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________________ ( ४८ ) हवे वे गाथाथी क्षेत्रद्वार ने पर्वत संख्याद्वार कहे डे. नरदाई सत्तवासा, वियह चनचनरतिस वडियरे ॥ सोलस वरकार गिरि, दो चित्तविचित्त दोजमगा ॥ ११ ॥ शब्दार्थः - भरत विगेरे सात क्षेत्र बे, (इति ३ क्षेत्रद्वार) वैताढ्य चार वाटला ने चोत्रीश लांबा, सोल वखारा पर्वत, बे चित्र विचित्र पर्वत ने बे जमग समग पर्वत बे ॥ ११ ॥ दो सय कणय गिरीणं, चन गयदंताय तद सुमेरू य ॥ बवासदरा पिंके, एगुणसत्तरि सयाऽन्नि ॥ १२ ॥ शब्दार्थः - बसो कंचन पर्वत, चार गजदंता पर्वत तेमज एक सुमेरु ने व क्षेत्र मर्यादा धारक पर्वत ए सर्व एकठा करतां बसोने नगपोतेर थाय बे. ॥१२॥ हवे पांच गाथाथी कुट (शिखर) द्वार कहे बे. सोलस वरकारेसु, चनचन कुमाय हुंति पत्तेयं ॥ सोमणस गंधमायण, सत्तव्य रूपमदा हिमवे ॥ १३ ॥ शब्दार्थः - सोल वरकारा पर्वतने विषे दरेक नपर चार चार शिखर बे. सोमनस छाने गंधमादन ए वे गजदंता पर्वत उपर सात सात शिखर बे, अने रुपी तथा मद्दा हिमवंत ए वे पर्वत पर आ व शिखरो बे. ||१३|| चतीस विसु, विद्युप्पद निसनिलवंतेसु ॥ तह मालवंतसुरगिरि, नव नव कुमाई पत्तेयं ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-- वैताढ्य पर्वत उपर चोत्रोस, विद्युत्प्रजगजदंतो, नैषध, नीलवंत, मालवंतगजदंतो ने मेरु ए दरेक पर्वतो पर नव नव शिखरो बे ॥ १४ ॥ दिम सिहरिसु इक्कारस, इय इगसठी गिरिसु कुमाणं ॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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