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( १५३ ) नो बेलो राजर्षि सिद्धि पद पायो । १२ ॥ जिणदरमं मियवसुदा, दाणं अनुकंपजत्तिदाणाई ॥ तिचपनावगरेहिं, संपत्तो संपइराया ॥ १३ ॥
शब्दार्थ:-- जिनमंदिरथी पृथ्वीने शोभावनारो संप्रति रा. जा अनुकंपादान ने नक्तिदान श्रापीने तीर्थ प्रजावक पुरु षोमां रेखाने पाम्यो. ॥ १३ ॥
दानं सासु सु कुम्मासए महामुलि ॥ सिरिमूलदेवकुमारो, र सिरिं पाविजे गुरु
॥ १४ ॥
शब्दार्थः श्री मुलदेव कुमार शुद्ध श्रद्धा महामुनिने शुद्ध एवा अमदना बाकला ग्रापीने म्होटी राज्य लक्ष्मी पाम्यो० ॥ १४ ॥ अइदाणमुदरकविप्रण- विरइप्रसय संख का विश्वरि ॥ विक्कमनरिदचरित्र्यं, अवि लोए परिष्फुर३ ॥ १५ ॥
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शब्दार्थ :- अतिदानथी वाचाल एवा कत्रिलोकोए रवेलां कमो काव्यथ विस्तार पामेनुं विक्रमराजानुं चरित्र आज सुधी पण लोकनां विस्तार पामे बे ॥ १५ ॥ तिलोप्रबंधवेदि, तज्ञ्नवचरिमेहिं जिएबरिंदोहिं ॥ कय किच्चे दिवि दिन्नं, संवचिरियं महादाणं ॥ १६ ॥
शब्दार्थ:-त्रण लोकना बंधु, तेज जवमां सिद्धि पामनारा अने कृतार्थ एवाय श्री जिनेश्वर सांवत्सरिक महादान प्राप्युं ॥ १६ ॥ सिरिसेयंसकुमारो, निस्सेयससामिन कह न होइ ॥ फासूप्रदापवाहो पयासिन जेण नरदंमि ॥ १७ ॥
शब्दार्थः श्री श्रेयांसकुमार मोनो स्वामी केम न होय ? कारके, जेणे था जर क्षेत्रमा प्रासुकदाननो प्रवाह प्रकाश करयो कह सा न पसंसिर, चंदणबाला जिणंददाणेणं ॥ बम्मा सियतवतविन निवविन जेहिं वीरजिंणो ॥ १८ ॥