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________________ ( १३५ ) शब्दार्थः जीव या संसाररूप वनमां ठेकाणे ठेका ध न स्वजनना समूहने त्यजी दइ श्राकाशमां पवननो पेठे श्रहश्य थयो तो मे बे. ॥ ८७ ॥ विधिजंता सयं, जम्मजरामरणतिककुंतेहिं ॥ हमणुहवंति घोरं संसारे संसरत जीच्या ॥८८॥ तहवि खपि कयावि हु, अन्नानुयंगमं किच्या जीवा संसारचारगार्ड, नयनं, विऊंति मूढमणा ॥ ८ ॥ शब्दार्थ:-- संसारमां जमता एवा जीवो जन्म, जरा खने म रणरूप तीक्ष्ण जालार्थी निरंतर विधाया बता घोर दुःखने - वे बे तो पण मूढ मनवाला छाने अज्ञानरूप जुजंगथ । मसायलाजी वो क्यारे पण निश्चे संसाररूप बंधीखानामांथी क्षणमात्र उद्वेग पामता नथी. ॥ ८८-८९ ॥ कील सि कितवेलं, सरीरवावीइ जब पइसमयं ॥ कालरदद्दघमीदिं, सोसिजर जीविनोदं ॥ ९० ॥ शब्दार्थ :- हे जीव ! तुं शरीररूपी वाव्यने विषे केटलो वखत सुधी कीमा करीश ? के, जे वाव्यमां समये समये कालरूप रहेंटनी घमीयोथी जी वितरूप पाणीनो प्रवाह सूकाइ जाय बे. रे जीव बुन मा मुन, मां पमायं करेसि रे पाव ॥ किं परलोए गुरुक जायां दोहिसि प्रयाण ॥ए॥ शब्दार्थः- खरे जीव ! तुं बोध पाम. मोह न पाम- घरे पाप ! तुं धर्ममां प्रमाद न कर अरे अज्ञान ! तुं परलोकमां मदा दुःखनो पात्र केम याय डे ? ॥ १ ॥ बुनसु रे जीव तुमं, मा मुत्रसु जिएमयंमि नाऊणं ॥ जह्मा पुणरवि एसा, सामग्गी उल्लहा जीव ॥ ९२ ॥ .
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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