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________________ ( २१५ ) शब्दार्थः-- जे विषयमां बुद्धि श्राश्रय न करे, पुरुषने ते विथी श्रद्धा निवृत्ति पामे अने जे विषययी श्रद्धा निवृत्ति पामे ते विषयमा चित्तनी शक्ति क्यांयी होय. ॥ ए६ ॥ चिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो जवति तादृशः ॥ वर्तिर्दीपं ययोपास्य, जिन्ना नवति तादृशी ॥ ७ ॥ शब्दार्थ:-: जेम दीवाथी जूदो एवी वाट दीवाने पामीने दी - वारूप बनी जाय वे म आत्माथी जूदो एवो आराधक पुरुष अर्हत् सिद्धरूप आत्मानी उपासना करोने तेवो परमात्मरून बनी जाय बे. ॥ १ ॥ उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा ॥ मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः ॥ ए८ ॥ शब्दार्थ:-- जेम वृक्ष पोतानां शरीरने घर्षण करीने पोते - ग्निरूप थाय बे तेम श्रात्मा ( उपासक ) चिदानंदमय पोताना श्रात्मस्वरूपनो उपासना करोने परमात्मरूप थाय बे. ए इतीदं जावयेन्नित्य-मवाचा गोचरं पदम् ॥ स्वत एव तदाप्नोति, यतो, नावर्तते पुनः ॥ एए ॥ शब्दार्थः-- या का प्रमाणे जे निन्न अने अभिन्न एवा आत्मपदनी नित्य जावना करे बे ते वाणीने अगोचर एवा मोक स्थानने पोतानी मेलेज पाने बे घने ते प्राप्त थयेला पदथे। फरी पाढो धावतो नथी. ॥ एए ॥ प्रयत्नसाध्यं निवार्ष्णे, चित्तत्वं नूतजं यदि ॥ अन्यथा योगतस्तस्मान्नडुःखं योगिनां क्वचित् ॥१००॥ शब्दार्थः-जो चेतना लक्षण तत्व पृथ्वी आदि पांच महा नूतथी उत्पन्न थयेलुं जाणीये तो पठो मोह, यत्न करया विना
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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