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________________ ( १४० ) शब्दार्थः - श्रव्य जीव अनुभव युक्त नक्ति, जिनेश्वरनी श्राज्ञा प्रमाणे साधर्मिनी सेवा जति, संसारथी वैराग्यपणुं तेमज उत्तम पक्ष न पामे. ॥ ७ ॥ जिजायजणणिजाया, जिराज काजरकणी जुगपहाणा पायरियपयाइदसगं, परमगुणहमप्पत्तं ॥ ८ ॥ शब्दार्थ - जिनेश्वरना माता, पिता, स्त्री, जरू, जक्षणी अ न युगप्रधान पण न थाय. वली आचार्यादि दश पदनो विनय तेमज परमार्थथी अधिकपणुं न पामे. ॥ ८ ॥ प्रबंधन सरुवा, तच हिंसा तिहा जिणुदिट्ठा ॥ वे यभावेण य, दूहावि तेसिं न संपत्ता ॥ ए॥ शदार्थ - वली अजव्य जीव अनुबंध, हेतु अने स्वरूप एवी त्रण प्रकारे श्री जिनेश्वरे कहेलो हिंसा द्रव्य छाने नाव एवा बे जेदथी न पामे ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रव्यकुलम् ॥ ॥ अथ पुण्यकूलकम् ॥ संपुन्नइंदियत्तं, माणुसत्तं च यरियखित्तं ॥ जाइकुल जिधम्मो, लग्नंति पञ्जुयपुन्नेहिं ॥ १॥ शब्दार्थः - घणां पुण्यना नदयथी पांचे इंडियनुं श्रखं तपएं, मनुष्यपणं, श्रार्यक्षेत्र, जाति, कुल छाने जिनधर्म प्राप्त थाय बे. जिए चलण कमल सेवा, सुगुरुपायपज्जुपासणं चेव ॥ सजाय वायवमंतं, लग्नति पनुयपुन्नहिं ॥ २ ॥ शब्दार्थः--घणां पुण्यना नदयथ। जिनराजनां चरणकमल न सेवा, सुगुरुनां चरणन सेवा, वांचनादि पांच प्रकारनी स
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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