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( २३४ ) रेजीव किं न पिछसि, ज्जितं जुव्वणं भयं जीयं ॥ तहविहु सिग्धं न कुणसि, अप्पदियं पवरजिणधम्मं ॥ ६ ॥ रेजीव माणवजिया, साहस परिहीण दीप गयलज्ज ॥ अवसि किं बीसठो, नहु धम्मे श्रयरं कुषसि ॥ ७ ॥ रेजीव मणुयजम्मं, अकयनं जुव्वणं च वोलीणं ॥ नय चिनं तवं नय लडी माणिश्रा पवरा ॥ ८ ॥ रेजीव किं न कालो, तुन गर्छ परमुदं नीयंतस्स ॥ जं विश्वं न पसं, तं असिधारावयं चरसु ॥ ए॥ इयमामु सुमरोणं, तुन सिरी जा परस्स श्राइता ॥ ता श्रयरेष गिन्हसु संगोय विद्दिपयत्तेव ॥ १० ॥ जीवं मरणेणसमं, उपकार जुव्वण सद जराए ॥ रिद्धी विषास सहिश्रा, हरिस विसाधो नय काय वो ॥१०॥
इति जोवानुशास्ति कुलक समाप्त ॥