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( १६८ ) सव्वस्स जवयरिजाइ, न पम्हसिकाइ परस्स जवयारो ॥ विदलं अवलंबित, नवएसो एस विसायं ॥ ॥
शब्दार्थ- सर्वने उपकार करवो, पारको उपकार न विसारखो, दुःखीने आधार आपको ए माह्या पुरुषोनो उपदेश जाणवो कोविन, किनइ कस्सवि न पचण जंगो ॥ दीपं न य जंपिज्जइ, जी विज्जइ जाव जिलोए ॥८॥
शब्दार्थः - ज्यां सुधी जीवलोकमां जीविये त्यां सुधा कोइ नी पासे याचना न करवी, तेमज कोइन । याचनानो नंग न करवो ने दीन वचन न बोलवुं ॥ ८ ॥ अप्पान पसंसिर, निंदिकर आणोवि न कयावि ॥ बहु बहुसो न दसिआइ, लग्न गुरुतते ॥ ॥
शब्दार्थ:--पोतानां वखाय न करवां, दुर्जनने क्यारे पण न निंदवो, बहु बहु न इस के, तेथी म्होटाइपएं पामीये. ए रिउणो न वीस सिकाइ, कयावि वंचिजए न वीसच्चो ॥ न कयग्घेहिं दविजर, एसो नायस्स नीसंदो ॥१०॥
शब्दार्थ - शत्रुनो विश्वास न करवो, विश्वासवालाने क्यारे पण न उगवो, कर्या गुणना लोपक ( कृतघ्न्न ) न थ. ए. न्या. यनो रस्तो जावो. ॥ १० ॥
रच्चिइ सुगुणेसु, बचद राज न नेहबन्नेसु ॥ किज्जइ पत्तपरिका, दखाए इमो कसवट्टो ॥ ११ ॥
शब्दार्थः- सारा गुणवालाने विषे राचीये, साचा स्नेह रतिनी साथे राग न बांधीये अने पात्रनी परीक्षा करीये. माझा पुरुषनी एज कसोटी बे. ॥ ११ ॥