमनाथर्नु मोक्षस्थान गिरनार. ए सर्वती र्थने वांदवाथी सो गणुं पुण्य पुमरिक तीर्थने नेटवाथी थाय , पूजा करणे पुन्नं, एगगुणं सयगुणं च पमिमाए ॥ जिणनवणेण सहस्सं, पंतगुणं पालणे दोइ ॥४॥ शब्दार्थः-पूजा करवाथी जे पुण्य थाय ते एक गणुं, तेथी सो गणुं प्रतिमा नराववाथी थाय , तेथजिन नुवन कराव वाथी हजारगणुं अने अनंतगणुं फल तीर्थरक्षाथी होय जे. १४ पमिमं चेश्हरं वा, सित्तुंजगिरीस्स मनए कुण॥ नृत्तूण नरहवासं, वस सग्गेण निरुवसग्गे ॥२५॥ शब्दार्थ:-जे माणस शत्रुजय पर्वत उपर प्रमुनी प्रतिमा अथवा जिनमंदिर करावे , ते माणस नरत क्षेत्रनुं राज्य नोगवीने स्वर्ग अथवा मोक्ष पामे . ॥ १५ ॥ नवकार पोरिसीए, पुरिमढे गासणं च आयामं ॥ पुंमरीयं च सरंतो, फलकंखी कुणश्अन्नत्त ॥१६॥ शब्दार्थ--फलनी वा करनारो नोकारसीनु, पोरसीनु, पु. रिमढनु, एकासणानुं श्रने श्रांबीलनुं एटलानु पञ्चरकाण करे ते मज पुमरिकनुं स्मरण करतो तो नपवास करे. ॥ १६ ॥ हम दसम उवा-लसाण मास घमास खवणाणं॥ तिगरणसुझो लहर, सित्तुजं संजरंतोष ॥१७॥ शब्दार्थः बछ,अहम, दशम, ज्वालस, पक्षमण अने मा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) सक्षमण. ए सर्व करवानुं फल मन, वचन अने कायाथी शुभ एवो जे माणस शत्रुजयने संतारे ते पामे . ॥१७॥ बणं नत्तेणं, अपाणेणं तु सत्त जत्ताई॥ जो कुण सेजे, तश्य नवे लहइ सो मुकं ॥ २७॥ ____ शब्दार्थः--जे माणस चोवीहार बहनक्ते शत्रुजयनी सात जात्रा करे जे. ते त्रीजा जवे मोद पामे . ॥ १७ ॥ अजावि दीस लोए, नत्तं चईजण पुंमरीयनगे ॥ सगे सुदेण वच्चर, सोलविदणोवि होऊणं ॥ १०॥ शब्दार्थ:-आज पण लोकमां देखाय ने के, जे माणस शी ल रहित बतो पण पुमरिक गिरि उपर अनशन करे जे ते सुखे स्वर्गमा जाय जे. १५ ॥ बत्तं यय पमागं, चामर निंगार थालदाणेण ॥ विजाहरोत्र हवइ, तह चक्की दोश रहदाणा ॥२०॥ शब्दार्थ-माणस बत्र वजा, पताका, चामर, कलश अने थाल ए वस्तुऊनां दानथी विद्याधर थाय ने अने रथदानथी च क्रवर्ती पद पामे . ॥२०॥ दस वीस तीस चत्ता, लरकपन्नासा पुप्फदामदाणेण ॥ सदश् चनबह-हम दसम ज्वालस फलाई॥२१॥ शब्दार्थः-दशलाख, वीशलाख, त्रीशलाख, चालीशलाख; अथवा पञ्चासलाख पुष्पनी मालाना दानथी (चमावाथी) अनु क्रमे एक नपवासमुं, बे नपवासर्नु, त्रण नपवासनु, चार नपवा सनु अथवा पांच नपवासनुं फल थाय . ॥१॥ धूवे पकुववासो, मासरकमणं कपूरधूवंमि॥ कित्तिय मासकमणं, साढूपमितानिए लह॥२॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) शब्दार्थः--कृष्ण श्रगुरुना धूपथी पदर दिवसना उपवासर्नु फल अने कर्पूरना धूपथ एक मासना उपवासनुं फल थायडे वली साधुने शुभ आहारादिक आपवाथी केटलाक मासना नपवासनुं फल थाय जे. ॥२२॥ न वितं सुवन्न नूमी-नूसाणदाणेण अन्नतिसु॥ जं पावर पुन फलं, पुआ न्हवणेण सित्तंजे ॥१३॥ शब्दार्थः- शत्रुजय उपर तीर्थपतिने पूजा न्हावण कराववाथी जेटबुं पुण्यफल प्राप्त थाय, तेटबुं पुण्यफल बीजा तीर्थमां सुवर्ण, जूमी अथवा भाजूषणनां दानथी पण न थाय ॥२३ कंतार चोर सावय, समुद्द दारिद रोग रि रुद्दा ॥ मुच्चंति अविग्घेणं, जे सेत्तुंड धरंति मणे ॥२४॥ ..शब्दार्थः-जे माणस मनमां शत्रुजयनुं ध्यान करे ले ते मा. एणस अरएयना, चोरना, सिंहादिकना, समुजना; दारिजना, रोग ना, शत्रुना अने जयंकर अग्निना नयने निर्विघ्नपणे त्यजी देके. सारावली पयन्नग, गादा सुअहरेण नाणा जो पढ गुण निसुणई, सो लहर सित्तुंऊजत्तफलं २५ शब्दार्थः-श्रुतधरे सारावली नामना प्रज्ञापना सूत्रमांजे गाथा कही ने, तेने जे माणस जणे , गणे ने अथवा सांजले. ने ते शत्रुजयनी जात्राना फलने पामे ॥२५॥ ॥इति शत्रुजय लघुकल्प समाप्त ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) ॥ अथ उपकारी श्री रत्नागरसूरिजी कृत ॥ .. ॥श्री रत्नाकर पचीसी ॥ श्रेयः श्रियां मंगलकेलिसद्मः, नरेंदेवेंद्रनतांघ्रीपद्म ॥ सर्वज्ञ सतिशय प्रधान, चिरं जय ज्ञानकलानिधान । ... शब्दार्थ: मोक्ष लक्ष्मीने मंगल एवं क्रोमा करवानुं मंदिर, चक्रवर्ती ने इंडो जेमनां चरण कमलमां नमस्कार करी रह्या ने एवा, सर्वना जाण, चोत्रीश अतिशये करीने प्रधान अने ज्ञान कलाना जंडार एवा हे प्रनो ! तमे दीर्घकाल जयवंता वों. १ जगत्रयाधार क्रपावतार' रिसंसारविकारवैद्य ॥ श्रीवीतरागत्वयिमुग्धजावा,विज्ञप्रभोविज्ञपयामिकिंचित् ' शब्दार्थः--त्रण जगत्ना श्राधार, कपाना अवतार, उखे निवारवा योग्य संसाररूप विकारने उर करनारा वैद्य एवा हे विशेष जाण प्रजो ! हुं नोला नावथी तमारी श्रागल कांश विनंती करुं हुं. ॥१॥ किं बाखलीलाकलितो न बाला, , पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः ॥ तथा ययार्थ कथयामि नाथ, ४. निजाशयं सानुशयस्तवाग्रे ॥३॥ शब्दार्थः हे नाथ ! बालक्रीमा सहित एवो बालक मा ता पितानी पागल विकल्प रहित शुं नथी बोलतो ? तेम हुँ पण तमारी पागल पश्चाताप करतो तो म्हारो पोतानो था शय कहुं बु.॥३॥ दत्तं न दानं परिशीलितं च, , न शातिशीलं न तपोनितप्तम् ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 209 ) शुजो न जावोऽप्यनवद्भवेऽस्मिन, विनो मया प्रांतमहो मुधैव ॥ ४ ॥ शब्दार्थ - हे विनो! में दान प्राप्यं नथी, सुशोजित एवं शील पाल्युं नथी, तप कस्युं नथी तेमज या नवमां मने शुद्ध जाव पण थयो नथी, माटे अहो ! हुं फोगट्ज जांती पाम्योः दग्धोऽमिना क्रोधमयेन दृष्टो, उष्टेन लोनाख्यमहोरगे ॥ ग्रस्तोनिमानाजगरेण माया जालेन बद्धोऽस्मि कथं जजे त्वां ॥ ५ ॥ शब्दार्थः - हे प्रनो ! क्रोधरूप निथी बलेखो, लोन रूप डुं ष्ट महा सर्वे सेलो, अजिमान रूप अजगरे गलेलो अने माया थी बंधा रहेलो हुं तमने शी रीते जजी शकुं ? ॥ ५ ॥ कृतं मयामुत्र दितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश सुखं न मेऽभूत् अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश जज्ञे जवपूरणाय ॥६॥ - शब्दार्थ :- हे लोकेश ! में परलोकमां दितकारी अने प्रा लोकमां पण हितकारी एवं कां करयुं नथी, जेथी मने श्रा जं न्ममां सुख नथी मस्युं दे जिनेश्वर ! ते माटे मारा सरखी नो जन्म फक्त जब पूरवा माटेज थयो बे ॥ ६ ॥ मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्तं, त्वदास्यपियूषमयूखखानात् ॥ तं महानंदरसं कठोर, मस्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ॥ ॥ शब्दार्थ :- हे मनोवृत ! हुं जाएं बुं के, तमारां मुखरूप अमृतनां किरणोनो बान थयाथी पण अमारुं मन महा आनंद्र ने गृहण करतुं नथ, तेथी ते पचरथी पण कवीप बे ॥ ७ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) त्वतः सुःप्राप्यमिदं मयाप्तं, रत्नत्रयं नूरिनवज्रमेण ॥ प्रमादनिझावशतो गतं तत्, कस्याग्रतो नायकपूत्करोमि शहार्थ:-संसारमां बहु नटकता एवा में उखे मेलवी शकाय एवा आ ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप त्रण रत्न तमाराथी मेखव्यां हतां ते प्रमाद निसाना वाथी गुमावी दीधां , तो हवे देनायक!कोनी श्रागल जश्ने पोकार करूं ॥ ना वैराग्यरंगो परवंचनाय, धर्मोपदशो जनरंजनाय ॥ वादाय विद्याध्ययनं च मे नूत,कियब्रुवे हास्यकरं स्वमीश शब्दार्थः हे झा ! म्हारो वैराग्य रंग बीजाने उगवाने अर्थे थयो. धर्मोपदेश माणसोने राजी करवाने अर्थ थयो भने विद्या ज्यास वाद करवा माटे थयो. श्रा, म्हारं हाश्यकारक कृत्य केटलु कहुं ? ॥ए॥ परापवादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजनवीक्षणेन ॥ चेतःपरापायविचिंतनेन,कृतं नविष्यामि कथं विनोदम् १० शब्दार्थ-विनोबीनाना अबता दोष बोलवाथी मुखने, परस्त्रीने जोवाथी नेत्रने अने बीजाउने कष्ट चिंतववाथी चित्त ने एम ए त्रणेने मलीन कस्यां बे, तो हवे म्हारी शी गति थशे? विमंबितं यत्स्मरघस्मरार्ति--दशावशात्स्वंविषयांधलेन ॥ प्रकाशितं तनवतो ह्रियैव, सर्वज्ञ सर्व स्वयमेव वेत्सि ११ - शब्दार्थः-हे सर्व! कामदेवना पापनी पीमाना वश्यथी वि ..षयवझे बांधला थयेला में म्हारं पोतानुं जे कुकृत्य इतुं ते सर्व धापनी आगल लज्याथी कह्यु . वधारे शुं कडं ? कारण श्रा पज सर्व जाणो बो. ॥११॥ .. ध्वस्तोऽन्यमंत्रैःपरमेष्टिमंत्रं कुशास्त्रवाक्यैर्निहितागमोक्तिः Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) कंतु वृथाकर्मकुदेवसंगात्, प्रवां बिहिनाथमतिमोमे १२ शब्दार्थ:- में मारणादि बीजा मंत्रोथी परमेष्टि मंत्रनो नाश करथो, कुशास्त्र वचनोथी श्रागम वचननो नाश करयो ने कु देवना संगथी वृथा कर्म करवानी इच्छा करो. दे नाथ ! या सर्व मने मतिम यो बे ॥ १२ ॥ विमुच्यदृक्लक्ष्यगतंजवंतं, ध्यातामयामूढधियाहृदंतः ॥ कटावकोजगनी र नाजी, कटीतटीयाः सुदृशांविलासाः॥ शब्दार्थ - हे प्रजो ! नेत्रनी सन्मुख रहेला तमने त्यजी द‍ मूढ बुद्धिवाला में स्त्रीयोनां कटाक, स्तन, गंजीर नाजी केरूना नाग ने विलासोनुं हृदयमा ध्यान कयुं बे ॥ १३ ॥ लोले क्षणावत्र निरीक्षणेन, योमान सेरागलवो विलग्नः ॥ नशुद्धसिदांत पयोधिमध्ये, धौतोप्यगात्तारककार किं १४ शब्दार्थ - हे तारक ! स्त्रीयोनां मुखने जोवाथी जे म्हारां मनने विषे थोमो रंग लाग्यो हतो, ते रंगने में शुद्ध सिद्धांत समुद्र मां धोइ नांख्यो तो पण गयो नहि, तेनुं शुं कारण ? ॥ १४ ॥ अंगंनचंगंनगणोगुणानां, न निर्मलः को पिकला विलासः ॥ स्फुरत्प्रजानप्रभुताचकापि, तथाप्यहंकारकदार्थितोदम् १५ शब्दार्थ:- म्हारुं श्रंग सारुं नथी, म्हारामां कोइ गुणसमूद नथी, कोइ निर्मल कलाविलास नथी, तेम देदीप्यमान कांति थवा कोइ पण प्रभुता नथी, तो पण हुं अहंकारथी कद र्थना पाम्यो ढुं. ॥ १५ आयुर्गलत्याशुनपापबुद्धिः, गतंवयोनोविषयाभिलाषः ॥ यत्नश्च नैषज्य विधानधर्मे, स्वामिन्महामोह विम्बनामे १६ शब्दार्थ :- हे स्वामिन्! हमेशां आयुष्य गलतुं जायते, पापाप Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिगली जाली औषधविटी मोह विटंबनापीयं ॥ (१ ) बुझि गली जतीनथी बाल्यादि अवस्था गइ, पण विषयनो अनि लाप गयो नहि वली औषधविधिमां यत्न कस्यो, पण धर्ममां यत्न कस्यो नहि. खरेखर था मने म्होटी मोह विटंबना लागी २.१६ नात्मानपुण्यनन्नवोनपापं, मयाविटानांकटुगीरपीयं ॥ . आधारिकर्णेत्वयिकेवलार्के, परिस्फुटेसत्यपिदेवधिग्मां ॥ शब्दार्थ:-हे देव ! केवलज्ञाने करीने सूर्यरूप श्राप प्रगट बता में " प्रात्मा नथी, पुण्य नथी, जव नथी, पाप नथी." श्रावी नास्तिकोनी कम्वी वाणीने पान करो तथा कानमांधा. रण करी, तेथी मने धिक्कार .॥१७॥ न देवपूजा न च पात्रपूजा,न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः॥ लब्ध्वापिमानुष्यमिदंसमस्तं,कृतं मयारएयविलापतुल्य। शब्दार्थ:--में मनुष्य जन्म पामीने देव पूजा न करी, पात्र पूजा न करी, श्रावक धर्म न पायो तेमज साधुधर्म पण न पाल्यो; तेथी में ए सघलो मनुष्य जन्म अरण्यमां विलाप क. रवा तुख्य कस्यो . अर्थात् फोगट गुमावी नाख्यो . ॥१॥ चक्रेमयासत्स्वपिकामधेनुः, कल्प चिंतामणिषुस्पृहार्तिः॥ नजैनधर्मेस्फुटशर्मदेपि, जिनेशमेपश्यविमूढनावं ॥३॥ शब्दार्थ-हे जिनेश्वर ! में असत्य एवी कामधेनु, कल्पवृक्ष अने चिंतामणि रत्न विगेरे वस्तुमांस्पृहा करी; परंतु प्रगट सुख प्रापनारा जिन धर्मने विषे स्पृहा करी नहि. ए म्हारा वि शेष मूढ नावने जून, ॥ १५ ॥ सद्लोगलीलानचरोगकीला, धनागमोनोनिधनागमश्च।। दारानकारानरकस्यचित्ते, विचिंतिनित्यंमयकाधमेन २० शब्दार्थ में अधम चित्तमां नित्य शब्दादि सारा जोगनी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) सीलानो विचार करयो, पण तेथी थता रोगरूप खोलनो विचार करयो नहि धन मेलवानो विचार करयो, पण मरणनो विचार करयो नहि स्त्रीयोनो विचार करयो, पण नरकनी बेमीनो विचार करयो नहि, ॥२०॥ स्थितनसाधोहदिसाधुटत्तात्, परोपकारान्नयशोर्जितंच ॥ कृतंनतीर्थोधरणादिकृत्यं, मयामुघाहारितमेवजन्म १ शब्दार्थ-म्हारा हृदयमां नत्तम साधुवृत्ति रही नहि तेम में परोपकार माटे यश पण मेलव्यो नहि, वली तीर्थ उकारादि कार्य पण कयुं नहि, तेथी में खरेखर म्हारो जन्म फोगट गु. मावी नाख्यो. ॥१॥ वैराग्यरंगो न गुरूदितेषु. न उर्जनानां वचनेषु शांतिः॥ नाध्यात्मलेशोममकोपिदेव, तार्यःकयंकारमयंजवाब्धिः ॥ शब्दार्थः:-मने गुरुए कहेलां वचनमां वैराग्यरंग न थयो, उर्जनोनां वचनमां शांति पण न थ. वली मने कोइ पण थ ध्यात्म लेश प्रगटयो नहि तेथी हे देव ! म्हाराथी या संसार समुष शी रीते तराय ॥ २५ ॥ पूर्वेनवेकारिमयानपुण्यं,आगामिजन्मन्यपिनोकरिष्ये॥ यदीहशोहंममतेननष्टा, जूतोनवनाविनवत्रयीशः॥२३॥ शब्दार्थ-में पूर्वनवा पुण्य कयुं नथी, थावतानवने विषे पण करीश नहि के, जेथी हुंश्रावो फुःखीरह्योबु,माटेदे शम्हारा नूत, नविष्य अने वर्तमान कालनात्रणे जन्म वृथा नाश पाम्या. किंवामुधादंबहुधासुधाजुक्, पूज्यत्वदग्रेचरितंस्वकीयं ।। जम्पामियस्मातत्रिजगत्स्वरूप-निरूपकस्खंकियदेतदत्रा। शब्दार्य-हे अमृतजोजी! हुं तमारी आगल फोगट म्हा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) रुं चरित्र वधारे शुं कहुं ? कारण के, दे पूज्य ! तमे त्रण जगत् नां स्वरूपने निरुपण करानारा बो, तो पढी या म्हारुं कहेतुं कोण मात्र बे ॥ २४ ॥ दीनारधुरंधरस्त्वदपरो नास्ते मदन्यः कृपापात्र नात्र जने जिनेश्वर तथाप्येतां न याचे श्रियम् ॥ किंत्वईन्निदमेव केवलमदो सब्दोधिरत्नं शिवं, श्री रत्नाकर मंगलैकनिलयः श्रेयस्करं प्रार्थये ॥ १५ ॥ शब्दार्थ - हे जिनेश्वरः तमारा बिना बीजो कोइ दीन मासोनो उद्धार करवाने समर्थ नथी, तेमज लोकमां म्हारा वि ना बीजो को दया करवा योग्य पात्र नथी, तो पण हुं ते ल क्ष्मीने मागतो नथीः परंतु हे अरिहंत ! दे मोक्षलक्ष्मीना समु 5 ! हे मंगलना एक स्थान ! हुं फक्त कल्याणकारी एवां ने मो कनुं देतु एवां नत्तम बोधी बीजरूप रत्ननी याचना करूं बुं. २५ ॥ इति रत्नाकर पच्चीशी ॥ ॥ अथ समाधि शतक ॥ येनात्माबुध्यतात्मैव, परत्वेनैव चापरम् ॥ यानंतबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥ १ ॥ शब्दार्थः -- जेमणे श्रात्माने आत्मारूपे जाएयो बे ने स्माना नेद पाए करीने शरीरने जाएयुं बे ते अक्षय ने धनं त बोधवाला सिद्ध जगवानने नमस्कार थार्ज. ॥ १ ॥ जयंति यस्यावदतोऽपि जारती - विनूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनी दितुः ॥ शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे, जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ॥ २ ॥ " Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) शब्दार्थः -- तीर्थंकर बता पण वांडा रहित अने ताब्यादि की रोने नदि उच्चारता एवाय पण जे प्रजुनी वाणीनी संपत्तियो ( अथवा वाली ने उत्र चामरादि संपत्तियो ) जयवं ती वर्ते बे.. ते मोक पामेला, ऋष्यादिद्वारा लोकोनो उद्धार कर नारा, उत्तम ज्ञानव ला, केवलज्ञानथी सर्व लोकना व्यापक एवा, अनेक प्रकारनां जब दुःखने श्रापनाशं कर्मने जीतनारा, तेमज आत्मरूपे रहेला ते प्रजुने नमस्कार था ॥ २ ॥ श्रुतेन सिंगेन यथात्मशक्ति समाहितांतःकरणेन सम्यक् ॥ समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां, विविक्तमात्मानमयानिधास्ये, शब्दार्थ:- हुं म्हारी शक्ति प्रमाणे शास्त्रथी, देतुथी ठाने नि श्चल एवा अंतःकरणथे। उत्तमरीते अनुज करीने पढी सर्व क मनारहित पणाने विषे ( मोक्षने विषे, सुखनी इछा करनारा ननुं कर्ममलरहित जोवस्वरूप कही ॥ ३ ॥ बहिरंतः परश्चेति, त्रिधात्मा सर्व देदिषु ॥ उपेयात्तत्र परमं, मध्योपायादव हिस्त्यजेत् ॥ ४ ॥ " शदार्थ सर्वे प्राणीयोभां बहिरात्मा, अंतरात्मा अने पर मात्मा एम त्रण प्रकारना आत्मा बे. तेमां मध्य अंतरात्माना उपाय परमात्माने पामवुं तथा बहिरात्माने त्यजी देवो ||४|| बहिरात्मा शरीरादो, जातात्मभ्रांतिरांतरः || चित्तदोषात्मविभ्रांतिः परमात्मातिनिर्मलः ॥ ५ ॥ शब्दार्थ:-- शरीर, वाणी मन इत्यादिकने विषे श्रात्मा एवी जेनी चांति थाय ते बहिरात्मा जाणवो. चित्त, दोष छाने श्रात्मा तेमने विषे जेनी प्रांति नाश पामे अर्थात् चित्तने चित्तपणाथी, दोषो ने दोषपणाथी भने आत्माने आत्मापणाथी जाणे ते अंतरा त्मा जाणवो ने जेना सर्व कर्ममल हय यर गया होय ते Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) परमात्मा जाणवो. ॥५॥ निर्मलः केवलः शुशो, विविक्तः प्रजुरव्ययः ।। परमेष्टी परात्मेति, परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ शब्दार्थः कर्मना मलरहित, शरीरादि संबंध रहित, व्य जाव कर्मना अन्नावथी अत्यंत शुभ, शरीर अने कर्मथी न स्पर्श थयेलो, इंसादिकनो स्वामी, नहि चवे तेवो, इंजादि दे. वोने वांदवा योग्य पदने विषे रहलो, संसारी जीवोथी उत्कुष्ट, निरंतर उत्तम ऐश्वर्ययुक्त अने सर्व कर्मने नखेकी नाखनारो जे होय ते परमात्मा जाणवो ॥६॥ बहिरात्मेन्ज्यिघारै-रात्मज्ञानपराङ्मुखः॥ स्फुरितस्वात्मनो देवमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥७॥ शब्दार्थ--इंख्यि द्वारे करीने हारना अर्थने ग्रहण करतो बहिरात्मा प्रगट पोताना देहने श्रआत्मारूपज जाणे . । ७॥ नरदेवस्थमात्मानमविद्यान्मन्यते नरम् ॥ तिर्यचं तिर्यगङ्गस्थ, सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥॥ शब्दार्थ-बहिरात्मा मनुष्य देहमा रहेला श्रात्माने मनु. ध्य, तियेचना शरीरमा रहेला यात्माने तिर्यंच, तेमज देवतानां शरीरमा रहेला श्रात्माने देवता माने जे. ॥७॥ नारकं नारकांगस्थं, न स्वयं तत्वतस्तथा। अनंतानंतधीशक्तिः, स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥॥ - शब्दार्थ--वली नारकीना शरीरमा रहेला छात्माने नारकी माने , परंतु तत्त्वथी तेवी रीते पोताने जाणतो नथी. परमात्मा पोते तो अनंत अनंत बुद्धि अने शक्तिवालो, पोतानेज जाणवा योग्य अने अचल स्थितिवालो जे ॥ए । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा , परदेदमचेतनम् ॥ . परात्माधिष्टितं मूढः, परत्वेनाध्यवस्यति ॥१०॥ शब्दार्थः-परमात्माए कर्मना वश्यथी अंगीकार करेला अने अचेतन एवा परदेहने पोताना देह सरखा जोश मूढ एवो बहि रात्मा ते परदेदने परमात्मपणाए अंगीकार करे .॥ १० ॥ स्वपराध्यवसायेन, देदेष्वविदितात्मनाम् ॥ वर्त्तते विन्त्रमः पुसां, पुत्रनार्यादिगोचरः ॥११॥ शब्दार्थः-यात्मस्वरूप न जाणनारा पुरुषोने देहने विषे पोताना अने परना अध्यवसायथी पुत्र स्त्री विगेरेने गोचर ए. वो विन्रम थाय . अर्थात् अनात्मारूप अने अपकार करनारा एवाय पण स्त्री पुत्रादिकने अने धन धान्यादिकने पोतानो उप कार करनारा जाणे डे वली तेमना लाजने विष संतोष अने असामने विषे परिताप तथा श्रात्मवध पण करे . ॥ ११ ॥ अविद्यासंझितस्तस्मात्संस्कारो जायते दृढः॥ येन लोकोङमेव स्वं, पुनरप्यनिमन्यते ॥ १२॥ शब्दार्थ-ते विन्रम थकी थविद्या नामवालो अविचल सं. स्कार थाय ने के, जे संस्कारे करीने अविवेकी लोक जन्मांतर ने विषे पण पोतानां शरीरनेज आत्मा माने . ॥१२॥ देहे स्वबुद्धिरात्मानं, युनत्यतेन निश्चयात् ॥ स्वात्मन्येवात्मधास्तस्माद्वियोजयति देदिनम् ॥१३॥ शब्दार्थ:-शरीरने विषे आत्मबुद्धि करनारो बहिरात्मा परमा र्थथी ए देहे करीने श्रात्माने जोमी देडे. अर्थात् दीर्घ संसारी करेले अने पोताना श्रात्माने विवे श्रात्मबुद्धि करनारो अंतरात्मा ते शरीरादियो आत्माने वियोग करावे . अर्थात् मुक्ति पमा बे. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) देदेष्वात्मधिया जाताः पुत्रनार्यादिकल्पनाः ॥ संपत्तिमात्मनस्तानिर्मन्यते दा दतं जगत् ॥ १४ ॥ श०दार्थः - देदने विषे श्रात्मबुद्धि करवाथी पुत्र जार्यादि कल्पना थइ बे ने ते अनात्मिय कल्पनाथी पुत्र जार्यादिने आत्मानी संपत्ति माने बे. हाय हाय ! एज कारणे पोतानां स्वरूपना ज्ञानथी नृष्ट थयेलुं जगत् नाश पाम्युं डे अर्थात् बहिरात्मा रूप बन्युं छे. ॥ १४ ॥ मूलं संसारः खस्य, देह एवात्मधोस्ततः ॥ वक्त्वनां प्रविशेत्तर्व हिरव्यावृत्तेंद्रियः ॥ १५ ॥ ३ शब्दार्थः-- शरीर एज आत्मा एवी जे बुद्धि तेज संसारना दुःखनुं कारण बे माटे ते शरीर एज आत्मा एवी बुद्धिने त्यजी दइ बहार प्रवृत्त ने इंद्रियो जेनी एवो पुरुष अंतर मां प्रवेश करे बे. अर्थात् आत्माने विषे आत्मबुद्धि करे बे ॥ १५ ॥ मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम् ॥ तान्प्रपद्यादमिति मां, पुरा वेद न तत्त्वतः ॥ १६ ॥ शब्दार्थ- पोताथी ( श्रात्मस्वरूप यं । ) चवीने हूं इंद्रियद्वारे करीने विषय विषे पलो ढुं. अर्थात् प्रवृत्त ययेलो बुं. माटे ते विषयाने ( मने उपकार करनारा बे, एवा विचारथी ) अंगीकार करीने अनादि कालयी हुं मने पोताने तत्वथ जाण तो नयी ॥ १६ ॥ एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं, त्यजेदंतरशेषतः ॥ एष योगः समासेन, प्रदीपः परमात्मनः ॥ १७ ॥ शब्दार्थ:--ए प्रमाणे कला न्यायथी पुत्र, स्त्री, धन धा•न्यादि लक्षणवाली वहिर्वाणीने त्यजी दइने पढो ( हुं कर्त्ता हुं Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) सुखी तुं, डुखी तुं, दत्यादि लक्षण वाली ) अंतर्वाणी ने सर्व प्रकारे यजी देवी. ए प्रमाणे बहिरात्माने थाने अंतरात्माने त्यजी देवा रूप योग संपथी परमात्मानां स्वरूपने प्रकाश करनारो बे. यन्मया दृश्यते रूपं, तन्न जानाति सर्वथा ॥ जानन्न प्रश्यते रूपं, ततः केन ब्रवीम्यदम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थ:- हुं जे स्वरूपने जोवुं हुं ते मने सर्व प्रकारे जाण तुं नथी अने जेने हुं जाएं हुं ते स्त्ररूप देखातुं नथी तो पढी हुं कोनी साधे बोलुं ? ॥ १८ ॥ यत्परैः प्रतिपाद्योऽदं यतरान् प्रतिपादये ॥ उन्मत्तचेष्टितं तन्मे, यदहं निर्विकल्पकः ॥ १०५ ॥ शब्दार्थः-- उपाध्यायादिकथी जे हुं शिक्षण कराउं बुंठाथवा हुं शिष्यादिकने जे शिक्षण करूं कुं. ते सर्व म्हारुं जन्मत्त चेष्टित कारण, हुं निर्विकल्प . ॥ १० ॥ यद्ग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुंचति ॥ जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२०॥ शब्दार्थ - जे शुद्ध एवं श्रात्मस्वरूप, नदि ग्रहण करवा योग्य एव कर्मना उदय निमित्त क्रोधादिस्वरूपने गृहातुं नथी अने गृहण करेला अनंतज्ञानादि स्वरूपने त्यजी देतुं नथी. वली द्रव्य पर्यायादिके करीने सर्व चेतन तथा अचेतनने जा बे, ते हुं पोताथीज जागवा योग्य खात्मा बुं. ॥ २० ॥ उत्पन्नपुरुषभ्रांतेः स्थाणौ यद्वचेष्टितम् ॥ तन्मे चेष्ठितं पूर्व, देहादिष्वात्मविभ्रमात् ॥ २१ ॥ शब्दार्थ:-- यांनलामां उत्पन्न थयेली पुरुष जांतिने लीघे जवी सेते विविध उपकारादि बाह्य चेष्टा कराय वे तेवीज रीते Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) था कहेला आत्मस्वरूतुं ज्ञान थवा पूर्वे देहादिकने विषे प्रा. स्मबुझिना मथी म्हारुं चेष्टित हतुं. ॥१॥ यथासौ चेष्टते स्थाणौ, निवृत्ते पुरुषप्रदे॥ तथा चेष्टोऽस्मि देदादौ, विनिवृत्तात्मविन्रमः॥॥ . शब्दार्थः-जेवी रीते ( थांजलामां नत्पन्न थयेली पुरुष ब्रांतिवालो ) पुरुष, पुरुषारोप निवृत पामेला जम पदार्थमां नप कार तथा अपकार न करवारूप जे चेष्टा करे डे तेवी रीते दे. हादिकमां निवृत पामी डे पात्मन्त्रांति जेने एवी चेष्टा वालो हुं यश्श. ॥१२॥ येनात्मनानुनयेऽद-मात्मनैवात्मनात्मनि ॥ . सोऽहं न तन्न सा नासौ, नैको न छौ न वा बहुः२३ शब्दार्थः--जे चैतन्यस्वरूप श्रात्माए करीने हुँ पोतानां स्वरूपने विषे पोताने जाणवाना स्वनाववाला श्रात्मावमेज अनुन्नव करूं हूँ के, ते हुं पुरुष, स्त्री के नपुंसक नथी. वली एक बे अथवा बहु नथी, ॥२३॥ .. यदनावे सुषुप्तोऽहं, यन्नावे व्युबितः पुनः॥ .. अतींज्यिमनिर्देश्य, तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२४॥ शब्दार्थ-जे पोताने जाणवा योग्य शुरू स्वरूपने न पाम वारूप. गाढ निसाथी सूतेलो आने वलो जे पोताने जाणवा योग्य शुद्ध स्वरूपने पामवारूप जागी नठेलो ले ते ढुं इंजियोने अग्राह्य, वाणीने अगोचर अने पोताथीज जाणवा योग्य ढुं ॥ ॥ दीयंते त्रैव रागाद्या-स्तत्वतो मां प्रपश्यतः॥ बोधात्मानं ततःकश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः॥ २५॥ शब्दार्थः श्राज जन्मने विषे ज्ञान स्वरूप एवा मने तत्व Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) वो जोवाथी रागादिक शत्रु क्षय पामे . पनी मने को शत्रु नथी अने मित्र पण नथी. ॥ २५ ॥ मामपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः॥ मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः॥३६॥ : शब्दार्थः--मने न जो शकतो एवो पा लोक म्हारो शत्रु अने मित्र नथी तेमज मने जो शकतो एवो पण या लोक शत्रु बने मित्र नथी. ॥२६॥ त्यक्त्वैव बहिरात्मानमंतरात्मव्यवस्थितः॥ जावयेत्परमात्मानं, सर्वसंकल्पवर्जितः॥२॥ .. शब्दार्थः-ए प्रमाणे अंतरात्माने विषे रहेलो पुरुष बहिरात्मा ने त्यजी सर्व प्रकारना संकल्प रहित थयो तो परमात्माने नावे. सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन्नावनया पुनः॥ तत्रैव दृढसंस्काराल्ललते ह्यात्मनः स्थितिम् ॥श्ना __ शब्दार्थ-वली ते परमात्माने विषे जावनावमे ग्रहण करी । ने वासना जेणे एवो ते अनंतज्ञानस्वरूप परमात्मारूप हुँ, ते परमात्माने विषे दृढ संस्कारथी (अविचल वासनाथी) आत्मानी स्थितिने पामुं बु.॥॥ . मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यनयास्पदम् ॥ यतोऽनीतस्ततो नान्यदलयस्थानमात्मनः॥२॥ शब्दार्थः बहिरात्मा जे पुत्र स्त्री विगेरेने विषे (श्राम्हारा श्रने हुं तेमनो बु.) एवो विश्वास पाम्यो , तेथी तेने बीजो जय नथी. अर्थात् शरीरने लीधेज नय रहेलो . वली जे परमात्म स्वरूपने जाणवायी अजय पाम्यो , तेथी बीजुं श्रात्माने अत्रयस्थान नथी. ॥ २५ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२० ) सज्यिाणि संयम्य, स्तिमितेनांतरात्मना ॥ यत्क्षणं पश्यतो नाति, तत्तत्त्वं परमात्मनः ॥ ३० ॥ शब्दार्थः सर्वे इंडियोने नियममा राखीने कण मात्र अनु जव करवाथी निश्चल एवा मन वझे जे स्वरूप देखाय , तेज परमात्मानुं स्वरूप . ॥३०॥ यः परात्मा स एवाहं, योऽहं स परमस्ततः॥ अहमेव मयोपास्यो, नान्यःकश्चिदिति स्थितिः ॥३२॥ __ शब्दार्थः-जे परमात्मा तेज हुं. अने जे हुं ते परमात्मा, तेथो हुंज म्हारे पोताने नपासना करवा योग्य छं. बोजो कोइ नपासना करवा योग्य नथी, ए स्थिति के. ॥ ३१ ॥ प्राच्याव्य विषयेच्योऽहं, मां मयेव मयि स्थितम् ॥ बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि, परमानंदनिर्वतम् ॥ ३२ ॥ शब्दार्थः-श्रात्मस्वरूपवमे करीने विषयथी निवृत्ति पामीने आत्मस्वरूपने विषे रहेला म्हारा ज्ञानस्वरूर श्रने उत्तम श्रा नंदश्री सुखी एवा श्रात्माने हुं प्राप्त थयेलो बुं ।। ३ ।। यो न वेत्ति परं देदा-देवमात्मानमव्ययम् ॥ बनते न स निर्वाणं, तप्त्वापि परमं तपः ॥ ३३ ॥ शब्दार्थः-जे पुरुष, प्राप्त थयेला देहथी पर अने श्रव्यय एवा श्रात्माने कहेली रोते नथी जाणतो, ते उत्कृष्ठ एवां तपने करतो तो मोक्षपद पामतो नथी. ॥ ३३॥ आत्मदेहांतरज्ञान--जनिताल्दादनिर्वृतः तपसा.पुष्कृते घोरं, मुंजानोऽपि न खिद्यते ॥३॥ शब्दार्थः-प्रारमा अने देहना नेदज्ञानथ। नत्पन्न थयेला. . हर्षे करीने सुखी अयो तो बार प्रकारनां तपथी घोर पापने Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) जोमवतो एवो पण माणस खेद पामतो नथी. ॥३४॥ रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् ॥ स पश्यात्यात्मनस्तत्त्वं, स तत्त्वं नेतरो जनः ॥३॥ शब्दार्थः-रागद्वेषादि कहोलथी जेनुं मनरूप जल मोलाइ गयु नथी, ते आत्मतत्त्वने जूए ने वली ते जोनारो पोतेज पर मात्मरूप ने बीजो परमात्म रूप नथी. ॥३५॥ अविक्षिप्तं मनस्तत्वं, विक्षिप्तं भ्रांतिरात्मनः॥ धारयेतदविक्षिप्तं, विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः॥३६॥ शब्दार्थः-रागादिकथी अपरिणामित एबुं प्रात्मानुं वास्त विक स्वरूप डे अने तेनाथी जे उलटुं ते श्रात्मानी ब्रांति या त्मरूप रहित जे. ते कारण माटे रागादिकथी अपरिमित एवा मनने धारण करवं, परंतु रागादिकना विकारवाला मननो भा. श्रय करवो नहि. ॥ ३६॥ . आ विद्याच्याससंस्कारैरवशं दिप्यते मनः ॥ तदेव ज्ञानसंस्कारैः, स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्टते ॥ ३७॥ शब्दार्थः-शरीरने विषेज पवित्र अने स्थिर एवं श्रात्मा तथा आत्मिय विगेरे जे ज्ञान ते अविद्या. ते अविद्याना मच्यासथी उत्पन्न थयेली वासनाये करीने श्रवश (विषयने अने इंजियो ने श्राधिन तथाथात्माने श्राधिन नदि) एवं मन थाय ले. तेज ग. न ज्ञानसंस्कारे करीने श्रात्मस्वरूपने विषे रहे जे. ॥३॥ . अपमानादयस्तस्य, विदेपो यस्य चेतसः । मापमानादयस्तस्य, न देपो यस्य चेतसः ॥३७ ' शब्दार्थः जेनां चित्तने रागादि परिणाम ले तेने अपमाना Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) दि होय छेधने जेना चित्तने रागादि परिणाम नथी तेने अपमा नादि पण नथी. ॥ ३० ॥ यदा मोहात्मजायेते, रागद्वेषौ तपस्विनः ॥ तदेव जावयेत् स्वस्थमात्मानं शाम्यतः दाणात् ॥ ३॥ ... शब्दार्थ:-ज्यारे तपस्वीने मोहनीय कर्मना नदयथी रागद्धे पनत्पन्न थाय जे त्यारे ते क्षणमात्रमा रागद्वेषने शांति पमाम ता बता पोतानां स्वरूपमा रहेला श्रात्माने नावे . ॥ ३५ ॥ यत्र काये मुनेः प्रेम, ततः प्राच्यव्य दहिनम् ॥ बुध्या तजुत्तमे काये, योजयेत्प्रेम नश्यति ॥४०॥ ... शब्दार्थः-मुनिने जे पोताना अथवा परना शरीरने विषे स्नेह थाय ने ते शरीरथी बुझिवझे यात्माने पालो फेरवीने तेथी पण उत्तम एवा चिदानंदमय आत्म स्वरूपने विषे जोमे के, जेथी काया उपर स्नेह थतो नथी.॥ ४० ॥ आत्मविन्रमजं दुःख-मात्मज्ञानात्प्रशाम्यति ॥ नायतास्तत्र निर्वात्ति, कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ शब्दार्थः-शरीरादिकमां श्रात्मा एवा विज्रमथी थयेउःख आत्मज्ञानथी नाश पामे डे. वली श्रात्मस्वरूपमा असावधान एवा पुरुषो उत्कृष्ट एवं तप करीने पण मोद पामता नथी. १४. शुन शरीर दिव्यांश्च, विषयाननिवांति ॥ उत्पन्नात्ममतिदेहे, तत्त्वज्ञानी ततश्श्युतिम् ॥४२॥ शब्दार्थः शरीरने विषे उत्पन्न थयेली श्रारम बुझिवाखोल र्थात् बहिरात्मा पुरुषःशुन एवा शरीरने अने दिव्य एवा विष योने.श्छेले. तथा तत्वज्ञानी पुरुष शरीरनी निवृत्तिने श्वे.डे. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) परत्राहंमतिः स्वस्मायुतो बध्नात्यसंशयम् ॥ स्वस्मिन्नहंमतियुत्वा, परस्मान्मुच्यते बुधः ॥ ४३ ॥ शब्दार्थ शरीरने विषे आत्मबुद्धिवालो बहिरात्मा श्रात्म स्वरूपथी ष्ट थइने खरेखर बंधन पामे वे छाने श्रात्मस्वरूपने विषे श्रात्मबुद्धिवालो अंतरात्मा शरीरादिकथी जूदो थने मुक्ति पामे बे. ॥ ४३ ॥ दृश्यमानमिदं मूढ स्त्रिलिंगमवबुध्यते ॥ इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ॥ ४४ ॥ शब्दार्थ - बहिरात्मा था देखाता पुरुष, खो खने नपुंसक रूप त्रय लिंगने त्रिलिंगरूप माने बे ने अंतरात्मा अनादिसिद्ध धने विकल्पादिके वर्जित एवा श्रात्मत्वनेज मानेबे ॥ ४४ ॥ जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं, विविक्तं जावयन्नपि ॥ पूर्व विज्रमसंस्काराद्व्रांतिं नूयोऽपि गच्छति ॥ ४५ ॥ शब्दार्थ - अंतरात्मा श्रात्मतस्वने जाणतो बतो तथा शरीरा दिकथी जूडुं मानतो बतो पण पूर्व विक्रमना संस्कारची फरीने पण जांति पामे वे ॥ ४५ ॥ अचेतनमिदं दृश्य -- मदृश्यं चेतनं ततः ॥ - क रुष्यामि क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं जवाम्यतः ॥४६॥ शब्दार्थः श्रा देखातुं एवं शरीरादि जम बे ने न दे खातुं एवं श्रात्मस्वरूप चैतन्यरूप बे, माटे हुं कोना कोन खने कोना नपर संतोष करूं. तेथी दवे हुं मध्यस्थरूप पानं तु. ४६ त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ॥ नांतर्बहिरुपादानं, न त्यागो निष्टितात्मनः ॥ ४७ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) शब्दार्थः बहिरात्मा बाह्यवस्तुने विषे त्याग अने अजिलाप करे . अंतरात्मा श्रात्मस्वरूपने विषे त्याग अने अन्निलाष करे , परंतु कृत कृत्य एवा परमात्माने तो अंतरात्माने विषे अनि. बाप अने बहिवस्तुने विषे त्याग एमानुं कां नथी. ॥ ४ ॥ युंजीत मनसात्मानं, वाकायान्यां वियोजयेत्॥ मनसा व्यवहारं तु, त्यजेबाकाययोजितम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थ-मानसिक ज्ञानथी श्रात्मा ध्यान करवं, पण वाणी अने कायाथी आत्माने जूदो करवो वली मननी साथे वा. णी अने कायाथी जोमाएला व्यवहारने मने करीने त्यजी देवो. जगदेहात्मदृष्टीनां, विश्वास्यं रम्यमेव च ॥ स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां, व विश्वासः क्व वा रतिः ॥ ४ए॥ शब्दार्थः-शरीरने विषेत्रात्मदृष्टिवाला अर्थात् बहिरात्माने जगत् विश्वास करवा योग्य अने मनोहर लागे , परंतु श्रा माने विवे श्रात्मदृष्टिवाला अर्थात् अंतरात्माने क्या विश्वास श्रने क्या रति होय होय ? अर्थात् तेने पुत्रादिकने विषे वि. श्वास अथवा प्रीति होती नथी. आत्मज्ञानात्परं कार्य, न बुछो धारयेचिरम् ॥ कुर्यादर्थवशात्किंचिछाकायान्यामतत्परः ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-यात्मज्ञान विना बोजु कार्य बहु वखत मनमां धारवू नहि श्रने तेवु जोजन व्याख्यानादिक कार्य कर पमे तो ते श्रासक्ति रहित थश्ने फक्त वाणी अने कायावमे पोताना अने परना उपकारना वशथीज करवू. ॥ ५० ॥ यत्पश्यामोन्न्यैिस्तन्मे, नास्ति यन्नियतेन्जियः॥ अंतः पश्यामि सानंदं, तदस्य ज्योतिरुत्तमम् ॥ ५ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) शब्दार्थ - - हुं इंद्रियोव जे शरीरादिक जो बुं, ते म्हा रूप नथी, परंतु इंद्रियोने स्वाधिन करीने हुं म्हारी अंदर म तम सुखरूप ने इंद्रियोने अगोचर एवं जे ज्ञान जोठं बुं. ते म्हारुं स्वरूप बे. ॥ ५१ ॥ सुखमारब्धयोगस्य, बहिःखमथात्मनि ॥ बहिरेवा मुखं सौख्य-- मध्यात्मं नावितात्मनः ॥ ५२ ॥ 4 शब्दार्थः -- प्रात्मस्वरूप जाणवामां उद्यमवंत थयेलाने बाह्य विषयमा सुख थाय बे तथा आत्मविषयमां दुःख थाय छे अने यथार्थ आत्मस्वरूप जाणेलाने बाह्य विषयमां दुःख तथा थात्मविषयमा सुख थाय बे. ॥ ५२ ॥ तहूयात्तत्परान्पृचे --तदिच्छेत्तत्परो भवेत् ॥ येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ॥ ५३ ॥ शब्दार्थः--ते श्रात्मस्वरूप पोते कहेतुं, बीजाने पूढ, ते श्रात्मस्वरूपनेज इचवुं अने तेमां तत्र यतुं के, जेथी बहिरात्मरूप त्यजी दश श्रात्मस्वरूपने पमाय ॥ ५३ ॥ शरीरे वाचि चात्मानं, संधत्ते वाक्शरीरयोः ॥ भ्रांतोप्रांतः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते ॥ ५४ ॥ शब्दार्थः-वाणी अने शरीरने विषे जांति पामेला बहिरा स्मा पोताने शरीरमां छाने वाणी मां आरोपण करे छे. वली यथार्थ ते स्वरूपने जाणनारो अंतरात्मा वाणीनां, शरीरनां अने श्रात्मानां स्वरूपने जूदा जूदा जाणे बे. ॥ ५४ ॥ न तदस्तीप्रियार्थेषु यत्क्षेमंकरमात्मनः ।तथापि रमते बाल - स्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥ २५ ॥ शब्दार्थः - इंद्रियार्थने विषे तेवुं कां नथी के, जे आत्मा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुं कुशल करनार याय. तो पण अज्ञानी बहिरात्मा ते इंजि. योमा अर्थने विषे मिथ्यात्वना संस्कारथी रमे . ॥५५॥ चिरं प्रसुप्तास्तमसि, मूढात्मानः कुयोनिषु ॥ अनात्मीयात्मनूतेषु, ममाहमिति जाग्रति ॥५६॥ शब्दार्थः-अनादि मिथ्यात्व संस्कार होवाने लीधे चोराशी लाख कुयोनिमां दीर्घकालथी सूतेला बहिरात्मा परमार्थथी पोताना संबंधी नहि एवा पुत्र स्त्री विगेरेने विषे 'हुँ अने म्हा. रुं' एम कहेता बता जागे . ॥ ५६ ॥ पश्येन्निरंतरं देवमात्मनोऽनात्मचेतसा ॥ अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्वे व्यवस्थितः ॥७॥ शब्दार्थः-आत्मतत्वने विषे रहेलो अंतरात्मा पोतानां शरीरने अनात्मबुद्धिथा (था श्रात्मा नथी एवा विचारथी) निरंतर जूए डे तेमज बीजाउने था परमात्मा नथी एएवी बुद्धिथी जूए . अज्ञापितं न जानति, यथा मां झापितं तथा ॥ मूढात्मानस्ततस्तेषां, वृथा मे ज्ञापनाश्रमः ।। ५७ ॥ .. शब्दार्थ--मूढात्मा जेम आत्मस्वरूप न समजाव्या उता नथी जाणतो तेमज समजाव्या बता पण नथी जाणतो. तेथी ते मूढात्माने म्हारे समजाववानो श्रमज फोगट बे. ॥ ५ ॥ यद्बोधयितुमिहामि, तन्नादं यदहं पुनः ॥ ग्राह्यं तदपि नान्यस्य, तत्किमन्यस्य बोधये ॥एए॥ ___ शब्दार्थः-जे विकरूपमा व्याप्त य रहेला श्रात्मस्वरूपने अथवा देहादिकने समजावधानी इशा करुं बु. ते हुँ पोते परमा. पंची यात्मस्वरूप नथी श्रने बलजे हुँ विदामरूप ढुं ते Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (209) बीजाने ग्रामां श्रातुं तेम नथी. तो पनी हुं बीजाने शा माटे आत्मतत्वनो बोध करूं ? ॥ ५० ॥ बहिस्तुव्यति मूढात्मा, पिदितज्योतिरंतरे ॥ तुष्यत्यन्तः प्रबुदात्मा, बहिर्व्यावृत्तकौतुकः ॥ ६० ॥ शब्दार्थ : - अंदरना तत्त्व विषयने विषे मोहर्थी ढंकाइ ग येला ज्ञानवालो बहिरात्मा शरीरादि बाह्य अर्थने विषे प्रसन्न थाय बे ने शरोरादिकने विषे प्रीति रहित एवो अंतरात्मा पो तानां स्वरूपने विषे प्रसन्न थाय बे. ॥ ६० ॥ न जानति शरीराणि, सुखदुःखान्यबु- ६यः ॥ निग्रहानुग्रह धियं, तथाप्यत्रैव कुर्वते ॥ ६१ ॥ शब्दार्थः शरीरो सुख दुःखने जाणतां नथी, तोपण बहिरात्मा एज शर। रादिकने विषे नृपवासादि करवाथी निग्रह करवानी अने कुंरु कम विगेरेथी शणगारवावमे अनुग्रह करवानी बुद्धि करेबे. स्वबुद्ध्या यावगृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् ॥ संसारस्ताव देतेषां भेदाच्यासे तु निवृत्तिः ॥ ६२ ॥ " शब्दार्थ:-- ज्यां सुधी शरीर, वाणी ने चित्तपत्राने श्रात्मबुद्धिथी ग्रहण करे त्यांसुधी संसार थाय बेखने ते णमो जेद अभ्यास थयो एटले मुक्ति थायडे घने वस्त्रे यथात्मानं, न घनं मन्यते तथा ॥ घने स्वदेदेप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः ॥ ६३ ॥ शब्दार्थः- ज्ञानी पुरुष जेम मजबुत वस्त्र पहेरवाथी पो. ताने मजबुत मानतो नथी तेम शरीर पण मजबुत होय तोपण आत्माने मजबूत सातो नथी. ॥ ६३ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं, न जीर्णे मन्यते तथा ॥ जीर्णे स्वदेहेप्यात्मानं, न जीर्ण मन्यते बुधः ॥ ६४ ॥ शब्दार्थ - ज्ञानी पुरुष जेम जीर्ण वस्त्र पढेवाथी पोताने जीर्ण मानतो नथी तेम जीर्ण शरीर बतां श्रात्माने जीर्ण मानतो नथी. नष्टे वस्त्रे यथात्मानं, न नष्टं मन्यते तथा ॥ नष्टे स्वदेदेऽप्यात्मानं, न नष्टं मन्यते बुधः ॥ ६५ ॥ शब्दार्थ - ज्ञानी पुरुष जेम वस्त्र फाटी जवाथी पोताने नाश पामेलो जातो नथी तेम देइ नाश पाम्यां बतां श्रात्माने नाश पामेलो मानतो नथी. ॥ ६५ ॥ रक्ते वस्त्रे यथात्मानं, न रक्तं मन्यते तथा ॥ रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं, न रक्तं मन्यते बुधः ॥ ६६ ॥ शब्दार्थः- ज्ञानी पुरुष जेम वस्त्र रक्त बतां पोताने रक्त मानतो नथी तेम पोतानो देह रक्त बतां आत्माने रक्त मानतो नथी. ६६ यस्य सस्पंदमानाति, निस्पंदेन समं जगत् ॥ प्रमक्रियाजोगं, स कामं याति नेतरः ॥ ६७ ॥ शब्दार्थ:-- जेने चंचल एवं श्रा जगत् जम, तेमज पदार्थनुं ज्ञानाने सुखादिकनो अनुभव न होवाने लीघे काष्ट अने पा पाल तुल्य जगाय बे, ते शांतिने पामे बे. बीजो पामतो नथी. शरीर कंचुकेनात्मा, संवृतज्ञान विग्रहः ॥ नात्मानं बुध्यते तस्माद्भ्रमत्यतिचिरं नवे ॥ ६८ ॥ " शब्दार्थः-- शरीर रूप कंचवाथी ढंकाइ गयो बे ज्ञानरूप देह जेनो एवो बहिरात्मा पोताने जाणी शकतो नथी, तेथी ते संसारमां बहु कालयी जटके बे. ॥ ६८ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२० ) प्रविशजलता व्यूदे, देहेऽणूनां समाकृतौ ॥ स्थितित्रांत्या प्रपद्यते, तमात्मानमबुध्यः ॥ ६॥ शब्दार्थ--पेसतां अने निकलता एवा परमाणुनां समूहरूप अने समानकृतिवाला देहने विषे स्थितिनी ब्रांतिथी बहिरात्मा ते देहने आत्मा माने जे. ॥६॥ गौरः स्थूलः कृशो वाहमित्यनेनाविशेषयन् ॥ आत्मानं धारयेन्नित्यं, केवलझप्तिविग्रदम् ॥ ७० ॥ ___ शब्दार्थ-हुँ गोरो बु जामो बुं अथवा पातलो बुं. एम अंग नी साथे एकमेकन करतो तो फक्त जाणपणारूप शरीरवा ला श्रात्माने नित्य धारण करे . ॥ ७ ॥ मुक्तिरेकांतिकी तस्य,चित्ते यस्याचला धृतिः ॥ . . तस्य नैकांतिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः ॥७॥ शब्दार्थ--जेनां चित्तमा अविचल आत्मस्वरूप, धारण करवापणुं जे. तेने अवश्य मुक्ति प्राप्त थाय ने अने जेनां चितमा अविचल श्रात्मस्वरूपनुं धारण करवा पणुं नथो तेने अवश्य मुक्ति प्राप्त थती नथी. ॥ १ ॥ जनेच्यो वाकृतः स्पंदो, मनसश्चित्रविचमाः ॥ नवंति तस्मात्संसर्ग जनैयोगी ततस्त्यजेत् ॥ ७ ॥ शब्दार्थ-माणसोना समागमथी वचन प्रवृत्ति थाय , व. चन प्रवृत्तिश्री मननी व्यग्रता थाय डे अने तेथी नाना प्रकारना विकल्पो थाय जे. माटे योगी पुरुषोये माणसोनी साथे स. मागम त्यजी देवोः ॥ १२ ॥ ग्रामोऽरण्यमिति केधा, निवासोऽनात्मदर्शिनाम् ॥ दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मैव निश्चलः ॥ ३ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) शब्दार्थः-श्रात्मस्वरूपने न पामेलाने गाम अने अरण्य एम बे प्रकारे निवास स्थान तथा प्रात्मस्वरूग्ने पामेलाने व्याकु लता रहित एवो शुभ आत्माज निवास स्थान . ॥३॥ देदांतरगतेबीजं, देदेऽस्मिन्नात्मनावना ॥ बीजं विदेहनिष्पतेरात्मन्येवात्मनावना ॥ ४ ॥ ___ शब्दार्थः-श्रा देख्ने विषे श्रात्मन्नावना करवी एज बीजा जवनी प्राप्तिनुं कारण जे अने यात्माने विषे आत्मनावना करवी एज मोक्ष प्राप्तिनुं बीज . ॥ ४ ॥ . . नयत्यात्मानमात्मैव, जन्मनिर्वाणमेववा ॥ गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ॥७॥ शब्दार्थः-श्रात्मा आ देहादिकने विषे प्रात्मजावना वश्यथ। पोताने संसारमा जटकावे अने आत्माने विषे श्रात्मजावनाना वश्यथी पोताने मोक्ष प्रत्ये पमामे बे, माटे परमार्थथी आत्मानो गुरु तो आत्माज जे. बीजो कोइ नथी. ॥ ५ ॥ दृढात्मबुभिर्देवादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः॥ मित्रादिनिर्वियोगं च, बिन्नेति मरणाद्वाशम् ॥७॥ शब्दार्थः-देहादिकने विषे दृढ एवो श्रात्मबुद्धिवालो बहिरात्मा पोताना मरणने जोतो बतो अने मित्रादिकना वियोगने जाणतो तो मृत्युथी बहु लय पामे ॥ ६ ॥ आत्मन्येवात्मधीरन्या, शरीरगतिमात्मनः ॥ मन्यते निर्नयं त्यक्तवा, वस्त्रं वस्त्रांतरग्रहम् ॥ ७॥ __ शब्दार्थः-एक वस्त्रने त्यजी द बीजा वस्त्रने ग्रहण करवा नो पेठे श्रात्माने विषेधात्मबुद्धिवालो अंतरात्मा जय रहितपणे शरीरनी परिणतिने (बाल्यादि अवस्थाने) पोताथी जुदो माने Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) d. अर्थात् शरीरनी उत्पत्ति अने नाशना अवसरे पोतानी जस तिने नाश नथी मानतो. ॥ 99 ॥ व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे ॥ जागर्ति व्यवदारेऽस्मिन्सुषुतश्वात्मगाचेर ॥ ७८ ॥ शब्दार्थः प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहारमां जे सूतेलो (श्रतस्पर) बेते श्रात्मविषयमां जागतो (तत्पर) के अने जे प्रवृत्ति निवृ त्तिरूप व्यवहारमां जागतो (तत्पर) बे ते श्रात्मविषयमां सूते लो ( तत्पर) बे ॥ ८ ॥ आत्मानमंतरे दृष्ट्वा दृष्ट्रा देहादिकं बहिः || तयोरंतर विज्ञानादच्यासादच्युतो भवेत् ॥ ७ ॥ शब्दार्थ - श्रात्माने अंदर जो अने शरीरादिकने व्हार जो इने ते बन्नेना जेद ज्ञाननी जावनाथी मुक्त थवायडे, ॥७५॥ पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य, विजात्युन्मत्तवजगत् ॥ स्वन्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत् ॥ ८० ॥ शद्दार्थःशार्थ:-- प्रथम श्रात्मतत्त्वने जोनारा अर्थात् योगारंजी पुरुपने या जगत् उन्मत्त समान देखायडे घने पढी श्रात्मतस्वनो सारी रोते अभ्यास करनाराने काष्ट धने पाषाण सरखुं देखायडे. शृण्वन्नप्यन्यतः कामं, वदन्नपि कलेवरात् ॥ आत्मानं जावयेन्निं यावत्तावन्न मोनाक् ॥ ८१ ॥ शब्दार्थः-- बीजा पासेथी अत्यंत सांजलतो अने पोते बीजाने देतो बतो पण ज्यांसुधी शरीरथी आत्माने जूदो जावतो नथी त्यांसुधी मोक्षनुं पात्र थतो नयी ॥८१॥ तथैव जावयेद्देहाद् - व्यावृत्यात्मानमात्मनि ॥ यथा न पुनरात्मानं, देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥ ८२ ॥ • Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) शब्दार्थः-देहथी जदो करीने श्रात्माने, श्रात्माने विषे तेवी रोते जाववो के, जेथी ते फरोथी स्वप्नामां देवने श्रात्मरूप न माने. अपुण्यमव्रतैः पुण्यं, व्रतैर्मोदस्तयोर्व्ययः ॥ अव्रतानीव मोदार्थी, व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥७३॥ शब्दार्थः-दिसादिक विकल्पोथी पाप अने अहिंसादिक वि. कल्पोथी पुण्य थाय बे तथा ते बनेनो त्याग करवाथी मोक्ष थाय बे, तो मोदना अर्थीये हिंसादिकनी पेठे पुण्यादिकने त्यजी देवा. अव्रतानि परित्यज्य, व्रतेषु परिनिष्टितः ॥ त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य, परमं पदमात्मनः ॥ ४॥ शब्दार्थः-प्रथम हिंसादि अव्रतोने त्यजी द पुण्यादि व्रतने विषे सावधान थाय भने पड़ी श्रात्माना परम पदने पामोने अ. र्थात् वीतरागपणुं पामीने ते पुण्यादि व्रतने पण त्यजो दे. ८४ यदन्तरलेल्पसंपृक्तमुत्प्रेदाजालमात्मनः ॥ मूलं अःखस्य तन्नाशे, शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥ ५ ॥ शब्दार्थ-जे अंतर वचनना व्यापारे सहित एवी चिंतारूप जाल तेज श्रात्माने पुःखनुं मूल . माटे ते जालनो नाश थये श्ष्ट ए परमपद प्राप्त थाय ॥ अव्रतो व्रतमादाय, व्रती ज्ञानपरायणः ॥ परात्मज्ञानसंपन्नः, स्वयमेव परो नवेत् ॥ ६॥ शब्दार्थः-हिंसादि करवावालो अवती हिंसा न करवारूप व्रत व अने पड़ी ते व्रत लेनारोवती ज्ञानमां तत्पर एवो थाय ३. पठी ते उत्कृष्ट एवा श्रात्मज्ञानमां लोन थश्ने पोतेज पर. मात्मा रूप थाय . ॥ ६ ॥ लिंगं देवाश्रितं दृष्टं, देद एवात्मनो नवः ॥ ... Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न मुच्यते नवात्तस्मात्ते ये लिंगकृतायहाः ॥ ७ ॥ शब्दार्थ-जटाधारण अथवा नग्नपणुं ए विगेरे लिंग, देइने श्राश्रिने देखाय ने अने देह एज श्रात्माने संसाररूप डे, माटेजे. न लिंगने विषे श्राग्रह करनारा ते ते संसारथो मूकाता नथा. जातिदेहाश्रिता दृष्टा, देव एवात्मनो भवः ॥ न मुच्यते नवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः ॥ ७ ॥ शब्दार्थः--जाति ए पण देहने श्राश्रिने देखाय ने अने देह डे ते आत्माने संसार , माटे जे जातिमा आग्रह करनारा डे ते ते संसारथी मूकाता नयो. ॥ ७ ॥ जातिलिंगविकल्पेन, येषां च समयाग्रहः ॥ तेऽपि न प्राप्नुवंत्येव, परमं पदमात्मनः॥ नए ॥ __ शब्दार्थ:-जाति श्रने लिंगना नेदे करीने जेने श्रागम उपर श्राग्रह ते पण श्रात्माना परम पदने पामता नयोज. यत्यागाय निवर्तत्ते, नोगेन्यो यदवाप्तये ॥ प्रीतिं तत्रैव कुर्वति वेषमन्यत्र मोदिनः॥ ए॥ शब्दार्थः-जे शरीरना निर्ममत्वने अर्थे पुष्पनी माला अथबा स्त्री विगेरेथी निवृत्ति पामे अथवा उत्तम एवा वीतरागप. पानी प्राप्तिने अर्थे निवृत्ति पामे छे. वली जे शरीरने विषे प्रीति करे अने वीतरागपणामां द्वेष करे . तेने मोहवाला जाणवा. अनंतरज्ञः संधते, दृष्टिं पंगोर्यथांधके॥ संयोगादृष्टिर्मगेऽपि, संधते तदात्मनः॥ १॥ शब्दार्थः-जेम पांगलानी दृष्टि प्रांधलाने विष धारण कराय ने तेम शरीर अने श्रात्माने विषे अजेदनो वामह करनारा पुरुष देह अने आत्माना संयोगश्री प्रात्मानो माह Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ने विषे पण धारण करे . ॥ १ ॥ दृष्टनेदो यथा दष्टिं, पंगोरंघे न योजयेत् ॥ तथा न योजयेदेहे, दष्टात्मा दृष्टिमात्मनः ॥ ए॥ - शब्दार्थ-पांगलानो अने बांधलानो नेद जाणनारो पुरुष जेम पांगलानी दृष्टि बांधलाने विषे न धारण कर तेम देह अने प्रात्मानो नेद जाणनारो अंतरात्मा पुरुष आत्मानी दृष्टि देहने विषे न धारण करे. ॥ ए ॥ सुप्तोत्मत्ता द्यवस्थेव, विन्रमोऽनात्मदर्शिनाम् ॥ वित्रमोऽदीणदोषस्य, सर्वावस्थालदर्शिनः ॥ ५३॥ शब्दार्थः-बहिरात्माने सुप्तावस्थानी पेठे अने उन्मत्तादि श्रवस्थानी पेठे विन्रम . तथा बालकुमारादि लक्षणवाली सर्व अवस्थाने आत्मा एम जोनारा बहिरात्मानने विनमज होय जे. विदिताशेषशास्त्रोऽपि, न जायदपि मुच्यते ॥ देहात्माष्टतिात्मा, सुप्तोत्मत्तोऽपि मुच्यते ॥ ए४॥ शब्दार्थः. बहिरात्मा सर्व शास्त्रने जाणवाने लीधे जागतो बतो पण मूकातो नथी अने आत्माने जाणनारो अंतरात्मा सु. त तथा उन्मत्त तो पण मूकाय . ॥ ए४ ॥ यत्रैवाहितधीः पुंसः; श्रझा तत्रेव जायते ॥ यत्रैव जायते श्रघा, चित्तं तत्रैव लीयते ॥ ५॥ शब्दार्थः-जे विषयमा बुद्धि आश्रय करे, पुरुषने तेज वि. षयमां श्रद्धा थाय ने अने जे विषयमा श्रझा थाय ने तेज वि. षयमा चित्त शासक्त थाय . ॥ एए॥ यत्रैवाहितधीः पुंसः, श्रधा तस्मानिवर्त्तते ॥ यस्मानिवर्तते श्रा, कुतश्चित्तस्य तल्लयः ॥ ९६ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) शब्दार्थः-- जे विषयमां बुद्धि श्राश्रय न करे, पुरुषने ते विथी श्रद्धा निवृत्ति पामे अने जे विषययी श्रद्धा निवृत्ति पामे ते विषयमा चित्तनी शक्ति क्यांयी होय. ॥ ए६ ॥ चिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो जवति तादृशः ॥ वर्तिर्दीपं ययोपास्य, जिन्ना नवति तादृशी ॥ ७ ॥ शब्दार्थ:-: जेम दीवाथी जूदो एवी वाट दीवाने पामीने दी - वारूप बनी जाय वे म आत्माथी जूदो एवो आराधक पुरुष अर्हत् सिद्धरूप आत्मानी उपासना करोने तेवो परमात्मरून बनी जाय बे. ॥ १ ॥ उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा ॥ मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः ॥ ए८ ॥ शब्दार्थ:-- जेम वृक्ष पोतानां शरीरने घर्षण करीने पोते - ग्निरूप थाय बे तेम श्रात्मा ( उपासक ) चिदानंदमय पोताना श्रात्मस्वरूपनो उपासना करोने परमात्मरूप थाय बे. ए इतीदं जावयेन्नित्य-मवाचा गोचरं पदम् ॥ स्वत एव तदाप्नोति, यतो, नावर्तते पुनः ॥ एए ॥ शब्दार्थः-- या का प्रमाणे जे निन्न अने अभिन्न एवा आत्मपदनी नित्य जावना करे बे ते वाणीने अगोचर एवा मोक स्थानने पोतानी मेलेज पाने बे घने ते प्राप्त थयेला पदथे। फरी पाढो धावतो नथी. ॥ एए ॥ प्रयत्नसाध्यं निवार्ष्णे, चित्तत्वं नूतजं यदि ॥ अन्यथा योगतस्तस्मान्नडुःखं योगिनां क्वचित् ॥१००॥ शब्दार्थः-जो चेतना लक्षण तत्व पृथ्वी आदि पांच महा नूतथी उत्पन्न थयेलुं जाणीये तो पठो मोह, यत्न करया विना Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) पण साध्य के अने प्रारूध योगनी अपेक्षाये जो ते तत्व पृथ्वी आदि पांच महाभूतथी उत्पन्न थयेलुं न जाणो ये तो पबी योग थी मोक्ष प्राप्ति बे, माटे दुर्धर अनुष्टांन अथवा जेदन बेदना दि कोइ पण अवस्थामां योगीनने दुःख यतुं नथी ॥ १०० ॥ स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोस्ति यथात्मनः ॥ तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषतः ॥ १०१ ॥ शब्दार्थ--जेम स्वप्नावस्थामां नाश पामेला शरीरादिकने दीवा बता श्रात्मानो नाश नथ देखातो तेम विपर्यासना वि शेष पणाथी जाग्रत अवस्थामां पण नाश पामेला शरीरादिक ने दीवा बता अरमानो नाश नथी देखातो. ॥ १०१ ॥ अडुःखजावित ज्ञानं दीयते 5ःखसंनिधौ ॥ तस्माद्ययाबलं दुःखे - रात्मानं जावयेन्मुनिः ॥ १०२ ॥ शब्दार्थः - काय क्लेशादि कष्ट विना एकाग्रपणाथी एकठु करेलुं ज्ञान दुःख प्राप्त थवाथी नाश पामी जायडे, माटे योग। पुरुष पोतानी शक्तिने अनुसारे कायक्लेशादि कष्ठोत्र आरमाने चितवन करे बे. ॥ १०२ ॥ प्रयत्नादात्मनो वायु- रिवादेषप्रवर्तितात् ॥ वायो: शरीरयंत्राणि, वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥ १०३ ॥ शब्दार्थः - इवा अने यो उत्पन्न थयेला प्रयत्नने ली श्रात्मा संबंधी वायु शरीरने विषे चालो रह्यो बे घने ते वायु शरीररूपी यंत्रो पोताने साध्य एवी कोयाने विषे वर्ती रह्यावे. ताम्यात्मनि समारोप्य, साकाण्यास्ते सुखं जमः ॥ त्यक्त्वारोपं पुनर्विद्वान्, प्राप्नोति परमं पदम् ॥ १०४॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) शब्दार्थः-जम एवो बहिरात्मा इंडियो सहित ते शरीररूप यंत्रोने यात्माने विषे श्रारोपण करी“ हुं गौरवू, हुं सारां नेत्र वालो बु. एम मानीने न सुख बतां सुख माने दे श्रने अंत. रात्मा ते आरोपने त्यजी द मोक्षपदने पामे . ॥ १० ॥ मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च, .. संसारपुःखजननी जननाद्विमुक्तः॥ . ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ट-- स्तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितंत्रम् ॥१०॥ शब्दार्थः-संसारथी मुक्त अने परमात्म स्वरूपनो जाप एवो पुरुष परमास्वरूपना जाणपणाना एकाग्रताने प्रतिपादन करनारा मोकमार्गना उपायरूप आशास्त्रने पामीने शरीरादिक पदार्थमा परमात्म बुद्धिने अने संसारना फुःखने उत्पन्न करनारी अबुद्धिने त्यजो दक्ष ज्ञानमय एवां सुखने पामे . १०५ ॥ इति समाधि शतकं संपूर्णम् ॥ ॥अथ सऊनचित्तवल्लन॥ नत्वा वीरजिनं जगत्रयगुरुं मुक्ति श्रियो वल्लन, पुष्पेषुदयनीतबाण निवहं संसार जुःखापदम्॥ वक्ष्ये नव्यजन प्रबोधजननं ग्रंथं समासादहं, नाम्ना सऊनचित्तवल्लनमिमं शृण्वतुं संतो जनाः १ शब्दार्थः-त्रण जगत्ना गुरु, मुक्तिरूप लदमीना पति, कामना वाण समूहने दय करनारा अने संसारनां फुःखने नाश करनारा श्री वीर प्रजुने नमस्कार करीने नव्य माणसोने ज्ञान प्रगट करनारा पा सजानचित्तवन नामना ग्रंथने संक्षेपयी कई मु, तेने संत पुरुषो सांजलो ॥१॥........ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) रात्रिश्चंमसा विनाब्जनिवहै! नाति पद्माकरो, पत्पमितलोकवर्जितसना दंतीव दंतं विना ॥ पुष्पं गंधविवर्जितं मृतपतिः स्त्री चेह तन्मुनिः, ___ चारित्रेण विना न नाति सततं यमप्यसौ शास्त्रवान् । शब्दार्थः जेम रात्री चंद्र विना, तलाव कमलोना समूह विना, सना पंमितलोक विना, हाथी दांत विना, पुष्प गंध विना थने स्त्री पति विना नथी शोन्नती तेम जोके शास्त्रनो जाण एवो पण मुनि चारित्र विना शोजतो नथ ॥२॥ किंवस्त्रत्यजनेन नो मुनिरसावेतावता जायते, क्ष्वेमेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् नूतले ॥ मुलं किं तपसादमें जियः सत्यं सदाचारतारागादींश्च बिनर्ति चेन्न स यतिलौंगी नवेत्केवलम् ३ शब्दार्थः--अरे ! वस्त्रने त्यजवाथ शुं? आ पुरुष ए वस्त्रने त्यजी देवाथो शुं मुनि थाय ? अर्थात् न थाय. विष खरी पझेलो अर्थात् विष रहित एवो सर्प शुं पृथ्वीने विषे थाय खरो ? अर्थात् न थाय. तपर्नु मूळ कमा, इंजियजय, सत्य अने स. दाचारपणुं ने उतां जो यति रागादिकने धारण करे तो ते यति नहि, परंतु लिंगधारी कहेवाय ॥३॥ किं दीदाग्रहणेन जो यदि धनाकांदा नवेच्चेतसि, किं गार्हस्थमनेन वेषधरणेनासुंदरं मन्यसे ॥ जव्योपार्जन चित्तमेव कथयत्यन्यंतर स्थांगजं. नो चेदर्थपरिग्रहग्रहमतिनिदोर्न संपद्यते ॥ ४ ॥ शब्दार्थः हे येति! जो धननी श्वा थाय तो दीक्षा लेकाची Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) शुं ? कारणके, ए यतिवेषने धारण करवायी ग्रहस्थपणाने तुं शुं खोटो माने बे ? द्रव्य मेलववानुं चित्तज अंतरना कामाने देखामी आपे बे ने जो अंतरनो कामविकार न होय तो साधुने धनने ने खाने ग्रहण करवानी इछा थती ज नथी ॥४॥ योषापंमकगोविवर्जितपदे संतिष्ट निको सदा, मुक्तादारमकारितं परगृहे लब्धं यथासंभवम् ॥ षट्धावश्यकसत्क्रियासु निरतो धर्मादिरागं वहन्, सार्द्धं योगिनिरात्मपावनपरै रत्नत्रयाखेकृतैः ॥ ५ ॥ शब्दार्थः दे साधो ! स्त्री, जीव तथा पशु विनाना स्था नकवि निरंतर रहे, पारके घरे नदि करावेला तेमज - सर प्रमाणे मलेला श्राद्दारने जोजन कर वो आत्माथी पवित्र तेमज ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप त्रण रत्नोथी सुशोजित एवा योगी पुरुषोनी साथे धर्मादि राग करतो बतो व प्रकारनों आवश्यक क्रियाने विषे तत्पर था. ॥ ५ ॥ धं वदनं वपुर्मदं निदानाम्रोजनम्, शय्या स्थंनिमिषु प्रतिदिनं कट्यां न ते कर्पटम् ॥ मुंमं मुंमितमदग्धशववत्त्वं दृश्यसे जो जनैः, साधोऽद्याप्यबलाजनस्य जवतो गोष्टी कथं रोचते ॥६॥ शब्दार्थ:-- सुख दुर्गंधवालु, शरीर मलनुं घर, जिक्षा माग वाथ जोजन, प्रति दिवस पृथ्वीने विषे शयन, के उपर व पण नदि एवं श्रर्द्धा शबनी पेठे मायुं मुंकेलं. या प्रमाणे श्रीकृ तीला तने हमेशां माणसो जूत्रे बतां दे साधो ! तने आज सुधी स्त्रोयोनी साथे वातो करवी केम रुचे बे ? ॥६॥ अंगं शोणितशुक्रसंजवमिदं मे दो स्थिमा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्ये मोक्षिकपत्रसन्निनमहो चाटतं सर्वतः॥ नो चेत्काकवृकादिनिर्वपुरहो जायत लक्ष्यं ध्रुवम् ॥ : दृष्ट्वाद्यापि शरीरशद्मनि कथं निर्वेदना नास्ति ते ॥७॥ शब्दार्थः-या शरीर रुधिर अने वीर्यथी उत्पन्न थयु जे. ते मज ते चरबी, हामकां अने स्नायुथो नरपुर ले. वली म्हारना नागमां मांखीननो पांखोना सरखी चाममाथी चारे तरफ ढंका यतुं बे. वली ते शरीर कागमा अने नार विगेरे जीवोथो थाश्चर्यकारी रीते शुं नकण करातुं नथी ? माटे तेवा शरीरने जो इने पण तने ते शरीर नपर वैराग्य केम नथ थतो ! स्त्रीणां नाव विलासवित्रमगतिं दृष्ट्वानुरागं मनाक्, मागास्त्वं विषटदपक्कफलवत्सुस्वादवंत्यस्तदा ॥ ईषत्सेवनमात्रतोऽपि मरणं पुंसां प्रयचंति नो, तस्मात् दृष्टिविषादिवत्परिहर त्वं दूरतोऽमृत्यवे ॥७॥ शब्दार्थः-स्त्रीयोना शृंगारादि विलासनी विन्रमवाली गति ने जो तुं जरा पण राग न कर. कारणके, ते फक्त जोवाने श्रव सरे विषवृक्षनां पाकेलां फलनी पेठे नत्तम स्वादवाली देखाय बे. परंतु हे मुनि ! ते स्त्री जरापण सेवन करवाथो माग सोने मृत्यु आपे , माटे ते स्त्रीयोने तुं हारा पोतानां जीवितने माटे दृष्टि विष सर्पनी पेठे दूरथो त्यजी दे ॥७॥ यद्यमांबसि तत्तदेव वपुषे दत्तं सुपुष्टं त्वया, ... साई नैति तथापि ते जममते मित्रादयो यांति किम् ॥ पुण्यं पापमिति घ्यं च नवतः पृष्टेऽनुयायिष्यते, तस्मात्त्वं न कृथा मनागपि महामोहं शरीरादिषु ॥ए। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) शब्दार्थ - तुं जे जे वस्तुनी इछा करे बे ते ते वस्तु तें श रीरने आपीने तेने पुष्ट बनावी दीधुं, तोपण हे जम्बुद्धि ! से शरीर हारी साथे श्राववानुं नथी. वलो शुं मित्रादि श्राववाना बे ? अर्थात् ते पण आवत्राना नथी. परंतु पुण्य ने पाप ए ए बन्ने रहा] पावल याववाना बे, माटे तुं शरीरादिकने विषे फोगट एवो महामोह न कर ॥ ए ॥ अष्टाविंशतिभेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधौ वृत्तं, साक्षीकृत्य जिनान् गुरूनपि कियत्कालं त्वया पालितम् ॥ जंतुं वांसि शीतवातवितो नूत्वाधुना तद्व्रतं, दारिद्र्योपदतः स्ववांतमसनं मुक्ते क्षुधार्तोऽपि किम् १.० शब्दार्थ- हे साधु ! तें श्री जिनेश्वरने तथा गुरुने साक्षी करी श्राविश दवाला साधु बतने अंगीकार करोने केट लोक काल पाल्युं छे. वली दवणां ते तुं विषयरूप वायुथी द यो तो थने तेने जांगवानी इच्छा करे बे. परंतु दारिद्र्यथ । हायेलो एवो पण मुख्यो माणस शुं पोताना वमन करेला प दार्थ खाय खरो ? अर्थात् न खाय ॥ १० ॥ सौख्यं वांसि किं त्वया गतनवे दानं तपो वा कृतं, नवं किमिदैवमेव लनसे लब्धं तदत्रागतम् ॥ धान्यं किं बनते विनापि वपनं लोके कुटुंबीजनोदेदे कीटक क्षितेक्षुसदृशे मोहं वृथा मा कृथाः ॥ १२ ॥ शब्दार्थः- दे साधु ! तुं देह सुखनी इछा करे बे ? तो शुं तैं पूर्वनवे दान अथवा तप कर्यु बे ? जो तें दान अथवा तप नथी कर्यु तो तुं जवमांशुं पामवानो बे ? अने सुख प्राप्त करवा नी इहाथी जे शुभाशुभ कर्म कयुं बे ते आा जवमां तेनी मेबेज Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) प्राप्त थयेj . दृष्टांत कहे डे के, लोकमां कणबी लोक शुं वाव्या विना क्यारे पण धान्य पामे खरा ? माटे कीमाथी लक्षण करायेली शेरडीना सरखा देहने विषे वृथा मोह न कर ॥११॥ यत्काले लघुनाममंमितकरो नूत्वा परेषां गृहे, . निक्षार्थ नमसे तदापि नवतो मानापमानौ नहि ॥ निदो तापसवृत्तितः कदशनास्किं तप्स्यसे हर्निशं, श्रेयार्थ किल सह्यते मुनिवरैर्बाधा क्षुधाद्युम्नवा॥१॥ ' शब्दार्थःजे अवसरे न्हानां पात्रोथो सुशोनित हाथवालो थर लोकोनां घरने विष निकाने माटे नमेले त्यारे पण तने मान अपमा नथेतुनथी,हे साधु!तो पी तापस वृत्तिने लीधे कुत्सित आहारयो रातदिवस शा माटे खेद करे ले ? कारण उत्तम मुनि कल्याणने माटे नुख प्रादिथी उत्पन्न थयेथी बहु पोमानने निश्चे सहन करे. एकाकी विरहत्यनःस्थितबलिवर्दो यथा स्वेच्छया, . योषामध्यरतस्त्वमेवमपि भोत्यक्त्वात्मयूथं यते॥ तस्मिश्रेदनिलाषता न नवतः किं भ्राम्यसि प्रत्यहम्, मध्ये साधुजनस्य तिष्टसि न किं कृत्वा सदाचारताम् १३ शब्दार्थ-हे मुनि ! जेम गामीमां जोमायलो एक बसद पोतानी मरजी मुजब क्रोमा करे हे तेम तुं पण पोताना समूहने (मुनि समूहने) त्यजी दश्स्त्रीयोना मध्यमां श्रासक्त थयो तो क्रीमा करे जे. जो कदापि हारे ते स्त्रोयोनी श्वा न होय तो तुं तेना मध्ये निरंतर शा माटे फरे ने अने सदाचार पा. लीने साधुना समूइने विषे केम नथो रहेतो ? ॥ १३ ॥ क्रीतानं नवतो नवेत्कदशने रोषस्तदा श्लाध्यते, .. दिक्षायां यदवाप्यते यतिजनैस्तनुज्यते सादरात्॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) निदो नाटकसद्मसन्निन्नतनोः पुष्टिं वृथा मा कृथाः, पूर्णे किं दिवसावधौ क्षणमपि स्थातुं यमो दास्यति १४ शब्दार्थ-जो त्हारे खराब जोजनमा पण वेचाथी अन्न लावq पमतुं होय तो रोष करवो योग्य , परंतु मुनिजनोए नि कामां जे अन्न मेलवाय तेज आदरथीनोजन कराय डे, माटे हे निकु ! नामाना घर सरखा था शरीरने तुं वृथा पुष्टि न कर. कारणके, ते शरीरनी अवधि पूर्ण थर रहेशे त्यारे तने यम कण मात्र पण तेमां रदेवा देशे नहि. ॥१५॥ लब्धान्नं यदिधर्मदान विषये दातुं न यैः शक्यते, दारिजोपहतास्तथापि विषयाशक्तिं न मुचंति ये ॥ धृत्वा ये चरणं जिनेजगदितं तस्मिन् सदा नादरास्तेषां जन्म निरर्थकं गतमजाकंठे स्तनाकारवत् १५ . शब्दार्थः-जो के जे गृहस्थो पोताने मलेखु अन्न धर्मदान करवामां आप) शकाता नथी, जे दारिस्थी दणाया बता पण विशयाशक्तिने नूकता नथी अने जे जिनराजे कहेला चारित्रने धारण करी तेने विषे श्रादर करता नथी. ते सर्वेनो जन्म बकरी ना कंठे रहेला स्तननी पेठे निष्फल गयो . ॥ १५॥ उर्गधं नवनिर्वपुः प्रवहति घारैरिमै संततं, संदृष्ट्वापि दि यस्य चेतसि पुननिर्वेदता नास्ति चेत् ॥ तस्माद्यद्लुवि वस्तु किशमहो तत्कारणं कथ्यते, श्रीखंमादिनिरंगसंस्कृतिरियं व्याख्याति उधतां १६, शब्दार्थ-श्रा शरीर नवधारोथी हमेशां उगंधनेज वहन करे ने ते शरीरने जोश्ने जे पुरुषना चित्तमां जो वैराग्य नयी । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४). थयो तोपनो श्राश्चर्य ने के, तेने पृथ्वी नपर बीजी कर वस्तु वैराग्यनुं कारण कहेवाय ?आ शरीर प्रत्यक्ष श्रीखंगचंदन विगे. रेथी करेली अंगनी संस्कृती पण पुगंधनेज प्रगट करे बे. ॥१६॥ शोचंति न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेदे धनं, तचेन्नास्ति रुदंति जीवनधिया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् ॥ कृत्वा तदहन क्रियां निजनिजव्यापारचिंताकुला-- स्तन्नामापि च विस्मरंति कतिनिःसंवत्सरैर्योषितः १७ __ शब्दार्थः स्त्री जो घरने विषे धन होय तो मृत्यु पामेला पतिनो शोक करती नथी थने जो धन नथी होतुं तो बाजीविकानी बुद्धिथी तेने दररोज वारंवार संनारीने रुदन करे . वली ते स्त्रीयो पतिनी नईदेहिक क्रीया करीने पनी पोतपो. तानां काममां थाकुल व्याकुल थ ती केटलाक वर्षे तेनुं नाम पण विसरी जाय . ॥१७॥ अन्येषां मरणं नवानगणयनस्वस्यामरत्वं सदा, देहिन चिंतयसीयिपिवशी नूत्वा परित्राम्यसि ॥ अद्य स्वःपुनरागमिष्यति यमो न ज्ञायते तत्वतः, ... तस्मादात्महितं कुरुत्वमचिराद्धर्म जिनेदितम् १७ .. .. शब्दार्थः हे देहधारी ! तुं बीजाऊनां मरणने नदि ग. णकार तो उतो हमेशां पोतानां श्रमरपणानो विचार करे बेन. ने तेथीज तुं इंजियरूप हाथीउने वश थइ चटके बे; परंतु मृत्यु श्राजे आवशे अथवा काले श्रावशे ते तत्वथी जाणी शकातुं नथी, माटे तुं तरत पोताना हितकारक एवा जिनेश्वरे कहेला धर्मने आचरण कर, ॥ १७ ॥ .. ... Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२२५) देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्यं श्रुतान्यासता, चारित्रोज्वलता महोपशमता संसारनिर्वेदता ॥ अंतर्बाह्यपरिग्रहत्यजनता धर्मज्ञता साधुता, साधो साधुजनस्य लक्षणमिदं संसारविजेदनम् ॥२॥ शब्दार्थः हे साधु ! शरीरने विषे निर्ममपएं, गुरुने विषे विनयपणुं, निरंतर शास्त्रने विषे अभ्यासपणुं, चारित्रनुं नज्वल पणुं, म्होर्ट उपशमपणुं, संसारमां वैराग्यपणुं, अंतरना अने बाह्यना परिग्रहने त्यजवापएं, धर्मज्ञपणुं श्रने साधुपणुं. नपर कहेलु साधुजननुं लक्षण संसारनो नाश करनारुं . ॥ १५ ॥ लब्ध्वा मानुषजातिमुत्तमकुलं रूपं च नीरोगतां, बुद्धिं धीधनसेवनं सुचरणं श्रीमजिनेोदितम् ॥ लोनार्थ वसुपूर्णहेतुनिरलं स्तोकाय सौख्याय लो, देहिन देहसुपोतकं गुणनृतं जंक्तुं किमिवास्ति ते २० शब्दार्थः-दे देहधारी ! मनुष्यजातिने, नत्तमकुलने. रूप ने, नीरोगीपणाने, बुद्धिने बुद्धिवंतनी सेवाने अने श्री जिनराजे कहेला चारित्रने त्हारे पामोने लोजने अर्थे धनने एकठा करवाना कारणथो सयु. शुं थोमा सुखने माटे गुणथी पूर्ण एवा था देहरूप उत्तम नावने नांगी नांखवानी हारी:ञ्चाले ? ॥२०॥ वैतालाकृतिमईदग्धमृतकं दृष्ट्वा नवंतं यते, यासां नास्ति नयं त्वया सममदो जल्पति प्रत्युत्तरम् ॥ राक्षस्यो जुवि नो नवंति वनिता मामागता नक्षितुं, मत्वैव प्रपलायतांमृतिनयात् त्वं तत्र मा स्थाःदाणम्॥ शब्दार्थःहे यति ! वैतालना सरखी आकृतीवाला अने Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ). अर्द्ध दग्धः थयेला शब सरखा तने जोइ जे स्त्रीयोने जय थतो नथी, तेज स्त्री तमने उत्तर थापे बे. शुं ते स्त्रीयो पृथ्वीने विषे राक्षसीयो न कद्देवाय ? अर्थात् कद्देवाय ते स्त्री मने क्षण करवा यावी बे.' एम मानी तुं मृत्युना जयथी नासी जा, पण त्यां क्षणमात्र रद्दिश नहि. ॥ २१ ॥ मागास्त्वं युवतीगृहेषु सततं विश्वासतां संशयोविश्वासे जनवाच्यता जवति ते न स्यात्पुमर्थं ततः ॥ स्वाध्यानुरतो गुरुक्तवचनं चिते समारोपयन् तिष्ट त्वं विकृतिं पुनर्ब्रजसि चेद्यासि त्वमेव दयम् २२ शब्दार्थः--तुं स्त्रीयोना घरने विषे निरंतर विश्वासपएं न कर. कारण के, विश्वास करवाथी संशय ने लोकमां निंदा थाय तेथ व्हारो काइ पुरुषार्थ थवानो नथी. माटे तुं गुरुनां कहेलां वचनने चित्तमां धारण करी जणवा जणाववामां आसक्त यो बतो रहे. वली जो तुं विकार पाम्यो तो निश्चे नाश पामोश. किं संस्कारशतेन विट् जगति जो कास्मीरजं जायते, किं देहः शुचितां व्रजेदनुदिनं प्रकालनादंजसा ॥ संस्कारो नखदंतवक्रवपुषां साधो त्वया युज्यते, नाकामी किल मंगन प्रिय इति त्वं सार्थकं मा कृथाः! शब्दार्थ:-दे मुनि ! जगत्मां शेंकको उपायोथी पण शुं विष्टा होय ते कंकु थाय खरुं ? अथवा दमेशां शेंकोवार प्रयत्नवमे धोवाथी शरीर शुं पवित्रपणाने पामे? माटे व्हारे नख नतारखा, दांत साफ करवा, मुख साफ राखवुं अथवा शरीर धोवुं विगेरे संस्कार करवा योग्य नथी ? तो ' तुं शुं अकामी नथी ? अथवा मंकन प्रिय बे ?' ए वचनने तुं सार्थक न कर. ॥ २३ ॥ 3 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) प्रायुष्यं तव नियामपरं चायुस्त्रिनेदाददो, बालवे जरया किययसनतो यात ति देहिन वृथा ॥ निश्चित्यात्मनि मोदपासमधुना संबिध बोधासिना, मुक्तिश्रीवनितावशीकरण सच्चारित्रमाराधय ॥ २४ ॥ शब्दार्थ :- हे दद्दिन् ! हारुं श्रधुं आयुष्य निद्रामां चायुं जाबाकीनुं धुं त्रय जेदथी चाल्युं जाय बे ते त्रण नेदमां कटलुक बाल्यावस्थामां, केटलुक वृद्धावस्थामां धने केटलुंक विषयादिव्यसनमां फोगट जाय बे. या प्रमाणे तुं श्रात्माने विषे निश्चय करी हवri बोधरूप खत्री मोड़ पासने कापी नांखी मुक्ति श्री रमणीने वशीकरण एवा उत्तम चारित्रने आराध वृत्तैर्विंशतिनिश्चतुर्भिरधिकैः सल्लक्षणेनान्वितः, ग्रंथं सजनचित्तवचनमिमं श्रीमल्लिषेणोदितम् ॥ श्रुत्वात्मेंजियकुजरान्समटतो रुकंतु ते डुयानू, विद्वांसो विषयाटवीषु सततं संसारविचित्तये ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-श्री मलिषेण गुरुए उत्तम लक्षणवाला चोवीश काव्योव कला श्रा सजन चित्तत्र नामना ग्रंथने सांजली पूर्वे कला संत पुरुषो संसारनो छेद करवा माटे विषयरूप अरण्यमां नटकता एवा दुर्जय इंद्रियरूप गजोने वश करो. २५ ॥ इति सजन चित्तवलन संपूर्ण ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ अथ श्री वीरजिन स्तवन ॥ .. जश्जा समणे जयवं, महावीर जिणुत्तमे ॥ : खोगनाहे सयंबुझे, लोगंतिय विबोहिए ॥ १ ॥ वरं दिनदाणोहे, संपूरियजणासए ॥ नाणत्यसमाउत्ते, पुत्ते सिझबराइयो ॥॥ चिच्चा रङ च रहं च, पुरं अंतेउरं तहा ॥ निस्कमित्ता आगाराउँ, पवए अणगारियं ॥ ३ ॥ परीसहाणं नोनीए, नेरवाणं खमाखमे ॥ पंचहा समिए गुत्ते, बंजयारी अकिंचणे ॥ ४ ॥ निम्ममे निरहंकारे, अकोदे माणवहिए ॥ श्रमाए लोनविमुक्के, पसंत छिन्नबंधणे ॥ ५॥ . पुरकरवा अलेवेय संखोइव निरंजणे ॥ जीवेवा अप्पमिग्घाए गयणंव निरासए ॥ ६ ॥ वाउव्व अप्पमिबके, कुम्मोवा गुत्तदिए ॥ विप्पमुक्के विहंगव्य, ख गिसिंगंव एगगे ॥७॥ नारंमेवा पमत्तेय, वसदेवा जाय थामए ॥ कुंजरोश्व सोमीरे, सींहोवा पुरिस्सए ॥७॥ सायरोश्व गंन्नीरे, चंदे व सोमलेसए.॥ सूरोवा दित्त तेयो, हेमंवा जाय रूवए ॥ ए॥... सवं सहे धरित्तिव, सायरंखुव सबहे ॥ सुजुहुय हुयासुब, जलमाणेय तेयसा ॥ १० ॥ वासी चंदण कपणेय, समाणे लोहुं कंचणे ॥ समे पूया वमाणेसु, समे मोरके नवे तहा ॥ ११ ॥ नाणेशं दसणेणं च, चरित्रण मणुत्तरे ॥ . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) चालणं विहारेण, मद्दवेस जवेषयं ॥ ११ ॥ लाघवेणं च खंतीए, गुत्ती मुत्ती अत्तरे ॥ संजमेण तवेणंच, संवरेणं मणुत्तरे ॥ १३ ॥ अग गुण सयाइने, धम्म सुक्काण कायए ॥ घाइरकरण संजाण, अांतवर केवली ॥ १४ ॥ वीयराय निग्गंथे, सबन्नु सङ्घदंसणे ॥ देविंद दाविं देहिं; निव्वत्तिय महामहे ॥ १५ सव्वं जासाणुगाएय, जासाए सव्व संसए ॥ जुगवं सव्वजीवाणं, बिंदिन निन्नगोयरे ॥ १६ ॥ दिए सुदेय निस्सेय, कारए सव्व पाणिं ॥ ॐ महव्वाणि पंचेव, पन्नवित्ता सजावणे ॥ १७॥ संसारसारं बुड्ड, जंतुसंतारा तारए ॥ जाणुव्व देसियं तिल, संपत्ते पंचमं गई ॥ १८ ॥ सेसिवे यले निच्चे, अरू रामरे ॥ कम्मप्पपंचनम्मुक्के, जएवीरे जए जिये ॥ १९ ॥. से जिये वद्धमाणेय महावीरे महायसे ॥ सखंडुक खिन्ना, अम्हाणं देत निव्वु ॥ २० ॥ इय परम पमोया संधु वीरनाहो, परमपसमदाणा देन तुलत्तणं मे ॥ समसुददेस सग्ग सिद्धी जत्रेसु, कायकयवरेषु सतु मित्ते सुवावि ॥ २१ ॥ ॥ इति श्रोवीरजिन स्तवन ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (३०) ॥ अथ श्रीमंधरस्वामीनुं स्तवन । केवलनाण सणाई, विदेहवासंमि संज्यिं धीरे॥ सुरमणुनमियचक्षणं, सीमंधरसामियं वंदे ॥१॥ जय सीमंधर सामिय, नवियमहाकुमुयबोहणमयंक ॥ समरामि तं महायस, श्ह विन नारदे वासे ॥२॥ सीमंधरदेव तुमं, गामागरेपट्टणेसु विहरंतो ॥ धम्मं कहेसि जेसि, सहलं चिय जीवीयं तेसिं ॥३॥ किं जयवं मह कम्मं, समाग्यं तारिसेहिं पावहिं॥ जं नह जान जम्मो, तुह पयमूले सया कालं ॥४॥ चिंतामणि सारिलो, श्रहवा कप्पहुमन्न सुहफल॥ थप्पुत्र कामधेणू, नहु नहु ताणंपि यहीयरो ॥ ५ ॥ बार तुह सामित्तं, तिहयण मद्यं मि नए अत्रस्त ॥ जम्हा एरिस रिकी, न हु दोस सेसपुरिसस्त ॥६॥ कश्या हं सामि तुम, सिंहासणसंव्यिं सपरिवारं ॥ धम्म वागरमाणं, पिछस् नियनयहिं ॥ ७॥ पुडांतु ते मणोरह, निचं जे हिययसंठिया मद्य ॥ पाव कोवि फलं, संपत्ते कप्परुरकंमि ॥ ७॥ निचं जाएमि अहं, तुह पयकमलंसु निम्मलं धीर॥ तह कुरु देव पसायं, जह दरिसायं ममं देसि ॥ ए॥ ते धन्ना कयपुन्ना, देवा देवीय माणवा सव्वे ॥ जे संसय वुलेयं, करंति तुहपायमूलंमि ॥ १० ॥ श्रयं पुन्नविहूणो, गणे गणं मि संसया वमिर्छ । छामि विसूरंतो, उमछो नाणपरिहीणो ॥११॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) कुणसु पसायं गुरुयं, वछत्तीसंसयाण जह हो ॥ जम्हा महाणुनाबा, सरणागय वबला हुँति ॥ १५ ॥ कम्मवसेणय अहयं, नारहवासंमि जवि चिहामि ॥ तहवि तुमं महियए, रयणायर चंदणादण ॥ १३ ॥ तं पहु तं मन गुरू, तं देवो बंधवो तुमं चेत्र ॥ गुरु संसारगयाणं, जीवाणं हुऊ तं सरणं ॥ १४ ॥ संसारजलहिमये, निबुड्डमाणेहिं नव सत्तेहिं ॥ पदिवसं समरिजा, सीमंधर सामि पयकमलं ॥ १५ ॥ जर वह परमपयं, निव्वंना तय जम्ममरणाणं ॥ ता समरह जिणनाई, विदहवासंमि विहरंतं !॥ १६ ॥ जो निचं नव्वाणं, विदेदवासंमि सामि विहरतो ॥ स उम्मदेसणाए, मिबत्त पणास कुण ॥ १७ ॥ पञ्चूसे मधणे संका समयंति सव्वकालंमि ।। सीमंधर तिबयर, वंदेहं परम नत्तोए ॥ १७ ॥ पंच धणुस्सय माणो, चनरासी पुबलख वरिसाक ॥ सो सीमंधरनाहो, श्रणंतनाणी सया जय ॥ १५ ॥ मुणिसुन्वय नमि तिवपर, अंतरे रजाल हि विडं।. छमिय पवन विस्कं, सीमंधर सामियंवंदे ॥२०॥ श्य सीमंधरनाहो, थुश्रो मए नत्तिरायकलिएणं॥ सासय सुहक जणथो, जयनाहो होउ नवियाणं ॥१५ ॥ इति श्रीमंधरजिन स्तवन ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) ॥ अथ श्रीगुरु प्रदक्षणा ॥ गोश्रम सुहम्म जंबू, पजवो सिनवाइ आयरिश्रा ॥ नेवि जुगप्पहाणा, परं दिछे सुगुरु ते दिघा ॥ १॥ ऊ को जम्मो, अऊ कयचं च जी वियं मद्य ॥ जेण तु दंसणामय - रसेल सत्ताई नयाई ॥ २॥ सो देसो तं नगरं तं गामो सो समो धन्नो ॥ जल पहु तुम्ह पाया, विदति सयावि सुप्रसन्ना ॥ ३ ॥ हवा ते सुकवा, जे किश्कम्मं कुति तुद्द चलणे ॥ वाणी बहुगुण खाणी, मुगुरु गुणा वन्निश्रा जीए ॥ ४ ॥ वयरिया सूरधे, संजाया मह गिदे कणबुडी ॥ दारिदं प्रागयं. दिघे तुद्द सुगुरु मुहकमले ॥ ५ ॥ चिंतामपि सारिचं, समत्तं पावियं मए खा ॥ संसारो दूरिकर्ड, दिघे तुह सुगुरुमुदकमले ॥ ६ ॥ जा रिद्धी श्रमरगणा, जुंजंता प्रियतमाई संजुत्ता ॥ सापु कित्तियमिता, दिहे तुइ सुगुरु मुदकमले ॥ ७ ॥ मणवयकाएंहिं मए, जं पात्रे श्रयिं सया जयवं ॥ तं सव्वं खा गयं, दिघे तुह सुगुरु मुदकमले ॥ ८ ॥ दुल्लदो जिपिदधम्मो, डुलहो जीवाण माणुसों जम्मो ॥ लकेपि मम्मे, इ डुलदा सुगुरु सामग्गी ॥ एं ॥ जब न दीसंति गुरु, पञ्चसे नहिएहिं सुपसन्ना || तब कहूं जाकिर, जिणवयणं श्रमिच्ासारिखं. ॥ १०॥ जद पाउसंमि मोरा, दिपयर नदयंमि कमलवणसंगा ॥ विसंति तेमतश्चिय, तह दे दंसणे तुम्ह ॥ ११ ॥ जर सरइ सुरदि वो, वसंतमासं च कोईला सरई ॥ वज्रं सरई गईंदो, तह अम्म मां तुमं सरई ॥ १२ ॥ ܪ ܐ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) बहुयां बहुयां दिवसमां, जश् मई सुहगुरु विक लोचनबे विकसी रह्यां, हीश्रम अमिश्र पश्ठ ॥१३॥ अहो ते निजिन कोहो, अहो माणो पराजि ॥ अहो ते निरकिया माया, अहो लोहो वसोको ॥ १४ ॥ अहो ते अजवं साहु, अहो ते साहु महवं ॥ अहो ते नुत्तमा खंती. अहो ते मुत्ति उत्तमा ॥ १५ ॥ इहंसि नत्तमो नंते, लाहोहिसि उत्तमो ॥ खोगुत्तमुत्तमं गणं, सिद्धि गबसि नीर ॥ १६ ॥ शायरिय नमुक्कारो, जीवं मोए नवसहस्सा ॥ जावेण कीरमाणो, हो पुणो बोहिलानाए ॥ १७ ॥ वायरिअनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासपो॥ मंगलाणं च सवेसि, तश्यं हवइ मंगलं ॥ १७ ॥ ॥ इति श्री गुरु प्रदक्षणा समाप्त ॥ ॥अथ जीवानुशास्ति कुखक ॥ रेजीव किं न बुद्यसि, चउगसंसारसायरे घोरे ॥ नमीश्रणंतकाले, अरहट्ट धमिव्व जलमले ॥१॥ रेजीव चिंतसि तुमं, निमित्तमित्तं परो हवइ तुष । असुहपरिणामजणियं, फलमेयं पुवकम्माणं ॥२॥ रेजीव कम्मचरिशं उवएसं कुणसि मृढ विवरिथं ॥ अग्गयगमणमणाणं, एसच्चिय हिय परिणामो ॥३॥ रेजीव तुमं सीस, सवणा दाऊस सुणतु महवयणं । जं सुकं न पाविसि, ता धम्मविवजिर्ड नूणं ॥४॥ रेजीव माविसायं, जाहितुमं पिछिकण पररिछी ॥ धम्मरहियाण कुत्तो, संपज विवहसंपत्तो ॥५॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) रेजीव किं न पिछसि, ज्जितं जुव्वणं भयं जीयं ॥ तहविहु सिग्धं न कुणसि, अप्पदियं पवरजिणधम्मं ॥ ६ ॥ रेजीव माणवजिया, साहस परिहीण दीप गयलज्ज ॥ अवसि किं बीसठो, नहु धम्मे श्रयरं कुषसि ॥ ७ ॥ रेजीव मणुयजम्मं, अकयनं जुव्वणं च वोलीणं ॥ नय चिनं तवं नय लडी माणिश्रा पवरा ॥ ८ ॥ रेजीव किं न कालो, तुन गर्छ परमुदं नीयंतस्स ॥ जं विश्वं न पसं, तं असिधारावयं चरसु ॥ ए॥ इयमामु सुमरोणं, तुन सिरी जा परस्स श्राइता ॥ ता श्रयरेष गिन्हसु संगोय विद्दिपयत्तेव ॥ १० ॥ जीवं मरणेणसमं, उपकार जुव्वण सद जराए ॥ रिद्धी विषास सहिश्रा, हरिस विसाधो नय काय वो ॥१०॥ इति जोवानुशास्ति कुलक समाप्त ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WWW