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(१९३) मा इंदजाल चवला, विसया जीवाण विज्जुतेअसमा॥ खणदिहा खणनहा, ता तेसिं को हु पमिबंधो ॥५॥
शब्दार्थः--मायावी इंग्रजाल जेवा, चपल अने वीजलीना जबकारा समान एवा विषयो जोवोने दणमां देखाय ने अनेकएमां नाश पामे, तो तेवा विषयोमां शो प्रतिबंध करवो ? ज्य सत्तु विसं पीसान, वेआलो हुअवदोवि पजालिन ॥ तं न कुण जे कुविया, कुणंति रागाश्णो देदो ॥६॥ .
शब्दार्थ-शत्रु, विष, पिसाच, वेताल अने प्रज्वलित थयेलो अग्नि, ते सर्वे कोप्या थका पण जे दुख नथी करता; ते उःख देहने विषे रागादिक करे . ॥ ६ ॥ . जो रागाइण वसे, वसंमि सो सयलऽकलकाणं ॥ जस्स वसे रागाइ, तस्स वसे सयलसुकाइं ॥ ७ ॥
शब्दार्थः- जे जीवो रागादिकने वश्य बे, ते सर्व प्रकारनां लाखो पुःखने वंश्य अने जेना वश्यमां रागादिक ने अर्थात् जेणे रागादिकने पोताने वश्य करया बे, तेना वश्यमां सर्व प्रकारनां सुख .॥७॥ केवल दुहनिम्मविए, पमियो संसारसायरे जीवो ॥ . जं अणुहवइ किलेसो, तं आसव देनअं सत्वं ॥॥
शब्दार्थ:-श्रा जीव केवल फुःखे निपजावेला संसार स मुखमा पमीने जे क्लेशने (कुःखने) अनुजवे , ते सर्व श्रा. . श्रवनां कारण .॥ ७ ॥ दी संसारे विहिणा, महिलारूवेण मंमिश्र जालं ॥ बचंति जब मूढा, मणु तिरिया सुरा असुराना
शब्दार्थः हा इति खेदे पा संसारमा स्त्रोना रूपे करी