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(११७) शब्दार्थः-आ घणी खेदनी वात ले के, कालरूपन्नमरो हो टा शेषनागरूप नालवालां, पर्वतोरूप केशरावाला, दिशारूप पत्रवालां, पृथ्वीरूप कमलने विषे मनुष्योरूप भकरंदनु पानकरे.
गयामिसेण कालो, सयलजीणं बलं गवसंतो ॥ . पासं कहवि न मुंचइ, ता धम्मे नद्यम कुणद ॥ ए॥
शब्दार्थः-बलनी शोध करतो काल गयानां मिषथो सर्व प्राणीयोनां पमत्रांने नथी मूकतो, माटे हे नव्य जीवो ! तमे धर्मने विषे नद्यम करो.॥ ए॥ कालंसि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं ॥ तं नत्थि संविदाणं, संसारे जं न संभव ॥१०॥ ___ शब्दार्थः-अनादि काल चक्रमां जमता अने नाना प्रकारलां कर्मने वश रहेलाजीवोने संसारमा कोइपण एकेडियादि नेद नथी प्राप्त थयो, एम नथी. अर्थातू एकेडियादि सर्वे नेदोमां नमेलो बे.
(अनुष्टुप्बृत्तम् ) बंधवा सुदिणो सवे, पिअमाया पुत्तनारिया ॥ पेवणान निअत्तंति, दाऊणं सलिलंजलिं ॥ ११॥
शब्दार्थः-बांधवो, सुहृदो, माता, पिता, पुत्र श्रने स्त्री, एसर्वे मरी गयेला मनुष्यने पाणीनी अंजली श्रापोने पर श्मशानथी पाग श्रावे .॥ ११॥ (श्रावृत्तम्.) विदति सुआ विहमं-ति बंधव वल्लदा य विहमति॥ को कहवि न विदम, धम्मो रे जीव जिणनणि १२
शब्दार्थः--अरे जीव! पुत्रो, बांधवो अने स्त्रीयो ए सर्वेनो वियोग थाय बे; परंतु श्री जिनराजे कहेला एक धर्मनो वियोग क्यारे पण थतो नथी. ॥ १२ ॥