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________________ (१३३) बहुयां बहुयां दिवसमां, जश् मई सुहगुरु विक लोचनबे विकसी रह्यां, हीश्रम अमिश्र पश्ठ ॥१३॥ अहो ते निजिन कोहो, अहो माणो पराजि ॥ अहो ते निरकिया माया, अहो लोहो वसोको ॥ १४ ॥ अहो ते अजवं साहु, अहो ते साहु महवं ॥ अहो ते नुत्तमा खंती. अहो ते मुत्ति उत्तमा ॥ १५ ॥ इहंसि नत्तमो नंते, लाहोहिसि उत्तमो ॥ खोगुत्तमुत्तमं गणं, सिद्धि गबसि नीर ॥ १६ ॥ शायरिय नमुक्कारो, जीवं मोए नवसहस्सा ॥ जावेण कीरमाणो, हो पुणो बोहिलानाए ॥ १७ ॥ वायरिअनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासपो॥ मंगलाणं च सवेसि, तश्यं हवइ मंगलं ॥ १७ ॥ ॥ इति श्री गुरु प्रदक्षणा समाप्त ॥ ॥अथ जीवानुशास्ति कुखक ॥ रेजीव किं न बुद्यसि, चउगसंसारसायरे घोरे ॥ नमीश्रणंतकाले, अरहट्ट धमिव्व जलमले ॥१॥ रेजीव चिंतसि तुमं, निमित्तमित्तं परो हवइ तुष । असुहपरिणामजणियं, फलमेयं पुवकम्माणं ॥२॥ रेजीव कम्मचरिशं उवएसं कुणसि मृढ विवरिथं ॥ अग्गयगमणमणाणं, एसच्चिय हिय परिणामो ॥३॥ रेजीव तुमं सीस, सवणा दाऊस सुणतु महवयणं । जं सुकं न पाविसि, ता धम्मविवजिर्ड नूणं ॥४॥ रेजीव माविसायं, जाहितुमं पिछिकण पररिछी ॥ धम्मरहियाण कुत्तो, संपज विवहसंपत्तो ॥५॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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